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Magazine - Year 1978 - Version 2

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जागृत आत्माओं से समय दान का अनुरोध

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सूर्योदय की निकटवर्ती सम्भावना सर्वप्रथम पूर्व दिशा में प्रकट होती है। उसे ऊष्मा की लालिमा के रूप में देखा जा सकता है। प्रभात का प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता है और जो ऊष्मा को मात्र कौतूहल समझते थे-उसके आधार पर सूर्योदय की सम्भावना को स्वीकार करने में अकचका रहे थे, उनका भी सन्देह मिटता है, वे देखते हैं कि प्रकाश की आभा क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। अन्ततः वह समय आ ही पहुँचता है जब अरुणोदय की आरम्भिक किरणें धरती पर उतरती है और देखते-देखते दिनमान की प्रखरता सारे वातावरण में आभा और ऊर्जा के रूप में अपने अस्तित्व का प्रमाण देती है। तब तो अन्धों को भी वस्तुस्थिति स्वीकार करनी पड़ती है। विचारशील इससे पहले ही सम्भावना को समझ लेते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में ही अपने प्रभातकालीन कर्तृत्व का निर्वाह करने लगते हैं। दूरदर्शी इन्हें ही कहते हैं। आलसियों और अविश्वासियों की तुलना में नफे में भी वे ही रहते हैं।

युग अवतरण के पीछे महाकाल की इच्छा और प्रेरणा का अनुमान लगाने में जिन्हें असमंजस था, वे इस पुण्य प्रक्रिया को उसी प्रकार सुविस्तृत होते देख रहे हैं जैसे कि ऊषा का हलका-सा आलोक क्रमशः अधिक प्रखर होता और अरुणोदय की प्रत्यक्ष स्थिति तक जा पहुँचता है। इन दिनों ध्वंसात्मक शक्तियाँ भी जीवन-मरण की बाजी लगा कर विधातक विभीषिकाएँ उत्पन्न करने में कोई-कमी नहीं रहने दे रही हैं फिर भी आशा का केन्द्र यह है कि उसका सामना करने वाले देवत्व का शौर्य और पराक्रम भी निखरता और प्रखर होता चला जा रहा है। निराशा तभी तक रहती है जब तक पराक्रम नहीं जगता। चेतना के ऊँचे स्तर जब उभरते हैं तो न दुष्टता ठहर सकती है न भ्रष्टता। जीतता सत्य ही है असत्य नहीं। जीवन ही शाश्वत है, मरण तो उससे आँख मिचौनी खेलने भर जब तब ही आता है। सूर्य और चन्द्र का आलोक अमर है-उस पर ग्रहण तो जब-तब ही चढ़ता है। सृष्टा की इस सुन्दर कलाकृति की गरिमा शाश्वत है। विकृतियाँ तो बुलबुलों की तरह उठती और उछल-कूद का कौतुक दिखा कर अपनी लीला समेट लेती है। “यदा-यदा हि धर्मस्य” का आश्वासन देने वाला युग विकृतियों का निराकरण करने के लिए समय-समय पर सन्तुलन को सम्भालने के लिए आता रहा है। आज की विभीषिकाएँ उस उस दिव्य अवतरण की पुकार करती हैं तो आनाकानी क्यों होती? विलम्ब क्यों लगता? युग चेतना के रूप में महाकाल का अवतरण प्रक्रिया का परिचय हम सब इन्हीं दिनों प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर रहे हैं।

जागृत आत्माओं को युग की चुनौती को स्वीकार करने के लिए इन दिनों जो उत्साह उमड़ा है चह देखते ही बनता है। मूर्छितों और अर्धमृतकों को छोड़कर महाकाल की हुँकार ने हर प्राणवान को युग धर्म का पालन करने की युग साधना में संलग्न होने की प्रेरणा दी है। फलतः युग सृजन में योगदान देने के लिए हर समर्थ-असमर्थ के चरण बढ़ रहे हैं। इस वास्तविकता का प्रमाण गिद्धों और गिलहरियों के उत्साह को देखने से भी मिल जाता है। हनुमान, अंगदों का नल और नील का पराक्रम तो सहज स्वाभाविक ही है।

युग निर्माण अभियान के पीछे जो दिव्य प्रेरणा सक्रिय है उसे कठपुतली नचाने वाले बाजीगर के समतुल्य देखा जा सकता है। इस छोटे से परिवार पर उसका विशेष अनुग्रह लगता है। अग्रिम पंक्ति में खड़ा होने का अवसर भी भाग्यवानों को ही मिलता है। हम लोग उन्हीं सौभाग्यशालियों में है जिन्हें महाकाल, से युग सृजन के इस पुण्य पर्व पर ध्वजाधारी, बिगुल वादक-अग्रदूतों की भूमिका निभाने का श्रेय मिल रहा है।

पुनर्गठन वर्ष के उद्बोधन ने शिथिलता को सक्रियता में बदल दिया है। निराशा और निष्क्रियता उत्पन्न करने वाली कृपणता जब अन्तराल में से हटाने लगी तो स्वभावतः पराक्रम की ऊर्जा उभरनी ही थी और उसका प्रमाण उमंग भरी क्रियाशीलता में मिलना ही था। युग निर्माण परिवार में गत वर्ष जो जागरूकता उत्पन्न हुई और उसके सहारे जो रचनात्मक प्रयास बन पड़े सृजन की दिशा में कदम बढ़े, उसे देखते हुए वस्तुस्थिति और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है। पुनर्गठन को पुनर्जीवन वर्ष कहा जा रहा है। इस कथन में यथार्थता भी है।

जागृत आत्माओं के सृजन संकल्पों में अधिक प्रखरता भर देने के लिए यह रजत जयन्ती वर्ष नई प्रेरणाएँ, नई उमंगे साथ लेकर आया है। मिशन ने इस वर्ष जिन कार्यक्रमों को हाथ में लिया है उन्हें सरसरी निगाह से पढ़कर उपेक्षित कर दिया जाय तो बात दूसरी है अन्यथा थोड़ी गम्भीरतापूर्वक देखा जाय तो उन्हें अपने समय के सृजनात्मक पर्यवेक्षण की दृष्टि से अद्भुत ही कहा जायगा और उन्हें हाथ में लिया जाना दुस्साहस ही माना जायगा। मनुष्य की तनिक-सी क्षमता अभावग्रस्त परिस्थितियों के रहते इतनी कल्पना तक नहीं कर सकती जितनी कि अनपेक्षित प्रगति अनायास ही होती चली जा रही है। अनायास ही ऐसे सरंजाम खड़े होते और ऐसे साधन जुटते जा रहे हैं जिन्हें देखते हुए इन योजनाओं की कल्पना नहीं, सम्भावना नहीं, यथार्थता मानने के लिए विवश होना पड़ता है।

रजत जयन्ती वर्ष के जो कार्य हाथ में लिए गये हैं, वे यदि सफल होते हैं तो उनके परिणाम दूरगामी होंगे, प्रव्रज्या अभियान का स्वरूप ही समझा न जा सके तो बात दूसरी है, अन्यथा उसके पीछे बुद्धकालीन धर्मचक्र प्रवर्तन अभियान को झाँकते देखा जा सकता है। चीवरधारी भिक्षुओं की परिव्राजक दीक्षा उन दिनों भी आश्चर्यजनक लगी होगी। उस मार्ग पर कदम बढ़ाने वालों को तथाकथित स्वजनों का विरोध उन दिनों भी सहना पड़ा था और आज भी सहना पड़ रहा है। इतिहास साक्षी है कि विश्व के कोने-कोने में नव-जागरण का शंख बजाने वाले परिव्राजकों में भूखे, नंगे, बेकार निठल्ले लोग थे। आज भी जीवन दानियों का, आत्माहुतियों का स्तर देखने से प्रतीत होगा कि निम्न वर्ग के ही उच्चस्तरीय वर्ग के लोग ही अपने आपको युग देवता के चरणों पर समर्पित करने के लिए बढ़ते चले आ रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। परिव्राजकों की सृजन सेना जितनी बड़ी होगी उज्ज्वल भविष्य के सपने उतने ही जल्दी साकार हो सकेंगे। गाँव-गाँव जाकर घर-घर से सम्पर्क साधना और जन-सम्पर्क के सहारे नव युग का सन्देश पहुँचाना यही है अपने युग की तीर्थ परम्परा का सामयिक निर्वाह उसके लिए सुनियोजित और सुविस्तृत योजना बनाई गई है। यह क्रम चला तो आरम्भ से ही है, पर इस रजत जयन्ती वर्ष से उसे सुव्यवस्थित रूप दिया जा रहा है। परिव्राजकों के प्रशिक्षण, निर्वाह, मार्ग व्यय आदि का नया प्रबन्ध किया जा रहा है। इसका शुभारम्भ इसी सितम्बर के सत्र से आरम्भ होगा।

‘समय दान’ रजत जयन्ती वर्ष की एकमात्र माँग है। जीवित आत्माओं से यही अनुरोध किया गया है कि वे अपने व्यस्त कार्यों में से भी समय निकालें और जितना अधिक सम्भव हो उतना इस वर्ष साहसिक अनुदान प्रस्तुत करें। छप्पर को छत तक पहुँचाने के लिए एक बार तो सारे मुहल्ले की जन-शक्ति को बुलाना पड़ता है। रजत जयन्ती वर्ष को छप्पर उठाने जैसी युग पुकार का आह्वान माना जाय और सांसारिक कार्यों में हर्ज करके भी इस युग निमन्त्रण की पूर्ति के लिए जितना सम्भव हो सके समय का अनुदान प्रस्तुत किया जाय। प्रसन्नता की बात है कि इस आह्वान का जागृत आत्माओं ने भाव भरा उत्साहवर्धक उत्तर दिया है। समय दानियों का इतना बड़ा समुदाय सामने है जिस पर संतोष ही नहीं गर्व भी किया जा सकता है।

जो अपने घर रहकर ही अधिक समय दान देंगे उन्हें सितम्बर सत्र में शान्ति कुंज नहीं बुलाया गया है। उनका मार्गदर्शन पत्रिकाओं के द्वारा घर बैठे ही किया जाता रहेगा और बताया जायगा कि जो समय दिया गया है उसका उपयोग कब, किस काम के लिए किस प्रकार करना चाहिए। उदाहरण के लिए अगले दो महीने के लिए दो कार्य इन समय दानियों को सौंपे गये हैं।

(1) युग शक्ति गायत्री पत्रिका के नये सदस्य बनाने के लिए टोली बनाकर निकलें। नये लोगों को पढ़ने दें, वापिस लें और जब उन्हें रस आने लगे तो चन्दा वसूल करके ग्राहक बना लें। इस अभियान में सभी समय दानी यदि सच्चे मन से जुट पड़े तो वर्तमान प्रभाव क्षेत्र का चौगुना, दस गुना बढ़ जाना सहज सम्भव है। प्रवाह क्षेत्र के बढ़ जाने पर उत्पन्न होने वालों सुखद सम्भावनाएँ अभी से पुलकन उत्पन्न करती हैं।

(2) अश्विन नवरात्रि में 9 दिन का साधना सत्र पूरे उत्साह के साथ मनाने की तैयारी अभी से की जाय। गत बसन्त पर्व, गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा एवं चैत्र नवरात्रि के आयोजनों में जिनने भी भाग लिया हो उन सबसे इन्हीं दिनों सम्पर्क साधा जाय। उन्हें नवरात्रि साधना में सम्मिलित रहने और अपने साथ एक दो नये साधक तैयार करने के लिए कहा जाय। यह प्रयास अभी से आरम्भ करने, आयोजन का स्थान निश्चित करने, साधन जुटाने, सहयोग पाने का काम अभी से प्रारम्भ किया जायगा तो ही रजत जयन्ती वर्ष की प्रथम नवरात्रि शानदार ढंग से मनाई जा सकेगी। इन दो सामयिक कार्यों में अतिरिक्त ज्ञान रथों की सुव्यवस्था, जन्म दिवसोत्सवों का प्रचलन, टोली संगठन, प्रज्ञा मन्दिरों का संस्थापन, पाँच पर्व आयोजनों का सुसंचालन जैसे गत वर्ष के निर्धारित कार्यक्रमों को अधिक उत्साह के साथ सम्पन्न करने में निरत रहा जाय। यह कार्यक्रम उन लोगों के लिए है जो अपने घर रहकर ही समय दान देंगे।

जो लोग घर से बाहर जाने की स्थिति में है, उनके लिए वे विशिष्ठ कार्यक्रम है जिनकी चर्चा पिछले अंक में इसी स्तम्भ के अन्तर्गत की गई है। परिव्राजक अभियान इन कार्यक्रमों में सर्वप्रथम है। अपने शाखा संगठनों में नवजीवन फूँकने, सक्रियता उत्पन्न करने एवं प्रशिक्षण देने का कार्य यह परिव्राजक ही करेंगे। आवश्यकता के अनुरूप एक स्थान पर ठहरेंगे और फिर आगे बढ़ चलेंगे।

इन परिव्राजकों का प्रथम प्रशिक्षण सब इसी सितम्बर में करने की बात गत अंक में छपी है। एक महीना समय इसके लिए अधिक नहीं था, पर उस सूचना के प्रकाशित होते ही इच्छुकों की संख्या अपेक्षा से बहुत अधिक हो गई। फलतः स्थिति के देखते हुए समय सम्बन्धी परिवर्तन फिर करना पड़ा। अब सितम्बर में एक नहीं दो सत्र पन्द्रह-पन्द्रह दिन के होंगे। प्रथम सत्र 1 से 15 तक और दूसरा 16 से 30 तक। उनमें दो आवेदन कर्ता अपनी सुविधानुसार किसी में भी आ सकेंगे। उनकी स्थिति, योग्यता को देखते हुए काम सौंपने और उपयुक्त प्रशिक्षण देने की बात इन्हीं दो शिविरों में बन सकेगी। व्यक्तिगत परिस्थितियों और उलझनों के सम्बन्ध में भी वह परामर्श आमने-सामने बैठकर ही हो सकता है, जिसे पत्र व्यवहार द्वारा हल कर सकना संभव नहीं है। अनेक प्रश्न ऐसे होते हैं जो पारस्परिक विचार विनिमय के बिना सुलझते ही नहीं। समय दानियों की आकांक्षा और परिस्थिति का तालमेल किसी प्रकार बैठ सकता है, इस निर्णय पर इन शिविरों में ही पहुँच सकना सम्भव हो सकेगा। इस दिशा में बढ़ने वालों की भावी रूपरेखा का निर्धारण इन्हीं सत्रों में बन पड़ेगा।

परिव्रज्या अभियान के अतिरिक्त कुछ कार्य ऐसे भी हैं जो शान्तिकुंज रहकर भी किये जा सकेंगे। इनके लिए विशिष्ठ योग्यताओं के व्यक्ति ही अपेक्षित हैं यथा-

(1) इस वर्ष शान्ति कुँज के कन्या प्रशिक्षण में मैट्रिक, इण्टर एव बी.ए. की पढ़ाई प्रारम्भ कर दी गई है। कोचिंग क्लास चलाई और प्राइवेट फार्म भराकर उपरोक्त परीक्षाएँ दिलाई जायेंगी। अगले वर्ष से एम.ए. की पढ़ाई के लिए रिटायर अध्यापिकाओं की आवश्यकता है। सामयिक आवश्यकता पूर्ति के लिए रिटायर अध्यापकों से भी काम चल सकता है।

(2) जीवन दानी कार्यकर्त्ताओं की स्त्रियों एवं बच्चों को भी इसी प्रकार पढ़ाया जायेगा। उनकी पढ़ाई गायत्री नगर में चलेगी। इसके लिए भी उपरोक्त स्तर की शिक्षिकाओं एवं शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी।

(3) विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय का शोध कार्य चिरकाल से चल रहा है और उसी के निष्कर्ष प्रतिपादन में अखण्ड-ज्योति में लेख छपते हैं। अब तक यह कार्य एक व्यक्ति के अध्यवसाय के आधार पर ही चलता रहा है। अब इस खोज का क्षेत्र बढ़ाया जा रहा है। ढूंढ़ खोज में अंग्रेजी ग्रन्थ ही अधिक रहते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययनशील रुचि के व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी, जिनको अंग्रेजी पढ़ने और समझने का अच्छा अभ्यास हो, जिनका विज्ञान क्षेत्र से सम्पर्क रहा हो।

(4) अब मिशन का कार्य क्षेत्र हिन्दी तक सीमित न रखकर देश को प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं तक फैलाया जा रहा है। जो भाषाएँ अभी हाथ में नहीं ली जा सकीं, शीघ्र ही उनके क्षेत्र में भी प्रवेश किया जाएगा। अभी युग शक्ति गायत्री के संस्करण 10 भाषाओं में छपने का प्रबन्ध किया गया है। हिन्दी, गुजराती, मराठी, उड़िया में प्रकाशन पहले से ही हो रहा था। अब इन्हीं दिनों अँग्रेजी, बंगाली, पंजाबी में और होने लगा है। निकट भविष्य में आसामी, तमिल, तेलगू में और होने लगेगा। अगले दिनों मिशन की अन्य पत्रिकाएँ भी अन्य भाषाओं में छपने लगेंगी। इसी प्रकार युग साहित्य को भी इन सब भाषाओं में प्रकाशित करने की योजना है। इसके लिए ऐसे अन्य भाषा-भाषी अनुवाद कर्ताओं की आवश्यकता आ पड़ेगी जो हिन्दी से अपनी मातृ भाषा में अच्छा, साहित्यिक अनुवाद कर सकें।

(5) गायत्री नगर का निर्माण कार्य अगले दिनों तेजी से चलेगा। इसके लिए इंजीनियर, ओवरसीयर, ठेकेदार, सुपरवाइजर स्तर के कामों के अभ्यासी-पेड़, पौधे लगाने की विद्या के जानकार लोगों की आवश्यकता पड़ेगी। ताकि रूप से सम्पन्न हो सकें।

यह पाँच वर्ग के व्यक्ति शान्तिकुँज में रहकर ही काम करेंगे। उन्हें बाहर जाने की आमतौर से आवश्यकता न पड़ेगी, पर विशेष आवश्यकता के समय किसी को भी सेना के सिपाहियों की तरह बाहर कार्य क्षेत्र में भेजा जा सकता है। आवश्यक नहीं कि उपरोक्त कार्यकर्ता सदा सर्वदा के लिए जीवनदानियों की तरह ही रहें, वे सुविधानुसार थोड़े-थोड़े समय के लिए भी आते रह सकते हैं।

परिव्राजकों एवं अन्यान्य लोकसेवियों के आह्वान के साथ-साथ उनके निर्वाह आदि की नीति पहले से ही घोषित की जाती रही है उसे इस बार नये सिरे से फिर समझ लेना चाहिए। जिनके ऊपर बड़ी गृहस्थी के लिए धन उपार्जन का उत्तरदायित्व है उन्हें नहीं बुलाया जा रहा है। वे यथा सम्भव समय सुविधानुसार देते रहें, उतना ही पर्याप्त है। जो बुलाये जा रह हैं उनमें भी प्राथमिकता उन्हें दी जा रही है जो अपनी संचित पूँजी एवं उत्तराधिकार सम्पदा से उपलब्ध होने वाले ब्याज-भाड़े से अपना गुजारा कर सकें। इसके बाद उनका नम्बर है जो अधिकांश निर्वाह व्यय स्वयं वहन करने की स्थिति में है। जो थोड़ा बहुत कम पड़ता होगा उसे मिशन पूरा कर देगा। इसके बाद उनका नम्बर है जिनकी छोटी गृहस्थी है। एकाकी या पति-पत्नी मात्र हैं। बहुत हुआ तो एकाध बच्चा भी साथ हो सकता है। ऐसे लोगों के पास यदि अपने साधन नहीं है तो उनके भोजन, वस्त्र जैसी यहाँ की परम्परा के अनुरूप व्यवस्था की जा सकती है।

जिनके पास अपनी निज के गुजारे की व्यवस्था तो है, पर यहाँ वेतन लेकर काम करना चाहते हैं उनमें से किसी को भी नहीं आने दिया जायगा। भोजन, वस्त्र जैसी निर्वाह व्यवस्था यहाँ से भी जुटाई तो जाती है, पर इससे पहले यह जाँच लिया जाता है कि अपनी निजी आजीविका सुरक्षित रखने और मिशन से निर्वाह प्राप्त करने के वेतन भोगी जैसी मनःस्थिति तो नहीं है। यहाँ कर्मचारी ही नहीं कार्यकर्ता ही रहेंगे।

कर्मचारी अपनी योग्यता का प्रतिफल माँगता है और कार्यकर्ता को अपने निजी साधनों को काटकर जो ब्राह्मणोचित आवश्यकता पड़ती है उसी में सन्तुष्ट रहना पड़ता है। शान्तिकुँज में निवास करने अथवा परिव्राजक स्तर की प्रक्रिया अपनाने वाले दोनों ही प्रकार के कार्यकर्ताओं को अर्थ-व्यवस्था सम्बन्धी मिशन को उपरोक्त नीति को ध्यान में रखकर ही आगे कदम बढ़ाने की योजना बनानी चाहिए।

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