
उपासना सफल तो जीवन भी सफल
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अच्छे और बुरे कार्यों का स्पष्ट प्रभाव आत्मविश्वास आत्मगौरव, आत्मबल बढ़ाने अथवा गिराने के रूप में होता है। अच्छे कार्य करने के बाद व्यक्ति अपने मन में एक आत्मसन्तोष की अनुभूति करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति या सत्ता उसे धन्य करते हुए उसकी पीठ थपथपा रहीं है इसी के परिणाम स्वरूप वह अपनी दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है। उसे अपना मूल्य और वर्चस बढ़ गया प्रतीत होता है। इसके विपरीत बुरे कार्य व्यक्ति में भय, क्षुद्रता, पतन तथा प्रताड़ना की भावनाओं को जन्म देते हैं। ये भावनायें व्यक्ति में किन्हीं बाहरी कारणों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि उसकी अपनी चेतना ही उसे डराती है, क्षुद्र बनाती है, पतित सिद्ध करती है और प्रताड़ना देती है।
इसी आधार पर कहा जाता है कि अच्छे कार्य व्यक्ति में धनात्मक शक्ति पैदा करते हैं, जैसे इसके व्यक्तित्व में कोई शक्ति आकर जुड़ गयी है। इसीलिए सभी सत्कर्मों, सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं को प्रार्थना उपासना के स्तर का कहा गया है, प्रार्थना या उपासना का अर्थ केवल ईश्वर के समीप बैठने की अनुभूति करते हुए कुछ क्षणों तक नाम विशेष का जप या स्तवन पाठ ही नहीं है। वे सभी अच्छे कार्य जो आत्मसन्तोष, धन्यता का बोध और आत्मगौरव बढ़ाते हैं, इसी वर्ग में आ जाते है। उपासना या प्रार्थना को इन कार्यों को बीज कहा जा सकता है।
महर्षि अरविंद ने कहा है-सारा जीवन ही योग है। उस योग का शुभारम्भ-बीच वपन प्रार्थना या ध्यान से होता है। कोई पुस्तक पढ़ने से पहले उसके पृष्ठ उलटना पड़ते है। ध्यान या उपासना पृष्ठ उलटने की क्रिया कहीं जा सकती है, जिससे पढ़ने का शुभारम्भ होता है। उन क्षणों में जब व्यक्ति उपासना करता है तो नये अध्याय का पहला पृष्ठ उलटता है और उसे पढ़ता जाता है।
व्यापारी बैंक में जाकर रुपया निकालते है। न पास में रुपया हो तो बैंक उधार भी देता है। उपासना बैंक से धन बैंक से धन निकालने की प्रक्रिया के समान है। उस समय प्राप्त राशि का उपयोग जीवन व्यवसाय चलाने के लिए किया जाता है। लेकिन बहुत से व्यक्ति ठीक से उपासना करना ही नहीं जानते, अधिकाँश लोगों को प्रार्थना का रहस्य ही मालूम नहीं होता। परिणाम स्वरूप वे उपासना के बाद भी कोई संवेदना या शक्ति का उठान अनुभव नहीं करते।
उपासना को ईश्वर और जीव के, परमात्मा और आत्मा के सम्बन्ध जोड़ने वाली प्रक्रिया कहा गया है। वह ठीक से सम्पन्न हो इसके लिए आवश्यक है कि चित्त स्थिर रहे। भगवान कृष्ण ने भी कहा है-
मनः संयम्य भाच्चित्तो युक्तः आसीत मत्परः।
अर्थात्-मन को वंश में करके मेरे में चित्त को लगाना और मत्परायण होना चाहिए। उपासना या ध्यान की इसी स्थिति में आत्मा परमात्मा की सिद्धि प्राप्त करता है। अगले ही श्लोक में कहा गया है-
यञजन्नेव सदात्मान योगी नियत मानसः।
शान्ति निर्वाण परमाँ मत्संस्था मधि गच्द्धति॥
“इस प्रकार आत्मा का निरन्तर परमेश्वर के स्वरूप में लगा हुआ स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थिति रूप परमानन्द पराकाष्ठा वाली शान्ति को प्राप्त होता है।
जीव और ब्रह्म अंश तथा अंशी होने के कारण स्वभावतः तो एक ही है परन्तु अज्ञान कहें अथवा माया दोनों के बीच एक ऐसी दीवार पड़ी हुई है जो दोनों को सम्बन्धित रखते हुए असम्बद्ध करती है। ध्यान योग की साधना अथवा उपासना उस विभेद को दूर करने के लिए ही की जाती है। चित्त की एकाग्रता के महत्व को समझाते हुए आचार्य बिनोवा भावे ने लिखा है कि-”उपासना ही क्यों जीवन व्यवहार के किसी भी क्षेत्र में चित्त की एकाग्रता अत्यन्त आवश्यक है। व्यवहार ही .... परमार्थ चित्त की एकाग्रता के बिना उसमें सफलता मिलना कठिन ही है।
यह ठीक भी है व्यापार, अध्ययन, राजनीति, समाज सेवा किसी भी क्षेत्र में सफलता का वरण तभी होता है जबकि मनुष्य अपनी संपूर्ण शक्ति से उसे दिशा में प्रयास करे। लेकिन चित्त को स्वभावतः ही चंचल प्रकृत का कहा गया है। उसे किसी एक बिन्दु पर एकाग्र करना बड़ा कठिन कार्य है। शास्त्रकारों ने इसके लिए अभ्यास और वैराग्य दो उपाय बताते है। अभ्यास का अर्थ है स्थिति के लिए बार-बार प्रयत्न और वैराग्य का अर्थ उन व्यवधानों का निवारण जो चित्त और वैराग्य का अर्थ उन व्यवधानों का निवारण जो चित्त की एकाग्रता में बाधक बनते हैं। उन उपायों को व्यवहार में लाने से पूर्व यह समझ लेना और विचार कर लेना चाहिए कि चित्त की एकाग्रता क्यों आवश्यक है? सामान्यतः किसी भी कार्य का महत्व समझ लेने, उपयोगिता अनुभव कर लेने के बाद उसे कर पाना अधिक पुष्कर नहीं रह जाता।
मनोविज्ञान की अधुनातम शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि सद्विचारों, सद्भावनाओं और सत्कर्मों में लगे, व्यक्ति दुष्कर्मों तथा बुरे विचारों में प्रवृत्त व्यक्ति की अपेक्षा शान्त और स्थिर रहते हैं। भारतीय दर्शन की तो यह मान्यता है कि ध्यान के साथ विवेक शुद्धि के प्रयास भी अनिवार्य रूप से जुड़े होने चाहिए। जिस व्यक्ति का विवेक निर्मल, विचारणायें उत्कृष्ट हों वह अपनी चित्तवृत्तियों को आसानी से नियन्त्रित कर सकता है। अच्छे कार्य, सदुद्देश्य और सदाशयता से प्रेरित होकर किये गये कार्य साधारण जीवन क्रम में भी एकादता की साधना संपन्न करते रहते है। व्यवहार शोधन और सद्विचारों के बाद अभ्यास से जब चित्त स्थिर हो जाता है तो व्यक्ति सभी प्रकार की मानसिक दुश्चिंताओं पीड़ाओं आदि पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है।
प्रार्थना एकाग्रता पूर्वक की जानी चाहिए यह कहने की अपेक्षा यह कहना कहीं अधिक संगतिपूर्ण होगा कि एकाग्रता का नाम ही प्रार्थना है। फिर तो चित्त को जिस दिशा में भी लगा दिया जाये सफलता ही सफलता है एकाग्र चित्त होकर की गयी प्रार्थना उपासना के निकला लाभ बताये गये है। प्रत्यक्षतः लाभ दृष्टिगोचर होते हैं उसमें प्रमुख है बुद्धि की तीक्ष्णता और उसका परिष्कार तथा हर कार्य को सही ढंग से करने की शक्ति। यही नहीं उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति जिन आध्यात्मिक गुणों का विकास करता है उससे एक अनिवर्चनीय आनंद प्राप्त होता है।
आचरण की पवित्रता और विचारों पर नियंत्रण पूर्वक एकाग्रता की सिद्धि के लिए मनोवैज्ञानिकों ने तीन उपाय बताये हैं-आकाँक्षाओं का परिष्कार, क्रिया कलापों की पवित्रता तथा शक्ति का संचय अथवा जीवन की परिमितता। सर्वप्रथम आकाँक्षाओं के परिष्कार को ही लें,
विचार आकाँक्षाओं की ही तरंगें हैं। मन मस्तिष्क में जिस प्रकार की इच्छायें उठती हैं विचारों का अधड़ भी उसी ओर दौड़ने लगता है। विचारों का इच्छाओं से वही सम्बन्ध हो जो इलेक्ट्रानों का परमाणुओं से। इलेक्ट्रान परमाणु नाभिकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं उसी प्रकार विचार इच्छाओं के इर्द−गिर्द चक्कर काटते रहते हैं। उदाहरण के लिए मन में इच्छा उठी कि कोई वस्तु खरीदी जाये। वह वस्तु क्रय करने की सामर्थ्य अपने पास नहीं है। अब मस्तिष्क के विचार उस वस्तु को प्राप्त करने के उपायों को सोचने में ही व्यस्त हो जायेगा और दिन−रात उसे प्राप्त करने के तरीके खोजने लगेगा।
विचारों की इस दौड़ को नियंत्रित करने के लिए शास्त्रकारों ने उपलब्ध में ही मोद मनाने का निर्देश दिया है। सन्तोष के लिए अपने से निम्नस्थिति वालों को देखने एक व्यावहारिक कदम है। उदाहरण के लिए पाँच सौ रुपये कमाने वाला व्यक्ति यदि एक हजार रुपये कमाने वाले से अपनी तुलना करता है तो उसे अपनी स्थिति से असन्तोष तज्जनित क्षोभ और उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए जोड़-तोड़ बिठाने में ही सारी मस्तिष्कीय क्षमता खपाना पड़ेगी। इसके विपरीत यदि 500 रुपये कमाने वाला अपनी तुलना 200 रुपये कमाने वाले से करे तो वह अपेक्षाकृत अधिक सन्तोष, शान्ति और परिणाम स्वरूप स्थिरता के प्राप्त कर सकेगा।
पहली तुलना इच्छाओं के बीच लिये होती है और उन्हें पैदा करने में उत्प्रेरक का कार्य भी करती है जबकि दूसरी तुलना इच्छाओं पर नियन्त्रण करने में सहायक होती है। विचारों पर नियंत्रण और चित्त की एकाग्रता साधने वाला व्यक्ति संतोष की भावना को अपना लक्ष्य बनाले तो यह लक्ष्य विचारों पर नियन्त्रण करने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकता है। स्मरण रखना चाहिए कि सन्तोष की यह भावना भौतिक क्षेत्र की अपेक्षा चित्त में आना चाहिए भौतिक क्षेत्र में सन्तोष का ढोंग किया जाये और चित्त में असन्तोष ही भरा रहे तो कुछ भी सिद्ध नहीं होगा। इस तथ्य को यों भी समझा जा सकता है कि प्रगति के तमाम अवसरों क उपयोग करते हुए व्यक्ति के चित्त में वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम हो जाये। गीताकार ने इसी स्थिति को इस शब्दों में व्यक्त किया है-”सुख दुःख में कृत्वा लाभालाभौ जया-ज्यों”-सुख दुःख हानि लाभ और जय पराजय से चित्त के अप्रभावित रखा जाये तो उनके कारण उत्पन्न होने वाले विचारों की विश्रृंखलता तथा चंचल, आशक्ति और तरंगित मनःस्थिति से बचा जा सकता है।
संतुलित मनःस्थिति के लिए सन्तोष के भाव का वरण चित्त के प्रत्यक्ष रूप से एकाग्र करने में सहायक होता है। उसी प्रकार छोटे-बड़े प्रत्येक कार्य को सही-सही ढंग से करने का अभ्यास मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार से चित्त की एकाग्रता सिद्ध करता है। एक त्व चिंतक ने जीवन की परिमितता और नियमन की चित्त की एकाग्रता में सहायक बताते हुए लिखा है-औषध जैसे नाप तौल कर ली जाती है, वैसे ही आहार निद्रा भी नपी-तुली होनी चाहिए। सब जगह, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समय नियमन रहे तो एकाग्रता का दूसरा पहलू सध जाता है। चित्त के प्रत्येक कार्य मन और शरीर क्षेत्र में उपजते तथा फूलते-फलते हैं। सन्तोष की भावना द्वारा विचारों की असत व्यस्तता के निवारण और जीवन व्यापार के संयम द्वारा शरीर का संयम संतुलन सही हैं दो उपाय जिनके द्वारा चिन्तन और विचार को एक दिशा में नियोजित किया जा सकता है।
मन में असन्तोष, शरीर के क्रिया कलापों में अमर्यादा का निवारण करने के बाद भावना क्षेत्र में सन्तुलन साधकर प्रार्थना या ध्यान को संपूर्ण रूप से प्रभावशाली बनाया जा सकता है। भावनाओं में विकृति का मुख्य कारण है-भय। वह भय दूसरों से नुकसान पहुंचाने का भी हो सकता है और परिस्थितियों का भी।
यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि समस्त दुर्भावनायें भय के कारण ही होती है। किसी से द्वेष भी होता है तो केवल इसलिए कि अचेतन मन में उस व्यक्ति से हानि पहुँचने का भय रहता है। दूसरों से ईर्ष्या द्वेष होता है तो इसलिए कि उसे अपने अहं पर चोट पहुँचाने का डर रहता है। इसलिए सब प्रकार के भयो से मुक्त होने का उपाय शुभ दृष्टि बताते हुए कवि ब्राउनंग ने लिखा है-ईश्वर आकाश में विराजमान है इसलिए सारा विश्व ठीक ही चल रहा है।
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी संसार भी हमें वैसा ही दिखाई देगा। यदि हमारे मन में इस बात का निश्चय हो जाये कि यह सृष्टि शुभ है, सर्वत्र मंगल ही मंगल दिखाई देने लगे तो चित्त में अपने आप शान्ति आ जायेगी।
इच्छाओं के तल पर सन्तोष का भाव, कार्यों के तल पर उन्हें सन्तुलित और संपूर्ण रूप में करने की रीति नीति तथा भावनाओं के तल पर सभी स्थितियों में मंगल्य का दशन-यही है वह सूत्र जिनके आधार पर चित्त एकाग्र किया जा सकता है। यह एकाग्रता प्रार्थना, ध्यान और उपासना को चमत्कारी बनाने के साथ जीवन व्यापार के समग्र क्षेत्रों में भी सफलता प्रदान करती है।
एकाग्रता की शक्ति का विवेचन यहाँ अभिष्ट नहीं है फिर भी इतना तो मानना ही चाहिए कि अनन्य और सर्वभाव से किया गया ईश चिन्तन उपासना को प्रभावशाली और फलवती बनाता है तथा एकाग्रता और तन्मयता से किये गये कार्य ही सफलता तक पहुँचाते है। उनसे उत्पन्न हुई धनात्मक शक्ति व्यक्ति की बढ़ा यह है आत्मविश्वास, आत्मगौरव और आत्मबल को बढ़ाती है जीवन के सभी क्षेत्रों में साधी गई एकाग्रता ईश्वर प्राप्ति की साधना को भी प्रखरतम बनाती है तथा व्यक्ति का स्तर दिनों-दिन उच्च से उच्चतर और उच्चतम की और बढ़ता है।