
ईश्वर हमें दीखता क्यों नहीं
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ईश्वर यदि है तो प्रत्यक्ष क्यों नहीं दीखता? यह तर्क लोग करते रहें हैं। विकसित बुद्धि के व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व के विषय में यदि शंकालु हुए भी, तो उनकी वह शंका इतनी स्थूल नहीं होती है कि पर्याप्त खोज-बीन कि बिना निष्कर्ष निकाल लिए जाये। विज्ञान की अधुनातन खोजों ने तो विकसित-मस्तिष्क और अद्यतन जानकारी वाले लोगों को अद्वैत सत्ता के प्रति नये सिरे से आस्थावान बना डाला है। यह स्वाभाविक भी है।
वस्तुतः नास्तिकता एक प्रकार की मानसिक अक्षमता मात्र है। जो अपनी हीनता ढ़कने के लिए मानसिक प्रखरता का अभिनय रचती है। ऊपरी तौर पर नास्तिक बड़ा तर्कयुक्त दीखता है, लगता है कि वह अपने पैने विचारों से सत्य को छानना और पहचानना चाहता है। परन्तु इस पैनेपन की पीछे प्रायः दुर्बलताजन्य पूर्वाग्रह छिपा रहता है।
पैनी बुद्धि से विचार करें तो ईश्वर के न दिखाई पड़ने से उसके अस्तित्व पर ही शंका करने का कोई भी कारण सही नहीं सिद्ध हो पाता। ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो पाना, व्यक्ति की सीमाएँ ही स्पष्ट करता है न कि ईश्वर का अनस्तित्व।
अनेक वस्तुएं हम से दूर होती हैं वे हमें तब तक दिखाई नहीं पड़ती, जब तक हम उनके इतने पास न पहुँच जाएँ कि हमारी दृष्टि-सामर्थ्य के क्षेत्र के भीतर हो जाये। दूरी के कारण वस्तुओं का न दिखाई पड़ना ही उनका न दिखाई पड़ना ही उनका न होना नहीं सूचित करता। वे हैं तो, किन्तु हम उनसे दूर हैं, बस इतना ही पता चलता है। हमारे संवेदन और ज्ञान का स्त्रोत मस्तिष्क है। वह मस्तिष्क ईश्वरीय सत्ता से विलग, विपरीत और दूर-दूर ही भटकता रहे, सामान्य साँसारिक विषयों तथा प्रयासों में ही उलझा रहे, तो ईश्वरानुभूति किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।
ईश्वर से यह दूरी मनुष्य स्वयं बढ़ा लेता हैं अपनी हलचलों का क्षेत्र वह ऐसी ही वस्तुओं एवं इच्छाओं को पाने, पूरा करने वाला बनाये रहता हैं जो ईश्वरीय चेतना की अनुभूति से उसे दूर ठेले रहती है। यद्यपि वह परम सत्ता है हमारे अति निकट। तथापि यह अति समीपता भी ईश्वरानुभूति में सहायक नहीं, बाधक ही बन बैठती है। आँखों में देखने की शक्ति है लेकिन आँखों में लगा सुरमा वे स्वयं तभी देख पाती हैं, जब दर्पण में प्रतिबिंब देखा जाय। ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति भी सामान्य व्यक्तियों को प्रायः तभी हो पाती है, जब वे कहीं उसका प्रतिबिंब देखते है। अंतःस्थल सत्ता का बहिर्मुखी मन को सामान्यतः अनुभव नहीं हो पाता। यद्यपि वह न केवल है, अपितु अत्यंत समीप है।
अति सामीप्य ही नहीं सादृश्य की अनुभूति में बाधक बनता है। समुद्र में वर्षा का पानी नद-नदियों का जल मिलता है, वहाँ उनका पृथक अस्तित्व नहीं दिखाई पड़ता। बाहर भिन्न गुण धर्मी वस्तुओं के बीच तो उनका अस्तित्व देख जा सकता है बादलों से वायुमंडल से होकर आता पानी और पहाड़ों-मैदानों के बीच दौड़ते नदी-नद तो अलग ही दिखाई पड़ते हैं, पर समुद्र के भीतर उन्हें अलग से ढूँढ़ बता पाना सम्भव नहीं रह जाता। चेतना समुद्र की बूंदें समुद्र की अलग से अनुभूति सरलता से कैसे कर पाये? यह अति दुष्कर कार्य है। मनुष्य की अनुभूतियाँ इसी परमचेतना के प्रकाश की उपस्थिति में संभव होती है। वह चेतना-अंश प्रकृति के विभिन्न रूपों की, उनकी हलचलों को समझने की क्षमता देता है। किन्तु चेतना के अनन्त समुद्र को देख-समझ पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। गंगा के प्रवाह में एक बोतल दबा, मदिरा या एक लोटा दूध, डाल देने के बाद फिर उसे अलग नहीं देखा पहचाना जा सकता। चेतन मन का परम चैतन्य सत्ता को देख पाना इसी प्रकार कठिन है। मन-मस्तिष्क की संरचनात्मक भिन्नता के बावजूद चेतन-तत्व उनका सामान्य गुण है। प्रकृति की बारीकियों को समझने के लिए भी असाधारण प्रयास-पुरुषार्थ अपेक्षित होते हैं। किन्तु वहाँ मन मस्तिष्क चेतना के उपकरण के रूप में काम कर रहे होते हैं। स्वयं चेतना के स्वरूप को समझना स्वजाति-सादृश्य के कारण अधिक कठिन होता है
अनेक रोगों के कीटाणु या विविध शब्द तरंगें ध्वनि कम्पन आदि हमारे इर्द गिर्द मौजूद रहते हैं। माइक्रोस्कोप से आस पास जो कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है साधारणतः हमें उसका भान ही नहीं होता। रेडियो सेट पर निश्चित स्टेशन पर सुनाई पड़ने अथवा टेलीविजन के पर्दे पर दिखाई पड़ने वाली शब्द-तरंगें दृश्य-तरंगें, ध्वनि-तरंगें इसके पूर्व भी हमारे ही पास से होकर गुजर रही थी, किन्तु उनकी सूक्ष्मता एवं हमारी दृष्टि-सामर्थ्य की सीमा के कारण उन्हें देख जान पाना सम्भव नहीं था। विभिन्न ग्रह नक्षत्रों से क्वासर-पल्सर जैसे विकिरण प्रतिपल हम पर बरसते रहते हैं, परन्तु हमें उनकी प्रतीत नहीं हो पाती। क्योंकि वे हमारी इन्द्रिय क्षमता के अनुपात में अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चेतना तत्व ही लोगों की अनुभूति में अनायास कैसे आ जाये? उस हेतु पहले बसी सामर्थ्य विकसित करनी होगी। नेत्रहीन को सामने का रूप नहीं दिखाई पड़ता जबकि वहीं पास खड़ा कोई नेत्रयुक्त व्यक्ति उसे सरलता से देख सकता है। ईश्वरानुभूति के लिए भी भीतरी नेत्र चाहिए, शक्ति का विकास चाहिए। मन को वैसा ढालना पड़ता है उसे ईश्वराभिमुख बनाना होता है और उसकी अन्तर्मुखी सामर्थ्य बढ़ानी होती है।
मन-मस्तिष्क जैसी गतिविधियों में डूबे रहते हैं उन्हीं विषयों में गहराई तक उनकी पैठ हो पाती है। ऐसे अनेक लोग होते है, जिनकी समझ में साहित्य या कलात्मक विषय जल्दी आ जाते हैं, पर गणित का प्रश्न पूछ लेने से ही उनका दिमाग साँय-साँय करने लगता है। उन्हें वह अति जटिल दुरूह विषय-वस्तु लगती है। कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। जबकि गणित में रुचि रखने वाले को वे ही प्रश्न अति सरल लग सकते हैं। वह सोत्साह उनको हल करने में जुट सकता है। मन की तत्परता और अभ्यास से ही अनुभूति एवं बोध के गहरे आधार बनते हैं। जिस दिशा में क्षमता प्रयास पूर्वक बढ़ा ली जाती है, उसी ओर तीव्र गति सम्भव होती है। अनजाने विषय क्षेत्रों में दिमाग नहीं चल पाता। ईश्वरानुभूति पर भी यही तर्क स्वाभाविक रूप में लागू होता है। यदि उस ओर प्रवृत्ति ही नहीं हुई आध्यात्मिक चिन्तन-मनन अंतर्दर्शन, अन्तःअवलोकन कर अभ्यास नहीं रहा, तो ईश्वरानुभूति कठिन होगी ही।
जब मन किसी विषय में तल्लीन होता है तो समीप की ही दूसरी हलचलें कई बार ध्यान में नहीं आती। कोई अध्येता अध्ययन में, वैज्ञानिक प्रयोगशाला में या दक्षशिल्पी अपने कारखाने में जब मनोयोग में जुटा हो, तो पास से निकल जाने वाले लोगों की उन्हें कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती। इसका कारण मन की विषय-लीन हो जाने की क्षमता एवं प्रवृत्ति ही है। साँसारिक विषय कामनाओं, हलचलों और रंग रूपों में डूबे दिल-दिमाग में जो तर्क तथा जो विश्वास रूढ़ हो जाते हैं उससे भिन्न तर्क तथा अनुभूतियाँ समझ में ही नहीं आती। उस ओर ध्यान ही नहीं जा पाता। अतः ईश्वरानुभूति से सम्बन्धित बातों की ओर कुछ यदि लोगों का मन ही न जाए, तो इसी से उनकी निस्सारता या आधारहीनता नहीं सिद्ध होती।
दिन के समय तारे दिखाई नहीं पड़ते। यद्यपि वे होते उस समय भी आकाश में ही हैं। अपने सामान्य क्रम में ही वहाँ विद्यमान होने पर भी वे लोगों के लिए अप्रकट होते है। यह उन तारों का वास्तविक तिरोभाव न होकर भी मनुष्य के लिए तो उनका तिरोभाव ही है। दिन के प्रकाश की चकाचौंध को भेदकर ऊँचे आकाश की ओर दूर तक ताक सकने की क्षमता मनुष्य की आँखों में नहीं है। जागतिक चकाचौंध इससे कम नहीं, अधिक ही प्रखर होती है। उनमें डूबे लोग ईश्वरीय आलोक को देख समझ न पायें, इसमें आश्चर्य की कोई अधिक बात नहीं। जब इस आपाधापी में ही मन नहीं डूबने-उतरने दिया जाता वरन् साथ ही साधना-उपासक द्वारा अपनी आन्तरिक क्षमताएँ विकसित-परिष्कृत करली जाती है, तो ईश्वरीय सत्ता की प्रतिपल अनुभूति स्वाभाविक हो जाती है। जैसे दूरदर्शन यंत्र से दिन में तारे देखे जा सकते हैं उसी प्रकार तब साँसारिक भागदौड़ के बीच भी आत्म सत्ता का दर्शन-स्मरण होता रह सकता है।
हमारे ही मनोभावों की परतें हमारी अन्तःचेतना पर जमती चली जाती है। दूषित अनगढ़ भावनाएँ कामनाएँ चित्त को बरसाती बाढ़ से उफन रही नदी जैसा बना देती है, आँखों पर मोह-लाभ एवं अज्ञान के पर्दे डालती रहती है। पर्दे की पीछे बैठा आदमी, जमीन में गड़ा हुआ धन सन्दूक में बन्द रखी वस्तुएँ दिखाई नहीं पड़ती। बरसात के गंदले पानी के प्रवाह में नीचे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। पर्दा उठा देने पर; जमीन की मिट्टी पत्थर खोद कर हटा देने पर या संदूक का ऊपरी पल्ला उठाने पर क्रमशः व्यक्ति, धन एवं वस्तुएं स्पष्ट दिखाई दे सकती है। शाँत-स्वच्छ जल में नीचे तल तक साफ देखा जा सकता है। ईश्वरीय अनुभूति के मार्ग में अपनी ही संकीर्णताओं के कारण मनुष्य जो व्यवधान खड़े कर लेता है, उन्हें हटाने पर वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है क्योंकि ईश्वर की महान शक्ति का अनुग्रह हम पर अनवरत बना रहता है, उसकी अनुकंपा सभी पर प्रतिपल बरसती रहती है। ईश्वरीय प्रकाश निरन्तर हमारे चारों ओर छाया रहता है भीतर भी और बाहर भी। आवश्यकता अपनी मलीनताओं-संकीर्णताओं को हटाने-अपनी सीमाओं को समझने और विवेक-ज्योति को प्रज्वलित रखने की है।
भौतिक विज्ञानी आज स्वयं भी उस मोड़ पर पहुँच गये हैं, जहाँ वे पदार्थ के मूल स्वरूप तक के बारे में कोई निर्णय नहीं कर पा रहे हैं, जहाँ उनको ज्ञात हुआ कि यह सम्पूर्ण सृष्टि चेतन-तरंगों का सुव्यवस्थित क्रिया-व्यापार है। आज वैज्ञानिक इस तथ्य पर एकमत हैं कि चेतन-सत्ता की खोज जड़ उपकरणों द्वारा सम्भव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में नास्तिकता के रूढ़ तर्क अल्पज्ञता एवं दुराग्रह का ही परिणाम हो सकते हैं। ईश्वर के न दिखाई पड़ने, अतः न होने की बात अब पूरी तरह बेजान हो गई है। वैज्ञानिक बुद्धि इस तर्क को भ्राँत और अपर्याप्त मानती है उस महासूक्ष्म सर्वव्यापी तत्व को विनम्रता, विवेक, साधना एवं सद्ज्ञान द्वारा ही देखा-समझा जा सकता है।