
ब्रह्म सत्यं-जगत मिथ्या का व्यावहारिक स्वरूप
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जिस जाति की विचार-प्रणाली ब्रह्म सत्यं-जगत मिथ्या” पर आधारित है, उसमें वैराग्य, संन्यास प्रियता एवं ज्ञान-पिपासा का होना स्वाभाविक है। किन्तु यह सिद्धांत जीवन सत्य के महत्वपूर्ण व्यावहारिक पक्ष के प्रति उदासीन है। ज्ञान की प्रबल इच्छा के साथ ही साथ अन्य भी बहुत सी वृत्तियाँ मानव के अन्दर क्रीड़ा करती रहती है, उनकी उपेक्षा करके कोई भी समाज अधिक दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या यह सिद्धांत सत्य है, पर इस सिद्धांत को समझने में प्रायः भ्रम हो जाता है। विषय वासनाओं के प्रति साधक के हृदय में वैराग्य उत्पन्न करने के लिए प्रतिपादन हुआ था कि न कि उस जगत के प्रति-जिसके द्वारा हमें जीवन साधनों की प्राप्ति होती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि साधनों के बिना मानव अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता और न जीवित ही रह सकता है। इस दृष्टि से साधनों की अपनी महत्ता एवं उपयोगिता है।
जब तक मनुष्य वासनाओं, तृष्णाओं को सत्य मानकर चलता है तथा उसमें लिप्त रहता है, वह ‘ब्रह्म सत्य है’ इस सिद्धांत की कल्पना भी नहीं कर सकता। अभ्यास के लिए यह सत्य है किन्तु अभ्यास कि उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से ‘सर्व खल्विदं-ब्रह्म’ को ही उपयोगी मानना पड़ता है। जगत को मिथ्या मानने वाले अपने प्रति भले ही अत्याचार न करते हो किन्तु यह भावना बनाकर समाज का घोर अहित करते है। अन्य व्यक्ति भी उनके इस आचरण का अनुकरण करके सामाजिक उत्तरदायित्वों से विमुख होने लगते हैं।
‘जगत मिथ्या’ की मान्यता से कर्म से विरत होकर उस परम् सत्य की खोज ही सम्भव नहीं है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। जीवनमुक्त भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद है। इसे अपनाकर कोई भी पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। ‘ईशावास्योपनिषद्’ कर्मवाद का समर्थन करते हुए कहता है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥
अर्थात्- श्रेष्ठ कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए। ऐसा करते रहने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
गीता में भी कर्मों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं-
तस्मादसक्तः सतत कार्य कर्म समाचार।
असक्तो ह्माचरर्न्कम परमाप्नीति पूरुषः॥
(गीता 3119)
हे अर्जुन। तू अनासक्त हुआ निरन्तर श्रेष्ठ कर्म का आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जब ईश्वर तक विश्व के संरक्षण एवं पालन-पोषण के लिए कार्य करना स्वीकार किए हुए हैं तो मनुष्य का कर्म से विरत होना अनुचित एवं अविवेकपूर्ण है। मिथ्या जगत के पोषण अभिवर्धन में फिर भला ईश्वर ही क्यों इतना श्रम एवं अपनी शक्ति का उपयोग करता। ईश्वर को अपनी बनायी सृष्टि के प्रति असीम प्यार है। अतः ईश्वर के प्रति हमारा प्यार उसकी सृष्टि के प्रति हमारे प्यार के रूप में परिलक्षित होना चाहिए। जिसकी अभिव्यक्ति का आधार है श्रेष्ठ कर्म - सृष्टि को अधिकाधिक सौंदर्ययुक्त बनाने की उदात्त भावना से कर्म में निरन्तर जुटे रहना।
प्रश्न यह नहीं है कि मैं क्या करूं कि मेरा उद्धार हो जाय वरन् यह है कि मैं किस भावना से कार्य करूं जिससे अपनी आत्मा को निर्लिप्त एवं निसर्ग रखने के साथ ही साथ संसार का परित्याग भी नहीं करना पड़े। ‘बृहदारण्यक’ उपनिषद् में वर्णन आता है कि बह्मविद् लोग संसार का पुनः निर्माण करते हैं। फलतः निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जब तक उस ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया की समाप्ति नहीं हो जाती तब तक जीवन-मुक्त पुरुष भी विश्वात्मा के लिए कार्य करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जब कर्म का क्षेत्र भी यह दृश्यमान जगत है, तो उसको मिथ्या मानकर चलना अविवेकपूर्ण है। ब्रह्म सत्य तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।