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Magazine - Year 1980 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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संस्कृति के प्रति गौरव भाव जागृत करें

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अति प्राचीन काल में भारतीय समाज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उच्चशिखरों पर पहुँच गया था और सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से अपना देश अति विकसित था, इस तथ्य को अब विदेशी लोग में अभी भी भारतीय समाज और राष्ट्र को ऊँचा उठाने वाली प्रतिभा का अपने देश में अभाव नहीं है, फिर भी इस विडम्बना को क्या कहें जो प्रगति और उन्न्ति के लिए पश्चिम की ही ओर निहारती तथा उसी का अनुकरण करने के लिए लालायित रहती है । विरासत के रुप में भारतीय संस्कृति के जो अवशेष अभी भी बचे हुए या जीवन्त है, उनकी उपेक्षा कर उपलब्ध तथ्यों को कवि कल्पना मानने तथा हलके स्तर के आयातित ज्ञान-विज्ञान में ही अर्थवत्ता खोजने की प्रवृत्ति आत्मविस्मृति ही नहीं आत्म प्रवंचना का भी परिचय देती है ।

भारतीय शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि प्राचीन समय में यहाँ विमानों का प्रचलन था। भारतीय वैज्ञानिक विमानों का आविष्कार करने में सफल हो गये थे । इस तरह के उल्लेख जहाँ कही भी आये है, उन्हें स्वीकार करने के स्थान पर तथाकथित पढ़ा-लिखा शिक्षित समुदाय इस विवरण का उपहास ही उड़ाया करता था । इस तथ्य का मजाक ही किय जाता था और कहा जाता था । कि मनुष्य भी कहीं आकाश में पशु-पक्षियों की तरह उड़ सकता है ? कैसा बचकाना विचार है । लेकिन जब वायुयान का अविष्कार कर लिया गया , तब कहीं जा कर लोगों ने यह माना कि ऐसा भी सम्भव है और प्राचीन ग्रन्थों, इतिहास के इन विवरणों की सत्यता को झिझकते-झिझकते स्वीकार किया ।

सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की बातों को जाने भी दें । सोचा जा सकता है कि उस समय भारतीय मानस शताब्दियों से चली आ रही दासता से आक्रान्त था । उस पर गुलामी का प्रभाव था । फलस्वरुप स्वतन्त्रता में साँस लेने वालों की अपेक्षा गुलामी की घुटन में रहने के कारण लोगों का आत्मविश्वास घटा था और हम इस सन्ताप की अग्नि में बराबर झुलसते रहे थे कि हजारे पास वैज्ञानिक प्रतिभा का अभाव है । लेकिन अब तो स्वतन्त्र हुए करीब तेंतीस वर्ष हो चले । फिर भी प्राचीन संस्कृति के प्रति भारतीय ज्ञान विज्ञान के प्रति इतनी उदासीनता या उपेक्षा क्यों है कि उसी लीक पर चला जा रहा है ।

उत्तर में यही कहा जा सकता है कि भारत स्वतन्त्र भले ही हो गया हो, परन्तु यहाँ के नागरिकों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव अभी तक जागृत नहीं हो सका है । यही कारण है कि लोग न केवल पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करना श्रेयस्कर समझते है बल्कि वहीं के जीवनलदर्शन, वहीं की मान्यताओं और वहाँ के विचारकों का प्रतिपादन भक्ति भाव से ग्रहण करते अपनाते है, पश्चिमी संस्कृति के प्रति इसी मुग्ध भाव के कारण अपनी प्रतिभा का मौलिक विकास करने के स्थान पर पश्चिमी ज्ञान विज्ञान को श्रेष्ठ मानकर अपनी संस्कृति के प्रति हीनता की दृष्टि पनपने लगी है । अन्यथा यह सिद्व करने के पर्याप्त प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता प्राचीन काल में आधुनिक सभ्यता व संस्कृति अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत और विकसित थी ।

किन्हीं दूसरे कारणों से आई गुलामी ने उन कड़ियों को तोड़ भले ही दिया हो और इस कारण ज्ञान विज्ञान की वह प्राचीन धारा टूट भले गई हो, पर अभी भी मृत नहीं हुई है । उसे पुनजीर्वित किया जा सकता है और अपनी प्रतिभा के मौलिक उपयोग द्वारा उसी गोरवास्पद स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । प्रश्न उठता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के गौरव पूर्ण तथा महान होने के क्या प्रमाण है ? तथ्यों ओर प्रमाणों के तो ढेर लगाये जा सकते है तथा लगाये भी गये है । उन सबको यहाँ प्रस्तुत करने की गुँजायश नहीं है । लेख के कलेवर को दृष्टिगत रखते हुए कतिपय उदाहरण और विद्वानों के उद्वरण देना ही पर्याप्त होगा ।

सभ्यता और ज्ञान विज्ञान की विभिन्न धाराओं में से एक भवन निर्माण कला को ही लिया जाए । हजारों वर्ष पूर्व भवन निर्माण कला तथा नगरों का विकास अपने देश में प्रगति के चरम को छू चुका था । इस सर्न्दभ में प्रसिद्व, वास्तुकलाविद् ई.बी. हैवेल ने कहा है, भवन निर्माण के लिए आजकल जो प्रविधियाँ प्रचलित है वे बहुत अधूरी है । निश्चित ही यूरोप ने वास्तुकला के क्षेत्र में अद्भूत प्रगति की है, परन्तु वह अभी तक भारत की वास्तुकला के स्तर को छू नहीं पाया है लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विनिर्मित अजन्ता एलोरा की गुफाएँ तथा उनके भित्ति चित्र, उन्हीं दिनों बनाये गये भव्य मन्दिर और प्रासादों में दृष्टिगोचर होने वाली श्रेष्ठतम कला कारिता को देखकर दाँतों तले अँगुली दबा कर रह जाना पड़ता है ।

भारत ने न केवल वास्तुकला तथा नगर निर्माण के क्षेत्र में चमत्कारी प्रतिभा को खरादा निखारा, वरन् चिन्तन द्वारा ऐसे सिद्वान्तों का निर्माण भी किया जिनके आधार पर आज भी उसी स्तर को प्राप्त किया जा सकता है । प्रगति के वही शिखर छुए जा सकते है । य़द्यपि भारत की ज्ञान सम्पदा का अधिकाँश भाग विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा जलाये गये ग्रन्थालयों तथा मारे गये अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिभा सम्पन्नों के कारण नष्ट हो गया है । फिर भी अब तक 141 ऐसे ग्रन्थों का पता लगाया जा चुका है, जिनमें वास्तुकला और शिल्प शास्त्र का विस्तृत विवेचन हुआ है । विश्वकर्म प्रकाश भानसार तथा भोजदेव कृत ‘समराँगण’, ‘सूत्राधार’, आदि ग्रन्थ अब भी बड़ी सुलभता से प्राप्त हो जाते है । इनके सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि इन ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का विवेचन पढ़ कर ही विस्मय विमुग्ध रह जाना पड़ता है ।

अंकविज्ञान एक और देन है । भारत की, जिसका उपयोग तो सारा विश्व अब भी धड़ल्ले से कर रहा है । आधुनिक प्रौद्योगिकी मूलतः अंकगणित पर ही आधारित है । उसके बिना उद्योग धन्धे से व्यवसाय रोजगार का काम एक दिन भी नहीं चल सकता और गणित के अंकोंका आविष्कार सर्व प्रथम भारत में ही हुआ । इस सम्बन्ध में प्रसिद्व पश्चिमी विद्वान जी.बी. हालस्टेड ने इस विश्व को इसके लिए भारत का ऋणी बताते हुए कहा है, हिन्दुओं के द्वारा किये गये शून्य के आविष्कार ने मानव जाति की बुद्वि और शाक्ति की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान दिया है ।

भारत ने आध्यात्मिक क्षेत्र में तो विश्व को अनेकानेक अनुदान दिये है । भौतिक क्षेत्र में भी इतनी चमत्कृत कर देने वाली सफलताएँ अर्जित की है कि उनकी आज की वैज्ञानिक उपलब्धियोंसे तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि आज का विज्ञान तो उन्हें दोहरा भर रहा है । जैसे पश्चिमी वैज्ञानिकों से सैकड़ों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने यह पता लगाया था कि पृथ्वी घूमती और सूर्य स्थिर है तथा यह भी कि 24 घण्टे में पृथ्ती सूर्य की एक परिक्रमा लगा लेती है । अब से दो हजार वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के समय में अपना देश नक्षत्र विद्या के क्षेत्र में उन तथ्यों को खोज चुका था जो पश्चिमी वैज्ञानिकों को सैकण्ड़ों वर्ष बाद मालूम हुए । एक इतिहासकार ने अपने एक निबन्ध में यह बात बड़े ही सुन्दर ढंग से कही है, जिस समय गैलीलियों के प्रतिपादन को न्याय की तराजू पर तोला जा रहा था तथा परम्परागत धारणाओं को टूटने से बचाने के लिए उसे मृत्युदण्ड सुनाया जा रहा था तब भारतीय वैज्ञानिक अपनी वेधशाला में बैठे हुए इन निष्कर्षों से सैकड़ों कदम आगे की खोज कर रहे थे ।

पेड़ की शाखा से एक फल टूट कर गिरता देख पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगाने के लिए न्यूटन की प्रतिभा के आज भी गीत गाये जाते है, परन्तु यह कोई नई खोज न थी । न्यूटन से पाँच सौ वर्ष पहले ही भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्वान्त शिरोमणि’ ग्रन्थ में लिख दिया था कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है, यह अपनी ही शाक्त्िसे स्थिर है । पृथ्वी में आकर्षण शक्त्िहै, इसी लिए वह आकाश में फैंकी हुई भारी वस्तुओं को अपनी ओर खीचंती है।’ इस तथ्य को सर्वप्रथम उद्घाटित करने का श्रेय भी भास्कराचार्य को ही जाता है कि पृथ्वी गोल है समतल नहीं ।

वास्तुकला विज्ञान, अंक गणित, ज्योतिष तथा भूगोल के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् साहित्य, संगीत ओर अन्य कलाओं में भी भारतीय प्रतिभा ने निष्णात दक्षता प्राप्त की थी । भारतीय साहित्य शास्त्र विश्व का सर्वाधिक विकसित साहित्य शास्त्र है । अन्य किसी भी भाषा का साहित्य इतना समृद्व और समार्थ्य पूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृत भाषा का । रस, सम्प्रदाय, अलंकार, रीति, ध्वन्यात्मकता तथा गत्यात्मकता के सिद्धान्तों की जितनी गहन और जितनो सूक्ष्म अभिव्यक्ति संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हुई है उतनी अन्य भाषाओं में अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देती । लेकिन साहित्य का आधुनिक विद्यार्थी इन सबके अध्ययन से वंचित ही रह जाता है । भारतीय भाषाओं के आधुनिक लेखक प्राचीन मनीषियों द्वारा अगाध परिश्रम से खोजे तथा निर्धारित किये गये मानदण्डों की अपेक्षा फैशन के तौर पर पश्चिमी साहित्य के मानदण्डों की वैसाखियों का सहारा लेना ही अधिक उचित समझते है । यह प्रवृति जिस गति से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह चिन्ता होना स्वाभाविक ही है कि कहीं कालान्तर में इन प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने वाले भी रह जायेंगे अथवा नहीं ।

साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं भारतीय ज्ञान विज्ञान की उन समस्त क्षे़त्रों के सम्बन्ध में स्थिति चिन्ताजनक है, जिनमें असंख्यों प्रतिभाओं ने अपना जीवन होम कर अनिर्वचनीय उपलतब्धियाँ अर्जित की है । चूँकि यह सारी ज्ञान सम्पदा देवभाषा संस्कृत में लिपिबद्ध की गई है, इसलिए संस्कृत को मृतभाषा घोषित करने के साथ ही इस ज्ञान सम्पदा की भी सहज ही उपेक्षा होने लगी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि विदेशी शासकों ने इस देश में अपने पैर जमाते ही इस तथ्य को जान लिया कि संस्कृत का प्रचलन रहा तो देश की जनता का सोया हुआ आत्मगौरव कभी भी जाग सकता है । इसलिए उन्होंने जान-बूझकर संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन का निरुत्साहित किया और इसके साथ ही जन-मानस में उत्पन्न होने लगी हीनता, हताशा तथा कुण्ठा । मुगल काल से भी अधिक बुरी परिस्थितियाँ ब्रिटिश काल में रही । उस समय तो फिर भी ज्ञान सम्पदा में नया कुछ जोड़ने के लिए भारतीय प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलता था । किन्तु ब्रिटिश काल में यंित्कचित प्रोत्साहन तो क्या उन्टे निरुत्साहित ओर निराश करने का उपक्रम चल पड़ा ।

अब तो भारत स्वतन्त्र है । अब तो वैसी कोई विवशता नहीं है, फिर क्या कारण है कि अभी भी भारतीय समाज में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत नहीं हो पा रहा है । ख्ोद है कि इस दिशा में कोई ध्यान देने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती । ऐसी बात नहीं है कि भारत के पास प्रतिभा का अभाव हो । प्रतिभाओं के लिए उर्वर भारत भूमि अभी भी इतनी बीर प्रसूता है कि तथ्यों के प्रकाश में भारत प्रतिभाओं के विकास की दृष्टि से प्रथम क्रम में आता है । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हाल ही में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कुशल इन्जीनियर, टैकनिश्यिन और डाक्टर तैयार करने में भारत अन्य सभी देशों से अग्रणी है । लेकिन कमी यही है कि हम अपनी प्रतिभा के साथ विरासित में मिली ज्ञान सम्पदा को जोड़ने में अभी तक समर्थ नहीं हो सके है या फिर इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते ।

आवश्यकता अनुभव की जाए तो समर्थता भी अर्जित हो सकती है लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत किया जाए । दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जिसे अपनी प्राचीन संस्कृति से मोह न हो, जो उसके प्रति गौरवान्वित न रहता हो । एक भारत ही ऐसा है जो अपने पुरखों की निन्दा, भर्त्सना और उपेक्षा कर रहा है । प्रत्यक्ष करने वाले भी है और परोक्ष करने वाले भी । विदेशी पश्चिमी सभ्यता की अन्धी नकल और अपनी संस्कृति के प्रति कुछ भी जानने की उत्सुकता का अभाव, उपेक्षा नहीं तो और क्या है ? आवश्यकता इस बात की है कि अपने गौरवपूर्ण अतीत का अध्ययन जाये और मौलिक प्रतिभा का विकास किया जाए, तभी भारत विश्व में आत्म सम्मान के साथ जी सकेगा और इसके पास जो रत्न भण्डार है उनसे वह विश्वन्द्य हो सकेगा ।

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