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Magazine - Year 1982 - Version 2

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आंतरिक प्रगति का प्रथम सोपान — जीवन-साधना

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कौन कितने दिन जिया? इसका उत्तर प्रायः वर्ष गणना में दिया जाता है; किंतु तात्त्विक दृष्टि से इस संबंध में यह गणना होनी चाहिए कि किसने, किस स्तर का, किस प्रयोजन के लिए, क्या पुरुषार्थ किया? आद्य शंकराचार्य मात्र 32 वर्ष जिए, विवेकानन्द 38 वर्ष; किंतु उनकी उच्च उद्देश्यों के निमित्त जितनी तन्मयता, तत्परता रही, उसी अनुपात से उनने इस स्वल्प अवधि में ही इतना कुछ कर दिखाया, जितना कि सैकड़ों वर्ष जीकर भी नहीं कमाया, बखेरा जा सकता।

कौन, कितना सौभाग्यशाली है? इसके उत्तर में उसके वैभव, पद, प्रभाव आदि की नाप-जोख की जाती है। सुविधा-साधनों के सहारे इस प्रकार का मूल्यांकन किया जाता है। जबकि देखा यह जाना चाहिए कि गुण, कर्म, स्वभाव की, चिंतन और चरित्र की दृष्टि से कौन, किस स्तर पर रह रहा है। वस्तुतः व्यक्तित्व की पवित्रता एवं प्रखरता के आधार पर बनने वाली प्रतिभा ही वह संपदा है, जिसके सहारे उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर दूर तक जा पहुँचने का अवसर किसी को मिलता है। आंतरिक प्रफुल्लता, लोक, श्रद्धा एवं दैवी अनुकंपा को सफल जीवन की महान उपलब्धियाँ माना गया है। इन्हें अर्जित करने में परिष्कृत व्यक्तित्व ही सफल होते हैं। वैभव बटोरने में तो दुष्ट— दुराचारी भी सफल हो जाते हैं, किंतु इस विष-संचय से उन्हें भीतरी और बाहरी जलन भी झुलसाती-उबालती रहती है। वास्तविक उपार्जन एक ही है— परिष्कृत व्यक्तित्व। इसे संपादित करने में जो, जितना सफल रहा, समझना चाहिए कि उसने मनुष्य जन्म के सौभाग्य का लाभ उसी अनुपात से उठा लिया।

काय-संस्थान मनुष्य का स्वनिर्मित नहीं है। अन्न भूमि की देन है। पानी बादलों से बरसता है। हवा आकाश में भरी है। पदार्थ प्रकृति ने बनाए हैं। मनुष्य इनका उपयोग भर करता है। किंतु ‘व्यक्तित्व की उत्कृष्टता’ ऐसी संपदा है, जो स्वयं ही श्रद्धा, व्रतशीलता एवं सूक्ष्म साधना के सहारे अर्जित करनी पड़ती है। यह न तो उत्तराधिकार में मिलती है और न किसी से वरदान-उपहार में उपलब्ध होती है। भोजन स्वयं ही उदरस्थ करना होता है। मल विसर्जन का कष्ट भी स्वयं ही सहना पड़ता है। कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें जन्म-मरण की तरह स्वयं ही सहन या वहन करना होता है। व्यक्तित्व का निर्माण भी ऐसा ही काम है,  जिसके लिए निजी तन्मयता एवं तत्परता का सघन समावेश करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जो इस तथ्य को स्वीकारते-अपनाते हैं, उन्हीं को यह श्रेय मिलता है कि वे जीवन को सार्थक बना सकने वाले पराक्रम कर सकें; इसके लिए अपने में आवश्यक समर्थता एवं योग्यता उत्पन्न कर सकें।

संसार कला-कौशलों से भरा पड़ा है। उन्हीं के आधार पर लोग समृद्ध, प्रख्यात एवं समर्थ बनते हैं। कला-कौशलों में मूर्धन्य है— जीवन-कला। इसी को संजीवनी विद्या कहते हैं। जिसे जीना आता है, उसे सब कुछ आता है। जो इस विद्या से अपरिचित है, समझना चाहिए कि उसका विशाल वैभव भी कागजी रावण की तरह खोखला— ढकोसला है। वैभव को बदली की छाँव की तरह अस्थिर कहा गया है। तनिक-सी प्रतिकूलता आने पर साधन-सामग्री न जाने किस प्रवाह में बहकर कहाँ से कहाँ चली जाती है। राजाओं को रंक बनने की घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। तिनके और पत्ते झोंके के साथ आसमान पर चढ़ते और स्थिरता आते ही लाते खाते और कीचड़ में सड़ते देखे जाते हैं; किंतु जिनका वजनदार व्यक्तित्व है, उन चट्टानों से आँधी-तूफान भी टकराकर वापस लौट जाते हैं।

जीवन को सार्थक बनाने वाली क्षमता अर्जित करने का ही दूसरा नाम ‘व्यक्तित्व−निर्माण' है। साधना इसी के लिए करनी पड़ती है। अंतरंग जीवन में उसका अस्तित्व ‘सुसंस्कारिता’ के नाम से जाना जाता है और बहिरंग जीवन में इसी शालीनता भरे व्यवहार को ‘सभ्यता’ कहते हैं। यों इस उपलब्धि में वातावरण एवं संपर्क भी सहायक होता है, तो भी प्रमुखता अपने ही दृष्टिकोण एवं प्रयास की रहती है। सत्संग या कुसंग के प्रभाव को यहाँ झुठलाया नहीं जा रहा है; वरन् यह कहा जा रहा है कि उसकी उपयोगिता भी तभी लाभदायक होती है, जब अपने में ग्रहण करने एवं पचाने की सामर्थ्य विद्यमान हो। पाचन शक्ति जवाब दे जाए तो पौष्टिक भोजन क्या करे? आँखें न हों तो दृश्यों की मनोरमता का आनंद कैसे मिले? भूमि के ऊसर होने पर बढ़िया बीज एवं परिश्रमी किसान का प्रयास भी कैसे सफल हो? बाहरी अनुदानों की फिराक में रहने वाले हर मनुष्य को स्मरण रखना चाहिए कि सत्पात्र के अभाव में या तो कहीं से कुछ महत्त्वपूर्ण जैसा मिलता ही नहीं अथवा मिलता है तो उसका स्थिर रहना, सुखद प्रतिक्रिया उत्पन्न करना, सम्भव नहीं होता। इन्हीं तथ्यों को देखते हुए जीवन−साधना को सर्वोपरि पराक्रम एवं सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य कहा गया है। स्मरण रहे यह स्व−उपार्जन है। यह प्रयास चले तो खिले फूल पर मँडराने वाले भौंरे, मधुमक्खियों, तितलियों के झुंड छाए रहते हैं। बाहरी अनुग्रहों के संबंध में भी ठीक यही बात है। जहाँ पात्रता होगी, वहाँ बाहरी सहायता की भी कमी न रहेगी। वह उक्ति अक्षरशः सही है, जिसमें एक महान सत्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा गया है— "ईश्वर मात्र उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।"

अध्यात्म का विकृत स्वरूप आज कुछ भी क्यों न बन गया हो, उस चेतना विज्ञान का मूलभूत प्रतिपादन एक ही रहेगा— आत्मावलंबन एवं आत्मपरिष्कार। इस दिशा में जिसे, जितनी सफलता मिली होगी, वह उतना ही व्यक्तित्वसंपन्न बन सका होगा। प्रतिभा के धनी— प्रखरता से संपन्न व्यक्ति प्रायः स्वनिर्मित होते हैं। उनने अपने को स्वयं ही समझा, सुधारा, बढ़ाया एवं उछाला होगा, दूसरों का तो उन्हें सहयोग भर मिला होगा। इस संसार में प्रामाणिकों को ही विश्वास एवं सहयोग मिलने की प्रथा है। कुपात्रों द्वारा की गई छीन-झपट को तो डकैती भर कहा जा सकता है। लूट-मार से धनी बनने वालों का बड़प्पन टिकता कहाँ है? अनीति का उपार्जन साँप की तरह चमकता तो है और सुहाना भी लगता है; पर उसे पालने वाले कितना खतरा उठाते हैं, उसे भुक्त-भोगियों से ही पूछकर जाना जा सकता है।

प्रगति का सहज और सुनिश्चित राजमार्ग एक ही है— व्यक्तित्व को शालीनता एवं प्रखरता के समन्वय से प्रतिभावान बनाना। इसी आधार पर व्यक्ति ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बनते हैं। इसी के बलबूते भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र की अनेकों सफलताएँ करतलगत होती हैं। उत्कृष्टता ही व्यक्ति और समाज की प्रगति, समृद्धि एवं शांति की सुनिश्चित गारंटी है। निजी और सामूहिक उत्कर्ष की बात सोचने वालों को यह तथ्य ध्यान में रखना ही होगा कि वैभव की न्यूनाधिकता जितनी विचारणीय है, उससे अधिक विवेचन एवं निर्धारण मानवी सदाशयता के संवर्धन का होना चाहिए। स्वल्प साधनों से काम चलाते हुए ऋषिकल्प महामानवों ने अपना तथा असंख्यों का उद्धार— उत्थान किया है। इसके अभाव में रावण, मारीच जैसे समर्थ व्यक्ति भी अपने को–अपने संपर्क क्षेत्र को, दुखद दुर्दशा के गर्त में ही धकेलते रहे हैं। वैभव वृद्धि एवं भौतिक प्रगति की योजनाएँ तो बननी ही चाहिए, पर इसी प्रसंग में इस तथ्य को जोड़कर चलना चाहिए कि उपार्जन का उपयोग कर सकने वाली सहायता की उपेक्षा होती रही, तो वैभव के अनुपात से दुर्व्यसनों और अनाचारियों की बाढ़ आवेगी। अभावों के कारण जो दुर्बुद्धि अपंग बनी बैठी रहती थी, उसी की सामर्थ्य से सोचा गया, तो साँप को दूध पिलाने की तरह दुःखद दुष्परिणाम ही सामने होंगे।

शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय आदि के लिए जितना प्रयास होता है, उतना ही इस निमित्त भी होना चाहिए कि लोग जीवन का महत्त्व समझें, उसके साथ जुड़ी हुई विशेषताओं को उभारें और उपलब्धियों का सदुपयोग करना सीखें। यहाँ एक भारी कठिनाई यह है कि वैसा न तो कहीं वातावरण है, न प्रशिक्षण। यहाँ तक कि ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्रों में जहाँ असंख्य विषयों पर भारी अनुसंधान, प्रयोग−परीक्षण होते रहे हैं, निष्कर्ष-निर्धारण प्रस्तुत किए जाते रहे हैं, वहाँ जीवन-कला के संबंध में नहीं के बराबर खोज-बीन हुई है। उसके आधारभूत सिद्धांतों तक का कोई अता-पता नहीं। धर्म और अध्यात्म के नाम पर जो कहा जाता रहा है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अव्यावहारिक है। दूसरी ओर नागरिक शास्त्र, नीतिशास्त्र, समाज शास्त्र के माध्यम से जो प्रतिपादन हुए हैं, वे भी उथले एवं सतही हैं। उनमें टकराव से बचाने वाली सभ्यता भर का उल्लेख है। उस श्रद्धा को उभारने वाली कोई सामग्री नहीं है, जो उत्कृष्टता अपनाने के लिए अंतराल को बेचैन कर दे। आदर्शवादी आचरणों के लिए जिस अदम्य उत्साह और उच्चस्तरीय साहस की आवश्यकता है, वह अनायास ही प्रकट नहीं हो सकता। बौद्धिक कलाबाजी एवं परोपदेश पांडित्य की पुरोहिती से भी उसे अंतराल में निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। वह बड़ा काम है; इसलिए बड़े और भारी-भरकम उपाय-उपचार भी प्रयुक्त करने होंगे। आज का व्यक्ति जिस चिंतनशैली का— जिस प्रथा-प्रचलन का, अभ्यस्त हो गया है, उसी से तालमेल बिठा सकने वाला तत्त्व दर्शन इन दिनों सृजा जाना चाहिए। यह सृजन ऐसा होना चाहिए, जो चिंतन की उत्कृष्टता और चरित्र की आदर्शवादिता को तर्क, तथ्य, प्रमाण, प्रयोग, उदाहरण आदि की हर कसौटी पर, हर किसी के लिए, हर क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध कर सके।

जीवन-साधना आज की शोध का सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय है। अब पुरातन जैसी न तो मनःस्थिति है, न परिस्थिति। शाश्वत सिद्धांतों को आज के परिवेश में किस प्रकार व्यावहारिक बनाया जा सकता है, यह असाधारण एवं अद्भुत कार्य है; क्योंकि विज्ञान, उद्योग, शिक्षा, विलास, प्रचलन आदि ने मिल−जुलकर जो माहौल बनाया है, उससे एक प्रकार की नई संस्कृति ने जन्म लिया है। बहुसंख्यक लोग उससे प्रभावित ही नहीं हुए, अभ्यस्त भी बन गए हैं। यह जैसी भी है, सामने है। इसमें विलासिता, अहमन्यता, अनास्था, उच्छृंखलता, धूर्तता जैसी दुष्प्रवृत्तियों ने चतुरता और संपदा के समन्वय से कुछ ऐसा माहौल बनाया है कि इसे न निगलते बनता है न उगलते, न टूटती है न छूटती। कुटिलता भरी दुरभि संधियाँ रचने में इन दिनों की चतुरता ही प्रकारांतर से सामयिक सभ्यता के रूप में मान्यता प्राप्त कर रही है। इन दिनों जीवन की उत्कृष्टता और उसके सदुपयोग की आदर्शवादिता किस प्रकार समझाई जाए, जबकि दर्शन क्षेत्र में नीत्सेवाद, कामूवाद जैसे नास्तिकता के किशोर बाल-बच्चे, आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि स्थापनाओं को ही नहीं; नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं को अमान्य ठहराने के लिए विधिवत् अभियान चलाते और नीतिनिष्ठा की धज्जियाँ उड़ाने पर तुल गए हैं। कहना न होगा कि ऐसी व्यापक अनास्था इससे पूर्व कभी भी देखने में नहीं आई। इन दिनों जीवन दर्शन के साथ शालीनता के सिद्धांतों को जोड़ना, उन्हें उपयोगी ही नहीं व्यावहारिक भी सिद्ध करना, निश्चित रूप से टेढ़ी खीर है। इस प्रयास की आधारभित्ति अब ऐसे सशक्त आधार पर खड़ी करनी होगी, जिसे उच्छृंखलतावादी तूफान गिरा न सके; वरन् टकराकर वापस लौटने की विवशता अनुभव करे।

मानवी गरिमा के अनुरूप जीवनयापन करने की उच्चस्तरीय प्रक्रिया को अतिवादियों की बपौती समझा जाता है और कहा जाता है कि वह विरक्त संन्यासियों के लिए कष्टसाध्य कौतूहल का काम दे सकती है। यह प्रतिपादन कितने ही जोश-खरोश के साथ क्यों न कहा जाए, भले ही उसके अनुयायी बरसाती कीट-पतंगों की तरह रहे हों; पर तथ्यतः वह है अवास्तविक। सत्य शाश्वत है। मानवी गरिमाओं के साथ शालीनता अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई हैं। आवश्यकता मात्र यह है कि इस तथ्य को प्रत्यक्षवाद एवं अनास्थावाद की रीति-नीति अपनाने वालों की भीड़ में तर्क व प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया जाए। लोकमानस को आदर्शवादी जीवनचर्या अपनाने के लिए प्रोत्साहित, सहमत एवं कटिबद्ध कर सकना तभी संभव है, जब उच्चस्तरीय अध्यात्म सिद्धांतों की चर्चा करने वाले सबसे पहले इन प्राथमिक सूत्रों को अपने जीवन में उतारें। जीवन-साधना अपनाने वाले ही साधना की ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ने के पात्र बन सकते हैं, इस अकाट्य तथ्य को एक बार नहीं, बार-बार समझ लेना चाहिए।

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