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Magazine - Year 1982 - Version 2

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योग का तत्त्व दर्शन और प्रतिफल

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सामान्यतया मनुष्य का चिंतन पेट−प्रजनन में लगा रहता है। वासना, तृष्णा, और अहंता के भवबंधनों में जकड़ा हुआ इन्हीं ललक-लिप्साओं की पूर्ति में कोल्हू का बैल बना रहता है। इस स्थिति को उलटकर अंतःकरण की भावनाएँ और मनःसंस्थान की विचारणाओं को उत्कृष्ट आध्यात्मिकता के साथ जोड़ देने के सुयोग को योग कहते हैं। साधारणतया स्वभाव— संस्कार इसे करने नहीं देते। ऊँचा चढ़ने की इच्छा को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति रोकती है और बलपूर्वक नीचे घसीटती है। ऊपर चढ़ना, खींचना या उछालना अभीष्ट हो तो फिर साधन एवं सामर्थ्य जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा जब परमात्मा तक पहुँचने के लिए प्रयत्न करता है तो संचित कुसंस्कार इस मार्ग में अनेकानेक अड़चनें उत्पन्न करते हैं। उनसे जूझने के लिए जो सरंजाम जुटाना पडता है, इसी को योग-साधना कहा जाता है।

योगाभ्यास के नाम से बताई−अपनाई जाने वाली विभिन्न आकार−प्रकार की क्रिया−प्रक्रियाओं के मूल में एक ही उद्देश्य सन्निहित है कि अंतरात्मा को पशु−प्रवृत्तियों से विरत करके महान् की विशालता के साथ जोड़ दिया जाए। योग का अर्थ है–जोड़ना। किसे किसके साथ जोड़ा जाय? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है— आत्मा को परमात्मा के साथ। यहाँ आत्मा से अभिप्राय जीव की उस स्थिति से है, जिसमें वह संचित कुसंस्कारों की दलदल में फँसा हुआ, हेय प्रयोजनों में रस लेता और उन्हीं में प्रवृत्त रहकर जीवन संपदा को समाप्त करता है। यहाँ परमात्मा से तात्पर्य ब्रह्मचेतना की उस तरंग से है जो जब भी मनुष्य से मिलेगी, आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने की प्रेरणा अंतःकरण में उत्पन्न करेगी। विशालता उसका स्वरूप है। यह आत्मीयता की व्यापकता है— जिसकी उदार सेवा-साधना से ही तृप्ति होती है। पक्षी सुविस्तृत आकाश में उड़ने पर व्यापक अंतरिक्ष को अपना कार्यक्षेत्र पाता है। परमात्मा की परिधि में प्रवेश करने वाले साधक को भी सर्वत्र अपना ही आपा दिखता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की रीति−नीति अपनाने वाला दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम ही वरण करना होता है।

योग का तात्पर्य है— सीमित को असीम के साथ, क्षुद्र को महान के साथ, नर को नारायण के साथ, कामना को भावना के साथ, स्वार्थ को परमार्थ के साथ जोड़ देना। योगाभ्यास का समूचा परिकर साधक को उसी आस्था का अभ्यस्त बनाने के लिए सृजा गया है।

घर में बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर, रेडियो आदि उपकरण अपने आप में सही होने पर भी चलते तभी हैं, जब उनका संबंध बिजलीघर से जुड़ा हो। यह जोड़ने वाले तार न तो बिजली घर है और न उपकरण; फिर भी उन्हीं के आधार पर बिजली की शक्ति का लाभ मिल पाता है।

बड़े तालाब और छोटे तालाब की ऊपरी सतह एक करनी हो तो, दोनों के बीच नाली बना दी जाती है। बड़े का पानी छोटे में आने लगता है और वह प्रवाह तब तक चलता ही रहता है, जब तक कि दोनों की सतह एक जैसी नहीं हो जाती। योग-साधना में आत्मा और परमात्मा दोनों परस्पर जुड़ते हैं; अंततः एक जैसे हो जाते हैं।

बेल की कमर पतली होती है, वह फैल तो सकती है, पर ऊँची नहीं चढ़ सकती। पेड़ से लिपट जाने पर वह क्रमशः ऊपर उठने लगती है और पेड़ की ऊँचाई तक पहुँच जाती है। आत्मा बेल की तरह है; पर परमात्मारूपी पेड़ से लिपटने लगे तो उसका स्तर भी उतना ही ऊँचा उठ जाता है।

पतंग की डोर किसी कुशल उड़ाने वाले के हाथ में रहे तो वह कागज का टुकड़ा आसमान चूमता है। लकड़ी के नगण्य से टुकड़े से बनी कठपुतली जब बाजीगर के हाथों अपने को सौंप देती है तो उसका अभिनय देखते ही बनता है। उड़ाने वाले के हाथ से डोर छूट जाने पर पतंग जमीन पर ही पड़ी दिखाई देगी। यह बात कठपुतली के संबंध में भी है। बाजीगर से संपर्क न रहने पर वह किसी कोने में छितराई पड़ी होगी। डोरी को उपासना कह सकते हैं जो सही और सुदृढ़ हो तो आत्मा, पतंग की तरह ऊपर उठेगा और कठपुतली की तरह प्रशंसा योग्य अभिनय करेगा।

बाँस का टुकड़ा अपने को खाली कर देता है। साथ ही वादक के होठों के साथ सटकर समर्पण में भी कमी नहीं रहने देता, वादक की फूँक के अनुरूप बजने लगता है। यही है बांसुरी का सौभाग्य जिससे उसकी ध्वनि पर सभी मोहित होते हैं। हिरन खड़े रह जाते हैं और साँप नाचने लगते हैं। योग में साधक को साध्य के प्रति यही आत्मसमर्पण कथनी तक सीमित न रहकर करनी में उतारना पड़ता है।

सीप का मुँह खुला होता है तो स्वाति बूँदों का अनुग्रह उसमें मोती उत्पन्न करने का सुअवसर प्रदान करता है। चंदन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़−झंखाड़ भी वैसे ही सुगंधित बन जाते हैं। इसे एकात्मता का चमत्कार कह सकते हैं।

आग के समीप पहुँचने पर हर वस्तु गरम होने लगती है। इसी प्रकार बर्फ की समीपता से ठंडक का आनंद मिलता है। ईंधन जब आग के साथ एकात्म होता है तो उसका अपना मूल्य नगण्य होने पर भी अग्नि के समस्त गुणों से भरपूर बन जाता है। उपासना की योगपरक प्रक्रिया यही है। उसमें आत्मसमर्पण और अनुशासन का अवधारण करना पड़ता है। तादात्म्य होने का यही तरीका है, इसमें भक्त को भगवान के अनुशासन मानने होते हैं, उसे अपनी मर्जी पर चलाने— मनोकामना को पूरी करने के लिए बाधित नहीं करना पड़ता। चिड़ीमार-मछलीमार की तरह फुसलाकर चंगुल में फँसा लेने और उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कुचेष्टा कोई सच्चा भक्त न कर सकता है और न वैसा कुछ सोच ही सकता है।

नाला नदी में मिलकर तद्रूप होता है। नदी को लौटकर नाला बनने के लिए बाधित नहीं करता। बूँद समुद्र में अपने को विलीन करके उतनी ही विशाल बनती है, किंतु समुद्र को बूंँद बना लेने की बात नहीं सोचती। लोहा परस से मिलकर अपनी कलिका गँवा देता है और उसका परिवर्तित स्वरुप सोना बनकर चमकता है। उसका यह आग्रह नहीं होता कि पारस को लोहा बनना चाहिए। पत्नी-पति को आत्मसमर्पण करती है और बदले में उसके यश-वैभव की उत्तराधिकारिणी बन जाती है। आग ईंधन नहीं बनती। ईंधन को ही आग बनना पड़ता है। पानी दूध में मिलता है और उसी में विलय हो जाता है। उसका यह हठ नहीं होता है कि दूध को पानी बनना चाहिए। वरिष्ठ के साथ कनिष्ठ जुड़ते हैं। वरिष्ठ को कनिष्ठ बनने के लिए विवश नहीं करते हैं। यही अध्यात्म योग है। आँधी के साथ चलने वाले तिनके और पत्ते आसमान में उड़ते दिखाई पड़ते है। भक्त की स्थिति भी भगवान को आत्मसमर्पण करने के उपरांत ऊँची उठती चली जाती है और अंततः दोनों इकट्ठे होकर रहते हैं। बादल के साथ मिलकर समुद्र का खारा–भारी और अचल पानी आकाश की सैर करता है। वर्षाजल बनकर सबकी प्यास बुझाने का श्रेय प्राप्त करता है। भक्ति की प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया भी यही होती है।

योग की सिद्धियों का शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। उसे किसी क्रिया−प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं; व्यक्ति की उस आस्था की प्रतिक्रिया कहना चाहिए जो साधक को महान के प्रति आत्मसमर्पण करने के लिए विवश करती है। इसी को एकात्म या अद्वैत की स्थिति कहते हैं। इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अपने को देवत्व के लिए समर्पित करता है और बदले में दैवी संपदाओं का अधिष्ठाता, सिद्धपुरुष बनता है।

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