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Magazine - Year 1982 - Version 2

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योग-साधना का प्रथम चरण एकाग्रता संपादन

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अध्यात्म-साधना में एकाग्रता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। साधनाओं में से अधिकांश का एक ही उद्देश्य है— एकाग्रता−संपादन। नादानुसंधान, चक्र−वेधन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि जितनी भी योग की शाखा−प्रशाखाएँ हैं–उन सब में एक ही प्रक्रिया है— उच्चस्तरीय चिंतनसहित एकाग्रता की साधना। राजयोग, हठयोग, भक्तियोग, लययोग की समस्त दिशा धाराएँ जिस एक स्थान पर आकर केंद्रित होती हैं, उसे एकाग्रता कहा जा सकता है। एकाग्रता में वृद्धि के अनुपात में ही साधक अपनी प्रगति और सफलता का अनुमान लगाते हैं। इसीलिए उपनिषद्कार ने नारद−सनत्कुमार जिज्ञासा-समाधान के माध्यम से कहा है— "संकल्पो वाव मनसी भूयान। चित्तं वाव संकल्पाद्भूयो। ध्यानं वाव चित्ताद्भूयो।” अर्थात् मन से बढ़कर संकल्प, संकल्प से भी बढ़कर चित्त तथा चित्त से भी बढ़कर ध्यान है। इस प्रतिपादन में वस्तुतः ध्यान−साधना अर्थात् एकाग्रता मिश्रित ध्यान−धारणा को ही प्राथमिकता दी गई है।

एकाग्रता की शक्ति से सभी भली−भाँति परिचित हैं। छोटा-सा आतिशी शीशा सूर्य की किरणों को केंद्ररितकर देखते−देखते अग्नि उत्पन्न कर देता है। यह अग्नि, दावानल का रूप तक ले लेती है। वही सूर्य अपना प्रकाश चारों ओर बिखेरे है, जिसकी गर्मी उस शीशे में कैद ऊर्जा से कहीं करोड़ों गुना अधिक है। मीलों परिधि में बिखरी होने के कारण वह मात्र देखने योग्य प्रकाश, चकाचौंध तथा सामान्य-सी गर्मी दे पाती है। नदियों, तालाबों, समुद्र से ढेरों भाप उठती व बिखरती रहती हैं; पर थोड़ी−सी भाप का केंद्रीकरण प्रेशर कुकर से मिनटों में भोजन बनाने स्टीम इंजन से भारी-भरकम रेलगाड़ी चलाने तथा थर्मल पॉवर स्टेशन से विद्युत का भारी मात्रा में उत्पादन कर सकने में समर्थ होता है। बिखरे धागों की तुलना में बुनी हुई मोटी रस्सी, सींकों की तुलना में बुहारी, बिखरी बारूद की तुलना में बंदूक की नली में उसका उपयोग, मोटी छड़ की अपेक्षा नुकीले बर्मे या सुई से अधिक काम ले लेना; इस एक ही तथ्य के प्रत्यक्ष स्थूल उदाहरण हैं कि बिखरी शक्ति की तुलना में समेटी हुई, केंद्रीभूत हुई शक्ति अधिक समर्थ होती है। इसी प्रकार आत्मिक-क्षेत्र में एकाग्रता की शक्ति का महत्त्व उससे भी कहीं अधिक है, जितना कि सामान्यतया इन उदाहरणों से समझा जाता है। इस शक्ति की प्रतिक्रिया ही सारी ऋद्धि−सिद्धियों एवं सफलता–यश−सम्मान के रूप में बहिरंग में दृष्टिगोचर होती है।

साधना-मार्ग पर चलने वाला पथिक यही पुरुषार्थ करता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा को केंद्र-विशेष पर एकत्र कर वह उसे दिशा-विशेष में नियोजित करता है। ध्यान का यही प्रमुख उद्देश्य है। ईश्वर-प्राप्ति और आत्मकल्याण जैसे महत् प्रयोजनों के लिए भी तन्मयता−तत्परता की आवश्यकता पड़ती है। वह एकाग्रता जिसमें तन्मयता का समावेश हो, जड़ता का नहीं, किस माध्यम से अर्जित की जाती है, उसमें इष्ट के प्रति किन भावनाओं को चिंतनक्षेत्र में उतारना होता है, इष्ट का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है, इस पर ऋषि−मनीषियों ने विशद अनुसंधान किया है एवं आप्त वचनों के रूप में अपने निष्कर्ष जनमानस के सम्मुख रखे हैं।

मुंडकोपनिषद् के द्वितीय मण्डूक के द्वितीय खंड में ऋषि कहते हैं—

“आविः संनिहितं गुप्तचरं नाम महत् पदमत्रैतत् समर्पितम्। एजत् प्राणग्नि मिषच्च त्रदेतज्जानथ सदसद्ववरेण्यं परं विज्ञानाद्य द्वरिष्ठं प्रजानाम्॥1॥ यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च यस्मँल्लोका निहिता लोकिनश्च। तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाड् मनः। तदेतत् सत्यं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि।”॥2॥

अर्थात्— ”उस परमेश्वर को जानना चाहिए जो सत्-असत् रूप में सबके द्वारा वरणीय, वरिष्ठ और जीवात्माओं की बुद्धि के परे हैं। ज्योतिस्वरूप निकटस्थ, गुप्तचर नामधारी, महान पद वाले, श्वांस लेने वाले, नेत्रों का खोलने–बंद करने वाले जो प्राणी हैं, वे सब इसी परम सत्ता को समर्पित हैं। हे सौम्य! तू उस बेधने के योग्य लक्ष्य को बेध डाल; जो तेजस्वी सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं और लोकों में निवास करने वाले प्राणियों के आश्रय स्थान हैं, वही अविनाशी ब्रह्म है। वही मन, वाणी, प्राण, सत्य और अमरत्व से युक्त है।”

उपनिषद्कार ने इस व्याख्या में आगे प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण तथा ब्रह्म को उसका लक्ष्य बताया है और कहा है कि सच्चा योगी लक्ष्य को बेधकर उसी में तन्मय हो जाता है। “शरवत् तन्मयः भवेत्” से तात्पर्य यही है कि जीव को बाण के समान तद्रूप हो जाना चाहिए। लक्ष्यबेध में प्रमाद न हो, वैसी ही एकाग्रता हो, जैसी धनुर्धारी की होती है। यही उपासना का तत्त्वदर्शन है। जागृत अवस्था में कार्य करने वाला मन विभिन्नता की कल्पना करता है। जब वही मन एकाग्र हो स्थिर होने लगता है तो विविधता की कल्पनाएँ मिट जाती हैं और एकता का— जीव−ब्रह्म की पारस्परिक निकटता का अनुभव होने लगता है। जागृति की दूसरी अवस्थाएँ हैं— स्वप्न एवं सुषुप्ति। भूमा-अवस्था तो वहाँ भी होती है; पर वह मन की स्थिरता नहीं है। इसीलिए लक्ष्यबेध वाली तन्मयता को एकाग्रता के साथ जोड़कर साधना के तत्त्वज्ञान का विवेचन किया जाता है।

धनुर्धारी की इस उपमा को अर्जुन ने समझा, बिखरी मनःस्थिति को एकाग्रचित्तकर लक्ष्यबेध किया और वे सर्वगुणसंपन्न द्रौपदी का वरण कर सके। इस द्रौपदीरूपी चरम लक्ष्य की प्राप्ति हर आत्मारूपी अर्जुन द्वारा संभव है।

श्वेताश्वतरोपनिषद् में तो इस तथ्य को बड़ी ही प्रांजल भाषा में समझाया गया है। ऋषि कहते हैं—

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वयार्रात्राधिरुध्यते। सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मनः॥ 216

अर्थात्— जहाँ अग्नि का मंथन होता है, जहाँ प्राण का विधिवत् निरोध किया जाता है, जहाँ सोमरस का प्राकट्य होता है। उस स्थान पर मन नितांत पवित्र होता है।”

यही पवित्र—निरोध किया मन इष्ट प्राप्ति में सहायक होता है, पर इसके लिए बड़ा पुरुषार्थ करना होता है।

“दुष्टाश्वयुक्तभिव वाहमेनं, विद्वान मनो धारयेता प्रमत्तः।"

अर्थात्— जैसे चतुर सारथी दुष्ट अश्वों वाले रथ को भी निर्दिष्ट मार्ग में ले जाता है, वैसे ही मन को भी सावधानीपूर्वक वशीभूत रखें।” ध्यान-प्रक्रिया के लिए धनुर्धारी और चतुर सारथी बने बिना गाड़ी आगे चलेगी नही।

पातंजल योग दर्शन का मुख्य उपदेश यही है, कि मनुष्य चित्तवृत्तियों के निरोध से स्थूल भाव से प्रगति करके सूक्ष्मता की ओर अग्रसर होता जाए अथवा भौतिकता को कम करके आत्मतत्त्व को ग्रहण करता चले। मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ ही भौतिक अथवा स्थूलजगत की वस्तुओं को ग्रहणकर उनमें लिप्त होने वाली होती हैं। जैसे−जैसे उनका निरोध किया जाता है, उन्हें बहिर्मुख अवस्था से अंतर्मुख बनाया जाता है, वैसे−वैसे मनुष्य आत्मजगत में प्रवेश होता चला जाता है। मुख्य साधन है, किसी विशेष विधि के द्वारा चित्तवृत्तियों को एक लक्ष्य पर केंद्रित करना। इस अभ्यास से अंततः समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है जो कि योगमार्ग का चरम उद्देश्य है। इसीलिए दृष्टा मुनि ने आरंभ में ही योगसिद्धि के मूल मंत्र ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ का उपदेश देकर उसकी पूर्ति के लिए अष्टांगयोग का साधन बतलाया है। इसी योगमार्ग की विभिन्न शाखा–प्रशाखाएँ विकसित हुई हैं, जिनका सहारा लेकर साधक आत्मकल्याण का पथ−प्रशस्त करता है। चंचलता का निरोध परंतु इन सबमें एक प्राथमिक शर्त है, जो ऐसा कर सकेगा, वही अपनी बहुमूल्य क्षमताओं को योजनाबद्ध रूप ये अभीष्ट दिशा में लगाने में समर्थ हो सकेगा। प्रगति हमेशा बिखराव को सिमेटने और दिशाबद्ध चरण बढ़ाते चलने पर ही संभव होती है।

अपने भीतर क्या है? पिंड की पिटारी में कैसे−कैसे बहुमूल्य रत्नों के भंडार छिपे पड़े हैं? यह तब तक नहीं ज्ञात हो पाता जब तक कि व्यक्ति अंतर्मुखी नहीं बनता। समुद्रतल पर मणि−माणिक्य मोती तो हैं; पर उन्हें समेटने के लिए गोताखोर स्तर की प्रवीणता विकसित करनी होती है। इंद्रियों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि वे बहिरंग को ही देख पाती हैं व बिखरी संपदा के सान्निध्य से होने वाली रसानुभूति का आनंद लेने को लालायित रहती हैं। अंतः में भरे पड़े अपार वर्चस्व को जानने-खोजने के लिये इंद्रियशक्ति व बौद्धिकशक्ति का नहीं—आत्मिक शक्ति को खटखटाने वाली एकाग्रता सम्पादन की योगशक्ति का ही आश्रय लेना होता है। परम पिता ने न केवल विशाल ब्रह्मांड बनाकर रख दिया है, वरन् उसकी लघु इकाई ‘पिंड’ के रूप में गोरख धंधे से जकड़ दी है। पहेलियाँ उलझाने हेतु एक लीला-जगत विनिर्मित कर दिया है; ताकि हम अविज्ञात को जान सकें, प्रसुप्त को जगा सकें, अनुपलब्ध को हस्तगत कर सकें।

आत्मिक प्रगति की दिशा में चरण बढ़ाते समय जब साधक अंतर्मुखी बनता है तो उसे एकाग्रता संपादन की ध्यान-प्रक्रिया का सहारा लेना होता है। इसका एक ही प्रयोजन है— भीतरी सत्ता को, उसके वैभव को समझा जाए। यह परखा जाए कि इस क्षेत्र में भरी विकृतियों के दलदल में प्रगति का रथ क्यों फँसा−रुका पड़ा है। ध्यान तभी सार्थक है जब एकाग्रता से अर्जित–संग्रहित शक्ति को अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर लिया जाए। ‘मेडीटेशन’ की चर्चा तो बहुत होती रहती है; पर इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर मानना चाहिए। इस प्रवीणता को प्राप्तकर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएँ प्राप्त कर सकता है।

बाँधों में पानी को रोक लिया जाता है, पर यदि इसका प्रयोग न किया जाए, इसे ऐसे ही संग्रहित रखा जाए तो उसका क्या उपयोग? जब उसे छोटे छेदों से निकाला जाता है तो वही शक्तिशाली धारा ताकतवर ‘टर्बाइन्स’ को घुमाती है व विद्युत उत्पादन होने लगता है। यह संग्रहित जल का सदुपयोग ही है जो इस शक्तिशाली रूप में निकलता है। छोटे−छोटे जलप्रपातों से पनचक्की जैसी उपयोगी मशीनें चल पड़ती हैं। यह एकाग्रता की— अर्जित प्रखरता की शक्ति है। एकाग्रता को दूसरे शब्दों में शक्ति का एकीकरण कह सकते हैं। इससे सामान्य-सा जीवन, असाधारण विशेषताओं और सफलताओं से भरा−पूरा दृष्टिगोचर होने लगता है।

असफलताओं में अन्यमनस्कता, अरुचि, उपेक्षा एवं बिखराव ही प्रधान कारण होते हैं। महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ रुचि का केंद्रीकरण एवं मानसिक क्षमता के एकीकरण का ही चमत्कार होती हैं। यह तत्त्वदर्शन समझ लिया जाए तो योग-साधना का पहला चरण पूरा हो जाता है। ध्यानयोग का उद्देश्य एक ही है—मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर एक चिंतन बिंदु पर केंद्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त कर लेना। जिसे इस प्रयोग में सफलता मिलने लगती हैं, वह उसी अनुपात में अंतःचेतना को बेधक प्रचंडता से अभिपूरित करता चला जाता है। शब्दबेधी बाण की तरह लक्ष्यबेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है।

इस प्रकार सारे मंथन का निष्कर्ष निकल कर यही आता है–

तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धदि गतं क्षयम्। एतज् ज्ञानञ्च ध्याञ्च शेषेऽन्यो ग्रन्थ विस्तरः॥

अर्थात्— तब तक मन का निरोध करे जब तक कि सब वासनाएँ नष्ट न हो जाए। यही ज्ञान है, यही ध्यान है, बाकी सब ग्रंथों का विस्तार है।

रागों का निराकरण एवं आत्मविकास की सुनियोजित रीति−नीति का निर्धारण ही ध्यान है। उस परम पिता के पवित्र और उत्कृष्ट स्वरूप के अनुरूप बनने के प्रबल प्रयास हेतु प्रचंड संकल्प उभारना ध्यानयोग की अगली सीढ़ी है। पहले निरोध, फिर सुनियोजन। धीरे−धीरे इस प्रगतिक्रम पर चलते हुए इष्ट की तादात्म्यता जीव को ब्रह्मस्तर तक ही पहुँचा देती है। जब अपनी सघन आत्मीयता का आरोपण इष्ट में किया जाता है, भले ही वह साकारोपासना का भगवान के ‘रूप’ का ध्यान हो अथवा उच्चस्तरीय सिद्धांतों से, आदर्शों से प्यार, जीव−ब्रह्म की सत्ता का एकीकरण होने लगता है।

ध्यानयोग का–एकाग्रता संपादन का सच्चा परिपक्व स्वरूप यही है कि अवांछनीय बिखराव पर नियंत्रण स्थापितकर मन को विधेयात्मक प्रयोजन में नियोजित करने की प्रवीणता अर्जित की जाए। तन्मयता और तत्परता जब एकाग्रता से मिल जाते हैं तो सफलता सुनिश्चित हो जाती है। ईश्वर, गुरु या आप्त मानवों के प्रति गहन श्रद्धा उत्पन्न करके, उनसे सघन आत्मीयता स्थापित करने की मनोविज्ञान समर्पित अध्यात्म-साधना से तन्मयता जन्म लेती है और एकाग्रता उत्पन्न होने का साधक बन जाती है। वैचारिक नियोजन और भावभरी ललक का समावेश हुए बिना चिंतन उखड़ा−उखड़ा ही रहेगा। प्रगति-पथ पर आगे बढ़ने के लिए इसी कारण दोनों का समन्वय आवश्यक है।

दैनंदिन जीवन की समस्त गतिविधियों को सुनियोजित करने, आलस्य-प्रमाद की अस्त-व्यस्तता पर अंकुश स्थापित कर लेने से प्रारंभ हुई एकाग्रता संपादन की यह साधना कालांतर में भौतिक सिद्धियों और आत्मिक विभूतियों के रूप में साधक पर बरसती हैं— उसे कृतकृत्य बनाती हैं। अपनी साधना का ककहरा यहीं से आरंभ किया जाए और पल−पल, पग−पग पर ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ के दर्शन को जीवन में उतारने का प्रयास किया जाए।

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