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Magazine - Year 1983 - Version 2

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सफलताओं की जननी - मनुष्य की थाती संकल्प शक्ति

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इंद्रियों की बनावट बहिर्मुखी है। यही कारण है कि अधिकांश व्यक्ति जो कुछ सोचते अथवा करते हैं उनमें बहिरंग परिस्थितियों की प्रेरणा का अधिक योगदान होता है। बाह्य अनुकूलताओं को प्रायः अत्याधिक महत्व दिया जाता है। प्रतिकूलताओं को एक दैवी अभिशाप के रूप में माना जाता है तथा यह सोचा जाता है कि इनके रहते कभी भी आगे बढ़ना प्रगति-पथ पर चलना सम्भव नहीं है। साधनों का महत्व तो है पर उन्हें ही सर्वस्व मानना एक मानसिक परावलंबन है। ऐसी मनःस्थिति के रहते सचमुच ही प्रगति सम्भव नहीं।

मनुष्य को प्राप्त क्षमताएं अन्यान्य भौतिक साधनों की तुलना में अधिक मूल्यवान तथा सामर्थ्यवान हैं। अध्यात्मवादियों से लेकर आधुनिक मनोवैज्ञानिकों तक सभी ने माना है कि मनुष्य के संकल्प, इच्छा, आकांक्षा जीवन्त शक्ति स्त्रोत है तथा बाह्य भौतिक साधनों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं। इनके अनुरूप ही व्यक्ति का स्तर बनता है। दृश्य परिस्थितियों के निर्माण में भी अदृश्य भूमिका इनकी ही होती है। इच्छाएँ आकाँक्षाएँ न केवल परिस्थितियों को प्रभावित करती हैं वरन् शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी जिम्मेदार हैं।

प्रचलित फ्रायडवादी मनोविज्ञान से अलग सुपर साइकोलॉजी का प्रतिपादन करने वालों में अमरीकी मनोवैज्ञानिक अब्राह्म मैस्लो का नाम प्रमुख है। उनका कहना है कि ‘मानसिक स्वास्थ विचार अथवा इच्छा तंत्र पर निर्भर करता है। यह विचार तन्त्र एक कार की बैटरी के समान है। जिस प्रकार बैटरी के निष्क्रिय पड़ते ही कार का चलना सम्भव नहीं है, उसी तरह निकृष्ट विचारणा के रहते मानवी विकास अवरुद्ध रहता है। मनःअसन्तुलन प्रायः इसी कारण उत्पन्न होते और विविध प्रकार के शारीरिक, मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। मैस्लो का मत है कि मनुष्य के अन्तराल में सुपर चेतन केन्द्र का भी अस्तित्व है जो प्रसुप्त पड़ा है। इस प्रसुप्ति का कारण है उस केंद्र से उठने वाली दिव्य प्रेरणाओं की उपेक्षा। उन्हें सुना और तद्नुरूप क्रियाकलाप अपनाया जा सके तो मनुष्य अपनी सामर्थ्य को कई गुना बढ़ा सकता है।।

आत्म विस्मृति से ग्रस्त व्यक्तियों के संदर्भ में मनःशास्त्री जेम्स अपनी पुस्तक ‘दि एनर्जीज ऑफ मैन’ में लिखते हैं कि ‘उनकी स्थिति हिस्टीरिया ग्रस्त रोगी की तरह होती है जिसकी दृष्टि भ्रमित रहती तथा शक्ति एवं प्रतिभा कुँठित पड़ जाती है। समाज में उन व्यक्तियों की ही बहुलता है जो अपनी भीतर की सामर्थ्य से प्रायः अपरिचित बने रहते हैं, न तो उसे जगा पाते हैं और न ही उपयोग कर पाते हैं। फलतः दीनहीन असमर्थों असहायों जैसी जिन्दगी व्यतीत करते हैं।’

जेम्स के अनुसार विचार पद्धति सही होने पर मनुष्य हर समस्या का समाधान ढूंढ़ने में पूर्णतया समर्थ है। आत्मविस्मृति के कारण ही विचार तन्त्र गड़बड़ाता और किसी भी समस्या पर सही विचार करते नहीं बनता। वे पहाड़ जैसी दीखतीं और दुर्जेय जान पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में निषेधात्मक दृष्टि को परिपोषण मिलता है। जीवन के प्रति निराशा ऐसे कदम उठाने की प्रेरणा देती है जिसे पलायनवाद की संज्ञा दी जा सकती है। उलटे चिन्तन के उलटते तथा सही मार्ग पर आते ही अपनी भूल का पता चलता तथा अनुभव होता है कि जो सोचा और किया जा रहा था वह अज्ञान से अभिप्रेरित था। ‘दि डिवाडडेडसेल्फ’ में एक घटना का उल्लेख है जो विधेयात्मक चिन्तन की असाधारण महत्ता पर प्रकाश डालती है-

एक युवक को विरासत में अगाध पैतृक संपत्ति मिली। उसने संपत्ति को व्यसनों में पानी की तरह बहा दिया। उसकी मौजमस्ती तब तक चलती रही जब तक कि वह पूरी तरह कंगाल नहीं बन गया। विलासिता की स्थिति में उसकी सामर्थ्य भी कुंठित हो गयी। दरिद्रता असह्य होने पर वह आत्म हत्या करने चल पड़ा। इसके लिए वह एक ऊँची चोटी पर चढ़ गया। छलांग लगाने को जैसे ही तैयार हुआ उसके मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा। आत्म विश्वास जग पड़ा। उसने सोचा जितना दुस्साहस आत्महत्या करने के लिए जुटाया जा रहा है उतना ही यदि प्रस्तुत विपन्नता को दूर करने में लगा दिया जाय तो निश्चित रूप से दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल सकता है। इसी विचारणा से प्रेरित होकर एक नये उत्साह नयी उमंग के साथ वह पहाड़ी से नीचे उतरा। पुरुषार्थ एवं संचय की नीति अपनाकर कुछ ही वर्षा में सम्पन्न बन गया। ज्ञातव्य है कि ऐसे ही विचार आत्मबोध की दिशा में अग्रसर स्वामी रामतीर्थ व दयानन्द को भी आये थे। उन्होंने अन्तः की प्रेरणा के आधार पर अपनी जीवन दिशा बनायी खुद तरे और कइयों को पार किया।

एक अन्य घटना का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है- भाव शून्यता के रोग से एक युवक ग्रस्त था। अहिर्निश वह शराब के नशे में डूबा रहता था। मद्यपान से शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां खोखली पड़ गयीं। किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता था। क्रमशः वह मृत्यु की और बढ़ रहा था। एक दिन अचानक भीतर से प्रेरणा उठी की वह अपने आपको मारने पर तुला हुआ है। उसे व्यसन छोड़ देना चाहिए। यह असम्भव नहीं पूर्णतया सम्भव है। इस तरह के भावों का संचरण होते ही उसने शराब न पीने का संकल्प लिया। उस दिन से वह अपने आपको कामों में जबरन व्यस्त रखने लगा। जब कभी भी मन में नशे की माँग उठती वह अपने संकल्पों को मजबूत बनाता तथा उस समय अच्छी पुस्तकों के अध्ययन में लग जाता। ऐसी पुस्तकें जो उसके संकल्पों को दृढ़ बनाती तथा विधेयात्मक विचारों को परिपुष्ट करतीं। इस साधना का प्रतिफल यह निकाला कि उसने अपने जानलेवा व्यसन को छोड़ने में सफलता पायी। इस दृढ़ता से उसके संकल्प शक्ति में वृद्धि हुई। विधेयात्मक चिन्तन के कारण उसे असाध्य जान पड़ने वाले रोग से छुटकारा मिला। जीवन, जो उसे भारभूत निरर्थक जान पड़ता था। अब उत्साह उमंग से भरा तथा सार्थक लगने लगा।

प्रख्यात मनःशास्त्री कॉलिन विल्सन का कहना है कि मन की परतों को समझने में कुछ गलती हुई है। दृश्य पक्ष चेतन के क्रिया-कलापों के रूप सामने आता हैं, जो बहिर्मुखी इंद्रियों का प्रायः पक्षधर रहता है। इंद्रियों की रुझान उपभोग में होती है। वह चेतन मन को भी अपने अनुरूप खींचती है। फ्रायड ने यह देखकर ही प्रतिपादन किया था कि मनुष्य अन्य पशुओं की तरह मूल प्रवृत्तियों का गुलाम तथा इंद्रियों का दास है। पर विल्सन का मत है कि “अदृश्य पक्ष अचेतन तथा सुपर चेतन की चमत्कारी सामर्थ्य से अपरिचित होने तथा उपयोग में न आने के कारण ही ऐसा सोचा जाता है। बोध हो सके तो मनुष्य अपनी हर विकृत इच्छा, आकांक्षा तथा उनसे संचालित होने वाले अवाँछनीय क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण स्थापित कर सकता है।

चेतन अचेतन के बीच सामंजस्य का अभाव भी कितनी ही प्रकार की समस्याएँ खड़ा करता है। उचित अनुचित के बीच भेद न कर पाने तथा यथार्थता से दूर बने रहने में प्रायः यह अड़चन ही आड़े आती तथा आत्मविकास के मार्ग में गतिरोध उत्पन्न करती है। दोनों में तालमेल बिठा सके तो मन की सामर्थ्य कई गुनी बढ़ सकती है। इसके लिए सुपर चेतन के निर्देशों को समझना तथा उसकी प्रेरणाओं पर चलना होगा, जिसकी प्रायः उपेक्षा होती रहती है। इस केन्द्र से दिव्य प्रेरणाएं कभी न कभी उभरती हैं पर अचेतन का अभ्यस्त स्वभाव उन्हें दबा देता तथा व्यवहार में आने से रोक देता है। विद्वान ‘मित्या करामाजोव’ के अनुसार श्रेष्ठता की भावना का उद्भव ही मानवी विकास का सही अर्थों में कारण बनता है। ऐसी भावनाएँ सुपर-चेतन से समय-समय पर निस्सृत होती रहती हैं जिसे अधिकांश व्यक्ति प्रायः अनसुनी कर देते हैं। फलतः व्यक्तित्व विकास की संभावनाएं धूमिल पड़ी रहती हैं।

‘व्हाट मेक्स ए लाइफी सिग्नीफिकेण्ट’ पुस्तक में मनःशास्त्री विलियम मोक्स ने मनुष्य की सुपर चेतन परतों पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि मनुष्य के भीतर अतिमानवी सामर्थ्य विद्यमान हैं। जिन्हें करतलगत कर सकना सम्भव है। इसका आरम्भिक क्रियात्मक चरण है ढर्रे की गतिविधियों को उलटने तथा सूझ-बुझ से भरी दूरदर्शिता युक्त महानता के मार्ग का अवलम्बन करने के लिए अपने संकल्पों को परिपुष्ट तथा दृढ़ करना। संकल्प की दृढ़ता पशुवत् अभ्यस्त स्वभावों से छुटकारा पाने तथा आत्म विजय प्राप्त करने का प्रमुख आधार है। इसका सम्पादन तथा अभिवर्धन निरन्तर के अभ्यास से सम्भव है। जो जितना आधिक संकल्पवान है, वह उतना ही अधिक समर्थ है। संकल्प दृढ़ता जब सत्प्रवृत्तियों का पक्षधर बन जाती है तो अतिमानवी सामर्थ्य हस्तगत करने का मार्ग क्रमशः प्रशस्त होने लगता है।

जेम्स ने एक नये मनोवैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन किया है जिसकी प्रायः फ्रायड तथा फ्रायडवादी अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने उपेक्षा की है। वे कहते हैं ‘मनुष्य के सदुद्देश्यपूर्ण कार्य करने से इच्छा शक्ति, संकल्पशक्ति प्रबल होती है। इससे मन की सचेतन अचेतन परतों के बीच तारतम्य बनाने में भी सफलता मिल जाती है। प्रायः अधिकांश व्यक्ति यह शिकायत करते सुने जाते हैं कि मन में श्रेष्ठ कार्य करने तथा महानता के पथ पर चलने की आकाँक्षा तो है पर जाने किन कारणों से वह सुयोग नहीं बन पा रहा है। वस्तुस्थिति पर गम्भीरता से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि उनकी गतिविधियाँ निरुद्देश्य बनी रहतीं अथवा भौतिक प्रयोजनों के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। सत्प्रवृत्तियां अपनाने का वे सत्साहस नहीं जुटा पाते, जिसने संकल्पों को सुदृढ़ बनाने का सुअवसर मिल सकता था। सत्कार्यों में मन को अभ्यास का अवसर न देने से ‘वह आकाँक्षा’ कि महानता को वरण किया जाय, मात्र एक कपोल कल्पना बनी रहती है।

इच्छाओं-आकाँक्षाओं के अनुरूप ही मनुष्य के क्रिया-कलाप बनते हैं। उनकी बागडोर शरीर की इन्द्रियों अथवा मन के हाथों में दे देने से मनुष्य सचमुच ही अपनी मूल प्रवृत्तियों का गुलाम बन जाता है और आत्मविकास के मार्ग को स्वयं अवरुद्ध कर लेता है। अभ्यास में ढल जाने के बाद इंद्रियों की गुलामी तोड़ना कठिन पड़ता है। तब वह उनकी माँगों को ही प्रमुख मानता है तथा उनकी पूर्ति में ही जीवन खपा देता है। बाह्य साधनों को अतिशय महत्व देने की ऐसी प्रवृत्ति बन जाती है कि उनके अभाव में मनुष्य स्वयं को असहाय असमर्थ,दीन-दुर्बल महसूस करता है।

बाह्य परिस्थितियों को ही सब कुछ मानने की अपेक्षा भीतर झाँका जा सके तो मालूम होगा कि कितनी ही प्रकार की शक्तियाँ अपने ही अन्दर मौजूद हैं जिनका प्रायः सदुपयोग नहीं हो पाता। आत्म विस्मृति के कारण इच्छाओं, आकाँक्षाओं का सुनियोजन नहीं हो पाता। वे मात्र सामान्य प्रयोजन पूरा करने तक रह जाती हैं। सुपर चेतन की दिव्य प्रेरणाओं के अनुरूप उन्हें गतिशील किया जा सके तो महानता को वरण करना हर व्यक्ति के लिए सुगम हो सकता है।

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