
वरदान जो अभिशाप बने
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एक चूहा था। किसी तपस्वी की कुटी में रहता था। बिल्ली उधर से निकलती तो चूहा डर से काँपने लगता। महात्मा ने उससे भयातुरता का कारण पूछा। चूहे ने कहा- बिल्ली का भय सताता है। मुझे बिल्ली बना दीजिए, ताकि निर्भय रह सकूँ।” तपस्वी ने वैसा ही किया। चूहा बिल्ली बन बया- और सिर उठाकर उस क्षेत्र में विचरण करने लगा। कुत्तों ने उसे देख पाया, तो खदेड़ने लगे। कुत्तों ने उसे देख पाया तो खदेड़ने लगे। बिल्ली पर फिर संकट छाया और फिर से तपस्वी से अनुरोध किया- इस बार भी संकट से छुड़ाये और कुत्ता बना दें।”
दयालु महात्मा ने उसकी वह मनोकामना भी पूरी कर दी। बिल्ली अब कुत्ता बनकर भौंकने लगी। अधिक दिन बीतने न पाये कि जंगली भेड़ियों ने उसी गन्ध पाई और मार कर खाने के लिए चक्कर लगाने लगे। कुत्ते का भास फिर लौट आया। डरे, घबराये कुत्ते महात्मा का फिर से अंचल पकड़ा। नया वरदान माँगा भेड़िया बन जाने का। इस बार की कामना भी पूर्ण हो गई। जरक भेड़िये को सिंह नहीं देख सकते क्योंकि उससे चोर शत्रुता मानते हैं। सिंह परिवार की सूचना मिली, तो वे उस भेड़िये की जान लेने पर उतारू हो गये। जरक क्या करता। महात्मा ही उसे त्राण दिला सकते थे। सिंह बनकर निश्चिन्त रहने की कामना जगी और गिड़गिड़ाकर किसी प्रकार अब की बार भी उसकी पूर्ति करा ली। अब उसका परिवर्तित रूप सिंह का था। दहाड़ से उसने सारा क्षेत्र गुंजाना आरम्भ कर दिया। बहुत दिन नहीं बीते थे कि शिकारियों का एक छकड़ा, सिंहों के शवों से भरा हुआ निकला। शिकारियों ने उस क्षेत्र के सारे सिंह मार लिए थे। एक बचा था। उसी की तलाश करने वे महात्मा की कुटी वाले क्षेत्र में ढूंढ़ खोज चला रहे थे। वरदान से बने सिंह को पता चला तो संकट की घड़ी सिर पर मंडराती दीखी। जाता कहाँ, तपस्वी के पास ही हर संकट के निवारण और मनोरथ पूरा कराने पहुँचता था। इस बार भी पहुँचा।
अब की बार तपस्वी की मुद्रा बदली हुई थी, उन्होंने कमण्डल से जल छिड़ककर सिंह को फिर चूहा बना दिया बोले-संकटों का सामना करने का जिनमें साहस पराक्रम नहीं, उसके लिए दूसरों की सहायता से भी कब तक काम चल सकता है।
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एक बार इन्द्रदेव पृथ्वी लोक पर से गुजरे ओर दुःखियों की व्यथा पूछते और वरदान देते चलते। एक जगह पाँच अपंग मिले। एक अन्धा, दूसरा गूँगा, तीसरा बिना पैर का, चौथा बिना हाथ का, पांचवां बिना बुद्धि का। पाँचों ने अपने अभावों को दूर करने के लिए वरदान माँगे। इन्द्रदेव ने उन्हें इस शर्त पर तथास्तु कहा कि नई उपलब्धियों को परमार्थ में लगाया करेंगे।
बहुत दिन बाद देवता उनकी खोज खबर लेने आये देखा कि वे सभी उपलब्धियों को स्वार्थ साधने ओर कुकर्म करने में लगा रहे हैं। इस पर इन्द्रदेव क्रुद्ध थे और जो दिया उसे वापस ले लिया।
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श्रुतायुध के कठोर तप से प्रसन्न होकर शिवजी उसे अमोघ गदा प्रदान की ओर कहा- “इसका उपयोग परमार्थ के लिए करना। स्वार्थ में करने पर यह उलटा फल देगी और प्रयोक्ता को ही मारेगी।
श्रुतायुध उस उपहार को लेकर चला गया एवं उचित अवसर की प्रतीक्षा में उसे संजोकर रखे रहा।
एक दिन तरंग विनोद में अपना अपमान समझकर आवेशग्रस्त श्रुतायुध ने वस गदा भगवान श्रीकृष्ण पर ही चला दी। क्रोध में न विवेक रहा न औचित्य। गदा चली तो वरदान के अनुरूप लौटकर प्रयोक्ता पर आ गिरी और उन्हीं को धराशायी बना दिया।