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Magazine - Year 1983 - Version 2

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आत्म सत्ता की गौरव गरिमा

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बनावट की दृष्टि से मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं होता। सामान्यतया संरचना सबकी ही एक–सी होती है। हाथ-पैर, कान, नाक, आँख, मस्तिष्क की बनावट एक जैसी होती हुए भी कितने ही विद्वान प्रतिभावान हो जाते हैं और अपनी उस विशेषता के सहारे क्रमशः प्रगति सोपानों पर चढ़ते जाते हैं। जबकि कितने ही पिछड़ेपन से ग्रस्त रहते, असहाय, दीन, दरिद्र और दुर्बल बने रहते हैं। प्रकृति प्रदत्त सुविधाएं होते हुए भी उनके सम्बन्ध में सही जानकारी एवं प्रयोग का विधान मालूम न होने से अवनति का अभिशाप ही परिणति बनता है। कितने ही ऐसे भी है जो प्रतिकूलताओं में भी आगे बढ़ने का मार्ग ढूंढ़ लेते-मिट्टी में से सोना उगा लेते हैं। प्रगति के शिखर पर चढ़े तथा अवगति के गर्त्त में पड़े देशों के बीच भारी अन्तर को देखकर इस सत्य को और भी अच्छी प्रकार रखा जा सकता है। आधुनिक तकनीक से अपरिचित रहने वाली कितनी ही जातियों को आज को आज भी जंगली जीवन ही जीना पड़ रहा है। साधनों के करतलगत हो जाने मात्र से प्रगति सम्भव नहीं होती तो मानी सभी मनुष्य एवं सभी देश जातियाँ एक जैसी होतीं, उनमें धरती और असमान जितना अन्तर नहीं दिखायी पड़ता।

मनुष्य ही नहीं अन्यान्य जीवों के लिए भी प्रकृति सम्पदाएं खुली पड़ी है। उन्हें भी खुली छूट थी कि उनका मनमाना उपयोग करें। पर वह प्रवीणता- वह विशेषता अन्य जीव नहीं दर्शा सके, जिसे मनुष्य ने प्रदर्शित किया। मालामाल कर देने वाले हीरे, सोने की खदानें, खनिज सम्पदाएं-पेट्रोलियम के भण्डार आदि उन जीवों के पैरों के नीचे भूगर्भ में दबे पड़े हैं उनमें से कोई भी उनका उपयोग कर सका। पैरों से रौंदे जाने वाले धूल सदृश कणों से परमाणु बम तो मनुष्य ही बना सका है। वे बेचारे तो माचिस की एक तीली का भी निर्माण न करे सके। जो भी मिल जाय कच्चे खा लेने तथा जहाँ-तहाँ प्रकृति के अंचल में सो जाने का उपक्रम मात्र ही वे बना पाते हैं। प्रकृति की अनुकम्पा पर ही उन्हें पूर्णतः आश्रित रहना पड़ता है। करोड़ों वर्षों से वे असहाय, असमर्थों की स्थिति में है तथा आगे भी उसे दयनीय स्थिति से उन्हें मुक्ति मिलने वाली नहीं है।

इस दृष्टि से मनुष्य समझदार ही नहीं सौभाग्यशाली भी है। यह सौभाग्य रूपी अनुदान ही है उसे बुद्धिरूपी अतिरिक्त तथा बेमिसाल विभूति भी मिली है, जिसके सहयोग से वह पदार्थ के हर घटक का अध्ययन गंभीरता पूर्वक कर सकता है। न केवल अध्ययन कर सकता है। न केवल अध्ययन कर सकता है। बल्कि उनका मनमाने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग भी कर सकता है। उस विलक्षण बुद्धि की जितनी प्रशंसा की जाय कम ही होगी, जिसकी अन्वेषक विशिष्टता ने एक से बढ़कर एक सामर्थ्यों के स्त्रोत ढूंढ़ निकाले। उनसे इस दुनिया भी काया ही पलट गयी। एक सदी पूर्व के एवं अज के संसार में आकाश पाताल जितना अन्तर है, यह वस्तुतः उस अन्वेषक बुद्धि का ही चमत्कार है।

पर उस विडम्बना पर भी कम आश्चर्य नहीं होता कि धरती से अन्तरिक्ष में छलाँग लगाकर उन्मुक्त आकाश में स्वच्छंद विचरने वाला मनुष्य अपनी ही सत्ता से आज भी उतना ही अपरिचित है, जितना कि सदियों पूर्व था। अपने स्वरूप एवं सामर्थ्य का यथार्थ ज्ञान न होने से भटकाव ही हाथ लगता है। शरीर विज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान जैसी विविध ज्ञान की धाराओं से जो ज्ञान मनुष्य के संदर्भ में प्राप्त हुआ है, वह अत्यन्त है। उनसे मानवी सत्ता की सर्वांग- पूर्ण व्याख्या नहीं की जा सकती है। जो ऐसा दम्भ भरते हैं उन्हें अल्पज्ञ ही कहना चाहिए। इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मैटर की व्याख्या-विवेचना करने वाले भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र तथा जीव विज्ञान के माध्यम से एक चेतन जीवन की समग्र व्याख्या करना भी सम्भव नहीं है, पर आश्चर्य यह है कि विज्ञान जगत में ऐसा ही उल्टा प्रयास किया जाता है।

मनुष्य का स्वरूप एवं उसके जीवन का प्रयोजन इतना उथला नहीं है जितना की प्रायः समझा जाता है। मानवी व्यक्तित्व के अनेकों आयाम है। शरीर, मन और बुद्धि से भी ऊंची परतें हैं, ‘सोल’- आत्मा के रूप में सबसे सामर्थ्यवान, रहस्यमय तथा विलक्षण आयाम है, जिसकी सम्वेदना और प्रेरणाओं की अनुभूति तो प्रायः हर व्यक्ति को न्यूनाधिक किसी न किसी रूप में होती रहती है, पर उसके यथार्थ स्वरूप की थोड़ी भी जानकारी नहीं होती। रही होती तो जीवन की दिशा कुछ और ही होती। कमाने-खाने और इसी ढर्रे में खप जाने कितने मात्र से ही अमूल्य जीवन की इतिश्री न हो जाती।

कहना न होगा कि भौतिक जगत के प्रति सजग होते हुए भी संसार आत्म विस्मृति के एक भयंकर युग से गुजर रहा है। उस विस्मृति का ही परिणाम है कि मनुष्य-मनुष्य से लड़ रहा है। बुद्धि दूसरों को गिराने एवं मारने में ही अपनी दुर्बुद्धि का ही परिचय दे रही है। साधन सुविधाओं का अम्बार होते हुए भी मनुष्य की आन्तरिक दरिद्रता, दुःख अशान्ति एवं असन्तोष की मात्रा दिनों दिन बढ़ती जा रही है। मरघट के पिशाचों जैसी उसकी स्थिति हो गयी है। जितने साधन संसार में उपलब्ध है, मात्र उतनों से ही स्वर्गीय परिस्थितियों का आनन्द उठा सकना सम्भव था, पर उस विस्मृति की विडम्बना को क्या कहा जाय? जिसके रहते मनुष्य को नारकीय यन्त्रणा सहनी पड़ रही है। यह दासता वस्तुतः अपने ऊपर मनुष्य ने स्वयं ही थोपी है।

आत्म विस्मृति का घटाटोप छा जाने का एक कारण और भी है। बुद्धिवादी युग की एक मनोवृत्ति-सी बन गयी है कि जो बातें दार्शनिक तर्कों अथवा वैज्ञानिक तथ्यों के ढाँचे में नहीं आती है, उन्हें निरर्थक, अप्रामाणिक ठहरा दिया जाता है। बात इतने ही एक समिति नहीं रहती, उनकी सत्ता को मानने तक से इन्कार कर दिया जाता है। यह बुद्धिवादी पूर्वाग्रह है, जिसके रहते आत्मसत्ता के स्वरूप जैसे गम्भीर विषयों का रहस्योद्घाटन सम्भव नहीं हो पाता। विश्लेषणात्मक बुद्धि की मोटी पकड़ सीमा के बाहर होते हुए भी अतींद्रिय सामर्थ्य दूर-दर्शन, भविष्य दर्शन, विलक्षण इच्छा शक्ति के प्रमाण अनेकों व्यक्तियों में समय-समय पर मिलते रहे हैं जो आत्म-सत्ता की असीम सामर्थ्य का ही परिचय, प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसके बावजूद भी वैज्ञानिक ऐसी किसी अदृश्य-सामर्थ्यवान-सूक्ष्म सत्ता के अस्तित्व के प्रति शंकालु बने हुए हैं जो शरीर मन बुद्धि की संचालक है। इसे पूर्वाग्रह नहीं तो ओर क्या कहा जाय?

पर यदि सत्य की खोज करनी हो तो सत्यान्वेषियों को इस पूर्वाग्रह से मुक्त होना ही होगा। आत्म-सत्ता के अनुसन्धान के लिए नये आधार, नये मापदण्ड तैयार करने होंगे। जिस विज्ञान एवं उसके उपकरणों के माध्यम से शरीर के सूक्ष्म घटकों, केन्द्रों का सही स्वरूप, क्रिया प्रणाली नहीं ज्ञात हो सकी, मस्तिष्क की शक्ति का सात प्रतिशत ही जाना जा सका, उनसे उस सूक्ष्मतम सत्ता का परिचय कैसे मिल सकता है, जो चैतन्य है- अगोचर है निराकार है। सम्भव है, सत्य की खोज के लिए निर्धारित सभी स्थूल वैज्ञानिक मापदण्ड जो बुद्धि द्वारा निर्धारित किये गये है, उलटने पड़े और उनके स्थान पर ऐसे आधार खड़े करने पड़े जो बुद्धि की नहीं मन और अन्तःकरण की उपज हों, जिनका मूलभूत आधार ही सम्वेदना परक हो।

आज का युग, विज्ञान एवं मनोविज्ञान की सन्धि बेला के एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। एक प्रौढ़ हो चला, दूसरे का बचपन आरम्भ हो रहा है। मनःशास्त्र ने इच्छाओं, आकाँक्षाओं, सम्वेदनाओं को व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण प्रेरक तत्वों के रूप में स्वीकार किया है तथा सम्भावना व्यक्त की है कि इनकी व्यक्तित्व गठन में प्रभावी भूमिका हो सकती है। पर आज भी यह अविज्ञात ही है कि एक-सी परिस्थितियाँ एक जैसे दो व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से क्यों प्रभावित करती है ? भली-बुरी इच्छाओं, आकाँक्षाओं को उत्पन्न करने में किनकी प्रमुख भूमिका है- परिस्थितियों की अथवा मनःस्थिति की? यदि मनःस्थिति की, तो एक सी परिस्थितियों में ही वह दो व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न तरह की कैसे विनिर्मित हो जाती है ? आनुवाँशिकी घटकों पर टालकर कभी सन्तोष कर लिया जाता था तथा यह कहा जाता था कि जन्मजात प्रतिभाओं, विलक्षणताओं के लिए जिम्मेदार आनुवाँशिक तत्व है। पर उस टालमटोल में अब कोई विशेष दम रहा नहीं। क्योंकि समस्त आनुवाँशिक सिद्धान्तों को झुठलाते हुए ऐसे विपरीत प्रमाण भी मिल चुके हैं, जिनका कोई तुक्का उन सिद्धान्तों से नहीं बैठता है। सम्भव है, कल तक जिसे अन्ध विश्वास कहकर तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा उपहास उड़ाया जाता रहा, उस कर्मफल सिद्धान्त में ही उपरोक्त रहस्यों के सूत्र विद्यमान हो।

वास्तविकता तो यह है कि अब तक ऐसी मशीन का निर्माण न हो सका है, जो भावनाओं, सम्वेदनाओं का यथार्थ स्वरूप बता सके। गणित के फार्मूलों, रसायन शास्त्र के नियमों द्वारा स्नेह प्यार की व्याख्या-विवेचना नहीं की जा सकती। उन्हें किस तरह घटाया, बढ़ाया तथा दिशाबद्ध किया जा सकता है, यह तो बहुत दूर की बात है। ऐसी हालत में उस भौतिक विज्ञान तथा उसकी विभिन्न शाखा प्रशाखाओं से यह कैसे आशा की जा सकती है कि वे आत्मा के स्वरूप का रहस्योद्घाटन कर सकेंगे? वस्तुतः ऐसा सम्भव भी नहीं है।

प्रसिद्ध विचारक एलेक्सिस कैरेल का कथन जरा भी अत्युक्ति पूर्ण नहीं जान पड़ता कि- “यांत्रिक आविष्कारों की वृद्धि से किसी विशेष लाभ की अब अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जब तक मानवी सत्ता अविज्ञात बनी रहेगी, उन उपलब्धियों को सही लाभ नहीं उठाते बन पड़ेगा।” इस बात में किंचित् मात्र भी शंका नहीं की जा सकती कि याँत्रिकी, भौतिकी, जैविकी तथा रसायन शास्त्र जैसे अनेकानेक विषयों के अगाध ज्ञान से मानव जाति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास में- शाँति, सुरक्षा एवं पारस्परिक सौहार्द बढ़ाने में थोड़ी भी मदद नहीं मिल सकी है, न आगे मिलने की सम्भावना।

आत्म-सत्ता का रहस्योद्घाटन युग की एक परम आवश्यकता है। ऐसी आवश्यकता जिस पर मनुष्य जाति का भविष्य अवलम्बित है। मनुष्य अपने को पंचतत्वों से बना शरीर तथा धमाचौकड़ी मचाने तथा विस्फोटक परिस्थितियां रचने वाली बुद्धि भर मानता रहा तो भारी भूल होगी। चली आ रही है इस मान्यता की परिणति सामने है- नर पशुओं की भाँति एक दूसरे का अस्तित्व मिटा डालने के लिए हर मनुष्य हाथ बाँधे खड़ा है। उस मान्यता को उलटने से ही इस संकटपूर्ण स्थिति का अन्त होगा। मान्यता भी तब बदलेगी जब मानवी सत्ता का सही बोध होगा। कहना न होगा इसके लिए ऋषि तुल्य आत्मानुसंधान की- उस गहन ज्ञान साधना में प्रवृत्त होना होगा, जिस -साइन्स आफ सोल’ आत्म-विज्ञान’ के नाम से प्राचीन काल से जाना जाता रहा है। चेतना के विज्ञान के रूप में वह आज भी उतना ही प्रामाणिक एवं उपयोगी है जितना प्राचीन काल में था। आवश्यकता इतनी भर है कि इस क्षेत्र में उसी गम्भीरता से अनुसन्धान किया जाय जितना कि भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में किया जाता है।

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