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Magazine - Year 1985 - Version 2

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काम विज्ञान का आध्यात्मिक स्वरूप

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First 17 19 Last
उल्लास और उत्साह मनःक्षेत्र की अति शक्तिशाली क्षमताएँ हैं। उन्हें मृत संजीवनी सुधा कह सकते हैं। सूखे, मुरझाये, टूटे, हारे, निराश व्यक्ति में नव जीवन का संचार करने की इनमें क्षमता है। इसलिए जीवन की जिन चार महती आवश्यकताओं की गणना की जाती है, उनमें इसी को प्राथमिक दी गई है। जीवन के परम लाभ चार हैं− धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनमें काम प्रथम है। काम का सीधा सादा−सा अर्थ हैं− प्रसन्नता, प्रफुल्लता उमंग और आशा की झलक−छलक। यह जिन माध्यमों से सम्भव हो सके उन्हें काम कहा जा सकता है। काम अर्थात् क्रीड़ा−विनोद। कला की समूची व्याख्या इतने में ही सीमित की जा सकती है।

कई बार दो परस्पर विरोधी तथ्य भी एक जैसे दिख पड़ते हैं। कई बार असली का भ्रम नकली उत्पन्न कर देता है। कई बार छद्म पाखण्ड धर्म जैसा प्रतीत होता है। ऐसा ही एक दुर्दैव काम के साथ भी जुड़ गया है। काम वासना−कामुकता, वासना, अश्लीलता, यौनाचार जैसे प्रसंग जब “काम’ शब्द के साथ जुड़ते हैं तो अर्थ का अनर्थ उत्पन्न करते हैं।

कामाचार विशुद्ध रूप से एक प्रजा उत्पादन प्रक्रिया है। इसकी ओर मन ले जाने वाले विचारशील को हजारों बातें सामने रखनी होती हैं। क्या नर−मादा दोनों की शारीरिक, मानसिक स्थिति ऐसी है जिसके संयोजन से ऐसे नये प्राणी की उत्पत्ति हो सके जो अपने लिए ही नहीं−समूचे समाज के लिए वरदान बन सके। जिनके शरीर दुर्बल रुग्ण हैं, जो मन से खिन्न−विपन्न रहते हैं, उनके वे दोष निश्चित रूप से सामने आवेंगे। फिर यह भी देखना है कि जिस वातावरण में उसका भरण पोषण होगा उसमें स्नेह, सहयोग, दुलार एवं सुसंस्कार भरे हैं या नहीं। नवजात शिशु को खेलने−कूदने के लिए जगह है या नहीं। कहीं सारे दिन एकाकी उदास तो नहीं बैठा रहेगा। उसे घृणा, तिरस्कार, अवज्ञा, उपेक्षा का मानसिक त्रास तो नहीं सहना पड़ेगा। बच्चे को सही पोषण बड़े आदमी से सस्ता नहीं महंगा ही पड़ता है। फिर उसे विनोद खेलकूद भी चाहिए। साथी भी, खिलौने भी जो उसके खाली समय में साथ रह सके। इसके अतिरिक्त आज कल उपयुक्त शिक्षा के लिए स्थान तलाश करना और उसका खर्च वहन करना भी एक आवश्यकता है। जो इतना प्रबन्ध कर सके, वे ही संतानोत्पादन की बात सोचें। अन्यथा पिता, माता, परिवार और समूचे समाज को उस मूर्खता का अभिशाप जैसा दण्ड भुगतना पड़ेगा। अनगढ़, सन्तान को जन्म देना प्रत्यक्ष पाप है जिसका दण्ड हाथों हाथ उस प्रसंग से सम्बन्धित हर व्यक्ति को सहन करना पड़ता है।

जननी का शारीरिक और मानसिक विकास उचित आयु तक पहुँच चुका होना चाहिए। इसके लिए न्यूनतम आयु बीस वर्ष मानी गई है। फिर हर सन्तान के बीच अन्तर न्यूनतम पाँच वर्ष का होना चाहिए ताकि पहले बच्चे की माता पर से निर्भरता छूट जाय और वह ठीक तरह दूसरे पर ध्यान दे सके। इससे कम समय में उस क्षति की पूर्ति भी नहीं होती। जो प्रथम शिशु का शरीर बनाने, प्रसव पीड़ा सहने, दूध पिलाने, पूरी नींद न ले पाने, आदि के कारण जननी को सहन करना पड़ा है।

फिर आजकल देश की बढ़ती हुई जनसंख्या एक विकट समस्या बनती जा रही है। जिस अनुपात से बच्चे जन्मते हैं उतनी निर्वाह सामग्री पैदा नहीं होती। फलतः भुखमरी, तंगी, गरीबी, अशिक्षा, दुर्बलता आदि का भार हर नये पुराने नागरिक पर बढ़ता है। इस अनर्थ के भागी वे बनते हैं जो बिना सोचे विचारे सन्तान उत्पन्न करने में लगे रहते हैं। काम कौतुक का स्वाद राई भर और उसका दण्ड दुष्परिणाम पहाड़ भर, जो इसका विचार नहीं कर सकते। उन्हें नर पामर ही कहना चाहिए।

सृष्टि में कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो घासपात की तरह दूसरों की भूख बुझाने के लिए उत्पन्न होते हैं। कीड़े−मकोड़े इसी श्रेणी में आते हैं। उनके ढेरों अंडे बच्चे होते हैं। उनमें से अधिकाँश प्रकृति प्रकोप के शिकार हो जाते हैं। कुछ ही उनसे बचे प्राणी खा पीकर निपटा देते हैं। इस पर भी जो बचे रहते हैं, उनके लिए प्रकृति ठिकाने लगाने वाले बहाने ढूँढ़ निकालती है। कुछ भूखे मर जाते हैं। कुछ पैरों तले कुचल जाते हैं। कुछ को बीमारियाँ खा जाती हैं, कुछ आवेशग्रस्त होकर आत्महत्या के लिए दौड़ पड़ते हैं। इन उद्भिजों और कीट−पतंगों में अपनी गणना करानी हो और उत्पादन को ऐसी ही दयनीय दुर्दशा में धकेलना हो तो फिर यौनाचार की छूट है। कोई कुछ भी कर सकता है और अपने कृत्यों के फल भुगतता रह सकता है। किन्तु जिन तक मानवोचित्त कर्त्तव्य उत्तरदायित्वों की कोई किरण पहुँची हो, उन्हें इस गम्भीर कार्य में हाथ डालने से पूर्व हजार बार सोचना चाहिए। कृत्य के उपरान्त उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार करना चाहिए और विवेक स्वीकृति प्रदान करे तो ही कदम बढ़ाना चाहिए।

जिन पशु पक्षियों की समझदार प्राणियों में गणना होती है, उनकी मादाएँ अपनी प्रजनन क्षमता के अनुरूप उत्तेजना प्रकट करती हैं। इसी आधार पर नर उनसे संभोग साधते हैं। इसके बिना कोई मादा से छेड़खानी नहीं करता। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ी, गधी और सभी पशु नर मादाओं के रूप में रहते और चरते हैं। नर कभी किसी मादा को अपनी ओर से नहीं छेड़ता। मादा की प्रजनन क्षमता जब उभरती है तब उसी संकेत पर यौनाचार बनता है। मनुष्य को इतना विवेक तो होना ही चाहिए कि इस सम्बन्ध में विशुद्ध रूप से नारी की स्थिति को समझे। अपनी ओर से कोई प्रलोभन या दबाव न डाले। इस आधार पर पाँच या कम से कम तीन वर्ष बाद ही उस ओर ध्यान देने की आवश्यकता पड़ेगी। विवाह का अर्थ यौनाचार की उच्छृंखल छूट मिलना नहीं है वरन् एक परिवार को मिल−जुलकर समुन्नत बनाना, दो जीवनों को पारस्परिक सहयोग हर्षोल्लास से भर देना है।

जो इस विवेक प्रेरणा की अवज्ञा करते हैं और अमर्यादित काम सेवन करते हैं, उन पुरुषों को एक प्रकार से नर भक्षी ही कहा जा सकता है। इससे साथी को धीमी आत्मा−हत्या करने के लिए विवश किया जाता है। नारी जननेन्द्रियाँ संरचना इतनी कोमल है कि वे प्रजनन कृत्य आवश्यक हो जाने पर एक दो बार का नर संपर्क सहन कर सके। अमर्यादा बरतने पर वे कोमल अंग कई तरह के रोगों के शिकार हो जाते हैं। उनसे पीछा छुड़ाना कठिन होता है। प्रजनन अपने आप में एक बहुत बड़ा आपरेशन है। उसमें ढेरों रक्त जाता है। बच्चे के शरीर जितना माँस जननी की देह में से ही भरता है। इसके बाद भी दूध पिलाने के रूप में उस क्षति का सिल−सिला चलता ही रहता है। हजार प्रसवों पीछे 13 प्रसूताओं की जान तो बच्चा जनते समय ही चली जाती है। सब मिला कर अन्त तक अनेकों दबाव जननी को सहने पड़ते हैं। इनके लिए बाधित करना किसी भी प्रकार मित्र धर्म नहीं है। नर भक्षी भेड़िये मनुष्यों या दूसरे जानवरों को खाते हैं। अपनी मण्डली के सदस्यों की चमड़ी नहीं उधेड़ते। पर एक मनुष्य है जो पत्नी पर प्रेम प्रकट करते हुए वस्तुतः उसका जीवन रस ही चूस लेता है। उसे रुग्णता, दुर्बलता का त्रास सहते हुए समय से बहुत पहले मर जाने लिए बाधित करता है। अपनी स्वार्थ सिद्धि भी इतनी कि क्षण भर की लोलुप उत्तेजना का समाधान हो।

जिस वर्ग के नरों में कामुक लोलुपता की मात्रा अधिक पाई जाती हैं, वे साथी का अनर्थ करते हुए अपने लिए भी कम संकट खड़ा नहीं करते। शास्त्रकार ने ठीक ही कहा हैं− ‘‘मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दु धारणात्” अर्थात् वीर्यनाश से मरण और और उसके संरक्षण में जीवन है। इसके उदाहरण में हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, दयानन्द आदि अनेकों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो शारीरिक और आत्मिक दृष्टि से अपनी बलिष्ठता सिद्ध कर सके। असुरों के उदाहरण इस सम्बन्ध में स्मरण किए जा सकते हैं जिन्होंने कई−कई विवाह किए व बुरी मृत्यु को प्राप्त हुए।

कई थलचरों और जलचरों की बढ़ी हुई कामुकता किस प्रकार उनके लिए प्राण घातक बनती है, उसके उदाहरण प्रत्यक्ष हैं। आश्विन के महीने में कुत्ते आपस में किस प्रकार लड़ते−भिड़ते, घायल होते और सड़ते हैं। यह कौतुक हर साल देखा जा सकता है। हिरनों की भी यही दुर्गति होती है। उनके ऋतुकाल में यही मल्लयुद्ध ठनते हैं। परस्पर सींगों से घायल होकर कितने ही भारी कष्ट सहते हैं। मकड़ी ही खुद अपने नर को हाथोंहाथ मजा चखा देती है। मकड़े को प्रसंग के उपरान्त थका हुआ पाती है तो स्वयं ही उसको कतर व्यौंत कर डालती है। बिच्छू को भी काम प्रसंग के उपरांत ऐसी ही त्रास सहना पड़ता है। कोई−कोई ही उस संकट से अपनी जान बचा पाता है।

मछलियों में अधिकाँश नर सज्जन प्रकृति के होते हैं। मादा की पूरी−पूरी सहायता करते हैं और प्रजनन काल में उन्हें अधिक से अधिक सुविधा पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। पर कुछ ऐसे दुष्ट भी होते हैं, जिन्हें हरम इकट्ठा किये बिना चैन नहीं। फाग फिश अपने घेरे में प्रायः एक दर्जन युवा मछलियाँ समेटे रहता है और उनके साथ क्रीड़ा कल्लोल का मजा लूटता है। साथ ही यह भी होता रहता है कि उसके प्रतिद्वन्द्वी उसके हरम पर धावा बोलकर कुछ को झपट ले जाय। दूसरी ओर उस मण्डलाधीश को भी चैन नहीं। वह जितनी हैं उनसे सन्तुष्ट न रहकर नई नवेलियाँ तलाश करता है और किसी दूसरे के हरम पर छापा मारता है। इस कारण उनमें मल्लयुद्ध ठन जाता है। हर साल उनमें से इसी महाभारत में खेत आते है। मछलियाँ भी नरों से शिक्षा प्राप्त करती हैं और किसी एक के चंगुल में बहुत दिन न रहकर जल्दी−जल्दी ससुराल बदलती और पुनर्विवाह रचती रहती हैं। इस कारण असन्तुष्ट मछलियाँ भी आपस में लड़ बैठती हैं। इस वर्ग के नर मादा चैन से नहीं बैठते। विशेषतया ऋतु काल में तो उनमें खून खच्चर मचता ही रहता है। जबकि दूसरी सन्तोषी प्रकृति के जल जीव लम्बे समय तक पतिव्रत निबाहते हैं और सहयोग और आनन्द भरा जीवन जीते हैं।

गरुड़ मादा यह खोजती रहती है कि उससे बलिष्ठ साक्षी है या नहीं। इस प्रयोजन के लिए ताक झाँक करने वाले से सर्वप्रथम वह मल्लयुद्ध की चुनौती देती है। युद्ध में दोनों पक्ष लहूलुहान हो जाते हैं। नर यदि भाग खड़ा हुआ तो उसे क्षमा कर दिया जाता है। अन्त तक डटा रहा तो अपने पौरुष के आधार पर स्वयंवर का लाभ उठाता है।

अध्यात्म विज्ञान के तन्त्र पक्ष में कुण्डलिनी योग की साधना का सुविस्तृत प्रकरण है। उसमें मूलाधार चक्र और सहस्रार चक्र को शक्ति केन्द्र माना गया है और दोनों को प्रखर प्रचण्ड बनाकर परस्पर सहयोग की स्थिति तक पहुँचा देना परम सिद्धि का आधार माना गया है। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय मूल में है और सहस्रार मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरन्ध्र में। यही दोनों केन्द्र उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव है। वे हेय प्रयोजन में अपनी शक्ति गंवाते रहते हैं। इसलिए अपनी ऊर्जा एक−दूसरे तक नहीं पहुँचा पाते। बिजली के दोनों तार में शक्ति हो और मिले तो महाकाली जैसा प्रचण्ड उत्पन्न होता है। इसी आधार पर कुण्डलिनी जागृत होकर अनेकानेक चमत्कारी सिद्धियों का परिचय देती है। सहस्रार चक्र की ध्यान योग और मूलाधार चक्र को ब्रह्मचर्य द्वारा जागृत एवं प्रखर बनाया जाता है। यह साधना क्रम सुविस्तृत है, पर उसका सार संक्षेप इतने में ही समझना चाहिए कि आध्यात्मिक काम विज्ञान के सिद्धान्तों का समग्र परिपालन किया जाय। नर नारी साथ−साथ तो रहें, स्नेह और सहयोग भी करें, पर उसमें कामुकता के विष का प्रवेश न होने दें। बाँध में नदी का पानी रोक देने पर पानी का इतना एकत्रीकरण हो जाता है कि उसमें से अनेकों नहर निकल सकें और सुविस्तृत भूमि खण्डों को हरा−भरा फूला फला बनाया जा सके। पानी न रोका जाय तो वह बहता और घटता रहेगा और अन्त में गहरे समुद्र मैं गिरकर ऐसा खारा पानी बन जायेगा जो पीने के भी काम न आ सके।

नर और मादा का साथ−साथ समीप रहना, प्रकृतिगत स्वाभाविक स्थिति बनाये रहता है। यदि दोनों एक−दूसरे से बचे, भागे, डरे अथवा आक्रामक नीति अपनायें तो उसमें सृष्टा की उस कलाकारिता का अपमान है जो गंगा, यमुना की तरह मिलकर नई सरस्वती उत्पन्न करती है और सबके लिए सब प्रकार श्रेयस्कर परिणाम ही उत्पन्न करती हैं। खतरा तो रस में विष मिला देने से उत्पन्न होता है।

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