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Magazine - Year 1985 - Version 2

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महर्षि अरविन्द का पूर्णयोग

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मानसिक-विकास की आवश्यकता को आज इसलिए भी जरूरी समझा जा रहा है, कि जब से मनुष्य का जन्म हुआ है, तब से अब तक लम्बे काल में वह बुद्धिवाद के धरातल तक में ही विकास कर पाया है। पिछले दो सदियों से वह उसी रूप में पड़ा हुआ है और मनुष्य उसे ही सब कुछ मान बैठा है, जिससे अनेकानेक समस्याएँ आ खड़ी हुई हैं, वह उन्हीं के जाल में बुरी तरह उलझा अपंग—असहायों की तरह छटपटा रहा है।

मनुष्य मन और बुद्धि के वर्तमान धरातल से अब तक ऊपर नहीं उठ जाता समस्याएँ और परेशानियाँ उसका पीछा करती रहेंगी। ‘सावित्री’ महाकाव्य में योगी अरविंद ने कहा है—मानव के अन्दर अनेकानेक संभावनाएँ उसी प्रकार प्रतीक्षा में है, जिस प्रकार एक बीज में छिपा विशाल वट वृक्ष विकसित होने के लिए उपयुक्त समय का इन्तजार करता रहता है।

वे समझाते हुए कहते हैं- ‘‘आरोह” अर्थात् विकास, “अवरोह” अर्थात् अवतरण, प्रगति के में दो चरण हैं। दूसरे शब्दों में आरोह मानवी प्रयास पुरुषार्थ से संबद्ध है एवं अवरोह भगवद् करुणा में अर्थात् जब हम प्रयत्नपूर्वक मनसा—वाचा—कर्मणा से पवित्र बन जायेंगे, अपने सुपात्र को विकसित कर लेंगे तभी भागवत् करुणा स्वयं को निर्मल मानवी अन्तःकरण में उड़ेलेगी और फिर उस पवित्र अन्तराल में अतिमानवी ‘अतिमानस’ का प्रादुर्भाव होगा।

अरविंद ने- जड़ तथा चेतन मन इन्हें चेतना के निम्नस्तरीय एवं आरम्भिक सोपान बताया गया है, जबकि उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्ध मन ओवर माइण्ड तथा अतिमन को उच्चस्तरीय चेतना-सोपान में रखा गया है और इन्हें विकास की अन्तिम स्थिति बतायी गयी है।

दर्शन के अनुसार बुद्धि ने निश्चय ही मनुष्य को काफी प्रगतिशील बनाया है और प्रतिगामी आदिम स्थिति से उबार कर विकास की वर्तमान अवस्था तक पहुँचाया है। यही इसका चरमोत्कर्ष है। आगे की प्रगति उसके बस की बात नहीं, वह इसके सीमा−क्षेत्र से बाहर है। इसके बाद का विकास अब सद्बुद्धि (इण्ट्यूशन) द्वारा ही संभव है, तत्पश्चात् ओवर माइण्ड और फिर अतिमन। अतिमानसी धरातल पर पहुँच कर मानव प्रगति के शिखर पर पहुँच जाता है। यह विकास का अन्तिम पड़ाव है। इस स्तर पर आकर मनुष्य सर्वज्ञ बन जाता है।

अरविंद दर्शन के अनुसार अतिमानसी विकास कोई कपोल−कल्पना नहीं, वरन् एक सुनिश्चित तथ्य है और समष्टि को इस स्तर का पहुँचना ही है किन्तु श्री अरविंद ऐसा तभी संभव बताते हैं जब मानव स्वयं को वर्तमान तुच्छ स्तर से ऊपर उठायेगा, अन्यथा उसकी बुद्धि उसे सर्वनाश के कगार तक पहुँचा देगी। पर दूसरी ओर वे यह भी कहत हैं कि विनाश आने से पूर्व ही वह सम्भल जायेगा और अपने अस्तित्व को बचा लेगा। फिर मनुष्य की जो स्थिति होगी, वह उसकी सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोच्च स्थिति होगी।

योगीराज ने यहाँ तक कहा है कि रूपांतरण अपनी स्वाभाविक गति से होगा, न तो इसमें कोई दैवी चमत्कार जैसी बात दिखेगी, न ही यह आकस्मिक रूप में आयेगा, उसकी प्रगति धीरे−धीरे होगी।

जब आध्यात्मिकी की संसार की स्थापना हो जायेगी, तो महर्षि के अनुसार व्यक्तिगत चेतना समष्टिगत चेतना से मिलकर एकाकार हो जायेगी। तब मनुष्यों को न तो आज जैसी त्रासदी झेलनी पड़ेगी, न ही उसमें रागद्वेष का, कामना−वासना, तृष्णा-अहंता का लेश मात्र भी रहेगा। सब स्वल्प−सन्तोषी बनेंगे और आनन्द की जिन्दगी जियेंगे।

यह सब यूटोपिया जैसा लगते हुए भी वास्तविक प्रतीत होता है। अनेक बार अनेक मनीषियों ने इस प्रकार की कल्पना की है, पर महर्षि अरविंद की कल्पना से इसलिए आशा बँधती है, कि वे एक मनीषी के साथ-साथ योगी भी थे, भविष्य-दर्शन की अपनी अर्जित क्षमता के आधार पर ही उनने सब कुछ लिखा होगा।

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