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Magazine - Year 1985 - Version 2

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तृष्णा घटाये बिना न शान्ति न सन्तोष

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First 8 10 Last
दस इन्द्रियों में जहाँ तक अध्यात्म प्रयोजनों का संबंध है। वहाँ पाँच ज्ञानेंद्रियों की चर्चा होती है। इसमें मनोविकार उत्पन्न करने वाली दुरुपयोग करने पर भयानक प्रतिशोध लेने वाली दो ही हैं। स्वादेन्द्रिय और कामेन्द्रिय। शेष तीन नेत्र, कान और नासिका का संबंध मस्तिष्क के साथ जुड़ा होने और उत्कर्ष में सहायक मात्र रहने के कारण उनका निग्रह करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। सदुपयोग करते रहने भर से सत्प्रयोजनों की सिद्धि होती है। वाणी, कान, नेत्र यह तीनों ही ज्ञान वृद्धि के काम आते हैं। इनके द्वारा कई साधनाएँ भी सम्भव होती हैं। नासिका के गन्ध बोध रहने से उपयुक्त वातावरण का ज्ञान होता है और प्राणायाम जैसी साधनाएँ सधती हैं। इसलिए उनकी विशेष चर्चा इन पंक्तियों में नहीं की गई हैं और स्वादेन्द्रिय तथा कामेन्द्रिय के नियन्त्रण को इन्द्रिय निग्रह मान लिया गया है। मन के संयम का प्रारम्भिक एवं प्रत्यक्ष प्रयोजन इतने भर से सध जाता है।

अब मानसिक क्षेत्र की साँसारिक इच्छा आकाँक्षाओं में दो चरण तृष्णा और अहंता के आते हैं। इनके आकर्षण ऐसे हैं जो मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग अपने घेरे में समेटकर निगलते रहे हैं। जीवन जिन महान प्रयोजनों के लिए मिला है उनमें से एक को भी साधने का अवसर नहीं मिलता। समय, श्रम, चिन्तन, साधन आदि जो कुछ भी उपलब्धियाँ पास में हैं। वे इन्हीं दोनों की ललक लिप्सा में खप जाती हैं। इनके आकर्षण इतने तीव्र होते हैं कि इनसे छूटने की इच्छा तक नहीं होती। फिर उत्कृष्टता के मार्ग पर चलना और चढ़ना बन कैसे पड़े। यह दोनों ही हथकड़ी बेड़ी की तरह बंध जाती हैं। आश्चर्य यह कि यह प्रिय भी लगने लगता है और अवसर होने पर भी छोड़ना तो दूर इनमें कटौती करने तक का मन नहीं होता। तृष्णा और अहंता को ही भव−बन्धन कहा गया है। यह चेतना को जकड़ते हैं। जब कि वासना मात्र शरीर को ही बर्बाद करती है। और उस बर्बादी का एक सीमित दुष्प्रभाव ही अन्तः चेतना पर पड़ता है। उनकी तुलना में तृष्णा और अहंता की क्षति कहीं अधिक है।

तृष्णा का तात्पर्य है वैभव को अधिकाधिक मात्रा में अपने लिए और प्रिय जनों के लिए समेटना। यह विशुद्ध मूर्खता है फिर भी लोग इसे बुद्धिमत्ता एवं सफलता मानकर प्रसन्न होते और शेखी बघारते, देखे गये हैं।

मछली पानी में रहती है। जितना उसके उपयोग में आता है वस्तुतः वही उसकी सम्पदा है। समूचे समुद्र को वह अपना माने और उस पर आधिपत्य घोषित करे तो वह उसकी नासमझी है। समुद्र में अगणित जल−जन्तु रहते हैं। वह उन सबकी संयुक्त सम्पत्ति है। अथवा यों कहना चाहिए कि वह भगवान की सम्पदा है, उसमें से जो जितने का उपयोग कर सके उतना ही उसका है। समेटकर अपनी छाती के नीचे दबाना और आधिपत्य घोषित करना निरर्थक है। यह भूल संसार का और कोई प्राणी नहीं करता कि विश्व वैभव में से अपने निज के लिए अधिकाधिक समेटे और उसे अपनी निज की सम्पदा घोषित करे। यह भगवान का तिरस्कार करना और विधि−व्यवस्था में टाँग अड़ाना है। जिस घर को उसके आस-पास की जमीन को हम अपना मानते हैं उसके ऊपर सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक लाखों करोड़ों व्यक्ति अपनी बताते और दावेदारी जानते रहे हैं। वह जमीन एक के हाथ से दूसरे के में जाती रही है। आगे भी प्रलय का दिन आने तक उसके अभी और लाखों करोड़ों मालिक बनने वाले हैं फिर कैसे कहा जाय कि वह किसकी सम्पदा है। जीवन काल में जिससे जितना उपयोग कर लिया बस उतना ही उसका। जो आदमी आता है और साथ में कुछ भी नहीं लाता। और जाते समय भी खाली हाथ जाना पड़ता है।

मनुष्य आधा सेर आटा खाता और दस गज कपड़ा शरीर पर लपेटता है। यही उसका अपना कहा जा सकता है। भगवान ने संसार में जो वैभव उत्पन्न किया है वह इसलिए है कि सभी जीवधारी उसमें से अपनी-अपनी आवश्यकता पूरी कर सकें। इससे अधिक पर दावेदारी करना अपने और दूसरों के लिए विग्रह खड़ा करना है। अनावश्यक संचय करने पर उससे अनेकों दुर्गुण उत्पन्न होते हैं और दुष्प्रवृत्तियों की आदत पड़ती है। दूसरे ईर्ष्या करते हैं और अपहरण की घात लगाते हैं। भले ही उसका तरीका खुशामद हो या आक्रमण।

स्मरण रखने योग्य है कि ऊँची दीवार उठाने के लिए दूसरी जगह से गड्ढा खोदना पड़ेगा। एक आदमी सम्पन्न बने तो दूसरों का उतना ही हिस्सा कटेगा और उन्हें ही अभावग्रस्त रहना पड़ेगा। संसार में दौलत उतनी ही है जिससे सबकी काम चलाऊ आवश्यकताएं पूरी होती चलें। जो अधिक जमा करेगा वह प्रकारान्तर से इस या उसका अभाव ग्रस्त रहने के लिए मजबूर कर रहा होगा। उचित यही है कि औसत देशवासियों जितना ही अपना निर्वाह स्तर बनाया जाय और यदि किसी प्रकार अपने पास अधिक जमा हो गया है तो उसका एक ही उपाय है कि हाथों−हाथ दूसरे जरूरत मन्दों के लिए हस्तान्तरित कर दिया जाय। अथवा उसका कोई ऐसा सार्वजनिक तन्त्र खड़ा कर दिया जाय जिसकी आजीविका उस कार्य में लगे लोगों में वितरित होती रहे कोई एक व्यक्ति या परिवार उस पर अपनी दावेदारी सिद्ध न करे। धनवान बनने के लिए प्रयत्नशीलों को या तो अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती हैं या फिर निष्ठुरता धारण करके अपने विलास अपव्यय में उस संग्रह को उड़ाना बखेरना पड़ता है। इसी जंजाल में फँसने का नाम तृष्णा है। तृष्णा एक कुटेव है जो आवश्यकता न होने पर भी संग्रह की ललक उत्पन्न करती है। इसके दोनों ही पक्ष कीचड़ में सने हुए हैं। अधिक कमाने में अपराधी प्रवृत्ति का अवलंबन। अधिक उड़ाने बखेरने या जमा करने में दुष्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन। तृष्णा इन्हीं दोनों कुचक्रों में फँसाती है। साथ ही अपने समय, श्रम, चिन्तन एवं कौशल को इसी फेर में लगाये रहने के लिए बाधित करती है। यदि यह मार्ग न अपनाया गया होता तो मध्यवर्ती गुजारा थोड़े से उपार्जन में ही हो सकता था। वह ईमानदारी के साथ थोड़े समय में ही कमाया जा सकता है। और बचे हुए साधन आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण में अत्यन्त आवश्यक एवं उपयोगी कामों में लग सकते हैं। इस मार्ग का अवलंबन करने वाला महामानव कहलाता है और अपने कल्याण के साथ−साथ अन्य असंख्यों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में सफल होता है। इस सौभाग्य से वंचित करने का सारा दोष इस तृष्णा पिशाचिनी का ही है जो अपना जीवन, दुष्प्रयोजनों में गँवा देने और समाज में अनेक प्रकार के विग्रह खड़े करने के लिए विवश करती है।

दौलत के अतिरिक्त तृष्णा कुछ सीमित व्यक्तियों को भी अपना परिवारी कल्पित करती है और उन्हें भी उस मुफ्तखोरी में शामिल करती है। वस्तुतः सभी प्राणी भगवान के हैं। जिनके पालन−पोषण का दायित्व परिवारी के नाते सिर पर आ गया हो उनके लिए इतना ही कर्त्तव्य बनता है कि उन्हें स्वावलंबी सुसंस्कारी भर बनाया जाय। उनके लिए धन दौलत उत्तराधिकारी में छोड़ मरना या कमाने योग्य होते हुए भी बैठे−ठाले गुलछर्रे उड़ाने की सुविधाएँ देना सब प्रकार अनुचित है। तृष्णा ऐसे ही अनुचित कर्म कराती है और जिसके पीछे पड़ती है उसे आदर्शों की दृष्टि से गया गुजरा- हेय -बनाकर छोड़ती है। कोई लोक-मंगल जैसा काम करने योग्य तो छोड़ती ही नहीं।

इन दिनों बढ़ती आबादी संसार के सामने सबसे बड़ी विपत्ति बनकर खड़ी है। इन दिनों भी नई सन्तान उत्पन्न करना समाज द्रोह और मानवता के प्रति अपराध है। फिर भी कितने ही लोग तृष्णा के वशीभूत होकर- वंश चलने के नाम पर औलाद पर औलाद पैदा करते जाते हैं। यह तक नहीं देखते कि इससे पत्नी पर क्या बीतती है। उसके स्वास्थ्य और आयुष्य की कितनी बर्बादी होती है। जिनके पास बच्चों को सुयोग्य सुसंस्कारी बनाने योग्य साधन नहीं हैं वे भी यदि बच्चे उत्पन्न करते हैं तो उन नवागन्तुकों को घर बुलाकर पीछे उनका भविष्य बिगाड़ने जैसा विश्वासघात है।

धरती पर स्वल्प साधन होते हुए भी आँख बन्द करके उपभोक्ता बढ़ाते जाना और सभी के मुँह में जाने वाले ग्रास में से कटौती करना - इन दिनों नये सन्तानोत्पादन का सीधा अर्थ यही है। फिर भी जिन्हें “मेरेपन” की ललक खाये जा रही है वे तृष्णाग्रस्त लोग अपनों की संख्या बढ़ाने और उनके लिए खर्च जुटाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह पिसते रहने से तृष्णा की तनिक−सी क्षणिक पूर्ति होती है। एक लालसा पूरी होते देर नहीं लगती कि सौ नई कामनाएँ चित्र−विचित्र वेश बनाकर सामने आ खड़ी होती हैं।

इन तृष्णाओं से बचा जा सके तो मनुष्य को निरन्तर मानसिक शान्ति उपलब्ध होती रह सकती है। सन्तोष को सबसे बड़ा धन माना गया है। वह मात्र उसी को प्राप्त हो सकता है जो तृष्णा की सुरसा के निरन्तर फटते जाने वाले मुँह में से छोटा मच्छर बनकर बाहर निकल आने की हनुमान जैसी बुद्धिमत्ता दिखा सकता है।

आत्मिक प्रगति के लिए जिस शान्ति और सन्तोष की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने के लिए सर्वभक्षी तृष्णा से पिण्ड छुड़ाना आवश्यक है। उसकी पूर्ति तो कोई कर ही नहीं सकता। आग में ईधन डालते, रहने से वह बुझेगी कैसे? वह तो निरन्तर बढ़ती ही रहेगी चाहे कितना ही वैभव कमा लिया जाय। चाहे कितना ही परिवार बढ़ा लिया जाय। जो भी हाथ लगेगा वह सब कम ही प्रतीत होता रहेगा और अधिक कमाने के फेर में जीवन के दीपक का तेल ही चुक लेगा।

मनोनिग्रह के लिए वासना के शमन के लिए जिस प्रकार चटोरेपन और कामुकता से पीछा छुड़ाना आवश्यक है उसी प्रकार जीवन लक्ष्य की पूर्ति के अनेक सत्प्रयोजनों में निरत रहने के लिए तृष्णा के घड़ियाल मुँह में फँसा हुआ पैर निकालना पड़ेगा। अन्यथा यह ललक ऐसी है जिसके बने रहने पर मन का अन्य किसी उच्चस्तरीय प्रयोजन में संलग्न हो सकना सर्वथा असंभव है।

इसीलिए साधना मार्ग पर चलने वाले भगवद् भक्तों को साधु और ब्राह्मणों की तरह अपरिग्रही बनना पड़ता है। औसत भारतीय स्तर का जीवन यापन करने के लिए जितने साधनों की नितान्त आवश्यकता है उतने न्याय और श्रम के उपार्जन से उपार्जित करने के पश्चात अपना शेष समय आत्म-शोधन के आवश्यक कार्यों में लगाना चाहिए। ईश्वर की सच्ची पूजा उसके विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने में है इसके लिए भी श्रम और साधन चाहिए। इसकी पूर्ति कर सकना उन्हीं के लिए सम्भव है जो निजी निर्वाह स्वल्प साधनों में करलें। जिसे निरर्थक का बोझ लादने की तृष्णा से छुटकारा मिलेगा वही ऊँचा उठ सकेगा। आगे बढ़ सकेगा, पिछड़ों को सहारा दे सकेगा और आगे चलने वाले के साथ कदम से कदम मिलाकर बढ़ सकने में समर्थ हो सकेगा। अतएव आत्मिक प्रगति के लिए तृष्णा को घटाना और हटाना नितान्त आवश्यक माना गया है।

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