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Magazine - Year 1990 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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महासत्ता का महाप्रयाण- एक युग का पटाक्षेप

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सूक्ष्मीकरण की एकाकी तप साधना पूज्य गुरुदेव के जीवनकाल एवं मिशन के इतिहास का एक अतिमहत्त्वपूर्ण मोड़ है। इस अवधि में उनकी तप साधना सूक्ष्म रूप से पाँच वीरभद्रों को क्रियाशील बनाने में लगी रही व लेखनी” अखण्ड-ज्योति” एवं” युगशक्ति-गायत्री” के माध्यम से हर प्रज्ञा परिजन के मन को सतत् मथती रही। इसी दौरान सन 1985 का वर्ष उनकी आयुष्य का पचहत्तरवां वर्ष होने के कारण ही रजत जयन्ती वर्ष मनाया गया एवं इसी वर्ष अप्रैल 1985 में उनने अपने जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों पर पहली बार प्रकाश डाला। इन्हीं लेखों व सूक्ष्मीकरण साधना के अंतर्गत लिखे गये लेखों का समन्वित रूप उनकी पुस्तक “ हमारी वसीयत और विरासत” के रूप में नवम्बर 1986 में प्रकाशित हुआ।

इस दो वर्ष की अवधि में जिसका समापन बसंत पर्व 1986 पर हुआ, दर्शन झाँकी के कौतुक वाले वर्ग से उनने मुक्ति पा ली एवं अनेकों ऐसे प्राणवान व्यक्ति उनसे जुड़ गये जो उनके मूल स्वरूप को उनकी आत्मकथा को पढ़कर भली भाँति हृदयंगम कर उनके प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने की स्थिति में भी आ जुड़े थे। इनमें से कुछ देव परिवार का अभिन्न अंग बन गये कुछ में सक्रिय हो गये। जिन्हें आदर्शवाद रुच नहीं रहा था, वे स्वयं को तीव्रगति से चल रहे प्रज्ञावतार के प्रवाह में अपने को न जोड़ स्वतः अलग हो गये अथवा थपेड़ों ने उन्हें अलग कर दिया। इस प्रकार 1984 से 1986 की अवधि प्रज्ञा परिवार के लिए एक युगान्तरकारी परिवर्तन का स्वरूप लेकर आयी।

बसंत पर्व 1986 पर अपनी सूक्ष्मसत्ता के निर्देशानुसार उनने तप साधना को साथ जारी रखते हुए परिजनों से सीमित रूप में मिलते रहने का क्रम पुनः बना लिया, जो निर्बाध गति से बसंत पर्व 1990 तक चलता रहा। इन चार वर्षों की अवधि में जो कार्य उनके मार्गदर्शन में सम्पन्न हुआ, वह विगत चालीस वर्षों के बराबर हुआ माना जा सकता है। इसी अवधि में उनने कार्यक्षेत्र से जुड़े कार्यक्रमों को नई गति दी। सात लाख गाँवों व एक लाख कस्बों तक पहुँचने के लिए एक नई कार्यशैली निर्धारित हुई। पूर्णाहुति वर्ष होने के कारण एक हजार 108 कुंडीय गायत्री यज्ञों व इतने ही छोटे 24 कुण्डीय यज्ञों को मनाने का निर्णय 1986 में ही लिया गया। यह तीन वर्ष से चली आ रही देवात्मा शक्ति की कुण्डलिनी जागरण साधना की महापूर्णाहुति थी। लाखों व्यक्ति इस माध्यम से मिशन से जुड़ गये। अगले ही वर्ष समय की आवश्यकता को देखते हुए इन यज्ञों को विस्तार देने के लिए न्यूनतम सामग्री में संपन्न करने के लिए दीपयज्ञों का निर्धारण हुआ जो जन्मदिवसोत्सवों से लेकर एक लक्ष वेदीय दीपयज्ञों का स्वरूप लेता हुआ विस्तार लेता चला गया।

जनवरी 1987 का अखण्ड-ज्योति अंक “कुण्डलिनी जागरण विशेषाँक” था। इसमें व्यष्टिगत और समष्टिगत नवसृजन के निमित्त किये जाने वाले साधना पराक्रम का सचित्र, शास्त्रोक्त एवं विज्ञान सम्मत प्रतिपादन था। एक गूढ़ विषय पर एक सरल सुबोध व्याख्या परिजनों के समक्ष आयी। विश्व वातावरण में संव्याप्त अवाँछनीयताओं के परिशोधन हेतु की गयी इस साधना नाम दिया गया। प्रकारान्तर से इस अंक में पूज्य गुरुदेव द्वारा सम्पन्न सूक्ष्मीकरण साधना एवं अगले दिनों सूक्ष्म एवं कारण शरीर से सम्पन्न होने वाली साधना की विस्तृत रूपरेखा थी।

इक्कीसवीं सदी विशेषाँक जो फरवरी 1987 में प्रकाशित हुआ इस साधना का क्रियापक्ष था व पूज्य गुरुदेव का” इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य “ उद्घोष यही से प्रकट हुआ। उज्ज्वल भविष्य का मूल आधार उनने अपना संकल्पबल बताया जो उच्चसत्ता की प्रेरणा से महाकाल की चुनौती की तरह अवधारित किया गया। इसी अंक में उनने लिखा कि इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमने स्थूल शरीर से काम लेना प्रायः बंद कर दिया है। उसके साथ एक हल्का तंतु ही जुड़ा रखा है। जब उसकी भी आवश्यकता न रहेगी तो एक झटके से इसे भी तोड़कर अलग कर देंगे।”

बसंत पर्व 1988 के अखण्ड-ज्योति विशेषाँक में “ ज्योति फिर भी बुझेगी नहीं” शीर्षक से एक लेख में उनने लिखा सोचा जाता है कि गुरुजी 80 वर्ष का आयुष्य पूरा करना चाहते हैं। इस दृष्टि से माता ही भी उतनी आयु का लाभ ले सकेंगी जितनी कि गुरुदेव। इस महाप्रयाण का समय अब बहुत दूर नहीं है। हाथ के नीचे वाले अनिवार्य कामों की जल्दी-जल्दी निपटाने की बात बनते ही चार्ज दूसरों के हाथों चला जायेगा। सन्देह हो सकता है कि उस दशा में वर्तमान प्रगति रुक सकती है ओर व्यवस्था बिगड़ सकती है। ऐसे लोग व्यवस्था में आने वाले चढ़ाव-उतारों के आधार पर अनुमान लगाते हैं। वस्तुतः यह मिशन तंत्र बाजीगर द्वारा संचालित है। वही कोई गड़बड़ी होते देखेगा और तत्परतापूर्वक सुधारेगा। आखिर लाभ हानि भी तो उसी की है। मिशन के भविष्य के संबंध में भी हर किसी को इसी प्रकार सोचना चाहिए और निराशा जैसे अशुभ चिन्तन को पास नहीं फटकने देना चाहिए।”

ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट है कि वे अपने दृश्य कार्यों को एक पूर्व निर्धारित अवधि में समेट रहे थे ताकि वे अपने भावी उत्तरदायित्व को सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न करने हेतु सक्षम हो सकें।” शरीर के निष्प्राण के उपरान्त जो चर्मचक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे वे इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे एवं यह आश्वासन हम देते हैं कि यह ज्योति कभी बुझेगी नहीं। “ जैसे शब्दों से उनने दुखी परिजनों को आश्वासन भी दे दिया था कि वे स्वयं को संभालें व भावी सुनिश्चितता को समझते हुए सौंपे दायित्वों को पूरा भर करते चलें।

बसंत पर्व 1988 पर प्रकाशित इन पंक्तियों को पढ़कर सभी को लगा कि पूज्य गुरुदेव पुनः दर्शन देना संभवतः बंद कर देंगे, शरीर त्याग की बात तो किसी के मन में भी नहीं थी एवं न ही शब्दों का भावार्थ वे समझ पाए थे। लगभग दस हजार निकटवर्ती परिजनों का एक समूह पुनः शांतिकुंज आ गया। शिवरात्रि पर एकत्रित इस वर्ग के एक विशेष सत्र को मिनी वसंत पर्व की उपमा दी गयी व आश्वस्त किया गया कि अभी गुरुदेव अपना आश्वासन पूरा निभायेंगे। किंतु उन्हें समीप से गहराई से समझने वाले भली भाँति समझ रहे थे। कि प्रत्यक्षतः स्वास्थ्य बहुत अच्छा दीखते हुए भी अब वे जिन्दगी का अन्तिम महत्वपूर्ण अध्याय सम्पन्न कर रहे है। यही कारण है कि सन 1990 की वसंत पंचमी पर जब उनने अंतिम दर्शन व अंतिम वसंत पर्व की बात कही तो सूक्ष्म दृष्टि वालों ने उसका अर्थ तुरन्त समझ लिया। सतयुग की वापसी” नवयुग का मत्स्यावतार एवं नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी जैसी पुस्तकों में वे पहले ही संकेत दे चुके थे कि वे अब सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर से सक्रिय होने जा रहें हैं। ये सभी पुस्तकें 1989 के उत्तरार्ध में प्रकाशित हो चुकी थीं। जिनने उन्हें गहराई से पढ़ा वे युग परिवर्तन का मर्म गुरुसत्ता के वास्तविक स्वरूप व उनकी उस निमित्त भावी तैयारी हेतु तत्परता समझ रहे थे।

“नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी पुस्तक में वे लिखते हैं अब जीवन का दूसरा अध्याय आरंभ होता है। अब इसमें जो होना है उसे ओर भी अधिक महत्वपूर्ण मूल्यवान माना जा सकता है। स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म व कारण शरीरों का अस्तित्व अध्यात्म विज्ञानी बताते रहें है। उन्हें स्थूल शरीर की तुलना में असंख्य गुना अधिक शक्तिशाली कहा गया है। उन्हीं का प्रयोग अब एक शताब्दी तक किया जाना है। यह कार्य सन 1990 के बसंत पर्व से आरंभ किया जा रहा है। यहाँ से लेकर सन 2000 तक दस वर्ष युग संधि का समय है। परिजन देखेंगे कि इस अवधि में जो गतिविधियां चलेंगी उसका केन्द्र “ शांतिकुंज हरिद्वार होगा।

यही प्रसंग बसंत पर्व पर महाकाल का सन्देश नाम से प्रकाशित हुआ। जिसमें परिजनों को उनने अस्सी ब्रह्मकमल खिलने व अपने जीवन का प्रथम अध्याय समाप्त होने की बात कही। यही प्रसंग मार्च 1990 अखण्ड-ज्योति के सम्पादकीय एवं अप्रैल 1990 की पत्रिका में दी गयी विशेष लेखमाला “इक्कीसवीं सदी में हमें क्या करना होगा” के अंतर्गत दिये गये “हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं” शीर्षक लेख में उनकी लेखनी से प्रकट हुआ। वे लिखते हैं-”दृश्य शरीर रूपी गोबर कि मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्त किया गया प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरूकता के साथ अपनी जिम्मेदारी वहन करता रहेगा।” आगे के शब्द उन्हीं की लिपि में यथा रूप प्रस्तुत हैं।

ड़ड़ड़ड़

शान्तिकुँज परिवार में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर-अदृश्य अस्तित्व बनाये रहेंगे। आने वाले, रहने वाले अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य, किंतु समर्थ प्राण प्रत्यावर्तन और मिलन, आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत रूप से जारी रहेगा।

कहने, सुनने, करने-कराने की प्रक्रिया चलती रहने के संबन्ध में इस वसंत पर्व पर उपस्थित परिजनों से जब ऊपर से उनके आदेश के अनुसार यह कहा था कि- “हममें से कोई किसी से अगले दिनों बिछुड़ न सके। जो प्रमाद और उपेक्षा बरतेगा, उसे शांतिकुंज की संचालक शक्ति झकझोरती, उनके कान उमेठती और बाधित करती रहेगी। हर व्यक्ति सक्रिय रह कर ही चैन से बैठ सकेगा। कहा भले ही अलंकारिक भाषा में गया हो, पर इसे एक सच्चाई मानकर चलना चाहिए कि ऐसे सशक्त सूत्र मजबूती के साथ परस्पर बाँधे गये हैं, जो बिछुड़ने देने की स्थिति आने नहीं देंगे, भले ही हम लोगों में से किसी का दृश्यमान शरीर रहे या न रहे।”

उपरोक्त आश्वासन में एक चेतावनी भी थी व दिलासा भी। इतना सब स्पष्ट होते हुए भी सहज मोहवश हममें से किसी को भी यह कल्पना न रही होगी कि वे स्थूल शरीर का चोला यों उतार फेकेंगे जैसे दास कबीर अपनी झीनी चदरिया ज्यों की त्यों धर कर रखने की बात कह गये हैं। वसंत पर्व पर, प्रत्यक्ष मिलन क्रम बंद होने से 30 अप्रैल 90 तक जब उनने निकटवर्ती कार्यकर्ताओं की एक विशेष गोष्ठी में ब्रह्मबीज के ब्रह्मकमल में विस्तृत होने एवं उसकी सुवास कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए 7, 8 जून को ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर 6 महानगरों में 6 विशाल ब्रह्मयज्ञ, लक्षवेदीय दीपयज्ञ के आयोजन की बात कही तो संभवतः औरों को उनके इस अंतिम अध्याय पर शीघ्र पर्दा गिरने की बात मन में भी नहीं आयी होगी। किंतु वंदनीया माताजी एवं उनके समीपवर्ती सहयोगियों को भली-भाँति समझ में आ रहा था कि वे लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं। उनको वसंत पर्व पर ही बता दिया गया है। उसके बाद वे सूक्ष्म व कारण शरीर को और सक्रिय गायत्री जयंती तक वे क्रमशः अपनी चेतना को समस्त अंगों से सिकोड़ना चालू रखेंगे ताकि इच्छानुसार जब चाहें, शरीर छोड़ दें।

इतना होने पर भी मन में यह आश्वासन था कि “जून की पूर्णिमा के ब्रह्मयज्ञों का निर्धारण उन्हीं का है। तब तक तो उन्हें सशरीर रहना ही है। संभवतः हम सबको पक्का करने के लिए यह बात कही गयी है।” किंतु 8 मई को उनने यह कह कर कि प्रस्तुत पूर्णिमा के कार्यक्रम श्रद्धाँजलि कार्यक्रम होंगे व वे अपना शरीर माँ गायत्री के अवतरण के पुण्य दिन, गायत्री जयन्ती पर उन्हीं की गोद में सिर रखते हुए महाप्रयाण कर जायेंगे, सब कुछ स्पष्ट कर समीपवर्ती परिजनों को शोक विह्वल कर दिया। एकाएक कोई घटनाक्रम घटित होने पर संभवतः कोई बड़ी क्षति हो सकती थी। किंतु वे सुनियोजित ढंग से अपने जीवन वृत्त का समापन करना चाह रहे थे।

महापुरुषों की लीला अपरम्पार होती है। स्थूल दृष्टि उन्हें भले ही समझ न पाए किंतु जो उन्हें समीप से देख चुके हैं, अपने सान्निध्य में जिनको उनने विगत छह-सात वर्षों की पूरी अवधि में रखा, उनको यह लीला समझ में आ रही थी। इस बीच उनने मिशन की भावी रीति-नीति स्पष्टीकरण, कार्यकर्ताओं के दायित्व तथा सूत्र संचालन सत्ता संबंधी महत्वपूर्ण निर्देश देते रहने का क्रम बनाए रखा। उनका कथन था कि व्यक्ति के जाने पर तो संस्था का काम रुक सकता है किंतु शक्ति के जाने पर नहीं। वे स्वयं शक्ति स्वरूप हैं एवं वंदनीया माताजी ही उनकी शक्ति को संग्रहित रख परिजनों को दैनन्दिन जीवन से लेकर स्नेह बाँटने तक मिशन के दृश्य क्रिया–कलापों संबंधी मार्गदर्शन इसके बाद करती रहेंगी। उत्तराधिकारियों के रूप में वे लोकसेवी कार्यकर्ताओं की एक सशक्त टीम छोड़े जा रही हैं जिनसे उनकी अपेक्षा है कि वे उनके जैसा ही ब्राह्मणोचित जीवन जियेंगे, उनके जैसी ही संयमित दिनचर्या अपनाते हुए परमार्थ प्रयोजनों में अपनी सारी ‘शक्ति नियोजित करेंगे। लोकेषणा को कभी पास नहीं फटकने देंगे व परस्पर प्रतिद्वन्द्विता आदर्शवाद के क्षेत्र में करेंगे। कौन कितना विनम्र बना, यही उसकी वरिष्ठता की कसौटी होगी। उनके द्वारा समर्पित भाव से ब्रह्मपरायण जीवन किस प्रकार जिया गया, इसी आधार पर उनका मूल्याँकन प्रत्यक्षतः इन दिनों वंदनीय माताजी एवं परोक्ष रूप से वे सतत् करते रहेंगे व सतत् उनकी चेतना को झकझोर कर वे कार्य कराते रहेंगे जो उनकी गुरुसत्ता ने उनसे कराया।”

उनने बार-बार यही कहा कि-”यह काम भगवान का है, अवतार सत्ता का है अतः; कभी रुक नहीं सकता। सूक्ष्म व कारण शरीर से वे क्रमशः; भारत एवं विश्व भर में सक्रिय होते हुए मूर्धन्यों को झकझोरेंगे एवं युगचेतना के आलोक को आगामी दस वर्षों में ही पूरे भारत व विश्वभर में संव्याप्त कर देंगे। ब्रह्मकमल जब परिपक्व स्थिति में पहुँचकर विभाजित होता हैं तो अनेकों ब्रह्मबीज अपने पीछे छोड़ जाता है। हमारे संपर्क में प्रत्यक्ष रूप से आए पच्चीस लाख कार्यकर्ताओं एवं इनसे भी सौ गुना अधिक वे जो अगले दिनों जुड़ेंगे, हमारा मार्गदर्शन सतत् प्राप्त करते रहेंगे क्योंकि अब हम उनके और अधिक निकट आ गये हैं। प्रत्यक्षतः वंदनीया माताजी, आने वाले कुछ समय के लिए जब तक उनकी गुरुसत्ता उन्हें सक्रिय बनाये रखना चाहती है, सारे क्रिया कलापों का संचालन कर शाँतिकुँज को एक विश्वविद्यालय का रूप देंगी जहाँ नियमित रूप से साधना अनुदान के वितरण, ममत्व भरे मार्गदर्शन एवं कौशल प्रशिक्षण का क्रम चलता रहेगा।”

उनके इन अंतिम दिनों में समीप रहने वाले एक चिकित्सक शिष्य को यह निर्देश नोट तो कराये जाते रहे, साथ ही उसके मन में बार-बार उनके शरीर को लेकर मच रहे अन्तर्द्वन्द्व व ऊहापोह को पढ़ते हुए समाधान भी दिया जाता रहा। उनका कहना था कि-”चेतना को मापने वाली मशीन अभी विज्ञान ने नहीं बनाई, अतः तुम जड़ यंत्रों से शरीर की जाँच पड़ताल कर सब कुछ सामान्य पाकर भी हमें असामान्य पाते हो तो इसमें दोष न यंत्रों का है, न तुम्हारा। स्थूल विज्ञान जिसको अध्यात्म से समन्वित कर हम जीवन भर प्रतिपादन करते रहे, इन यंत्रों से नहीं ड़ सकता कि चेतना का 15 प्रतिशत अंश हम पहले से ही सूक्ष्म व कारण शरीर की तैयारी हेतु रवाना कर चुके हैं, 85 प्रतिशत अंश जो शेष बचा है, इस काया की देख-रेख तब तक करता रहेगा, जब तक अनिवार्य है। यंत्रों अथवा औषधि द्वारा काया से छेड़-छाड़ न किये जाने का हमारा निर्देश है। जब हम शरीर छोड़ें न तो प्राणों को लौटाने की चेष्टा करना, न काया से मोह करना। इस पार्थिव शरीर की अन्त्येष्टि हमारे ही द्वारा विनिर्मित प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा तीर्थ स्मारकों के समक्ष गायत्री तीर्थ के प्राँगण में उपस्थित परिजनों की साक्षी में पावन गायत्री जयन्ती के दिन की जाए। काया को औरों के दर्शन हेतु रोका न जाय क्योंकि इससे परिजन हमारी काया से मोह करने लगेंगे जो कि सब कुछ है, हमारा hकक जो शाश्वत है, को परे रख देंगे। हम चाहेंगे कि लोग हमारी चेतना से जुड़ें, इसी कारण हम अन्त्येष्टि यहीं, इसी शाँतिकुँज में पावन गंगादशहरा गायत्री जयन्ती के दिन ही कराने का आग्रह कर रहे हैं। माताजी को हम शक्ति देंगे कि वे स्वयं पर नियंत्रण रख सकें व मिशन से जुड़े एक बालक को हमारी कमी अनुभव न होने दें।”

छाती पर पत्थर रख कर उस कार्यकर्ता ने इन निर्देशों को सुना, महाकाल की अंश धर सत्ता के स्वरूप को समझा व गुरुसत्ता द्वारा अपने महाप्रयाण के बाद किये जाने वाले कर्तृत्वों को नतमस्तक हो स्वीकार किया। परिजनों को आश्चर्य हो सकता है, किंतु शक्ति कलशों को लक्षवेदीय ब्रह्म यज्ञायोजन स्थलों पर भेजने एवं अपने कर्तृत्व पर एक श्रद्धाँजलि विशेषांक लिखे जाने व उसका प्रारूप कैसा हो, यह जीवन्त मार्गदर्शन उस सत्ता का ही दिया हुआ है। जीवित रहते सशरीर कोई महामानव ही 24 दिन तक सतत् अपने बाद के भावी जीवनक्रम का निर्धारण कर हँसता-मुस्कराता जाने, स्थूल रूप से सदा के लिए विदाई लेने की योजना बना सकता है। उसने यह आश्वासन भी ले लिया कि उनके जाने के बाद शोक या विलाप न कर अपने मनोबल, आत्मबल में वृद्धि का सभी परिजन प्रयास-अभ्यास करेंगे तथा क्रिया–कलापों को इतना बहुमुखी बनाएंगे कि हर परिजन गुरुसत्ता के दृश्यमान शरीर का रोम-रोम, अंग अवयव बनता दिखाई दे। परोक्ष रूप से सभी ने यह आश्वासन उन्हें दिया। 25 मई से गुरुदेव ने भोजन व जल दोनों ही लेना बंद कर दिया। कृत्रिम माध्यम से देने का प्रयास करने पर उनने समझाया कि वे स्वेच्छा से यह सब कर रहे है। अपनी चेतना को सिकोड़कर महाप्रयाण की स्थिति में लाने के लिए अब वे अन्न व जल न लेकर वाँछित दिन महासमाधि लेना चाहेंगे। उनके निर्देशानुसार कोई अतिरिक्त प्रयास फिर नहीं किया गया।

दो जून (गायत्री जयन्ती) की प्रातःकाल का समय था। ब्रह्ममुहूर्त था। वंदनीय माता जी को, परिजनों को क्या कहना है एवं आगे कैसे कार्य करना है, यह सन्देश उनने दिया एवं फिर दोनों ने अंतिम विदाई ली। दोनों को दृश्य शरीर के पृथक होने की अनुभूति हो रही थी किन्तु स्वयं पर वज्र रख वंदनीय माताजी अपने आराध्य का संदेश सुनाने नीचे चली आईं। लगभग सात हजार से अधिक व्यक्तियों ने उस सन्देश को सुना जो वंदनीय माता जी ने करुणासिक्त अंतःकरण से निकली अपनी वाणी से कहा। उनके उद्बोधन के बाद प्रणाम व भोजन का क्रम चल पड़ा। जैसे ही युग संगीत की प्रथम पंक्ति पूज्यवर के कक्ष में पहुँची-”माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते है” उनके हाथ नमन की मुद्रा में ऊपर उठे एवं हृदय की धड़कन बंद हो गई। कार्डियोस्कोप जो विगत तीन सप्ताह से सतत् हृदय का स्पन्दन बता रहा था, अब यह संकेत दे रहा था कि 2 जून 1990 की प्रातः 8 बजकर 5 मिनट पर इस स्थूल काया से प्राण विसर्जित हो, महाप्राण में विलीन हो चुके है। एक युग का पटाक्षेप हो चुका था।

शोक विह्वल उनके पुत्रों एवं दो निकटस्थ कार्यकर्ताओं ने पहले स्वयं को संभाला एवं फिर युगद्रष्टा की उस नश्वर देह को गंगाजल से स्नान कराके खादी के कोरे वस्त्र पहनाकर उन्हें उसी मुद्रा में लिटा दिया। मौन गायत्री जप तब तक चलता रहा जब तक कि नीचे सभी कार्यकर्ताओं का प्रणाम व भोजन का क्रम समाप्त नहीं हो गया। यह उसी अनुशासन के अंतर्गत था जो नियमित दिनचर्या को प्रभावित न होने देने के रूप में वे स्वयं चाहते थे। प्रणाम समापन के बाद वंदनीय माताजी स्वयं दर्शनार्थ ऊपर आयी। अपने आराध्य देवता का स्थूल शरीर ही उनके समक्ष था। प्राणों का विसर्जन जब हुआ तब उन्हें सूक्ष्म रूप से संदेश भी प्राप्त हो गया था तथा अनुभूति भी हो चुकी थी। उनका शोक सभी को और विह्वल कर सकता था अतः उनने स्वयं पर नियंत्रण रख एवं पार्थिव शरीर को अंतिम प्रणाम हेतु नीचे ले चलने के लिए कहा। कहा जा सकता है कि वे सौभाग्यशाली थे जो उनका अंतिम दर्शन कर सके, किंतु जीवन दर्शन से शिक्षा देने वाला वह अवतारी पुरुष जो कहना था, व अब कराने के लिए उनके और निकट, और समीप पहुँच चुका था।

अंतिम दर्शन का दृश्य सभी के अंतःकरण को विदीर्ण करने वाला था। सभी ने अपनी पुष्पाँजलि समर्पित करने वाला था। सभी ने अपनी पुष्पाँजलि समर्पित की एवं उस वातावरण में भी सबको ये विचित्र अनुभूति होती रही कि वे आश्वासन दे गये है तो ज्योति बुझ कैसे सकती है? हम सभी अपने कर्तव्य द्वारा ज्योति को सतत् जलाये रखेंगे। शाम तक बाहर से आए सभी परिजन एवं स्थानीय, निकटवर्ती स्थानों से आए उनके अनुयायी, उनके संपर्क में आये अधिकारी गण व हरिद्वार के नागरिक दर्शन हेतु आते रहे। शाम को पार्थिव शरीर जो फूलों से सजा था, शांतिकुंज आश्रम में स्थित दो छतरियों प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के समक्ष ले जाया गया एवं उनके दोनों पुत्रों एवं दौहित्र द्वारा अग्नि को समर्पित कर दिया गया। वंदनीय माता जी सजल श्रद्धा की साकार मूर्ति हैं, पर इस समय वहाँ बैठी सबका मनोबल बढ़ाती रही। जीवन भर जिसने ममत्व की धार बहाई थी, अपना सब कुछ मिटाकर स्नेह-करुणा की जल धारा बहाकर उस सरिता में अगणितों को स्नान करा जिसने उन्हें पवित्र बना दिया था, वह युगऋषि, युगद्रष्टा, महाकाल का वरद पुत्र, अवतारी पुरुष अब वहाँ नहीं था। शेष थी वहाँ विद्यमान भस्म अब एवं ताप जिसमें वह लाखों व्यक्तियों को तपाकर कुन्दन बनने की प्रेरणा दे गया। वह सारा कर्तव्य अपने पीछे छोड़ गया था जिनका अनुगमन कर ब्रह्मकमल के रूप में विकसित हो अपनी सुगंध दिग्दिगंत फैलाने की प्रत्येक को वह प्रेरणा दे गया है। वह जाते-जाते कह गया है-

“कहीं भी तुम रही वंशज मेरे, सन्तान मेरी। मेरी आवाज, मेरा स्वर सदा अनुभव करोगे॥”

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