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Magazine - Year 1993 - Version 2

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मृगतृष्णा में भटक कर जीवन सम्पदा न गंगायें

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अन्य जीव-जंतुओं का लक्ष्य और पुरुषार्थ मात्र शरीर रक्षा एवं सुविधा तक सीमित रहता है। उन्हें न तो चेतना के स्वरूप का ज्ञान होता है और न उसके प्रति किन्हीं कर्तव्यों के पालन का दायित्व अनुभव होता है। पर मनुष्य के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसकी संरचना स्रष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में हुई है। शारीरिक और मानसिक ढाँचा इस स्तर का विनिर्मित हुआ है कि वह स्वल्प श्रम और समय में शरीर मात्र की उचित आवश्यकताओं को सरलतापूर्वक पूरी कर सके और बची हुई क्षमता को उन प्रयोजनों में लगा सके जिसके लिए यह जीवन संपदा उपलब्ध हुई है। विश्ववाटिका को अधिक सुरम्य, सुव्यवस्थित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाना स्रष्टा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र-युवराज मनुष्य को सौंपा है और कहा है कि वह जीवन संपदा का सदुपयोग इसी प्रयोजन के लिए प्रधान रूप से करे। शरीर निर्वाह यदि बुद्धिमत्तापूर्वक किया जाये तो उसके लिए स्वल्प शक्ति का नियोजन ही पर्याप्त होता रहेगा। शेष बचत से वे सभी प्रयोजन पूरे होते रहेंगे जिनसे व्यक्तिगत अपूर्णताओं को पूरा करते हुए पूर्णता का लक्ष्य पूरा किया जा सके। इस प्रकार स्वार्थ और परमार्थ के दोनों लक्ष्य साथ-साथ सफलतापूर्वक संपन्न होते रह सकेंगे। यही है वह राह जिसे मानवी-गरिमा को अनुभव करने वाले व्यक्ति को अपनाना उचित है।

इसे अज्ञान या अनौचित्य या भटकाव ही कहना चाहिए कि विचारशील होते हुए भी मनुष्य अविवेकी प्राणियों की तरह जीता है और अपनी सारी क्षमताएँ ललक और लिप्सा में ही खपा देता है। सीमित वस्तुओं में निर्वाह भली प्रकार बन पड़ने पर भी उसे विलास, वैभव एवं संग्रह के लिए इतना पाने की अभिलाषा रहती है जिसकी न आवश्यकता है न उपयोगिता। इसी को लोभ कहते है। परिवार को स्वावलम्बी एवं सुसंस्कृत बनाने की जिम्मेदारियाँ उस परिकर में रहते हुए सहज निभती रहती है। पर सोचा यह जाता है कि कुटुम्बियों के ऊपर सुविधा संपदाओं का अंबार लाद दिया जाय। उत्तराधिकार में इतना छोड़ दिया जाय जिसे पीछे वाले बिना हाथ-पैर हिलाये सात पुश्त तक बैठे खाते रहें। उसी कुचक्र के अपने उदाहरण और परामर्श से परिजनों को भी हेय जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसी प्रक्रिया को मोह कहते है। लोभ और मोह की खाई समुद्र जितनी गहरी है उसे पाटने के लिए इंद्र जैसी प्रतिभा और कुबेर जितनी संपदा भी कम ही पड़ती रहती है। ललक, लिप्सा की आँशिक पूर्ति भी न बन पड़ने पर असंतोष ही छाया रहता है और उस उद्विग्नता में अनाचार पर उतारू होकर तृष्णाएँ पूरी करने में निरत होना पड़ता है। इन्हीं दोनों को भवबंधन कहते हैं। इन से बँधा हुआ प्राणी बेचैनी के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत कर नहीं पाता। स्रष्टा के दरबार में पापों की पोटली बाँधकर उपस्थित होना पड़ता है। उस प्रश्न का उत्तर बन नहीं पड़ता जिसमें पूछा जाता है कि जिस निमित्त मनुष्य जन्म की धरोहर सौंपी गयी थी उसका उपयोग किस प्रकार हुआ? समुचित उत्तर न बन पड़ने पर उस दुर्गति का भाजन बनना पड़ता है, जिसमें अमानत में खयानत करने वालों को कठोर प्रताड़ना दिये जाने का विधान है। भविष्य के लिए यह विश्वास भी उठ जाता है कि यदि फिर ऐसा ही अवसर दिया गया तो अप्रामाणिकता की मनःस्थिति सँजोये हुए व्यक्ति फिर अपनी सदाशयता का परिचय दे सकेगा? साधन रहते हुए जो कुछ नहीं कर सका तो वह मरणोत्तर जीवन की साधन हीन परिस्थितियों में क्या कुछ कर सकेगा? यही वह स्थिति है जिसमें पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।

तीसरी एक और भी मूर्खता है जिसे कहते हैं अहंकार। किराये के घर में रहने वाला, धरोहर के रूप में मिली हुई बौद्धिक क्षमता को जो स्व-उपार्जित मान बैठते हैं वे अपनी हर भली-बुरी तृप्ति पर सभी के मुँह से प्रशंसा के शब्द सुनने के लिए आतुर रहता है। हर किसी पर अपनी संपन्नता और समर्थता का रौब गाँठना चाहता है। इसी ओछी मनोवृत्ति का नाम है-”अहंता”। इसे भी लोभ और मोह की तरह घातक ऐषणाओं में गिना गया है और अनर्थों के लिए प्रेरित करती रहने वाली विडम्बना कहा गया है।

तुच्छ होते हुए भी रावण जैसा अहंकारी बना फिरने वाला इसी व्यामोह में प्रायः ऐसे प्रपंच रचता रहता है जिनका औचित्य किसी भी प्रकार विचारशीलता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। शरीर की सज्जा को सुँदर और बलिष्ठ दिखाने के लिए कितना समय, श्रम खर्च करना पड़ता है, कितना आडम्बर बनाना पड़ता है इसे सहज ही सर्वत्र देखा जा सकता है।

अमीरी दिखाने के लिए गरीबों को भी इतनी आतुरता होती है कि प्रहसनों में स्वाँग करने वाले अभिनेताओं को भी प्रायः पीछे छोड़ दिया जाता है। ठाट-बाट जमाकर दूसरों को अपनी विशेषता से चमत्कृत करने के लिए लोग इतने आडम्बर खड़े करते है जिन्हें देखकर प्रतीत होता है उन्हें अमीरी प्रदर्शित करने के अतिरिक्त और कुछ भी महत्वपूर्ण हो सकता है यह सूझता ही नहीं। अपव्यय के अगणित स्वाँग इसीलिए खड़े किये जाते हैं कि लोग इस भ्रम में पड़ सकें कि इनके पास अपार संपदा है। विवाह शादियों में घर फूँक तमाशा देखने वाले प्रायः इसी निमित्त पैसे की होली जलाते हैं कि बिरादरी वालों में उनकी नाक कछुए से भी अधिक लम्बी दीख पड़े। मुखिया बनने, ऊँची पदवी पाने, साधारण जनों की तुलना में अपने को अधिक बड़ा सिद्ध करने के लिए जो प्रपंच रचने पड़ते हैं उन्हें देखकर लगता है कि अहंकार की वितृष्णा-लोभ और मोह से भी बढ़ी-चढ़ी है। उन दो में कुछ थोड़ा बहुत हाथ तो लगता है पर अहंकारी तो आदि से अंत तक मूर्खता से घिरा और अपव्यय से बँधा रहता है। चाटुकार उसे बुरी तरह निचोड़ते हैं। शेखी बखारने वाले विचारशील वर्ग में ओछा, बचकाना और भ्रमित स्तर का ही गिना जाता है। स्वयं को भी प्रपंच में इतना अधिक खपाता रहता है कि उस हानि की तुलना नहीं की जा सकती। अहंकार की पूर्ति के लिए जितना कुछ करना पड़ता है वह अपव्यय के खाते तो जाता है साथ ही मन को मलीन बनाने और ईर्ष्यालुओं, विद्वेषियों, विरोधियों की संख्या बढ़ाते रहने की हानि भी सहन करता रहता है।

जिस सुर दुर्लभ मनुष्य शरीर को स्वयं पार होने और दूसरों को पार करने वाले प्रयोजनों में लगाकर इसी जीवन में स्वर्गोपम दृष्टिकोण का आनंद लेने और जीवन मुक्त जैसी निर्द्वंदता प्राप्त करने का लाभ लिया जा सकता था, उसे लोभ, मोह, अहंकार के लिए बेतरह खर्च कर दिया जाता है। नुकसान में तो आलसी और प्रमादी भी रहते हैं पर उन्हें अपंग-अनगढ़ों की श्रेणी में गिनकर दया का पात्र भी समझा जा सकता है, किंतु उन्हें क्या कहा जाय जो समझदार होते हुए भी नासमझी के तीन-तीन लबादे ओढ़ते हैं और उस भारी भरकम वजन को ठीक तरह वहन न कर पाने पर रोते-कलपते और दुर्भाग्य को कोसते रहते है। विपत्ति कहीं बाहर से आई हो तो उसके लिए किसी को सहायता के लिए भी पुकारा जा सकता है, पर उस मूर्खता के लिए क्या कहा जाय जिसने स्वयं ही सड़ी कीचड़ के दलदल में घुसते-घुसते दुर्गति की चरम सीमा तक जा पहुँचने की ठान ठानी है। सही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हर किसी को सुविधाएँ प्राप्त हैं। शरीर यात्रा के लिए वायु, जल और आहार की आवश्यकता पड़ती है। हवा सहज ही उपलब्ध रहती है। पानी थोड़े हाथ-पैर हिलाकर प्राप्त किया जा सकता है। पेट भरने के लिए जितने आहार की आवश्यकता है उतना औसत मनुष्य एक घंटे के श्रम से कमा सकता है। तीन आवश्यकताओं की आम चर्चा होती रहती है। रोटी, कपड़ा और मकान। इनको यदि औचित्य की सीमा में उपलब्ध कराना पर्याप्त समझा जाय तो अपने और अपने सीमित कुटुम्बियों के लिए इतना पुरुषार्थ पर्याप्त हो सकता है जिसके उपराँत शक्तियों का विपुल भण्डार बच सके और उसे मानवी गरिमा के अनुरूप प्रयोजनों में लगने वाले महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में सफल हो सकता है। साधनों की कमी रहने पर भी ऋषिकल्प आप्तजनों ने इतना कुछ एक ही जीवन में पूरा कर दिखाया। जिसका लेखा-जोखा लेने पर प्रतीत होता है कि उनने आत्मसंतोष, जन सम्मान और दैवी के अनुग्रह के तीन वरदान प्रचुर परिणाम में उपलब्ध कर दिखाये।

दुरुपयोग से अमृत भी विष बन जाता है। सदुपयोग से मलमूत्र भी सोना उपजाने वाली खाद के रूप में श्रेय अर्जित करते हैं। जीवन का सदुपयोग बन पड़े तो वह जीने वाले को धन्य बना सकता है। और उसके संपर्क में आने वाले भी चंदन वृक्ष के समीप उगे अन्य पौधों की तरह गौरवान्वित होते हैं। पर जहाँ दुरुपयोग के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं वहाँ कोयले की दलाली में काले हाथ होने के अतिरिक्त और क्या कुछ पल्ले पड़ने वाला है। भोग योनि वाले अन्य जीव जंतु अथवा प्रारब्ध भोगकर जहाँ से आये थे वहाँ चले जाते हैं। साथ में नई पाप पिटारी लाद कर नहीं ले जाते। जितने दिन जीते हैं प्रकृति की गोद में स्वच्छंदतापूर्वक दिन बिताते हैं पर मनुष्य है जो नीरस, चिंतित, क्षुब्ध, अशाँत और आकुल -व्याकुल पाया जाता है। इसे आश्चर्य भी कहा जाना चाहिए और दुर्भाग्य भी कि इतनी विपुल साधन संपदा से भरा पूरा मनुष्य जन्म पाने वाला प्राणी उपलब्ध हीरक हार को कौड़ी मोल बेच कर खाली हाथ विदा होता और भविष्य के लिए पश्चाताप भरी प्रताड़ना और दुर्गति ही साथ लिए जाता है। ऐसा अनर्थ क्यों होता है कि सृष्टि के समस्त प्राणियोँ का मुकुट मणि समझा जाने वाला प्राणी दिव्य उपलब्धियों का दुरुपयोग करके मात्र घाटा और संकट ही उठाये जबकि सामान्य क्षमताओं वाले प्राणी प्रकृति के अनुरूप रहकर इस सुरम्य संसार में कल्लोल करते और दिन बिताते हैं। इस विपर्यय की भूल में उपलब्धियों का दुरुपयोग ही एक मात्र कारण है।

वैभव को सुयोग कहना भूल है। सौभाग्य का सीधा अर्थ है सदुपयोग का निर्धारण और उसे पूरा कर दिखाने का कौशल इसके लिए आवश्यक समझदारी हर विचारशील में होनी चाहिए। अन्यथा धन-संतान जैसी मनोकामनाओं को पूरी करने वाले तक अपेक्षाकृत अधिक त्रास सहते देखे गये हैं। धन का अभाव या अपव्यय अपने-अपने ढंग की विपत्तियाँ उत्पन्न करते हैं। धनी दुर्व्यसनों के अहंकार के चाटुकारों के, ईर्ष्यालुओं से घिरते और विलाप करते देखे गये हैं। संतान की संख्या बढ़ा लेने और उन्हें सुसंस्कृत न बना सकने पर उन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिनके बिना संतान वाले ग्रसित नहीं होते। दुरुपयोग करने पर माचिस भयंकर अग्निकाण्ड का कारण बनती और सुई जैसी उपयोगी वस्तु से गहरा घाव होने की पीड़ा सहनी पड़ती है। मनुष्य जीवन प्राप्त होना समुचित ऊँचे स्तर का सुयोग है। इसे दैवी अनुग्रह उच्चस्तरीय उपहार भी कह सकते हैं। इतने पर भी यदि उसका दुरुपयोग लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति में ही होता रहे तो समझना चाहिए कि दुर्बुद्धि की चरम सीमा हो गई। अपनी ही समझ साथ न दे तो कल्पित मृगतृष्णा में भटक कर हिरन की खीज, निराश और प्यास की पीड़ा सहते-सहते प्राण देना पड़े तो इसके लिए अन्य किसी को दोष देते कैसे बन पड़े? मनुष्य जीवन यदि निरानंद, नीरस, निष्ठुर और हेय प्रयोजनों में व्यतीत हो चले तो इसके लिए अपने अविवेक अतिरिक्त और किसी को क्यों-कैसे कोसा जाय?

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