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Magazine - Year 1993 - Version 2

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श्रद्धामयोऽयं पुरुषः

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First 34 36 Last
उन दिनों रामकृष्ण परमहंस हनुमान की साधना कर रहे थे। कुछ ही दिनों में उनकी प्रकृति में विलक्षण परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे। बंदरों की तरह उछलना-कूदना, पेड़ पर चढ़ना-सब कुछ में कपिवृत्ति का विचित्र समावेश था। इतना ही नहीं, बंदरों की भाँति उनके पूँछ भी निकलने लगी। सभी हैरान थे, पर साधना की समाप्ति के साथ कुछ ही दिनों में वे अस्वाभाविक लक्षण स्वतः तिरोहित हो गये। ऐसे ही एक अवसर पर जब वे राधा भाव की साधना कर रहे थे, तो उनके विचार व्यवहार, चाल-ढाल न सिर्फ स्त्रियों जैसे हो गये थे वरन् शरीर में स्त्रैण गुण भी उभर आये थे। महिलाओं की तरह उरोज और मासिक स्राव भी शुरू हो गया था, किन्तु ज्योंही साधना पूरी हुई धीरे-धीरे सभी असामान्यताएँ अदृश्य हो गई।

यहाँ चर्चा किन्हीं महापुरुष अथवा साधनाओं की नहीं की जा रही है। कहने का आशय मात्र इतना भर है कि अध्यात्म श्रद्धा-विश्वास की जिस धुरी पर टिका है, उसे यदि प्रगाढ़ और प्रबल किया जा सके, तो आज जिस प्रकार इस सूक्ष्म विज्ञान की विश्वसनीयता पर उँगली उठायी जा रही है, उसकी गुंजाइश न सिर्फ सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जायेगी, अपितु अनेक ऐसी उपलब्धियाँ भी हस्तगत हो सकेंगी, जिसे अब तक पढ़ी-सुनी भर, कपोल-कल्पना भर मानी जाती रही थीं।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि विश्वास में ऐसी कोई शक्ति है क्या, जिसके कारण ऐसी अनपेक्षित उपलब्धियाँ करतलगत कर पाना संभव हो? उत्तर में चिकित्साशास्त्र का उदाहरण दिया जा सकता है। शरीर विज्ञान में मनःकायिक रोगों की उपज अन्तराल की उस आस्था को बताया गया है, जो निषेधात्मक चिन्तन के रूप में इतना सुदृढ़ हो जाता है कि अब तक जो चिन्तन मात्र था, वह व्याधि के रूप में प्रकट और प्रत्यक्ष होने लगता है। आरोग्यशास्त्र का उक्त सिद्धान्त प्रकारान्तर से उसी अध्यात्म मान्यता को परिपुष्टि करता है कि विचार और विश्वास को यदि सबल और सशक्त बना लिया जाय, तो जो कुछ सोचा गया था, उसके मूर्तिमान होने में विलम्ब नहीं लगता। गीता में इसी का समर्थन “‘श्रद्धामयोयम पुरुषः यच्छृद्धः स एवं सः” कह कर किया गया है।

अध्यात्म इसी आस्था-विज्ञान का नाम है। उसमें आस्तिकता का स्थान तो है, पर वह तब तक कुछ कर पाने में सफल नहीं हो पाती, जब तक सर्वोपरि सत्ता के प्रति निष्ठा घनीभूत होती जाती है, त्यों-त्यों परिपाक के परिणाम ऐसे अद्भुत और अनूठे सामने आने लगते हैं, जिसे चमत्कार कहा जा सके। आस्तिक और आत्मविश्वासी इसका सहज लाभ सरलतापूर्वक उठा लेते हैं, किन्तु प्रत्यक्षवाद के पक्षधर नास्तिक प्रकृति के लोग चूँकि ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाते, अतः ऐसे लाभों से वंचित रह जाते हैं और “नो सोल, नो गाँड”, “ईश्वर मर गया” जैसी मनगढ़ंत बातें करने लगते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि इन दिनों जब महाकाल का चक्र अपनी पूरी गति पर है, तो ऐसे लोगों की मूर्छना टूटी है, जो ईश्वर नाम की किसी सत्ता अथवा व्यवस्था से सर्वथा इनकार करते थे। अब उसी भूखण्ड से आस्तिकता का शंखनाद होने लगा है, जहाँ कभी अनास्था व नास्तिकता का वर्चस्व था। इससे यह सहज विश्वास होने लगा है कि आने वाले समय में सर्व समर्थ सत्ता के प्रति आस्था जगेगी और वह दृढ़ता पैदा होगी, जिसे तर्क की थोथी दलीलों की तरह नहीं, वरन् तथ्य और प्रमाण की तरह प्रत्यक्ष अनुभव की जा सके।

अमेरिका एक ऐसा ही देश है, जहाँ आजकल विश्वास-चिकित्सा की लहर-सी चल पड़ी है। वहाँ “यूनिटी स्कूल ऑफ क्रिश्चियनिटी” “कम्यूनिटी ऑफ जीसस” “चर्च ऑफ फादर डिवाइन” “दि एमेनुअल मूवमेण्ट” “क्रिश्चियन साइंस” एवं “न्यू थॉट मूवमेण्ट” जैसे नामों से विभिन्न केन्द्रों पर ऐसी ही चिकित्सा चलायी और मूर्द्धन्यों द्वारा अपनायी जा रही है। यह उपचार पद्धति कितनी जोर पकड़ती जा रही है, इसका अनुमान इसी बात से लगता है कि अब वहाँ प्रायः दस में से हर पाँच बुद्धिजीवी अपना काम आरंभ करने से पूर्व प्रार्थना करते और भगवान से सफलता की याचना करते हैं। इनमें चिकित्सक, अभियन्ता, वक्ता, लेखक, कलाकार जैसे सभी क्षेत्र के लोग सम्मिलित हैं। एनाहिम (कैलीफोर्निया) के मेलोडीलैण्ड स्कूल में ऐसे ही एक उपचार केन्द्र की स्थापना की गई है, जिसमें प्रत्येक बृहस्पतिवार को हजार से भी अधिक लोग उपचार हेतु उपस्थित होते हैं। ऐसा ही एक केन्द्र फैमिंघम नामक कस्बे में श्री और श्रीमती अल्बर्ट डोपलर नामक प्रौढ़ दंपत्ति चलाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक ओहियो नगर में बी. मेडलिन नामक एक वयोवृद्ध महिला चिकित्सक ने इसी पद्धति द्वारा रोगियों का इलाज करते हुए प्रसिद्धि पायी थी। केप-ओड नामक स्थान में भी एक ऐसा ही आरोग्य केन्द्र काम कर रहा है।

विश्वास-चिकित्सा की विविध शाखाओं के संस्थापकों में फिल्मोर दंपत्ति विशेष उल्लेखनीय हैं। वे आरंभ में स्वयं भी बीमार थे, किन्तु अपने अगाध ईश-विश्वास के कारण जब स्वस्थ हुए, तो इसका प्रयोग अन्य अनेकों पर किया और उन्हें कष्टसाध्य व्याधियों व्याधियों से मुक्ति दिलायी।

यहाँ यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि विश्वास एक ऐसा पारस है, जो लौह के संयोग से स्वर्ण जैसा सत्परिणाम प्रस्तुत करता है उसमें इतनी अमोघ शक्ति है कि उसे दृढ़तापूर्वक जिस भी लक्ष्य पर संधान किया जाय, वहीं शब्दबेधी बाण जैसा चमत्कार उत्पन्न करता है। यह विश्वास किसी विचार के प्रति हो, अथवा परम सत्ता के प्रति, जब वह गहन अन्तराल में अपनी जड़े जमा लेता है, तो अपने सदृश्य परमाणुओं को दूर-दूर से खींच बुलाता और ऐसा वातावरण विनिर्मित करता है, जैसी इच्छा की गई थी। चुम्बक को जब धूल में रखा जाता है, तो वह मृत्तिका कणों को अपनी ओर नहीं खींचता, वरन् सजातीय लौह कणों को ही आकर्षित करता है। विश्वास-चिकित्सा में भी यही विज्ञान कार्य करता है। जब कोई रोगी गहन आस्था के साथ परमेश्वर से आरोग्य की प्रार्थना करता है और ऐसा विश्वास करता है कि वह अवश्य स्वस्थ हो जायेगा, तो दो प्रकार की शक्तियाँ साथ-साथ कार्य करने लगती है। परमात्मा की समर्थ शक्ति और प्रबल संकल्प का स्वसंकेत-यह दोनों सत्ताएँ जब एकत्रित होती हैं, तो दिव्य वरदान जैसा प्रतिफल उपस्थित करती हैं और बीमार देखते-देखते स्वस्थ हो जाता है।

विश्वास चिकित्सा के पीछे के इस विज्ञान को समझ लेने के उपरान्त नास्तिकों एवं संदेहशीलों को इस पर शंका करने की तनिक भी गुंजाइश शेष रह नहीं जाती। आज के एड्स कैंसर एवं इस जैसे अन्य अनेक दुस्साध्य व्याधियों को दूर करने का यह रामबाण उपचार हो सकता है। इससे गंभीर बीमारियाँ ही नहीं, विकट परिस्थितियाँ भी देखते-देखते दूर की जा सकती हैं। जब विश्वासपूर्वक उस “कर्तुम्कर्तुमन्यथाकर्तुम्” से प्रार्थना शक्ति की जाती है, तो तत्क्षण उसकी समर्थ शक्ति कार्य करने लगती और स्थिति-परिस्थिति को सामान्य एवं सहज बना देती है।

हम उस परमात्मा सत्ता के प्रति यदि आस्था और श्रद्धा जगा सकें, तो न सिर्फ वर्तमान की विषम परिस्थितियों से त्राण पा सकेंगे, अपितु उसकी समर्थ सहायता संकटों में, बीमारियों में, दुर्घटनाओं में भी पग-पग पर अनुभव कर सकेंगे। यह आज की सर्वोपरि आवश्यकता एवं सर्वसुलभ उपचार है। इस सरल-सस्ती प्रक्रिया का अपनाने में ननुनच नहीं ही किया जाना चाहिए।

First 34 36 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Type: TEXT
Language: HINDI
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