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Magazine - Year 2002 - Version 2

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Language: HINDI
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कैसे हो साक्षी भाव की सिद्धि

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First 11 13 Last
अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने एक परीक्षण के लिए किसी व्यक्ति को ऑपरेशन टेबुल पर लिटाया और उसे कुछ मिनटों के लिए सम्मोहित कर सुला दिया। जब वह सम्मोहन अवस्था में सो रहा था, तो उसके गले पर एक छुरी चुभाई गई। उससे खून की एक बूंद छलक पड़ी। इसके बाद ही वैज्ञानिकों ने उसकी सम्मोहन निद्रा तोड़ दी और जगा दिया। यह सारा प्रयोग कुछ ही मिनटों में हो गया था और जितने समय तक वह व्यक्ति सोया, वह तो कुछ ही सेकेंड थे। उन कुछ ही सेकेंडों में उस व्यक्ति ने एक लंबा सपना देख लिया था।

डॉ. अलेक्जेंडर लिंबार्ड ने उस स्वप्न का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इन कुछ ही सेकेंडों में उस व्यक्ति ने एक आदमी की हत्या कर दी थी। वह महीनों तक लुकता छिपता रहा था। अंततः पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उस पर हत्या का मुकदमा चला। मुकदमें का फैसला होने में दो ढाई साल लगे। जज ने उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई। और उसे जब फाँसी के तख्ते पर चढ़ाया जाना था, तो उसी क्षण उसकी नींद खुल गई।

वैज्ञानिकों का कहना था कि इस प्रयोग में वह व्यक्ति पाँच सात सेकेंड ही सोया था और इस अवधि में उसके लिए वर्षों का घटनाक्रम गुजर गया। यह प्रयोग आइंस्टीन के समय सिद्धाँत की सत्यता जानने के लिए किया जा रहा था, जिसके अनुसार समय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। वह दो घटनाओं के बीच की दूरी मात्र है, जो कुछ भी हो सकता है, परंतु मनुष्य को अपने ज्ञान एवं अनुभूति के आधार पर ही लंबी अथवा छोटी लगती है।

क्या सचमुच समय कुछ भी नहीं है? सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक 24 घंटे होते हैं। इन चौबीस घंटों में हम कितने ही काम करते हैं। घड़ी अपनी चाल से चलती है। सूर्य अपनी गति से क्षितिज के इस पार से उस पार तक पहुँचता है। सब कुछ तो स्पष्टतः प्रतीत होता है, परंतु आइंस्टीन के अनुसार यह सब एक भ्रम मात्र है। फिर तो सारा संसार ही भ्रम हो जाएगा।

वस्तुतः सारी दुनिया ही एक भ्रम मात्र है। वेदाँत दर्शन के अनुसार संपूर्ण जगत् ही मायामय है। माया अर्थात् जो नहीं होने पर भी होता दिखाई दे। जिसका अस्तित्व नहीं है, लेकिन भासित होता है। आदि शंकराचार्य ने इस माया को परिभाषित करते हुए कहा है, माया यथा जगर्त्सवमिदं प्रसूयतों अर्थात् वही माया है, जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है।

आइंस्टीन से पहले इंद्रिय बुद्धि द्वारा होने वाले अनुभवों और प्रत्यक्ष जगत् को ही सत्य समझा जाता था। इसके पूर्व के वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि आप दौड़ रहे हों अथवा बैठे हों, जाग रहे हों या सोए हों, समय अपनी सीधी बँधी रफ्तार से सीधा आगे बढ़ता है, परंतु आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धाँत ने इस मान्यता को छिन्न-भिन्न कर दिया और यह सिद्ध हो गया कि समय कुछ घटनाओं का जोड़ भर है। यदि घटनाएँ न हों, तो समय का कोई अस्तित्व नहीं होता और घटनाएँ भी द्रष्टा की अनुपस्थिति में अस्तित्वहीन होती हैं।

इस बात को कतिपय उदाहरणों द्वारा आसानी से समझा जा सकता है समय को मापने का सबसे बड़ा मापदंड घड़ी है। घड़ी में सेकेंड की सुई 12 से चलकर 12 तक पहुँचने पर एक मिनट होता है। मिनट की सुई इतनी दूरी तय कर ले, तो मान लिया जाता है कि एक घंटा हो गया और घंटे की सुई इतनी दूरी तय कर लेने पर आधा दिन आधी रात बता देती है और 12 से 12 तक दूसरी बार पहुँचने पर 24 घंटे या दिन पूरा हुआ मान लिया जाता है। आइंस्टीन का कहना था कि घड़ी की सुई की गति बढ़ा दी जाए, तो यही 24 घंटे 36 घंटे में भी बदल सकते हैं और कम कर दी जाए तो 2 या उससे भी कम चाहे जितने हो सकते हैं अर्थात् यह बात अर्थहीन है कि दिन 24 घंटे का होता है अथवा उससे कम ज्यादा का।

इसी के अनुसार घड़ी का यह समय विभाजन पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेने वाली घटना को आँकने के लिए किया गया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पृथ्वी एक बार सूर्य की परिक्रमा कर लेती है, तो 24 घंटे हो जाते हैं, लेकिन चंद्रमा सूर्य की परिक्रमा करने में इससे भी अधिक समय लगाता है। मंगल उससे भी अधिक और शुक्र का एक दिन नहीं होता है। वहाँ इससे अधिक समय में दिन रात होता है अर्थात् वहाँ के लिए दूसरे टाइम स्केल (समय मापदंड) निर्धारित करने पड़ेंगे।

आइंस्टीन के अनुसार समय इसी प्रकार घटनाओं पर निर्भर करता है। सोए हुए व्यक्ति के लिए बाहरी जगत् में भले ही पाँच मिनट का समय व्यतीत हुआ हो, किंतु वह जो स्वप्न देख रहा होता है, उसमें उन पाँच मिनटों के भीतर वर्षों की घटनाएँ घटित हो जाती हैं, तो उसके लिए पाँच मिनट बीम गए, यह कहना सही होगा अथवा यह कहना कि वर्षों बीत गए! यह विचारणीय है।

योगी यती निमिष मात्र में सामने वाले का भूत, भविष्य, वर्तमान जान जाते हैं जबकि सामान्य व्यक्ति उसका लेखा जोखा लें, तो उसे जन्म से बचपन, बचपन से यौवन और वर्तमान जानने में ही काफी लंबा समय लग जाएगा, जबकि भविष्य उसके लिए अविज्ञात स्तर का बना रहता है। किसी प्रकार उसे भी जानने की कोई विधा उसके पास हो, तो जन्म से मृत्युपर्यंत की घटनाओं की जानकारी एवं उनका आकलन, परीक्षण और विश्लेषण करने में शायद एक व्यक्ति का संपूर्ण जीवन लग जाए। ऐसा क्यों होता है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि स्थूल जगत् और सूक्ष्म जगत् के ‘टाइम स्केल’ भिन्न भिन्न हैं। दोनों जगतों की घटनाओं को एक ही मापदंड द्वारा आँका और मापा नहीं जा सकता।

एक बार सूर्य विज्ञान के प्रणेता स्वामी विशुद्धानंद के पास रामजीवन नामक उनका एक शिष्य आया और अपनी टूटी हुई रुद्राक्ष माला को उन्हें देते हुए योग विद्या द्वारा उसे शास्त्रीय ढंग से गूँथ देने का आग्रह किया। विशुद्धानंद ने रुद्राक्ष के मनकों को एक झोले में रखा और थैले का मुँह बंद कर उसे दो तीन बार ऊपर नीचे किया। इसके बाद तैयार माला को निकाल कर उसे सौंप दिया। शिष्य के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कारण कि उसकी कल्पना में माला तैयार होने में कम से कम पाँच सात मिनट लगने चाहिए थे, पर वह तो क्षणमात्र में तैयार हो गई बाद में स्वामी जी ने बताया कि इसे ‘क्षण विज्ञान’ के प्रयोग से इतनी जल्दी बनाया जा सका।

प्रसंगवश यहाँ अध्यात्म जगत् की चर्चा हो गई। भौतिक जगत् में पुनः वापस लौटते हुए अब यह देखते हैं कि वहाँ घटनाओं के अतिरिक्त समय का अस्तित्व और किस पर निर्भर है। विचार मंथन से ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य की बोध शक्ति पर भी समय की सत्ता आधारित है। उसका द्रुत या धीमी गति से गुजरना, यह पूर्णतः उसके बोध पर आश्रित है। कई बार ऐसा लगता है कि समय बिताए नहीं बीतता। दूर स्थान से अपने किसी अति आत्मीय स्वजन का दुःखद समाचार आया हो और वहाँ पहुँचना हो, तो गाड़ी आने में दस मिनट की देरी भी घंटों सी लगती है, क्योंकि व्यक्ति उस समय तनावग्रस्त और उद्विग्न मनःस्थिति में होता है, लेकिन किसी सुखद समारोह में भाग लेते समय, विवाह शादी के अवसर पर यह पता भी नहीं चलता कि समय कब बीत गया। उस समय व्यक्ति की बोध शक्ति चेतना पूरी तरह तन्मय हो जाती और समय भागता सा प्रतीत होता हैं।

इसे मच्छर के भी उदाहरण से समझा जा सकता है। मच्छर की आयु कुछ घंटों की होती है। वह इतने में ही एक मनुष्य की संपूर्ण उम्र जी लेता है। इतनी अवधि में ही वह बच्चा, जवान, बूढ़ा सब कुछ हो जाता है। और हमारे अनुसार थोड़े से घंटों तथा उसके अपने अनुसार 70-80 वर्ष की आयु पूरी कर मर भी जाता है। इसका कारण प्रत्येक जीव जंतु की अलग अलग बोध सामर्थ्य है और उसी के अनुसार समय सिमटता और फैलता है।

घटनाओं और बोध शक्ति के अतिरिक्त सापेक्षतावाद के अनुसार समय की चाल गति पर भी निर्भर करती है। आइंस्टीन ने सन 1940-50 में सापेक्षता का यह सिद्धाँत प्रतिपादित किया कि गति का समय पर भी प्रभाव पड़ता है। उसके अनुसार गति जितनी बढ़ेगी, समय की चाल उतनी ही घटती जाएगी। उदाहरण के लिए एक अंतरिक्ष यान प्रकाश की गति अर्थात् एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से चलता हो, तो उसमें बैठे व्यक्ति के लिए समय की चाल एक बटा सत्तर हजार हो जाएगी अर्थात् प्रकाश की गति से चलने वाले यान में बैठकर कोई व्यक्ति नौ प्रकाश वर्ष (नौ वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करे) दूर स्थित किसी तारे पर जाए और वहाँ से तुरंत लौट पड़े तो इस यात्रा में अठारह वर्ष लगेंगे, लेकिन उस यान में बैठे व्यक्ति के लिए यह समय अठारह वर्ष का सत्तर हजारवाँ भाग अर्थात् सवा दो घंटे ही होगा।

ऐसा भी नहीं कि पृथ्वी पर सवा दो घंटे ही बीतेंगे। पृथ्वी पर तो वही अठारह वर्ष ही व्यतीत होंगे। उस व्यक्ति के सगे संबंधी भी अठारह वर्ष बूढ़े हो चुके होंगे। जिन बच्चों को वह 12-13 वर्ष का छोड़ गया होगा, वे 30-31 वर्ष के मिलेंगे। उसकी पत्नी जो उससे उम्र में मात्र दो वर्ष छोटी 35 वर्ष की रही होगी, वह बूढ़ी हो चुकेगी, किंतु वह व्यक्ति जिस आयु और जिस स्थिति में गया होगा, उसमें सिर्फ सवा दो घंटे का परिवर्तन हुआ होगा अर्थात् उसकी आयु सवा दो घंटे ही बीती होगी। यह भी कहा जा सकता है कि वह अपनी पत्नी से आयु में सोलह वर्ष छोटा हो जाएगा।

यह बात पढ़ने सुनने में अनहोनी और आश्चर्यजनक लगती है कि कोई व्यक्ति 18 वर्ष बाहर रहकर आए और जब लौटे, तो ऐसे मानो कुछ घंटे ही बाहर रहा हो। उसके चेहरे और शक्ल में भी कोई परिवर्तन न आए। उसे देखकर कोई यह भी न कह पाए कि इस बीच वह 18 वर्ष और बड़ा हो चुका है, लेकिन आइंस्टीन ने प्रमाणों और प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है। सापेक्षता के इस सिद्धांत को ‘क्लॉक पैराडॉक्स (समय का विरोधाभास) कहा गया है।

यद्यपि अभी कोई ऐसा यान बन नहीं सकता है, जिसके द्वारा की गई यात्रा से इस सिद्धाँत की सचाई को अनुभूत किया जा सके, परंतु समय विरोधाभास के जो समीकरण आइंस्टीन ने दिए, उनके अनुसार अमेरिका के भौतिकशास्त्री जोजफ हाफले और खगोल शास्त्री रिचर्ड किटिंग ने सन 1979 में दो बार प्रयोग किए। उन्होंने अपने साथ चार परमाणु घड़ियाँ ली और उनके साथ सर्वाधिक तीव्र गति से उड़ने वाले यान द्वारा पृथ्वी के दो चक्कर लगाए। ज्ञातव्य है कि परमाणु घड़ियाँ सेकेंड के खरबवें हिस्से तक का समय सही सही बता देती है। हाफले और कीटिंग ने भूल चूक से बचने के लिए हर तरह की सावधानियाँ बरती। प्रयोग पूरा होने के बाद उनने पाया कि तीव्र गति के कारण परमाणु घड़ियों ने अंतर बता दिया। इसके बाद दोनों वैज्ञानिकों ने घोषणा की कि आइंस्टीन का ‘क्लॉक पैराडॉक्स’ सिद्धाँत सही है।

समय की यह प्रतीति अनुभवकर्ता की गति पर आधारित थी। इसके अतिरिक्त घटनाएँ और बोध भी इस प्रतीति के माध्यम हैं। इस प्रकार सापेक्षता के यह समस्त सिद्धाँत वेदाँत की मूल मान्यताओं का समर्थन करते हैं। समय को जानने का सर्वसुलभ और सबसे सरल माध्यम घटनाएँ है। इसके अनुसार यही कहा जा सकता है कि यह विश्व और कुछ नहीं घटनाओं का समुच्चय है तथा घटनाएँ व्यक्ति की बोधशक्ति, संकल्प चेतना का ही प्रतिफल है। विराट् ब्रह्म के संकल्प से, उसकी उपस्थिति मात्र से यह मायामय संसार उत्पन्न हुआ। मनुष्य यदि चाहे, तो इस माया से मुक्त हो सकता है और सत्य के दर्शन कर सकता है। किंतु इसके लिए हमें पहले से बनी बनाई घटनाओं को वस्तु जगत पर थोपना बंद करना पड़ेगा। तत्वदर्शियों ने इसी को साक्षीभाव की सिद्धि कहा है।

आइंस्टीन के ‘समय विरोधाभास’ सिद्धाँत से मायावाद की और पुष्टि हो जाती है, जिसमें व्यक्ति को असंग भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। उस स्थिति को प्राप्त हुए बिना अंतिम सत्य का पता लगाया ही नहीं जा सकता, कारण कि समय का बोध (आब्जेक्टिव टाइम) निरंतर भ्रमित स्थिति बनाए रखता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, परंतु दिखाई यह देता है कि सूर्य पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहा है। चलती हुई रेलगाड़ी में से दूर तक देखने पर पेड़, वृक्ष, टीले और पृथ्वी ही दौड़ती हुई दिखाई देती है, उसी प्रकार सीमाबद्ध आस्तित्व में यह सारी भ्राँतियाँ उत्पन्न होती है।

इन सब घटनाओं का साझी रहने वाला मायायुक्त अस्तित्व पहचाना जा सके, तो वस्तुस्थिति का ज्ञान सहज ही हो सकता है, तब जाना जा सकता है कि भिन्न-भिन्न स्तरों पर समय का पैमाना भिन्न-भिन्न क्यों होता है और यह कि ‘समय’ भी उस माया से मुक्त नहीं है, जिससे संसार आबद्ध है।

जड़ जगत की तरह ‘समय’ भी मायायुक्त है। हम इस माया से मुक्त होकर जब तक संसार के आदि कारण को नहीं समझेंगे, तब तक समय संबंधी सत्य को भी नहीं जान सकेंगे और बराबर उसके सापेक्ष अस्तित्व में ही उलझे रहेंगे।

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