
गायत्री की दिव्य शक्ति
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गायत्री साधना करने वालों को अनेक लाभों से लाभान्वित होते हुए देखा और सुना गया है। चौबीस अक्षरों के एक संस्कृत भाषा के पद्य (मंत्र) को जपने या साधना करने से किस प्रकार इतने लाभ होते हैं, यह एक आश्चर्य जनक पहेली है। इस पहेली को ठीक प्रकार न समझ सकने के कारण कई लोग गलत धारणाएं बना लेते हैं।
गायत्री एक ऐसा विश्व व्यापी दिव्य तत्व है जिसे ह्रीं-बुद्धि, श्रीं-समृद्धि, और क्लीं-शक्ति, इन त्रिगुणात्मक विशेषताओं का उद्गम कहा जा सकता है। यह महा चैतन्य दैवी शक्ति जब विश्वव्यापी पंच तत्वों से आलिंगन करती है तो उसकी बड़ी ही रहस्य मयि प्रतिक्रियाएं होती हैं। ईश्वरीय दिव्य शक्ति-गायत्री की पंच भौतिक प्रकृति-सावित्री से सम्मिलन पाने के समय जो स्थिति होती है उसे ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देख कर साधना के लिए मूर्तिमान कर दिया है। विश्व व्यापिनी गायत्री शक्ति जब आकाश तत्व से टकरा कर शद्व तन्मात्रा में प्रतिध्वनित होती है तब उस समय चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मंत्र के समान ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती है। हम उसे अपने स्थूल कानों से नहीं सुन सकते पर ऋषियों ने अपनी दिव्य कर्णेन्द्रिय से सुना कि सृष्टि के अन्तराल में एक दिव्य ध्वनि लहरी गुंजित हो रही है। उसी ध्वनि लहरी को उन्होंने चौबीस अक्षर गायत्री के रूप में पकड़ लिया। इसी प्रकार अग्नि तत्व के साथ इस सूक्ष्म शक्ति का संबंध होते समय, रूप तन्मात्रा में जो आकृति उत्पन्न हुई वह गायत्री का रूप मान लिया। इसी प्रकार वायु, जल, पृथ्वी की तन्मात्राओं में जो उस सम्मिलन की प्रतिक्रिया हुई उस स्पर्श, रस और गंध का गायत्री के साथ संबंध किया गया।
मनुष्य का शरीर और मन पंच तत्वों का बना हुआ है। पंच तत्वों से गायत्री शक्ति का सम्मिलन होते समय सूक्ष्म जगत में जो प्रतिक्रिया होती है उसी के अनुरूप मानसिक प्रतिक्रिया यदि हम अपनी ओर से अपने मनःक्षेत्र में उत्पन्न करें तो आसानी से उस दैवी शक्ति गायत्री तक पहुंच सकते हैं। पंच भौतिक जगत् और सूक्ष्म दैवी जगत के बीच एक नसैनी, रस्सी, पुल, सम्बन्ध सूत्र, ऋषियों को दिखाई दिया था उसे ही उन्होंने गायत्री उपासना के रूप में उपस्थित कर दिया है। मंत्रोच्चारण, ध्यान, तपश्चर्या विधि, व्यवस्था आदि के साथ किये हुये साधन लटकती हुई रस्सियां हैं जिन्हें पकड़ कर हमारी भौतिक चेतना, गायत्री की सर्व शक्तिमान दिव्य चेतना से जा मिलती है। जैसे नन्दन वन में पहुंचने पर भूख, प्यास और थकान मिटाने के सब साधन मिल जाते हैं वैसे ही गायत्री का सान्निध्य प्राप्त कर लेने से आत्मा की सभी त्रुटियां वासनाएं, तृष्णाएं, मलीनताएं दूर हो जाती हैं और स्वर्गीय सुख के आस्वादन का अवसर मिलता है।
गायत्री साधना का प्रभाव सबसे प्रथम साधक के अन्तःकरण पर होता है। उसकी आत्मिक भूमिका में सतोगुणी तत्वों की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। किसी पानी के भरे कटोरे में यदि कंकड़ डालना शुरू किया जाय तो पहले का भरा हुआ पानी नीचे गिरने और घटने लगेगा इसी प्रकार सतोगुण बढ़ने से दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव, दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं। इस परिवर्तन के कारण साधक में ऐसी अनेक विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं जो जीवन को सरल, सफल और शान्तिमय बनने में सहायक होती हैं। दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, सन्तोष, शान्ति, सेवा भाव, आत्मीयता, सत्य निष्ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायण आदि सद्गुणों की मात्रा दिन दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फल स्वरूप संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता एवं सम्मान के भाव बढ़ते हैं और लोग उसे प्रत्युपकार से संतुष्ट करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होगा वहां आत्म सन्तोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहेगी। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों चाहे मृत अवस्था में सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते रहेंगे।
गायत्री साधना से मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के चतुष्टय में असाधारण हेर-फेर होता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि का विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश विपरीत कष्ट साध्य परिस्थितियां हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियां में जहां साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं वहां आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाईयों को हंसते-हंसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूंढ़ निकालता है और मस्ती प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।
संसार में समस्त दुखों के तीन कारण हैं (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। अन्तःकरण में सतोगुण बढ़ने से इन तीनों ही का निवारण होता है। सद्ज्ञान के बढ़ने से दुखदायी भ्रान्त धारणाएं, कल्पनाएं और इच्छाएं समाप्त होकर सद्गुण बढ़ते हैं। इन गुणों के कारण आहार विहार एवं जीवन क्रम संयम पूर्ण एवं सुव्यवस्थित हो जाता है। फल स्वरूप शारीरिक और मानसिक शक्तियां बढ़ती है। स्वस्थता स्वच्छता और सुरक्षा रहती है। लोगों का सहयोग बढ़ता है। योग्यताएं बढ़ने, आवश्यकताएं संयमित होने और व्यवस्था शक्ति तीक्ष्ण होने से साधारण आर्थिक स्थिति में भी कोई अभाव नहीं रहता। उसे सब दिशाओं में अपना भण्डार भरा भरा ही दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तम भूमि में उगे हुए पौधे के सभी भाग सभी अंग प्रत्यंग परिपुष्ट और सुविकसित रहते हैं वैसे ही गायत्री भूमिका से संबंधित मनुष्य का मानसिक शारीरिक एवं सांसारिक जीवन सदा शान्त, स्वस्थ एवं समृद्ध बना रहता है।
प्राचीन काल में प्रायः सभी योगी तपस्वी, ऋषि, मुनि गायत्री को माध्यम बना कर योग साधना करते थे। इस महाशक्ति का अवलम्बन करके वे अनेकों ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त करते हुए आत्म साक्षात्कार का, ब्रह्म निर्वाण का परमानन्द उपलब्ध करते थे। गायत्री को भूलोक की कामधेनु कहा जाता है क्योंकि उसकी उपासना करने से सभी तृष्णाएं शान्त हो जाती हैं असंभव, अनावश्यक, अवांछनीय लालसाओं का शमन हो जाने से अपने आप ही वह स्थिति प्राप्त हो जाती है जिसे ‘‘मनोकामना पूर्ति’’ कहते हैं। कामधेनु का दूध पीकर समस्त पाप ताप दूर हो जाते हैं। गायत्री का दिव्य रस पान करने वाला भी वैसा ही तृप्ति अनुभव करता है। गायत्री को ब्रह्मास्त्र भी कहते हैं। यह लोहे से बनी वह साधारण तोप तलवार नहीं है जो केवल किसी का प्राण हरण करने मात्र की शक्ति रखती है वरन् इस शस्त्र में वह शक्ति है जिससे जीवन को दुखमय बनाये रहने वाली उलझन सुलझ जाती हैं कठिनाइयां हल हो जाती हैं। डाइनामाइट की सुरंग लगाकर बड़े बड़े पर्वत उड़ा दिये जाते हैं। गायत्री के ब्रह्मास्त्र की शक्ति भी ऐसी ही है उसके द्वारा उत्पन्न की हुई अग्नि में मनुष्य भी पदार्थ भी, प्रदेश भी, समूह भी और पाप ताप तथा दुख दारिद्र के पुंज भी जल कर खाक हो सकते हैं। इसी कामधेनु को लेकर इसी ब्रह्मास्त्र को पाकर ऋषियों ने वह बल प्राप्त किया था जिसके आगे चक्रवर्ती राजा भी तन मस्तक होते थे।
इन दो तीन शताब्दियों में भी कितने ही सन्त महात्मा ऐसे हुए हैं जिनने गायत्री की साधना करके महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त की थी। आज भी उच्च कोटि के तपस्वियों में अधिकांश ऐसे हैं जो अपना तप गायत्री द्वारा ही कर रहे हैं। ऐसे कितने ही गृहस्थ और विरक्त सन्तों को हम जानते हैं जो वेदमाता का अंचल पकड़ कर उसकी गोदी में पहुंच गये हैं और आनन्द की किलोलें कर रहे हैं। जो सांसारिक सम्पदाओं की अपेक्षा आत्मिक सम्पदाओं को अधिक महत्व देते हैं उन्हें अपनी अभीष्ट मनोभिलाषाएं पूरी करने में वेदमाता से भारी सहायता मिलती है।
आत्मा ईश्वर का अंश होने से वह उन सब शक्तियों को बीज रूप से अपने अन्दर छिपाये रहता है जो ईश्वर में होती हैं। मानसिक पाप तापों के, विषय विकारों के, दोष दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई वे प्रसुप्त एवं अज्ञात अवस्थायें पड़ी रहती हैं अग्नि के ऊपर राख ढक दी जाय तो वह छिप जाती है पर जब राख को हटा दिया जाय तो फिर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है। यह छोटा अंगार अनुकूल अवसर पावे तो प्रचंड दावानल के रूप में परिणत हो सकता है। गायत्री साधना करने से आत्मा पर पड़ा हुआ विकारों का मलीन आवरण हट जाता है ओर यह पर्दा फटते ही तुच्छ मनुष्य महान आत्मा, महात्मा, परमआत्मा परमात्मा, बन जाता है। चूंकि आत्मा में अनेकों ज्ञान विज्ञान साधारण असाधारण अद्भुत आश्चर्य जनक शक्तियों के भण्डार छिपे पड़े हैं वे जब खुल जाते हैं तो साधक, सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती, केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। साधना रूपी सूर्य से, अयोग्यताओं का, तुच्छताओं का पर्दा हट जाता है और आत्मा का यह निर्मल रूप स्वभावतः सभी ऋद्धि सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।
गायत्री को मंत्र राज कहा गया है जो कार्य संसार के अन्य किसी मंत्र से हो सकता है वह गायत्री द्वारा भी अवश्य हो सकता है। लोग अपने विविध कष्ट निवारण के लिए अनेक मंत्र, तंत्र, जप, साधन, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि का विनियोग करते हैं। वह सभी कार्य केवल गायत्री से पूरे हो सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि शरीर में विष या विकारों के भर जाने का नाम ही रोग है और उपवास, फलाहार, ऐनेमा, मिट्टी पानी का उपचार आदि द्वारा सब रोग दूर हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक सब रोगों का एक ही कारण मानते हैं और एक ही चिकित्सा से उन सब का ठीक होना संभव सिद्ध करते हैं। गायत्री विद्या के आचार्यों का कहना भी यही है कि आत्मिक भूमिका में सतोगुण का घट जाना ही नाना प्रकार कष्टों और क्लेशों का हेतु है। सत् तत्व के बढ़ने के साथ साथ ही दोष घटते हैं और दोषों की कमी होना, दुखों को घटाने का प्रत्यक्ष उपाय है।
पाप से, बुराई से, बुरी आदतों से असंयम से, अपव्यय से, स्वार्थपरता से, संकीर्णता से, दुर्बुद्धि से, समस्त प्रकार के दुख उत्पन्न होते हैं। गायत्री से जो सतोगुणी शक्ति बढ़ती है उसके कारण इन सब विष वृक्षों की जड़ कटनी शुरू हो जाती है। फलस्वरूप नाना प्रकार के कष्ट, दुख, भय, शोक अपने आप शमन हो जाते हैं। गायत्री के उपासक देखते हैं कि साधना ने हमारी अमुक विपत्तियों को दूर कर दिया। यह लाभ आकस्मिक या अनायास प्राप्त दैवी वरदान जैसे प्रतीत होते हैं पर वस्तुतः इनके पीछे एक वैज्ञानिक प्रक्रिया रहती है। भीतर का सुधार बाहर के सुधार से प्रकट होता है। जिस कोठरी में पहले गंदगी और दुर्गंध रहती थी तब उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता था पर जब उसकी सफाई करके इत्र की पीपे भर दिये गये तो उस कोठरी की ओर सभी को आकर्षण होता है गायत्री साधक के विरोधी, शत्रु, दुःखदायी व्यक्ति यदि मित्र, समर्थक, सहयोगी और सुखदायकों में बदल जायं तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
यह सभी लोग मानते हैं कि संसार दर्पण की तरह है जिसमें हमें अपनी ही भली बुरी छाया दिखाई पड़ती है। जैसी भी भली बुरी परिस्थितियां सामने हैं उन सबके जन्मदाता हम स्वयं हैं, हमारे गुण, कर्म, और स्वभाव ही चारों ओर का वातावरण तैयार करते हैं, हम स्वयं ही अपने शत्रु हैं। आत्म निर्माण का कार्य गायत्री द्वारा बड़ी ही उत्तमता, सरलता, एवं सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ होता है। यह परिवर्तन हमारे अज्ञान, अशक्ति और अभाव को मिटाता जाता है फल स्वरूप हमारे सभी प्रकार के बाह्य और आन्तरिक दुःख दारिद्र मिटते जाते हैं।
गायत्री अनन्त सुख शान्ति की जननी है। उससे इस जन्म की कठिनाईयां दूर होकर सुविधाएं सम्पत्तियां तो बढ़ती ही हैं साथ ही आत्मिक भूमिका की विचारधारा और कार्य प्रणाली का ऐसा सुन्दर परिवर्तन हो जाता है कि दूसरा जन्म समग्र मोक्ष तक न पहुंच सका तो भी स्वर्गीय सुख सम्पदाओं से परिपूर्ण अवश्य होता है।
गायत्री एक ऐसा विश्व व्यापी दिव्य तत्व है जिसे ह्रीं-बुद्धि, श्रीं-समृद्धि, और क्लीं-शक्ति, इन त्रिगुणात्मक विशेषताओं का उद्गम कहा जा सकता है। यह महा चैतन्य दैवी शक्ति जब विश्वव्यापी पंच तत्वों से आलिंगन करती है तो उसकी बड़ी ही रहस्य मयि प्रतिक्रियाएं होती हैं। ईश्वरीय दिव्य शक्ति-गायत्री की पंच भौतिक प्रकृति-सावित्री से सम्मिलन पाने के समय जो स्थिति होती है उसे ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देख कर साधना के लिए मूर्तिमान कर दिया है। विश्व व्यापिनी गायत्री शक्ति जब आकाश तत्व से टकरा कर शद्व तन्मात्रा में प्रतिध्वनित होती है तब उस समय चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मंत्र के समान ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती है। हम उसे अपने स्थूल कानों से नहीं सुन सकते पर ऋषियों ने अपनी दिव्य कर्णेन्द्रिय से सुना कि सृष्टि के अन्तराल में एक दिव्य ध्वनि लहरी गुंजित हो रही है। उसी ध्वनि लहरी को उन्होंने चौबीस अक्षर गायत्री के रूप में पकड़ लिया। इसी प्रकार अग्नि तत्व के साथ इस सूक्ष्म शक्ति का संबंध होते समय, रूप तन्मात्रा में जो आकृति उत्पन्न हुई वह गायत्री का रूप मान लिया। इसी प्रकार वायु, जल, पृथ्वी की तन्मात्राओं में जो उस सम्मिलन की प्रतिक्रिया हुई उस स्पर्श, रस और गंध का गायत्री के साथ संबंध किया गया।
मनुष्य का शरीर और मन पंच तत्वों का बना हुआ है। पंच तत्वों से गायत्री शक्ति का सम्मिलन होते समय सूक्ष्म जगत में जो प्रतिक्रिया होती है उसी के अनुरूप मानसिक प्रतिक्रिया यदि हम अपनी ओर से अपने मनःक्षेत्र में उत्पन्न करें तो आसानी से उस दैवी शक्ति गायत्री तक पहुंच सकते हैं। पंच भौतिक जगत् और सूक्ष्म दैवी जगत के बीच एक नसैनी, रस्सी, पुल, सम्बन्ध सूत्र, ऋषियों को दिखाई दिया था उसे ही उन्होंने गायत्री उपासना के रूप में उपस्थित कर दिया है। मंत्रोच्चारण, ध्यान, तपश्चर्या विधि, व्यवस्था आदि के साथ किये हुये साधन लटकती हुई रस्सियां हैं जिन्हें पकड़ कर हमारी भौतिक चेतना, गायत्री की सर्व शक्तिमान दिव्य चेतना से जा मिलती है। जैसे नन्दन वन में पहुंचने पर भूख, प्यास और थकान मिटाने के सब साधन मिल जाते हैं वैसे ही गायत्री का सान्निध्य प्राप्त कर लेने से आत्मा की सभी त्रुटियां वासनाएं, तृष्णाएं, मलीनताएं दूर हो जाती हैं और स्वर्गीय सुख के आस्वादन का अवसर मिलता है।
गायत्री साधना का प्रभाव सबसे प्रथम साधक के अन्तःकरण पर होता है। उसकी आत्मिक भूमिका में सतोगुणी तत्वों की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। किसी पानी के भरे कटोरे में यदि कंकड़ डालना शुरू किया जाय तो पहले का भरा हुआ पानी नीचे गिरने और घटने लगेगा इसी प्रकार सतोगुण बढ़ने से दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव, दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं। इस परिवर्तन के कारण साधक में ऐसी अनेक विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं जो जीवन को सरल, सफल और शान्तिमय बनने में सहायक होती हैं। दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, सन्तोष, शान्ति, सेवा भाव, आत्मीयता, सत्य निष्ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायण आदि सद्गुणों की मात्रा दिन दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फल स्वरूप संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता एवं सम्मान के भाव बढ़ते हैं और लोग उसे प्रत्युपकार से संतुष्ट करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होगा वहां आत्म सन्तोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहेगी। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों चाहे मृत अवस्था में सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते रहेंगे।
गायत्री साधना से मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के चतुष्टय में असाधारण हेर-फेर होता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि का विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश विपरीत कष्ट साध्य परिस्थितियां हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियां में जहां साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं वहां आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाईयों को हंसते-हंसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूंढ़ निकालता है और मस्ती प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।
संसार में समस्त दुखों के तीन कारण हैं (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। अन्तःकरण में सतोगुण बढ़ने से इन तीनों ही का निवारण होता है। सद्ज्ञान के बढ़ने से दुखदायी भ्रान्त धारणाएं, कल्पनाएं और इच्छाएं समाप्त होकर सद्गुण बढ़ते हैं। इन गुणों के कारण आहार विहार एवं जीवन क्रम संयम पूर्ण एवं सुव्यवस्थित हो जाता है। फल स्वरूप शारीरिक और मानसिक शक्तियां बढ़ती है। स्वस्थता स्वच्छता और सुरक्षा रहती है। लोगों का सहयोग बढ़ता है। योग्यताएं बढ़ने, आवश्यकताएं संयमित होने और व्यवस्था शक्ति तीक्ष्ण होने से साधारण आर्थिक स्थिति में भी कोई अभाव नहीं रहता। उसे सब दिशाओं में अपना भण्डार भरा भरा ही दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तम भूमि में उगे हुए पौधे के सभी भाग सभी अंग प्रत्यंग परिपुष्ट और सुविकसित रहते हैं वैसे ही गायत्री भूमिका से संबंधित मनुष्य का मानसिक शारीरिक एवं सांसारिक जीवन सदा शान्त, स्वस्थ एवं समृद्ध बना रहता है।
प्राचीन काल में प्रायः सभी योगी तपस्वी, ऋषि, मुनि गायत्री को माध्यम बना कर योग साधना करते थे। इस महाशक्ति का अवलम्बन करके वे अनेकों ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त करते हुए आत्म साक्षात्कार का, ब्रह्म निर्वाण का परमानन्द उपलब्ध करते थे। गायत्री को भूलोक की कामधेनु कहा जाता है क्योंकि उसकी उपासना करने से सभी तृष्णाएं शान्त हो जाती हैं असंभव, अनावश्यक, अवांछनीय लालसाओं का शमन हो जाने से अपने आप ही वह स्थिति प्राप्त हो जाती है जिसे ‘‘मनोकामना पूर्ति’’ कहते हैं। कामधेनु का दूध पीकर समस्त पाप ताप दूर हो जाते हैं। गायत्री का दिव्य रस पान करने वाला भी वैसा ही तृप्ति अनुभव करता है। गायत्री को ब्रह्मास्त्र भी कहते हैं। यह लोहे से बनी वह साधारण तोप तलवार नहीं है जो केवल किसी का प्राण हरण करने मात्र की शक्ति रखती है वरन् इस शस्त्र में वह शक्ति है जिससे जीवन को दुखमय बनाये रहने वाली उलझन सुलझ जाती हैं कठिनाइयां हल हो जाती हैं। डाइनामाइट की सुरंग लगाकर बड़े बड़े पर्वत उड़ा दिये जाते हैं। गायत्री के ब्रह्मास्त्र की शक्ति भी ऐसी ही है उसके द्वारा उत्पन्न की हुई अग्नि में मनुष्य भी पदार्थ भी, प्रदेश भी, समूह भी और पाप ताप तथा दुख दारिद्र के पुंज भी जल कर खाक हो सकते हैं। इसी कामधेनु को लेकर इसी ब्रह्मास्त्र को पाकर ऋषियों ने वह बल प्राप्त किया था जिसके आगे चक्रवर्ती राजा भी तन मस्तक होते थे।
इन दो तीन शताब्दियों में भी कितने ही सन्त महात्मा ऐसे हुए हैं जिनने गायत्री की साधना करके महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त की थी। आज भी उच्च कोटि के तपस्वियों में अधिकांश ऐसे हैं जो अपना तप गायत्री द्वारा ही कर रहे हैं। ऐसे कितने ही गृहस्थ और विरक्त सन्तों को हम जानते हैं जो वेदमाता का अंचल पकड़ कर उसकी गोदी में पहुंच गये हैं और आनन्द की किलोलें कर रहे हैं। जो सांसारिक सम्पदाओं की अपेक्षा आत्मिक सम्पदाओं को अधिक महत्व देते हैं उन्हें अपनी अभीष्ट मनोभिलाषाएं पूरी करने में वेदमाता से भारी सहायता मिलती है।
आत्मा ईश्वर का अंश होने से वह उन सब शक्तियों को बीज रूप से अपने अन्दर छिपाये रहता है जो ईश्वर में होती हैं। मानसिक पाप तापों के, विषय विकारों के, दोष दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई वे प्रसुप्त एवं अज्ञात अवस्थायें पड़ी रहती हैं अग्नि के ऊपर राख ढक दी जाय तो वह छिप जाती है पर जब राख को हटा दिया जाय तो फिर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है। यह छोटा अंगार अनुकूल अवसर पावे तो प्रचंड दावानल के रूप में परिणत हो सकता है। गायत्री साधना करने से आत्मा पर पड़ा हुआ विकारों का मलीन आवरण हट जाता है ओर यह पर्दा फटते ही तुच्छ मनुष्य महान आत्मा, महात्मा, परमआत्मा परमात्मा, बन जाता है। चूंकि आत्मा में अनेकों ज्ञान विज्ञान साधारण असाधारण अद्भुत आश्चर्य जनक शक्तियों के भण्डार छिपे पड़े हैं वे जब खुल जाते हैं तो साधक, सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती, केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। साधना रूपी सूर्य से, अयोग्यताओं का, तुच्छताओं का पर्दा हट जाता है और आत्मा का यह निर्मल रूप स्वभावतः सभी ऋद्धि सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।
गायत्री को मंत्र राज कहा गया है जो कार्य संसार के अन्य किसी मंत्र से हो सकता है वह गायत्री द्वारा भी अवश्य हो सकता है। लोग अपने विविध कष्ट निवारण के लिए अनेक मंत्र, तंत्र, जप, साधन, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि का विनियोग करते हैं। वह सभी कार्य केवल गायत्री से पूरे हो सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि शरीर में विष या विकारों के भर जाने का नाम ही रोग है और उपवास, फलाहार, ऐनेमा, मिट्टी पानी का उपचार आदि द्वारा सब रोग दूर हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक सब रोगों का एक ही कारण मानते हैं और एक ही चिकित्सा से उन सब का ठीक होना संभव सिद्ध करते हैं। गायत्री विद्या के आचार्यों का कहना भी यही है कि आत्मिक भूमिका में सतोगुण का घट जाना ही नाना प्रकार कष्टों और क्लेशों का हेतु है। सत् तत्व के बढ़ने के साथ साथ ही दोष घटते हैं और दोषों की कमी होना, दुखों को घटाने का प्रत्यक्ष उपाय है।
पाप से, बुराई से, बुरी आदतों से असंयम से, अपव्यय से, स्वार्थपरता से, संकीर्णता से, दुर्बुद्धि से, समस्त प्रकार के दुख उत्पन्न होते हैं। गायत्री से जो सतोगुणी शक्ति बढ़ती है उसके कारण इन सब विष वृक्षों की जड़ कटनी शुरू हो जाती है। फलस्वरूप नाना प्रकार के कष्ट, दुख, भय, शोक अपने आप शमन हो जाते हैं। गायत्री के उपासक देखते हैं कि साधना ने हमारी अमुक विपत्तियों को दूर कर दिया। यह लाभ आकस्मिक या अनायास प्राप्त दैवी वरदान जैसे प्रतीत होते हैं पर वस्तुतः इनके पीछे एक वैज्ञानिक प्रक्रिया रहती है। भीतर का सुधार बाहर के सुधार से प्रकट होता है। जिस कोठरी में पहले गंदगी और दुर्गंध रहती थी तब उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता था पर जब उसकी सफाई करके इत्र की पीपे भर दिये गये तो उस कोठरी की ओर सभी को आकर्षण होता है गायत्री साधक के विरोधी, शत्रु, दुःखदायी व्यक्ति यदि मित्र, समर्थक, सहयोगी और सुखदायकों में बदल जायं तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
यह सभी लोग मानते हैं कि संसार दर्पण की तरह है जिसमें हमें अपनी ही भली बुरी छाया दिखाई पड़ती है। जैसी भी भली बुरी परिस्थितियां सामने हैं उन सबके जन्मदाता हम स्वयं हैं, हमारे गुण, कर्म, और स्वभाव ही चारों ओर का वातावरण तैयार करते हैं, हम स्वयं ही अपने शत्रु हैं। आत्म निर्माण का कार्य गायत्री द्वारा बड़ी ही उत्तमता, सरलता, एवं सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ होता है। यह परिवर्तन हमारे अज्ञान, अशक्ति और अभाव को मिटाता जाता है फल स्वरूप हमारे सभी प्रकार के बाह्य और आन्तरिक दुःख दारिद्र मिटते जाते हैं।
गायत्री अनन्त सुख शान्ति की जननी है। उससे इस जन्म की कठिनाईयां दूर होकर सुविधाएं सम्पत्तियां तो बढ़ती ही हैं साथ ही आत्मिक भूमिका की विचारधारा और कार्य प्रणाली का ऐसा सुन्दर परिवर्तन हो जाता है कि दूसरा जन्म समग्र मोक्ष तक न पहुंच सका तो भी स्वर्गीय सुख सम्पदाओं से परिपूर्ण अवश्य होता है।