
साधना और कामना की विवेचना
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जब गायत्री महाशक्ति को निखिल अन्तरिक्ष में से साधना की वैज्ञानिक विधि द्वारा खींच कर अपने अन्दर धारण करते हैं तो शरीर और मस्तिष्क के अन्दर छिपे हुए कितने ही शक्ति केन्द्र जागृत होने लगते हैं। सूखी हुई दूब पर वर्षा का पानी पड़ते ही उसमें चैतन्यता दौड़ जाती है। गायत्री शक्ति का आह्वान एक अमृत वर्षा है जिससे अनेकों गुप्त शक्तियों के गुप्त उद्गम, चैतन्य, प्रस्फुटित, पल्लवित एवं प्रफुल्लित होने लगते हैं। यही प्रक्रिया मंगलमयी दैवी कृपा या सिद्धि के रूप में परिलक्षित होती है।
दीर्घकाल से हम गायत्री उपासना की ब्राह्मणोचित तपश्चर्या कर रहे हैं। अपने व्यक्तिगत प्रयोगों में हमें जितने आश्चर्यजनक अनुभव हुए हैं उनसे शास्त्रकारों के इस वचन पर हमें पूर्ण श्रद्धा हो गई है कि—गायत्री भूलोक की कामधेनु है। थोड़े से जीवन काल में इतनी अधिक विद्या का प्राप्त होना, जितना कि हिसाब लगाने पर सौ वर्ष में भी संभव नहीं हो सकता है वेदमाता का ही चमत्कार है। योग विद्या के पारंगत सिद्ध पुरुषों का अनुग्रह, आशीर्वाद एवं वात्सल्य अनायास ही प्राप्त होना, माता की कृपा के बिना हमारे लिए किसी प्रकार संभव न था। जिन मनोविकारों, वासनाओं, तृष्णाओं, एवं भ्रान्तियों से मानव प्राणी अशान्त और मायाबद्ध बना रहता है उनका शमन होकर अन्तःज्योति का साक्षात्कार होना बिना माता के विशेष अनुग्रह के किस प्रकार संभव हो सकता था? प्राण घातक संकटों के अवसरों पर आकस्मिक सहायताएं प्राप्त होना, पर्वत के समान दुर्ल्लंघनीय प्रतीत होने वाली कई कठिनाइयों का आश्चर्य की तरह हल हो जाना, आदि इतने आश्चर्यजनक अवसर हमारे सामने आये हैं कि व्यक्तिगत रूप से हमें गायत्री की महत्ता के संबंध में अटूट विश्वास हो गया है।
इस प्रकार का सौभाग्य हर व्यक्ति को मिल सकता है। शर्त एक ही है कि उसका मन शंका, संदेहों, अविश्वासों, आशंकाओं, उद्वेगों से भरा हुआ न हो। अडिग श्रद्धा और अटूट विश्वास के साथ जो उपासना की जाती है उसमें ही वह चुम्बकत्व एवं आकर्षण बल उत्पन्न होता है जिसके द्वारा उस महाशक्ति को खींचा जा सके। कितने ही अविश्वासी स्वभाव के लोग कहीं कुछ प्रशंसा सुनकर अधूरे मन से अविधि पूर्वक शंका और अविश्वास की भावनाओं के साथ साधना का लंगड़ा लूला कर्मकाण्ड पूरा करते हैं। भक्ति भावना और विश्वासी श्रद्धा ही साधना की रीढ़ है उसके अभाव में कर्मकाण्ड केवल एक बाह्योपचार मात्र, निष्प्राण आधार रह जाता है जो साधक अगाध मातृभक्ति को उत्पन्न तो कर नहीं पाते, इसके लिए त्याग और प्रयत्न भी नहीं करते परन्तु अपनी मनोकामना, वासना एवं स्वार्थ साधन का लाभ मिलने की ही बात उतावली पूर्वक सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों की उपासना माता को नहीं पहुंचती वरन् उस लालसा में ही उलझी रहती है। दस बीस दिन यह विडम्बना करने पर भी जब उन्हें मन मोदक मिलते नहीं दीखते तो खीज कर अपने लंगड़े प्रयत्न को भी छोड़ बैठते हैं। ऐसे स्वभाव के लोगों को किसी आशा जनक सफलता का मिलना असंभव है। परन्तु जो जानते हैं कि अडिग श्रद्धा और असंदिग्ध विश्वास ही साधना का मेरुदंड है वे लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल नहीं होते।
कितने ही व्यक्तियों ने हमारे पथ प्रदर्शन का सहारा लेकर गायत्री उपासनाएं की हैं। हमारा अनुभव है कि उनकी कितनी कठिनाइयां हल होती हैं, गुत्थी सुलझती हैं, और आपत्तियां मिट जाती हैं। कितने ही रोगी, पीड़ित, अभावग्रस्त, सताये हुए, क्लेश मग्न, शोक संतप्त कुटेवों में जकड़े हुए, निराश, भयभीत, चिन्तातुर, स्त्री पुरुषों ने माता की शरण लेकर अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिणत किया है। उन्होंने अन्धकार में भटकते समय प्रकाश और डूबते समय उबारने वाला सहारा पाया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें केवल मंत्र जप के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना पड़ा और जादू की छड़ी घुमाने की तरह मनोवांछा पूरी हो गई। ऐसा नहीं होता, न ऐसा होना ही चाहिए। अन्यथा ईश्वर प्रदत्त आपत्ति, जिसका एक मात्र उद्देश्य उस व्यक्ति की चैतन्यता, जागरूकता, प्रयत्न शीलता बढ़ाना है अपना उद्देश्य पूरा कैसे कर पावेगी? यदि माता बच्चे को गोदी में ही लिये रहे उसे खड़े होने, चलने का कष्ट न सहने दे तो वह बालक निष्क्रिय और लुंज पुंज हो जायगा। कोई बालक ऐसा आलस्य करे भी तो भी माता उससे सहमत नहीं हो सकती।
आरम्भ में ही यह बताया जा चुका है कि साधना कोई आकस्मिक उपहार नहीं वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया है इससे साधक में सतोगुण बढ़ता है। जैसे दीपक जलाते ही कमरे में चारों ओर उजाला छा जाता है वैसे ही सतोगुण की अभिवृद्धि होते ही शरीर और मन के वे गुप्त प्रकट दोष घटने आरम्भ हो जाते हैं जिनके कारण आये दिन बीमारियां, कठिनाइयां, पीड़ाएं असफलताएं उपस्थित होती रहती हैं। जड़ पर कुठाराघात होगा तो पत्र पल्लवों का नाश भी हो ही जावेगा। सतोगुण एक शक्ति है जिसकी अभिवृद्धि के कारण नई नई योग्यताएं बढ़ती हैं और उनके कारण उन वस्तुओं का प्राप्त होना सुगम हो जाता है जो अयोग्यों को प्राप्त नहीं हुआ करतीं।
अनेक व्यक्तियों को अनेक प्रकार के लाभ गायत्री उपासना द्वारा होते हैं। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घटा, ग्रह कलह, मनोमालिन्य, मुकदमा, शत्रुओं का आक्रमण, दाम्पत्ति सुख का अभाव, मस्तिष्क की निर्बलता, चित्त की अस्थिरता, संतान संबंधी दुख, कन्या के विवाह की कठिनाई, बुरे भविष्य की आशंका, परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने का भय, बुरी आदतों के बन्धन, जैसी कठिनाइयों से ग्रसित व्यक्तियों ने गायत्री आराधना करके अपने दुखों से छुटकारा पाया है। इन कठिनाइयों के पीछे-जड़ में—निश्चय पूर्वक कुछ न कुछ अपनी त्रुटियां अयोग्यताएं खराबियां रहती हैं, सतोगुण की वृद्धि के साथ साथ आहार, विहार, विचार, दिनचर्या, दृष्टिकोण, स्वभाव, एवं कार्यक्रम में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन ही सुख शान्ति का, आपत्ति निवारण का, राजमार्ग बन जाता है। कई बार हमारी इच्छाएं तृष्णाएं लालसाएं कामनाएं ऐसी होती हैं जो अपनी योग्यता एवं परिस्थितियों से मेल नहीं खातीं। मस्तिष्क शुद्ध होने पर बुद्धिमान व्यक्ति इन शेखचिल्ली की मृगतृष्णाओं को त्याग देता है और अनुकूल इच्छाएं करने लगता है। इस प्रकार अवांछनीय तृष्णाओं से दुखी रहने का जंजाल अनायास ही छूट जाता है। अवश्यंभावी न टल सकने वाले प्रारब्ध का भोग जब सामने जाता है तो साधारण व्यक्ति बुरी तरह रोते चिल्लाते हैं किन्तु गायत्री साधक में इतना आत्मबल और साहस बढ़ जाता है कि वह उन्हें हंसते हंसते झेल लेता है। सत्कर्म परायण, धर्म संगत, लोक सेवी, तपस्वी जीवन बिताने में जो कष्ट होता है उसे आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कभी गिनता ही नहीं। धर्म लाभ के साथ इतने मामूली कष्ट भी मिलना उसे गुलाब के साथ रहने वाले कांटे के समान स्वभाविक मालूम देते हैं।
गायत्री साधना का प्रत्यक्ष परिणाम है—सात्विक आत्मबल की अभिवृद्धि। सात्विक आत्मबल के दश लक्षण हैं- उत्साह, सतत् परिश्रम, कर्तव्य परायणता, संयम, मधुर स्वभाव, धैर्य, अनुद्वेग, उदारता, अपरिग्रह, तत्वज्ञान। यदि कोई व्यक्ति सच्ची गायत्री साधना कर रहा है। तो उसमें अवश्य ही यह गुण बढ़ेंगे और जैसे जैसे वह बढ़ोतरी आगे चलेगी वैसे ही वैसे जीवन की कठिनाइयों का समाधान होता चलेगा। जब साधक का आत्मा गायत्री शक्ति से परिपूर्ण हो जाती है तो उसे किसी भी प्रकार का कोई कष्ट अभाव या दुख नहीं रह जाता वह निरन्तर पूर्ण परमानन्द का, ब्रह्मानन्द का आलौकिक रसास्वादन करता रहता है।
भ्रान्त, पथभ्रष्ट, अश्रद्धालु, लालची गायत्री को मुफ्त में ठगने का षडयंत्र करने वाले धूर्त सच्ची साधना नहीं कर सकते। करना तो दूर उसे ठीक तरह समझ भी नहीं सकते। वे जिह्वा के अग्रभाग से चौबीस अक्षरों की तोता रटंत करते हैं पर अन्तःकरण में श्रद्धा विश्वास का नाम भी नहीं होता मातृभक्ति का प्रेमांकुर कहीं दीख नहीं पड़ता। जितने मिनट चौबीस अक्षर रटते हैं उतने समय अपनी अवांछनीय अनैतिक अवास्तविक मृग तृष्णाओं में ही मन को लपलपाते रहते हैं। दस पांच दिन जप करने पर भी यदि उनकी सब तृष्णाएं पूरी नहीं हो गई तो उनका साहस टूट जाता है और साधना को छोड़ बैठते हैं। साधना विधि के छोटे छोटे नियम बंधनों तक को गवारा नहीं करना चाहते। स्नान करके ही जप किया जाय इसकी क्या जरूरत है। बिना स्नान के ही साधना क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसे ऐसे तर्क प्रायः रोज ही हमारे सामने रखे जाते हैं। किसी को पथ प्रदर्शक या गुरू मानते हुए उन्हें अपनी तौहीन मालूम देती है। दान पुण्य के नाम पर एक कौड़ी खर्च करना वज्र उठाने के समान भारी मालूम पड़ता है। ऐसे लोगों की साधना विडम्बना प्रायः निष्फल रहती है। कई बार तो वह पहले की अपेक्षा भी घाटे में रहते हैं। वे सोचने लगते हैं कि हमारे सब काम गायत्री करके रख जायगी इसलिए हमें अब कुछ करना नहीं है वे अपने रहे बचे प्रयत्न को भी छोड़ बैठते हैं। आलस्य अकर्मण्यता और परावलम्बन की मनोवृत्ति में केवल कार्य नाश ही हो सकता है। ऐसी दशा में उनका लंगड़ा लूला विश्वास भी नष्ट हो जाता है और भविष्य में आत्म विद्या के सदुपयोग से कोई लाभ उठाने का उनमें उत्साह भी नहीं रहता।
इन खतरों से हम अपने पाठकों को भली प्रकार आगाह कर देना चाहते हैं। उपरोक्त प्रकार की छिछोरी बुद्धि के साथ बाल क्रीडा के साथ साधना करना निष्प्रयोजन है। कभी कभी तत्काल आश्चर्यजनक परिणाम भी होते अवश्य हैं पर सदा ही वैसी आशा नहीं की जा सकती। वेदमाता की आराधना एक प्रकार का आध्यात्मिक कायाकल्प करना है। जिन्हें कायाकल्प कराने की विद्या मालूम है वे जानते हैं कि इस महाअभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री आराधना का अध्यात्मिक काया कल्प और भी अधिक महत्व पूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं हैं वरन् शरीर मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नव निर्माण होता है और स्वास्थ्य मनोबल एवं सांसारिक सुख सौभाग्यों में वृद्धि होती है। ऐसे असाधारण महत्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी, रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्यपूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दंड बैठक कुश्ती आदि के कष्ट साध्य कर्मकाण्ड करने होते हैं। दूध, घी, मेवा, बादाम आदि में काफी खर्च होता रहता है। तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है। क्या अध्यात्मिक कायाकल्प करना पहलवान बनने से भी कम महत्व का है? बी.ए. की उपाधि लेने वाले जानते हैं कि उनने कितना धन, समय, श्रम और अध्यवसाय लगा कर तब उस उपाधि पत्र को प्राप्त कर पाया है। गायत्री की सिद्धि प्राप्त करने में यदि पहलवान या ग्रेजुएट के समान प्रयत्न करना पड़े तो यह कोई घाटे की बात नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने जो आश्चर्य जनक सिद्धियां प्राप्त की थीं उसका उन्होंने समुचित मूल्य चुकाया था। हर एक लाभ की उचित कीमत देनी होती है। गायत्री साधना का आध्यात्मिक काया कल्प यदि अपना उचित मूल्य चाहता है तो उसे देने में किसी भी ईमानदार साधक को आना कानी न करनी चाहिए।
यह सत्य है कि कई बार जादू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है। आई हुई विपत्ति अति शीघ्र दूर हो जाती हैं और अभीष्ट मनोरथ आश्चर्यजनक रीति से पूरे हो जाते हैं। पर कई बार ऐसा भी होता है कि अकाट्य प्रारब्ध भोग न टल सके और अभीष्ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, राम, मोरध्वज जैसे महापुरुषों को होनहार भवतव्यता का शिकार होना पड़ा था। इसलिए सकाम उपासना की अपेक्षा निष्काम उपासना ही श्रेष्ठ है। गीता में भगवान ने निष्काम कर्म योग का ही उपदेश दिया है। साधना कभी निष्फल नहीं जाती। उसका तो परिणाम मिलेगा ही। पर हम अल्पज्ञ होने के कारण अपना प्रारब्ध और वास्तविक हित नहीं समझते। माता सर्वज्ञ होने से सब समझती है और वह वही फल देती है जिसमें हमारा वास्तविक लाभ होता है। साधन काल में एक ही काम हो सकता है या तो मन भक्ति में तन्मय रहे या कामनाओं के मन मोदक खाता रहे। मनमोदकों में उलझे रहने से भक्ति नहीं रह पाती फलस्वरूप अभीष्ट लाभ नहीं हो पाता। यदि कामना को हटा दिया जाय तो उस ओर से निश्चिन्त होकर समग्र मन भक्ति पूर्वक साधना में लग जाता है तदनुसार सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
कोई युवक किसी दूसरे युवक को कुश्ती में पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साह पूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित वह कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखावेंगी ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बलवीर्य की अधिकता, निरोगता, दीर्घजीवन, कार्य क्षमता, बलवान संतान आदि अनेकों लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा, ठीक, पर शरीर की बलवृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वंचित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल न हो सके तो भी उसे अन्य अनेकों मार्गों से ऐसे लाभ मिलेंगे जिनकी आशा बिना साधना किये नहीं की जा सकती।
बालक अनेकों चीजें मांगता है पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब मांगें भी बुद्धिमान परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक और रोगी के ही समान है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और हानि करने वाली हैं इसे हम नहीं जानते पर ईश्वर जानता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता और भक्त वत्सलता पर सच्चा विश्वास है तो कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए। ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ में ही रहेंगे।
इतिहास जानता है कि अकबर रास्ता भूल कर एक निर्जन वन में भटक गये थे वहां एक अपरिचित वनवासी ने उनका उदार आतिथ्य किया। उसकी रूखी सूखी रोटी का अकबर ने कुछ दिन बाद विपुल धन राशि में बदला दिया। यदि उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत उसी वक्त मांग ली होती तो वह राजा का प्रीति भोजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले मतलबी भक्तों की अपेक्षा माता की निष्काम भक्तों की श्रद्धा अधिक प्रिय लगती है। वे उसका प्रतिफल देने में अकबर से भी अधिक उदारता दिखाती हैं।
हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। न उलटा परिणाम ही होता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम धैर्य स्थिरता, विवेक और मनोयोग पूर्वक कदम बढ़ावें। इस मार्ग में छिछोरपन से नहीं सुदृढ़ आयोजन से ही लाभ होता है। इस दिशा में किया हुआ सच्चा पुरुषार्थ अन्य किसी भी पुरुषार्थ से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है।
दीर्घकाल से हम गायत्री उपासना की ब्राह्मणोचित तपश्चर्या कर रहे हैं। अपने व्यक्तिगत प्रयोगों में हमें जितने आश्चर्यजनक अनुभव हुए हैं उनसे शास्त्रकारों के इस वचन पर हमें पूर्ण श्रद्धा हो गई है कि—गायत्री भूलोक की कामधेनु है। थोड़े से जीवन काल में इतनी अधिक विद्या का प्राप्त होना, जितना कि हिसाब लगाने पर सौ वर्ष में भी संभव नहीं हो सकता है वेदमाता का ही चमत्कार है। योग विद्या के पारंगत सिद्ध पुरुषों का अनुग्रह, आशीर्वाद एवं वात्सल्य अनायास ही प्राप्त होना, माता की कृपा के बिना हमारे लिए किसी प्रकार संभव न था। जिन मनोविकारों, वासनाओं, तृष्णाओं, एवं भ्रान्तियों से मानव प्राणी अशान्त और मायाबद्ध बना रहता है उनका शमन होकर अन्तःज्योति का साक्षात्कार होना बिना माता के विशेष अनुग्रह के किस प्रकार संभव हो सकता था? प्राण घातक संकटों के अवसरों पर आकस्मिक सहायताएं प्राप्त होना, पर्वत के समान दुर्ल्लंघनीय प्रतीत होने वाली कई कठिनाइयों का आश्चर्य की तरह हल हो जाना, आदि इतने आश्चर्यजनक अवसर हमारे सामने आये हैं कि व्यक्तिगत रूप से हमें गायत्री की महत्ता के संबंध में अटूट विश्वास हो गया है।
इस प्रकार का सौभाग्य हर व्यक्ति को मिल सकता है। शर्त एक ही है कि उसका मन शंका, संदेहों, अविश्वासों, आशंकाओं, उद्वेगों से भरा हुआ न हो। अडिग श्रद्धा और अटूट विश्वास के साथ जो उपासना की जाती है उसमें ही वह चुम्बकत्व एवं आकर्षण बल उत्पन्न होता है जिसके द्वारा उस महाशक्ति को खींचा जा सके। कितने ही अविश्वासी स्वभाव के लोग कहीं कुछ प्रशंसा सुनकर अधूरे मन से अविधि पूर्वक शंका और अविश्वास की भावनाओं के साथ साधना का लंगड़ा लूला कर्मकाण्ड पूरा करते हैं। भक्ति भावना और विश्वासी श्रद्धा ही साधना की रीढ़ है उसके अभाव में कर्मकाण्ड केवल एक बाह्योपचार मात्र, निष्प्राण आधार रह जाता है जो साधक अगाध मातृभक्ति को उत्पन्न तो कर नहीं पाते, इसके लिए त्याग और प्रयत्न भी नहीं करते परन्तु अपनी मनोकामना, वासना एवं स्वार्थ साधन का लाभ मिलने की ही बात उतावली पूर्वक सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों की उपासना माता को नहीं पहुंचती वरन् उस लालसा में ही उलझी रहती है। दस बीस दिन यह विडम्बना करने पर भी जब उन्हें मन मोदक मिलते नहीं दीखते तो खीज कर अपने लंगड़े प्रयत्न को भी छोड़ बैठते हैं। ऐसे स्वभाव के लोगों को किसी आशा जनक सफलता का मिलना असंभव है। परन्तु जो जानते हैं कि अडिग श्रद्धा और असंदिग्ध विश्वास ही साधना का मेरुदंड है वे लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल नहीं होते।
कितने ही व्यक्तियों ने हमारे पथ प्रदर्शन का सहारा लेकर गायत्री उपासनाएं की हैं। हमारा अनुभव है कि उनकी कितनी कठिनाइयां हल होती हैं, गुत्थी सुलझती हैं, और आपत्तियां मिट जाती हैं। कितने ही रोगी, पीड़ित, अभावग्रस्त, सताये हुए, क्लेश मग्न, शोक संतप्त कुटेवों में जकड़े हुए, निराश, भयभीत, चिन्तातुर, स्त्री पुरुषों ने माता की शरण लेकर अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिणत किया है। उन्होंने अन्धकार में भटकते समय प्रकाश और डूबते समय उबारने वाला सहारा पाया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें केवल मंत्र जप के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना पड़ा और जादू की छड़ी घुमाने की तरह मनोवांछा पूरी हो गई। ऐसा नहीं होता, न ऐसा होना ही चाहिए। अन्यथा ईश्वर प्रदत्त आपत्ति, जिसका एक मात्र उद्देश्य उस व्यक्ति की चैतन्यता, जागरूकता, प्रयत्न शीलता बढ़ाना है अपना उद्देश्य पूरा कैसे कर पावेगी? यदि माता बच्चे को गोदी में ही लिये रहे उसे खड़े होने, चलने का कष्ट न सहने दे तो वह बालक निष्क्रिय और लुंज पुंज हो जायगा। कोई बालक ऐसा आलस्य करे भी तो भी माता उससे सहमत नहीं हो सकती।
आरम्भ में ही यह बताया जा चुका है कि साधना कोई आकस्मिक उपहार नहीं वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया है इससे साधक में सतोगुण बढ़ता है। जैसे दीपक जलाते ही कमरे में चारों ओर उजाला छा जाता है वैसे ही सतोगुण की अभिवृद्धि होते ही शरीर और मन के वे गुप्त प्रकट दोष घटने आरम्भ हो जाते हैं जिनके कारण आये दिन बीमारियां, कठिनाइयां, पीड़ाएं असफलताएं उपस्थित होती रहती हैं। जड़ पर कुठाराघात होगा तो पत्र पल्लवों का नाश भी हो ही जावेगा। सतोगुण एक शक्ति है जिसकी अभिवृद्धि के कारण नई नई योग्यताएं बढ़ती हैं और उनके कारण उन वस्तुओं का प्राप्त होना सुगम हो जाता है जो अयोग्यों को प्राप्त नहीं हुआ करतीं।
अनेक व्यक्तियों को अनेक प्रकार के लाभ गायत्री उपासना द्वारा होते हैं। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घटा, ग्रह कलह, मनोमालिन्य, मुकदमा, शत्रुओं का आक्रमण, दाम्पत्ति सुख का अभाव, मस्तिष्क की निर्बलता, चित्त की अस्थिरता, संतान संबंधी दुख, कन्या के विवाह की कठिनाई, बुरे भविष्य की आशंका, परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने का भय, बुरी आदतों के बन्धन, जैसी कठिनाइयों से ग्रसित व्यक्तियों ने गायत्री आराधना करके अपने दुखों से छुटकारा पाया है। इन कठिनाइयों के पीछे-जड़ में—निश्चय पूर्वक कुछ न कुछ अपनी त्रुटियां अयोग्यताएं खराबियां रहती हैं, सतोगुण की वृद्धि के साथ साथ आहार, विहार, विचार, दिनचर्या, दृष्टिकोण, स्वभाव, एवं कार्यक्रम में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन ही सुख शान्ति का, आपत्ति निवारण का, राजमार्ग बन जाता है। कई बार हमारी इच्छाएं तृष्णाएं लालसाएं कामनाएं ऐसी होती हैं जो अपनी योग्यता एवं परिस्थितियों से मेल नहीं खातीं। मस्तिष्क शुद्ध होने पर बुद्धिमान व्यक्ति इन शेखचिल्ली की मृगतृष्णाओं को त्याग देता है और अनुकूल इच्छाएं करने लगता है। इस प्रकार अवांछनीय तृष्णाओं से दुखी रहने का जंजाल अनायास ही छूट जाता है। अवश्यंभावी न टल सकने वाले प्रारब्ध का भोग जब सामने जाता है तो साधारण व्यक्ति बुरी तरह रोते चिल्लाते हैं किन्तु गायत्री साधक में इतना आत्मबल और साहस बढ़ जाता है कि वह उन्हें हंसते हंसते झेल लेता है। सत्कर्म परायण, धर्म संगत, लोक सेवी, तपस्वी जीवन बिताने में जो कष्ट होता है उसे आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कभी गिनता ही नहीं। धर्म लाभ के साथ इतने मामूली कष्ट भी मिलना उसे गुलाब के साथ रहने वाले कांटे के समान स्वभाविक मालूम देते हैं।
गायत्री साधना का प्रत्यक्ष परिणाम है—सात्विक आत्मबल की अभिवृद्धि। सात्विक आत्मबल के दश लक्षण हैं- उत्साह, सतत् परिश्रम, कर्तव्य परायणता, संयम, मधुर स्वभाव, धैर्य, अनुद्वेग, उदारता, अपरिग्रह, तत्वज्ञान। यदि कोई व्यक्ति सच्ची गायत्री साधना कर रहा है। तो उसमें अवश्य ही यह गुण बढ़ेंगे और जैसे जैसे वह बढ़ोतरी आगे चलेगी वैसे ही वैसे जीवन की कठिनाइयों का समाधान होता चलेगा। जब साधक का आत्मा गायत्री शक्ति से परिपूर्ण हो जाती है तो उसे किसी भी प्रकार का कोई कष्ट अभाव या दुख नहीं रह जाता वह निरन्तर पूर्ण परमानन्द का, ब्रह्मानन्द का आलौकिक रसास्वादन करता रहता है।
भ्रान्त, पथभ्रष्ट, अश्रद्धालु, लालची गायत्री को मुफ्त में ठगने का षडयंत्र करने वाले धूर्त सच्ची साधना नहीं कर सकते। करना तो दूर उसे ठीक तरह समझ भी नहीं सकते। वे जिह्वा के अग्रभाग से चौबीस अक्षरों की तोता रटंत करते हैं पर अन्तःकरण में श्रद्धा विश्वास का नाम भी नहीं होता मातृभक्ति का प्रेमांकुर कहीं दीख नहीं पड़ता। जितने मिनट चौबीस अक्षर रटते हैं उतने समय अपनी अवांछनीय अनैतिक अवास्तविक मृग तृष्णाओं में ही मन को लपलपाते रहते हैं। दस पांच दिन जप करने पर भी यदि उनकी सब तृष्णाएं पूरी नहीं हो गई तो उनका साहस टूट जाता है और साधना को छोड़ बैठते हैं। साधना विधि के छोटे छोटे नियम बंधनों तक को गवारा नहीं करना चाहते। स्नान करके ही जप किया जाय इसकी क्या जरूरत है। बिना स्नान के ही साधना क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसे ऐसे तर्क प्रायः रोज ही हमारे सामने रखे जाते हैं। किसी को पथ प्रदर्शक या गुरू मानते हुए उन्हें अपनी तौहीन मालूम देती है। दान पुण्य के नाम पर एक कौड़ी खर्च करना वज्र उठाने के समान भारी मालूम पड़ता है। ऐसे लोगों की साधना विडम्बना प्रायः निष्फल रहती है। कई बार तो वह पहले की अपेक्षा भी घाटे में रहते हैं। वे सोचने लगते हैं कि हमारे सब काम गायत्री करके रख जायगी इसलिए हमें अब कुछ करना नहीं है वे अपने रहे बचे प्रयत्न को भी छोड़ बैठते हैं। आलस्य अकर्मण्यता और परावलम्बन की मनोवृत्ति में केवल कार्य नाश ही हो सकता है। ऐसी दशा में उनका लंगड़ा लूला विश्वास भी नष्ट हो जाता है और भविष्य में आत्म विद्या के सदुपयोग से कोई लाभ उठाने का उनमें उत्साह भी नहीं रहता।
इन खतरों से हम अपने पाठकों को भली प्रकार आगाह कर देना चाहते हैं। उपरोक्त प्रकार की छिछोरी बुद्धि के साथ बाल क्रीडा के साथ साधना करना निष्प्रयोजन है। कभी कभी तत्काल आश्चर्यजनक परिणाम भी होते अवश्य हैं पर सदा ही वैसी आशा नहीं की जा सकती। वेदमाता की आराधना एक प्रकार का आध्यात्मिक कायाकल्प करना है। जिन्हें कायाकल्प कराने की विद्या मालूम है वे जानते हैं कि इस महाअभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री आराधना का अध्यात्मिक काया कल्प और भी अधिक महत्व पूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं हैं वरन् शरीर मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नव निर्माण होता है और स्वास्थ्य मनोबल एवं सांसारिक सुख सौभाग्यों में वृद्धि होती है। ऐसे असाधारण महत्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी, रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्यपूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दंड बैठक कुश्ती आदि के कष्ट साध्य कर्मकाण्ड करने होते हैं। दूध, घी, मेवा, बादाम आदि में काफी खर्च होता रहता है। तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है। क्या अध्यात्मिक कायाकल्प करना पहलवान बनने से भी कम महत्व का है? बी.ए. की उपाधि लेने वाले जानते हैं कि उनने कितना धन, समय, श्रम और अध्यवसाय लगा कर तब उस उपाधि पत्र को प्राप्त कर पाया है। गायत्री की सिद्धि प्राप्त करने में यदि पहलवान या ग्रेजुएट के समान प्रयत्न करना पड़े तो यह कोई घाटे की बात नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने जो आश्चर्य जनक सिद्धियां प्राप्त की थीं उसका उन्होंने समुचित मूल्य चुकाया था। हर एक लाभ की उचित कीमत देनी होती है। गायत्री साधना का आध्यात्मिक काया कल्प यदि अपना उचित मूल्य चाहता है तो उसे देने में किसी भी ईमानदार साधक को आना कानी न करनी चाहिए।
यह सत्य है कि कई बार जादू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है। आई हुई विपत्ति अति शीघ्र दूर हो जाती हैं और अभीष्ट मनोरथ आश्चर्यजनक रीति से पूरे हो जाते हैं। पर कई बार ऐसा भी होता है कि अकाट्य प्रारब्ध भोग न टल सके और अभीष्ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, राम, मोरध्वज जैसे महापुरुषों को होनहार भवतव्यता का शिकार होना पड़ा था। इसलिए सकाम उपासना की अपेक्षा निष्काम उपासना ही श्रेष्ठ है। गीता में भगवान ने निष्काम कर्म योग का ही उपदेश दिया है। साधना कभी निष्फल नहीं जाती। उसका तो परिणाम मिलेगा ही। पर हम अल्पज्ञ होने के कारण अपना प्रारब्ध और वास्तविक हित नहीं समझते। माता सर्वज्ञ होने से सब समझती है और वह वही फल देती है जिसमें हमारा वास्तविक लाभ होता है। साधन काल में एक ही काम हो सकता है या तो मन भक्ति में तन्मय रहे या कामनाओं के मन मोदक खाता रहे। मनमोदकों में उलझे रहने से भक्ति नहीं रह पाती फलस्वरूप अभीष्ट लाभ नहीं हो पाता। यदि कामना को हटा दिया जाय तो उस ओर से निश्चिन्त होकर समग्र मन भक्ति पूर्वक साधना में लग जाता है तदनुसार सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
कोई युवक किसी दूसरे युवक को कुश्ती में पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साह पूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित वह कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखावेंगी ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बलवीर्य की अधिकता, निरोगता, दीर्घजीवन, कार्य क्षमता, बलवान संतान आदि अनेकों लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा, ठीक, पर शरीर की बलवृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वंचित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल न हो सके तो भी उसे अन्य अनेकों मार्गों से ऐसे लाभ मिलेंगे जिनकी आशा बिना साधना किये नहीं की जा सकती।
बालक अनेकों चीजें मांगता है पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब मांगें भी बुद्धिमान परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक और रोगी के ही समान है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और हानि करने वाली हैं इसे हम नहीं जानते पर ईश्वर जानता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता और भक्त वत्सलता पर सच्चा विश्वास है तो कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए। ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ में ही रहेंगे।
इतिहास जानता है कि अकबर रास्ता भूल कर एक निर्जन वन में भटक गये थे वहां एक अपरिचित वनवासी ने उनका उदार आतिथ्य किया। उसकी रूखी सूखी रोटी का अकबर ने कुछ दिन बाद विपुल धन राशि में बदला दिया। यदि उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत उसी वक्त मांग ली होती तो वह राजा का प्रीति भोजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले मतलबी भक्तों की अपेक्षा माता की निष्काम भक्तों की श्रद्धा अधिक प्रिय लगती है। वे उसका प्रतिफल देने में अकबर से भी अधिक उदारता दिखाती हैं।
हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। न उलटा परिणाम ही होता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम धैर्य स्थिरता, विवेक और मनोयोग पूर्वक कदम बढ़ावें। इस मार्ग में छिछोरपन से नहीं सुदृढ़ आयोजन से ही लाभ होता है। इस दिशा में किया हुआ सच्चा पुरुषार्थ अन्य किसी भी पुरुषार्थ से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है।