
गायत्री साधना का अधिकार
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गायत्री मंत्र का अधिकार केवल द्विजों को ही है। जिनका दूसरा जन्म नहीं हुआ है उनके लिए गायत्री व्यर्थ है। अनाधिकारी होने के कारण न तो उनका इस महान साधना में मन लगता है न विश्वास होता है और न वे तदनुकूल आचरण कर पाते हैं। आयुर्वेद पढ़ना हो तो आरम्भ में हिन्दी और संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक है। अशिक्षित व्यक्ति आयुर्वेद कॉलेज में नाम लिखाने जाय तो प्रिंसिपल को यही कहना पड़ेगा कि आपको प्रविष्ट नहीं किया जा सकता।
द्विजत्व का अर्थ है—दूसरा। एक जन्म माता पिता से होता है। पशु पक्षियों का जन्म भी इसी प्रकार होता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मानव शरीर पाने पर भी उसमें पिछले पाशविक संस्कार ही प्रधान रहते हैं। पेट भरना, कामवासना, लोभ, स्वार्थ एवं अहंकार आदि की पाशविक वृत्तियों से प्रेरित होकर वह सोचता है, इच्छा करता है और कार्य प्रवृत्त होता है। यदि यही गति विधि जारी रहे तो वह नर पशु ही बना रहता है।
पशुता की विचार धारा और कार्य प्रणाली से ऊंचा उठ कर मनुष्यता की जिम्मेदारियों को कंधे पर लेना, मानवोचित इच्छाएं करना, विचार एवं कार्यों का अपनाना दूसरा जन्म है। पशु का आदर्श-इन्द्रिय भोग और स्वार्थ है। मनुष्य को आदर्श आत्मोन्नति और परमार्थ है। पशु अपने लाभ के लिए दूसरों की हानि की परवाह नहीं करता, मनुष्य दूसरे की सेवा के लिए अपने सुख और स्वार्थ को बलिदान कर देता है। शूद्र का तात्पर्य है—नर पशु। ऐसे व्यक्तियों को शास्त्रों में श्वान समान पर तिरष्कृत और बहिष्कृत किया है। गायत्री से भी उन्हें उनकी आत्मिक अयोग्यता के कारण ही वंचित रखा गया है।
पानी नीचे की ओर अपने आप बहता है। जितनी अधिक निचाई होगी उतना ही बहाव तेज होगा। पर यदि पानी को ऊपर की ओर, ऊंचाई की ओर चढ़ाना हो तो कितने ही कष्ट साध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पशुता की ओर, पतन की ओर, भोग और स्वार्थ की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण करके धर्म की ओर संयम की ओर, कल्याण की ओर, अग्रसर होने के लिए जो विशेष अवरोध करना पड़ता है उसका नाम है—द्विजत्व का वृत, यज्ञोपवीत संस्कार, गुरु दीक्षा।
पहला स्थूल जन्म माता पिता के रज वीर्य से होता है। दूसरा सूक्ष्म जन्म माता गायत्री और पिता गुरु के संयोग से होता है। रोगी अपना इलाज आप नहीं कर सकता, अपने दोषों को समझना, अपनी मानसिक स्थिति को तौलना और आत्म निर्माण का कार्यक्रम बनाना इस महान योजना को बिना अनुभवी पथ प्रदर्शक के पूरा नहीं किया जा सकता। जैसे सभी बीमारों को एक दवा नहीं दी जाती उनकी अनेक सूक्ष्म परिस्थितियों को समझ कर अनुभवी वैद्य प्रथक प्रथक प्रकार की औषधियों और अनुपानों का विधान करता है ऐसे ही हर व्यक्ति की भिन्न मनोभूमि के अनुरूप ही आत्मोन्नति की योजना बनाई जाती है। यह कार्य दिव्य दर्शी सूक्ष्म बुद्धि, स्वार्थ रहित, सदाचारी, ज्ञान वृद्ध महा पुरुष ही कर सकते हैं। ऐसे ही लोगों को गुरु कहा जाता है। बगीचे का व्यवस्थित विकास करने के लिए ऐसे माली का संरक्षण आवश्यक है जो ठीक समय पर बोना, जोतना, सींचना एवं काट छांट करना जानता है। इस प्रकार की नियुक्ति हो जाने पर द्विजत्व का एक महत्वपूर्ण भाग पूरा हो जाता है।
गायत्री के चौबीस अक्षर जीवन की गतिविधि का निर्णय करने में कसौटी का काम देते हैं। प्रत्येक अक्षर एक एक स्वर्ण शिक्षा का प्रतीक है। ‘ॐ’ की शिक्षा है कि- सर्वज्ञ परमात्मा को व्यापक समझ कर कहीं भी गुप्त या प्रकट रूप से बुराई न करो। भूः की शिक्षा है कि- अपने अन्दर सम्पूर्ण उत्थान पतन के हेतुओं को ढूंढ़ो। ‘भुवः’ का अर्थ है- कर्तव्य कर्म में तत्परता से प्रवृत्त रहो और फल के लालच में अधिक न उलझो। ‘स्वः’ का संदेश है कि- स्थिर रहो, हर्ष शोक में उद्विग्न न बनो। ‘तत्’ का तात्पर्य है कि- इस शरीर के क्षणिक सुखों को ही सब कुछ मत समझो, जन्म जन्मान्तरों के स्थायी सुखों का महत्व समझो। ‘सवितुः’ का भावार्थ है- अपने को विद्या, बुद्धि, स्वास्थ्य, धन, यश, मैत्री, साहस आदि शक्तियों से अधिकाधिक सुसंपन्न करना। ‘वरेण्यं’ का संदेश है कि इस दुरंगी दुनिया में से केवल श्रेष्ठता का ही स्पर्श करो। ‘भर्गो’ का उपदेश है- शरीर, मन, मकान, वस्त्र तथा व्यवहार को स्वच्छ रखना। ‘देवस्य’ का अर्थ है- उदारता, दूरदर्शिता। ‘धीमहि’ अर्थात्- सद्गुण उत्तम स्वभाव, दैवी सम्पदाएं, उच्च विचार। ‘धियो’ का तात्पर्य है- किसी व्यक्ति, ग्रन्थ या संप्रदाय का अन्धानुयायी न होकर विवेक के आधार पर केवल उचित को ही स्वीकार करना। ‘योनः’ की शिक्षा है- संयम, तप, ज्ञान, सहिष्णुता, तितीक्षा, कठोर श्रम, मितव्ययिता, शक्तियों का संचय ओर सदुपयोग। ‘प्रचोदयात्’ अर्थात् प्रेरणा देना, गिरे हुओं को ऊंचा उठाना, उत्साहित करना, प्रफुल्लित, संतुष्ट एवं सेवा परायण रहना।
सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में अनेक शिक्षाएं अपने अपने ढंग से दी गई हैं उन सब का सार भाग उपरोक्त पंक्तियों में आ गया है उतनी बातें भली प्रकार हृदयंगम करली जायं तो समझ लीजिए कि चारों वेदों के पंडित हो गये। गायत्री के 24 अक्षरों में दिव्य जीवन की समस्त योजना नीति, विचारधारा, कार्यप्रणाली सन्निहित है, इस पर चलने में व्यवहारिक सहयोग देना, पथ प्रदर्शन करना, गुरू का काम है। इस प्रकार गायत्री माता और गुरू पिता द्वारा हमारे आदर्शवादी जीवन का जन्म होता है। यही द्विजत्व है।
यज्ञोपवीत में तीन लड़ें होती हैं प्रत्येक लड़में तीन तीन धागे होते हैं। जैसे देवताओं की मूर्ति पाषाण या धातुओं की होती है वैसे ही हर घड़ी छाती से लगाये रहने योग्य गायत्री की मूर्ति यज्ञोपवीत रूपी बनाई गई है। गायत्री में तीन पद और नौ शद्व हैं। यज्ञोपवीत में तीन लड़े और नौ सूत्र हैं। तीन व्याहृतियों की प्रतीक तीन ग्रंथियां हैं। ॐकार ब्रह्म ग्रंथि है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है-‘‘गायत्री से सन्निहित शिक्षाओं को जीवन व्यवहार में क्रियात्मक रूप से चरितार्थ करने का उत्तर दायित्व कंधे पर उठाना।’’ इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना ही यज्ञोपवीत संस्कार था। द्विजत्व में प्रवेश कहलाता है।
यज्ञोपवीत धारण का अर्थ उसी दिन इन सब गुणों से परिपूर्ण हो जाना एवं पुराने कुसंस्कारों से तत्क्षण मुक्त हो जाना नहीं है। यह पूर्ण सिद्धावस्था तो अन्तिम लक्ष है। ‘‘हम सच्चे हृदय से गायत्री में निर्धारित जीवन नीति की उत्तमता को स्वीकार करेंगे’’ इस प्रतिज्ञा के साथ द्विजत्व का आरंभ होता है। जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कार एक दिन में नहीं छूट जाते वरन् उन्हें हटाने के लिए काफी लम्बा धर्मयुद्ध करना पड़ता है। कई बार हम कुसंस्कारों पर विजय पाते हैं कई बार कुसंस्कारों की जीत होती है। यह लड़ाई निरंतर जारी रहनी चाहिए। पाप एवं पतन के सामने कभी भी आत्म समर्पण न करना चाहिए। उसके प्रति घृणा और प्रतिरोध के भाव सदा जारी रहें। कोई बुराई अपने में हो और वह छूट न पा रही हो तो भी उसे अपनी कमजोरी या भूल समझ कर पश्चात्ताप ही करें और उससे छुटकारा पाने के लिए यथा शक्ति प्रयत्न जारी रखें। बुराई को भलाई के रूप में स्वीकार करना उसका समर्थन करना, उसका विरोध छोड़ देना, उसमें रस लेना यह शूद्रत्व का चिन्ह है। हम पाप के प्रतिरोध में अपनी अन्तःचेतना को सक्षम रखें तो हम द्विजत्व की प्रतिज्ञा पर दृढ़ कहे जा सकते हैं। चाहे पूर्ण शुद्ध होने में, पूर्ण सफलता मिलने में, पूर्ण विजय प्राप्त होने में, कितनी ही देर क्यों न लग जाय।
पशुत्व का विरोध और मनुष्यता का समर्थन करने की प्रतिज्ञा लेना, द्विजत्व का व्रत स्वीकार करना आत्मोन्नति का सर्व प्रथम एवं अत्यन्त आवश्यक धर्म कृत्य है। इसे करने के उपरान्त आदर्शवाद के अनुयायियों में अपनी गणना करा लेने के पश्चात ही हमें वह अधिकार मिलता है कि गायत्री साधना द्वारा दैवी शक्तियों को प्राप्त भी करलें तो उसका दुरुपयोग ही करेंगे इसलिए शास्त्रकारों ने प्रतिज्ञा हीन, व्रत हीन, यज्ञोपवीत हीन व्यक्तियों को शूद्र संज्ञा देकर गायत्री का अनाधिकारी ठहरा दिया है। यह प्रतिबन्ध सर्वथा उचित एवं दूर दर्शिता पूर्ण ही है।
शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि बिना गुरु का मंत्र निष्फल होता है। किसी को पथ प्रदर्शक नियुक्त किये बिना अपनी स्थिति के अनुकूल साधना विधि को मालूम कर लेना और समय समय पर अपनी मनोभूमि के परिवर्तनों को ध्यान में रख कर अपने आप साधना में परिवर्तन करते रहना कठिन है। किसी बड़े औषधालय की चाबी मिल जाने पर भी रोगी अपने आप अपने मर्ज के लिए उपयुक्त औषधि लेकर निरोग नहीं हो सकता। यदि उसे बीमारी से पीछा छुड़ाना है तो किसी अनुभवी वैद्य की सलाह अवश्य ही लेनी पड़ेगी। ‘‘औषधि में भारी शक्ति है’’ यह सत्य है। पर यह भी सत्य है कि बिना वैद्य की सलाह के कीमती रस, भस्में भी निरर्थक होती हैं और कई बार तो वे उलटा परिणाम भी उपस्थित करतीं हैं।
कहा गया है कि गायत्री को वशिष्ठ और विश्वामित्र का शाप लगा हुआ है इसलिए शापमोचन किये बिना गायत्री साधना निष्फल होती है। वशिष्ठ कहते हैं- विशिष्ठ गुणवान् अनुभवी विद्वान को, और विश्वामित्र कहते हैं संसार का हित चाहने वाले सच्चरित्र तपस्वी को। यह दोनों गुण जिनमें हों- जो वशिष्ठ और विश्वामित्र तत्वों का प्रतिनिधित्व करता हो ऐसे गुरू का अनुवर्ती होना ही शाप मोचन है। जो शाप मुक्त गायत्री जपता है- गुरू के आदर्श और नियंत्रण में साधना करता है उसकी सफलता में कोई शंका नहीं रह जाती।
आज कल गुरू शिष्य की एक उपहासास्पद विडंबना चल रही है। जिन व्यक्तियों को आत्म निर्माण के भारतीय मनोविज्ञान (योग) का समुचित ज्ञान नहीं है। जो अपना तक आत्म निर्माण नहीं कर पाये हैं ऐसे लोग भी गुरू बनने का दुस्साहस करते हैं। चिकित्सा शास्त्र का परिचय प्राप्त किये बिना डॉक्टर बन बैठने वाला व्यक्ति जितना खतरनाक होता है उससे भी अधिक खतरनाक यह गुरू होते हैं। ‘‘निगुरा’’ कहलाने के पातक से छूटने के लिए लोग किसी भी पोथी पांडे को गुरू बना लेते हैं और हर साल कुछ दान पुण्य मिलते रहने के लोभ से गुरू जी भी चेले के कान फूंक देते हैं। इस प्रकार की चिन्ह पूजा से गुरू दीक्षा का महान उद्देश्य पूरा हो सकना कठिन है।
ईश्वरीय शक्तियों को पकड़ने आकर्षित करने का एक मात्र अवलम्बन जो मनुष्य के पास है वह है- श्रद्धा युक्त प्रेम। इसी को भक्ति कहते हैं ‘‘भगवान भक्ति के वश में होते आये’’ की उक्ति इसी महा सत्य का समर्थन करती है। प्रगाढ़ प्रेम से परिपूर्ण मनोभावना में एक ऐसा दैवी चुम्बकत्व हो जाता है जिससे मनुष्यों और दैवी शक्तियों को अपने पक्ष में द्रवित एवं आकर्षित किया जा सकता है। कोई चतुराई, बुद्धिमत्ता, विधि व्यवस्था ऐसी नहीं है जिससे श्रद्धा युक्त प्रेम (भक्ति) के समान चुम्बकत्व, आकर्षण, पैदा होता हो और यह आकर्षण ही समस्त आत्मिक लाभों का उद्गम स्रोत है।
अपने में भक्ति भावना बढ़ाने का अभ्यास पहले पहल किसी मनुष्य को माध्यम बनाकर किया जाता है। ईश्वर भक्ति का प्रारंभिक अभ्यास गुरू भक्ति से होता है। आरंभ में छोटे तालाब में तैरना सीख कर तब समुद्र को तैर जाने में सफलता मिलती है। माता, पिता, मित्र, पति, पत्नी, पुत्र आदि को माध्यम बना कर भक्ति का अभ्यास करने में यह कठिनाई है कि इनके साथ सांसारिक व्यवहारिक संबंध रहने से कभी अनुकूल कभी प्रतिकूल भावनाएं आती रहती हैं। दूसरे इनमें ज्ञान, सदाचार, विद्या, दिव्यदृष्टि, सात्विकता एवं निस्वार्थता आदि विशेषताओं की उतनी मात्रा न होने से स्वाभाविक श्रद्धा भी अधिक मात्रा में उत्पन्न नहीं होती। सद्गुरु के संबंध में यह कठिनाइयां नहीं आतीं। इसलिए उनको माध्यम बना कर अपने अन्तःकरण में श्रद्धा, सात्विकता एवं पवित्रता से परिपूर्ण प्रेम का अभ्यास करना सरल होता है। हमारी प्रेम भावना जितनी ही प्रगाढ़ होती जाती है उतना ही ईश्वर प्राप्ति की सफलता के निकट पहुंचते जाते हैं। गुरू भक्ति का दूसरा लाभ यह है कि उनके आदेशानुसार गायत्री शिक्षाओं को व्यवहार रूप में लाने के लिए उनका प्रभाव विशेष उपयोगी सिद्ध होने लगता है।
यों सभी मनुष्य समान हैं, सभी ईश्वर के पुत्र होने से भाई भाई हैं, सभी में दोष हैं, कोई भी पूर्ण निर्दोष नहीं है, गुरू भी यदि पूर्ण निर्दोष होते तो उन्हें संसार में रहने की आवश्यकता ही क्यों होती, अपूर्णता के कारण ही तो हम सब इस स्कूल की विभिन्न कक्षाओं में पढ़ रहे हैं। इतना होते हुए भी किसी अपेक्षा कृत सत्पुरुष को माध्यम बना कर गुरू भक्ति की जा सकती है। रबड़ की गेंद को जितने जोर से फेंक कर दीवार पर मारते हैं वह टकरा कर उतने ही जोर से वापिस लौट आती है। गुरू भक्ति रूपी साधना से हमारी आध्यात्मिक भक्ति भावना तेजी से समुन्नत होती है तदनुसार ईश्वर की गायत्री शक्ति को शीघ्रता एवं अधिक मात्रा में प्राप्त करना सुगम हो जाता है।
प्रत्येक गायत्री साधक को आदर्शवादी विचार धारा का अनुयायी होने की, द्विजत्व का अवलम्बन करने की, प्रतिज्ञा लेनी चाहिए। तुच्छ, स्वार्थपूर्ण, भोगवादी, पाशविक दृष्टिकोण रख कर जो व्यक्ति गायत्री की उपासना करना चाहता है उस अनधिकारी के लिए द्वार बन्द है। साधक को अपने आत्म निर्माण के लिए गायत्री में सन्निहित नीति योजना और कार्य प्रणाली को अपनाना चाहिए। गायत्री माता है, माता ही जीवन निर्माता होती है। हमारा आध्यात्मिक जीवन गायत्री की शिक्षा के अनुरूप होना चाहिए। प्रत्येक साधक का एक सुयोग्य अनुभवी, सूक्ष्म बुद्धि, पथ प्रदर्शक होना चाहिए। जो मार्ग बताने, भूल सुधारने, सुप्त शक्तियों को जगाने एवं भक्ति भावना को बढ़ाने में सहायक हो सके।
स्मरण रखना चाहिए कि द्विज ही गायत्री के अधिकारी हैं। गुरू पिता और गायत्री-माता के अनुसरण की धर्म प्रतिज्ञा लेना ही दीक्षा है। आत्मिक उन्नति के लिए दूसरा जन्म होना आवश्यक है। यज्ञोपवीत उस जन्म का प्रमाण पत्र है यह मूर्तिमान प्रतिज्ञा हर समय कंधे और छाती पर अवस्थित रहनी चाहिए ताकि बार बार घड़ी घड़ी वह हमारी प्रतिज्ञा का स्मरण कराती रहे। स्त्री और बालक कंठी के रूप में या कंठ में पड़े रहने वाले तृतीयांश सूत्र का यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं।
जो लोग मल मूत्र आदि के समय कान पर यज्ञोपवीत चढ़ाने के नियम को ठीक प्रकार पालन नहीं कर पाते उनके लिए एक तिहाई लम्बाई का छोटा यज्ञोपवीत बना दिया जाता है जो कंठ में पड़ा रहता है। जो लोग यज्ञोपवीत बनाना नहीं जानते वे गायत्री की शिक्षाओं को एक डोरे में गांठ लगा कर बांध लेते हैं। 9 लड़ें 3 गांठें 1 ब्रह्म गांठ तथा 1 पूर्ण यज्ञोपवीत के अभाव को पूर्ण करना, इस प्रकार 14 गांठें लगे हुए डोरे को यज्ञोपवीत के स्थान पर धारण करते हैं। अनन्त चतुर्दशी को पहना जाने वाला 14 गांठ का अनन्त सूत्र, बालकों के गले में ओझा लोगों द्वारा बांधे गये 14 ग्रंथि वाले ‘‘गंडा सूत्र’’ स्त्रियों की सोने चांदी या कांच की कंठियां इस प्रकार के आंशिक यज्ञोपवीत के ही प्रतीक है।
गायत्री के प्रत्येक उपासक को यज्ञोपवीत पहनना अवश्य चाहिए क्योंकि यह उसकी विधिवत् ली हुई धर्म प्रतिज्ञा-दीक्षा का, न त्यागने योग्य उत्तरदायित्व है। यह धारणा उसके उद्देश्य को प्राप्त कराने में बड़ी सहायक होती हैं। नौ धागे का यज्ञोपवीत नव रत्नों का हार है इसका महत्व रत्न जटित आभूषण से अधिक ही है, कम नहीं।
द्विजत्व का अर्थ है—दूसरा। एक जन्म माता पिता से होता है। पशु पक्षियों का जन्म भी इसी प्रकार होता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मानव शरीर पाने पर भी उसमें पिछले पाशविक संस्कार ही प्रधान रहते हैं। पेट भरना, कामवासना, लोभ, स्वार्थ एवं अहंकार आदि की पाशविक वृत्तियों से प्रेरित होकर वह सोचता है, इच्छा करता है और कार्य प्रवृत्त होता है। यदि यही गति विधि जारी रहे तो वह नर पशु ही बना रहता है।
पशुता की विचार धारा और कार्य प्रणाली से ऊंचा उठ कर मनुष्यता की जिम्मेदारियों को कंधे पर लेना, मानवोचित इच्छाएं करना, विचार एवं कार्यों का अपनाना दूसरा जन्म है। पशु का आदर्श-इन्द्रिय भोग और स्वार्थ है। मनुष्य को आदर्श आत्मोन्नति और परमार्थ है। पशु अपने लाभ के लिए दूसरों की हानि की परवाह नहीं करता, मनुष्य दूसरे की सेवा के लिए अपने सुख और स्वार्थ को बलिदान कर देता है। शूद्र का तात्पर्य है—नर पशु। ऐसे व्यक्तियों को शास्त्रों में श्वान समान पर तिरष्कृत और बहिष्कृत किया है। गायत्री से भी उन्हें उनकी आत्मिक अयोग्यता के कारण ही वंचित रखा गया है।
पानी नीचे की ओर अपने आप बहता है। जितनी अधिक निचाई होगी उतना ही बहाव तेज होगा। पर यदि पानी को ऊपर की ओर, ऊंचाई की ओर चढ़ाना हो तो कितने ही कष्ट साध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पशुता की ओर, पतन की ओर, भोग और स्वार्थ की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण करके धर्म की ओर संयम की ओर, कल्याण की ओर, अग्रसर होने के लिए जो विशेष अवरोध करना पड़ता है उसका नाम है—द्विजत्व का वृत, यज्ञोपवीत संस्कार, गुरु दीक्षा।
पहला स्थूल जन्म माता पिता के रज वीर्य से होता है। दूसरा सूक्ष्म जन्म माता गायत्री और पिता गुरु के संयोग से होता है। रोगी अपना इलाज आप नहीं कर सकता, अपने दोषों को समझना, अपनी मानसिक स्थिति को तौलना और आत्म निर्माण का कार्यक्रम बनाना इस महान योजना को बिना अनुभवी पथ प्रदर्शक के पूरा नहीं किया जा सकता। जैसे सभी बीमारों को एक दवा नहीं दी जाती उनकी अनेक सूक्ष्म परिस्थितियों को समझ कर अनुभवी वैद्य प्रथक प्रथक प्रकार की औषधियों और अनुपानों का विधान करता है ऐसे ही हर व्यक्ति की भिन्न मनोभूमि के अनुरूप ही आत्मोन्नति की योजना बनाई जाती है। यह कार्य दिव्य दर्शी सूक्ष्म बुद्धि, स्वार्थ रहित, सदाचारी, ज्ञान वृद्ध महा पुरुष ही कर सकते हैं। ऐसे ही लोगों को गुरु कहा जाता है। बगीचे का व्यवस्थित विकास करने के लिए ऐसे माली का संरक्षण आवश्यक है जो ठीक समय पर बोना, जोतना, सींचना एवं काट छांट करना जानता है। इस प्रकार की नियुक्ति हो जाने पर द्विजत्व का एक महत्वपूर्ण भाग पूरा हो जाता है।
गायत्री के चौबीस अक्षर जीवन की गतिविधि का निर्णय करने में कसौटी का काम देते हैं। प्रत्येक अक्षर एक एक स्वर्ण शिक्षा का प्रतीक है। ‘ॐ’ की शिक्षा है कि- सर्वज्ञ परमात्मा को व्यापक समझ कर कहीं भी गुप्त या प्रकट रूप से बुराई न करो। भूः की शिक्षा है कि- अपने अन्दर सम्पूर्ण उत्थान पतन के हेतुओं को ढूंढ़ो। ‘भुवः’ का अर्थ है- कर्तव्य कर्म में तत्परता से प्रवृत्त रहो और फल के लालच में अधिक न उलझो। ‘स्वः’ का संदेश है कि- स्थिर रहो, हर्ष शोक में उद्विग्न न बनो। ‘तत्’ का तात्पर्य है कि- इस शरीर के क्षणिक सुखों को ही सब कुछ मत समझो, जन्म जन्मान्तरों के स्थायी सुखों का महत्व समझो। ‘सवितुः’ का भावार्थ है- अपने को विद्या, बुद्धि, स्वास्थ्य, धन, यश, मैत्री, साहस आदि शक्तियों से अधिकाधिक सुसंपन्न करना। ‘वरेण्यं’ का संदेश है कि इस दुरंगी दुनिया में से केवल श्रेष्ठता का ही स्पर्श करो। ‘भर्गो’ का उपदेश है- शरीर, मन, मकान, वस्त्र तथा व्यवहार को स्वच्छ रखना। ‘देवस्य’ का अर्थ है- उदारता, दूरदर्शिता। ‘धीमहि’ अर्थात्- सद्गुण उत्तम स्वभाव, दैवी सम्पदाएं, उच्च विचार। ‘धियो’ का तात्पर्य है- किसी व्यक्ति, ग्रन्थ या संप्रदाय का अन्धानुयायी न होकर विवेक के आधार पर केवल उचित को ही स्वीकार करना। ‘योनः’ की शिक्षा है- संयम, तप, ज्ञान, सहिष्णुता, तितीक्षा, कठोर श्रम, मितव्ययिता, शक्तियों का संचय ओर सदुपयोग। ‘प्रचोदयात्’ अर्थात् प्रेरणा देना, गिरे हुओं को ऊंचा उठाना, उत्साहित करना, प्रफुल्लित, संतुष्ट एवं सेवा परायण रहना।
सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में अनेक शिक्षाएं अपने अपने ढंग से दी गई हैं उन सब का सार भाग उपरोक्त पंक्तियों में आ गया है उतनी बातें भली प्रकार हृदयंगम करली जायं तो समझ लीजिए कि चारों वेदों के पंडित हो गये। गायत्री के 24 अक्षरों में दिव्य जीवन की समस्त योजना नीति, विचारधारा, कार्यप्रणाली सन्निहित है, इस पर चलने में व्यवहारिक सहयोग देना, पथ प्रदर्शन करना, गुरू का काम है। इस प्रकार गायत्री माता और गुरू पिता द्वारा हमारे आदर्शवादी जीवन का जन्म होता है। यही द्विजत्व है।
यज्ञोपवीत में तीन लड़ें होती हैं प्रत्येक लड़में तीन तीन धागे होते हैं। जैसे देवताओं की मूर्ति पाषाण या धातुओं की होती है वैसे ही हर घड़ी छाती से लगाये रहने योग्य गायत्री की मूर्ति यज्ञोपवीत रूपी बनाई गई है। गायत्री में तीन पद और नौ शद्व हैं। यज्ञोपवीत में तीन लड़े और नौ सूत्र हैं। तीन व्याहृतियों की प्रतीक तीन ग्रंथियां हैं। ॐकार ब्रह्म ग्रंथि है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है-‘‘गायत्री से सन्निहित शिक्षाओं को जीवन व्यवहार में क्रियात्मक रूप से चरितार्थ करने का उत्तर दायित्व कंधे पर उठाना।’’ इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना ही यज्ञोपवीत संस्कार था। द्विजत्व में प्रवेश कहलाता है।
यज्ञोपवीत धारण का अर्थ उसी दिन इन सब गुणों से परिपूर्ण हो जाना एवं पुराने कुसंस्कारों से तत्क्षण मुक्त हो जाना नहीं है। यह पूर्ण सिद्धावस्था तो अन्तिम लक्ष है। ‘‘हम सच्चे हृदय से गायत्री में निर्धारित जीवन नीति की उत्तमता को स्वीकार करेंगे’’ इस प्रतिज्ञा के साथ द्विजत्व का आरंभ होता है। जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कार एक दिन में नहीं छूट जाते वरन् उन्हें हटाने के लिए काफी लम्बा धर्मयुद्ध करना पड़ता है। कई बार हम कुसंस्कारों पर विजय पाते हैं कई बार कुसंस्कारों की जीत होती है। यह लड़ाई निरंतर जारी रहनी चाहिए। पाप एवं पतन के सामने कभी भी आत्म समर्पण न करना चाहिए। उसके प्रति घृणा और प्रतिरोध के भाव सदा जारी रहें। कोई बुराई अपने में हो और वह छूट न पा रही हो तो भी उसे अपनी कमजोरी या भूल समझ कर पश्चात्ताप ही करें और उससे छुटकारा पाने के लिए यथा शक्ति प्रयत्न जारी रखें। बुराई को भलाई के रूप में स्वीकार करना उसका समर्थन करना, उसका विरोध छोड़ देना, उसमें रस लेना यह शूद्रत्व का चिन्ह है। हम पाप के प्रतिरोध में अपनी अन्तःचेतना को सक्षम रखें तो हम द्विजत्व की प्रतिज्ञा पर दृढ़ कहे जा सकते हैं। चाहे पूर्ण शुद्ध होने में, पूर्ण सफलता मिलने में, पूर्ण विजय प्राप्त होने में, कितनी ही देर क्यों न लग जाय।
पशुत्व का विरोध और मनुष्यता का समर्थन करने की प्रतिज्ञा लेना, द्विजत्व का व्रत स्वीकार करना आत्मोन्नति का सर्व प्रथम एवं अत्यन्त आवश्यक धर्म कृत्य है। इसे करने के उपरान्त आदर्शवाद के अनुयायियों में अपनी गणना करा लेने के पश्चात ही हमें वह अधिकार मिलता है कि गायत्री साधना द्वारा दैवी शक्तियों को प्राप्त भी करलें तो उसका दुरुपयोग ही करेंगे इसलिए शास्त्रकारों ने प्रतिज्ञा हीन, व्रत हीन, यज्ञोपवीत हीन व्यक्तियों को शूद्र संज्ञा देकर गायत्री का अनाधिकारी ठहरा दिया है। यह प्रतिबन्ध सर्वथा उचित एवं दूर दर्शिता पूर्ण ही है।
शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि बिना गुरु का मंत्र निष्फल होता है। किसी को पथ प्रदर्शक नियुक्त किये बिना अपनी स्थिति के अनुकूल साधना विधि को मालूम कर लेना और समय समय पर अपनी मनोभूमि के परिवर्तनों को ध्यान में रख कर अपने आप साधना में परिवर्तन करते रहना कठिन है। किसी बड़े औषधालय की चाबी मिल जाने पर भी रोगी अपने आप अपने मर्ज के लिए उपयुक्त औषधि लेकर निरोग नहीं हो सकता। यदि उसे बीमारी से पीछा छुड़ाना है तो किसी अनुभवी वैद्य की सलाह अवश्य ही लेनी पड़ेगी। ‘‘औषधि में भारी शक्ति है’’ यह सत्य है। पर यह भी सत्य है कि बिना वैद्य की सलाह के कीमती रस, भस्में भी निरर्थक होती हैं और कई बार तो वे उलटा परिणाम भी उपस्थित करतीं हैं।
कहा गया है कि गायत्री को वशिष्ठ और विश्वामित्र का शाप लगा हुआ है इसलिए शापमोचन किये बिना गायत्री साधना निष्फल होती है। वशिष्ठ कहते हैं- विशिष्ठ गुणवान् अनुभवी विद्वान को, और विश्वामित्र कहते हैं संसार का हित चाहने वाले सच्चरित्र तपस्वी को। यह दोनों गुण जिनमें हों- जो वशिष्ठ और विश्वामित्र तत्वों का प्रतिनिधित्व करता हो ऐसे गुरू का अनुवर्ती होना ही शाप मोचन है। जो शाप मुक्त गायत्री जपता है- गुरू के आदर्श और नियंत्रण में साधना करता है उसकी सफलता में कोई शंका नहीं रह जाती।
आज कल गुरू शिष्य की एक उपहासास्पद विडंबना चल रही है। जिन व्यक्तियों को आत्म निर्माण के भारतीय मनोविज्ञान (योग) का समुचित ज्ञान नहीं है। जो अपना तक आत्म निर्माण नहीं कर पाये हैं ऐसे लोग भी गुरू बनने का दुस्साहस करते हैं। चिकित्सा शास्त्र का परिचय प्राप्त किये बिना डॉक्टर बन बैठने वाला व्यक्ति जितना खतरनाक होता है उससे भी अधिक खतरनाक यह गुरू होते हैं। ‘‘निगुरा’’ कहलाने के पातक से छूटने के लिए लोग किसी भी पोथी पांडे को गुरू बना लेते हैं और हर साल कुछ दान पुण्य मिलते रहने के लोभ से गुरू जी भी चेले के कान फूंक देते हैं। इस प्रकार की चिन्ह पूजा से गुरू दीक्षा का महान उद्देश्य पूरा हो सकना कठिन है।
ईश्वरीय शक्तियों को पकड़ने आकर्षित करने का एक मात्र अवलम्बन जो मनुष्य के पास है वह है- श्रद्धा युक्त प्रेम। इसी को भक्ति कहते हैं ‘‘भगवान भक्ति के वश में होते आये’’ की उक्ति इसी महा सत्य का समर्थन करती है। प्रगाढ़ प्रेम से परिपूर्ण मनोभावना में एक ऐसा दैवी चुम्बकत्व हो जाता है जिससे मनुष्यों और दैवी शक्तियों को अपने पक्ष में द्रवित एवं आकर्षित किया जा सकता है। कोई चतुराई, बुद्धिमत्ता, विधि व्यवस्था ऐसी नहीं है जिससे श्रद्धा युक्त प्रेम (भक्ति) के समान चुम्बकत्व, आकर्षण, पैदा होता हो और यह आकर्षण ही समस्त आत्मिक लाभों का उद्गम स्रोत है।
अपने में भक्ति भावना बढ़ाने का अभ्यास पहले पहल किसी मनुष्य को माध्यम बनाकर किया जाता है। ईश्वर भक्ति का प्रारंभिक अभ्यास गुरू भक्ति से होता है। आरंभ में छोटे तालाब में तैरना सीख कर तब समुद्र को तैर जाने में सफलता मिलती है। माता, पिता, मित्र, पति, पत्नी, पुत्र आदि को माध्यम बना कर भक्ति का अभ्यास करने में यह कठिनाई है कि इनके साथ सांसारिक व्यवहारिक संबंध रहने से कभी अनुकूल कभी प्रतिकूल भावनाएं आती रहती हैं। दूसरे इनमें ज्ञान, सदाचार, विद्या, दिव्यदृष्टि, सात्विकता एवं निस्वार्थता आदि विशेषताओं की उतनी मात्रा न होने से स्वाभाविक श्रद्धा भी अधिक मात्रा में उत्पन्न नहीं होती। सद्गुरु के संबंध में यह कठिनाइयां नहीं आतीं। इसलिए उनको माध्यम बना कर अपने अन्तःकरण में श्रद्धा, सात्विकता एवं पवित्रता से परिपूर्ण प्रेम का अभ्यास करना सरल होता है। हमारी प्रेम भावना जितनी ही प्रगाढ़ होती जाती है उतना ही ईश्वर प्राप्ति की सफलता के निकट पहुंचते जाते हैं। गुरू भक्ति का दूसरा लाभ यह है कि उनके आदेशानुसार गायत्री शिक्षाओं को व्यवहार रूप में लाने के लिए उनका प्रभाव विशेष उपयोगी सिद्ध होने लगता है।
यों सभी मनुष्य समान हैं, सभी ईश्वर के पुत्र होने से भाई भाई हैं, सभी में दोष हैं, कोई भी पूर्ण निर्दोष नहीं है, गुरू भी यदि पूर्ण निर्दोष होते तो उन्हें संसार में रहने की आवश्यकता ही क्यों होती, अपूर्णता के कारण ही तो हम सब इस स्कूल की विभिन्न कक्षाओं में पढ़ रहे हैं। इतना होते हुए भी किसी अपेक्षा कृत सत्पुरुष को माध्यम बना कर गुरू भक्ति की जा सकती है। रबड़ की गेंद को जितने जोर से फेंक कर दीवार पर मारते हैं वह टकरा कर उतने ही जोर से वापिस लौट आती है। गुरू भक्ति रूपी साधना से हमारी आध्यात्मिक भक्ति भावना तेजी से समुन्नत होती है तदनुसार ईश्वर की गायत्री शक्ति को शीघ्रता एवं अधिक मात्रा में प्राप्त करना सुगम हो जाता है।
प्रत्येक गायत्री साधक को आदर्शवादी विचार धारा का अनुयायी होने की, द्विजत्व का अवलम्बन करने की, प्रतिज्ञा लेनी चाहिए। तुच्छ, स्वार्थपूर्ण, भोगवादी, पाशविक दृष्टिकोण रख कर जो व्यक्ति गायत्री की उपासना करना चाहता है उस अनधिकारी के लिए द्वार बन्द है। साधक को अपने आत्म निर्माण के लिए गायत्री में सन्निहित नीति योजना और कार्य प्रणाली को अपनाना चाहिए। गायत्री माता है, माता ही जीवन निर्माता होती है। हमारा आध्यात्मिक जीवन गायत्री की शिक्षा के अनुरूप होना चाहिए। प्रत्येक साधक का एक सुयोग्य अनुभवी, सूक्ष्म बुद्धि, पथ प्रदर्शक होना चाहिए। जो मार्ग बताने, भूल सुधारने, सुप्त शक्तियों को जगाने एवं भक्ति भावना को बढ़ाने में सहायक हो सके।
स्मरण रखना चाहिए कि द्विज ही गायत्री के अधिकारी हैं। गुरू पिता और गायत्री-माता के अनुसरण की धर्म प्रतिज्ञा लेना ही दीक्षा है। आत्मिक उन्नति के लिए दूसरा जन्म होना आवश्यक है। यज्ञोपवीत उस जन्म का प्रमाण पत्र है यह मूर्तिमान प्रतिज्ञा हर समय कंधे और छाती पर अवस्थित रहनी चाहिए ताकि बार बार घड़ी घड़ी वह हमारी प्रतिज्ञा का स्मरण कराती रहे। स्त्री और बालक कंठी के रूप में या कंठ में पड़े रहने वाले तृतीयांश सूत्र का यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं।
जो लोग मल मूत्र आदि के समय कान पर यज्ञोपवीत चढ़ाने के नियम को ठीक प्रकार पालन नहीं कर पाते उनके लिए एक तिहाई लम्बाई का छोटा यज्ञोपवीत बना दिया जाता है जो कंठ में पड़ा रहता है। जो लोग यज्ञोपवीत बनाना नहीं जानते वे गायत्री की शिक्षाओं को एक डोरे में गांठ लगा कर बांध लेते हैं। 9 लड़ें 3 गांठें 1 ब्रह्म गांठ तथा 1 पूर्ण यज्ञोपवीत के अभाव को पूर्ण करना, इस प्रकार 14 गांठें लगे हुए डोरे को यज्ञोपवीत के स्थान पर धारण करते हैं। अनन्त चतुर्दशी को पहना जाने वाला 14 गांठ का अनन्त सूत्र, बालकों के गले में ओझा लोगों द्वारा बांधे गये 14 ग्रंथि वाले ‘‘गंडा सूत्र’’ स्त्रियों की सोने चांदी या कांच की कंठियां इस प्रकार के आंशिक यज्ञोपवीत के ही प्रतीक है।
गायत्री के प्रत्येक उपासक को यज्ञोपवीत पहनना अवश्य चाहिए क्योंकि यह उसकी विधिवत् ली हुई धर्म प्रतिज्ञा-दीक्षा का, न त्यागने योग्य उत्तरदायित्व है। यह धारणा उसके उद्देश्य को प्राप्त कराने में बड़ी सहायक होती हैं। नौ धागे का यज्ञोपवीत नव रत्नों का हार है इसका महत्व रत्न जटित आभूषण से अधिक ही है, कम नहीं।