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Books - लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

Media: TEXT
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विदाई की घड़ियों में उभरी पूज्य गुरुदेव की भाव संवेदना -

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    पूज्य गुरुदेव द्वारा यह लेख सम्पादकीय के रूप में जनवरी ६९ में तब लिखा गया था जब उन्होंने घोषणा कर दी थी कि अब वे मथुरा न रहकर सबसे बिदा लेकर जीवन के अगले अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं। आज भी ये पंक्तियाँ हम सबको उस ममत्व की स्मृति दिलाती हैं, जिसने यह विराट गायत्री परिवार बनाया है। उनके निर्मल हृदय से उभरी दिव्य स्नेह की तरंगों के स्पन्दनों का अनुभव करने वाले साधक विराट् आत्मीय भाव का रस पा सकते हैं । और विरासत में उसे स्वीकार करने वाले परिजन दिव्य जीवन के अधिकारी बन सकते हैं ।
   
   आयु की दृष्टि से हम अब लगभग ६० वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। हमारे सांसारिक जीवन में एक बड़ा विराम यहीं लग जाता है। एक छोटे नाटक का यहीं पटाक्षेप हैं। दो वर्ष में कुछ ही अधिक दिन शेष हैं जब हमें अपनी ये सभी हलचलें बन्द कर देनी पड़ेंगी, जिनकी सर्वसाधारण को जानकारी बनी रहती है। इसके उपरान्त क्या करना होगा, इसकी सही रूपरेखा तो हमें भी मालूम नहीं है पर इतना सुनिश्चित है कि यदि आगे भी जीना पड़ा तो उससे सर्वसाधारण का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होगा।

   ऐसा विचित्र और कष्टकर निर्णय हमें स्वेच्छा से नहीं करना पड़ा है वरन् इसके पीछे एक विवशता है। अब तक का सारा जीवन हमने एक ऐसी सत्ता के इशारे पर गुजारा है जो हर घड़ी हमारे साथ है। हमारी हर विचारणा और गति- विधि पर उसका नियन्त्रण है। बाजीगर की उँगलियों से बँधे हुए धागों के साथ जुड़ी हुई कठपुतली तरह- तरह के अभिनय करती है। देखने वाले इसे कठपुतली की करतूत मानते हैं, पर असल में वह बेजान लकड़ी का एक तुच्छ- सा उपकरण मात्र है। खेल तो बाजीगर की उँगलियाँ करती हैं। हमें पता नहीं, कभी कोई इच्छा निज के मन में बिना उनकी प्रेरणा से उठी है क्या? कोई क्रिया अपने मन से की है क्या? जहाँ तक स्मृति साथ देती है अपना एक ही क्रम- एक ही ढर्रे पर लुढ़कता चला आ रहा है कि हमारी मार्गदर्शक शक्ति जिसे हम गुरुदेव के नाम से स्मरण करते हैं, जब भी जो निर्देश देती रही है बिना ननुनच किये कठपुतली की तरह सोचने और करने की हलचलें करते रहे हैं।

   पिछले और अगले दिनों की कभी तुलना करने लगते है, तो लगता है छाती फट जाएगी और एक हूक पसलियों को चीर कर बाहर निकल पड़ेगी। कोई अपनी चमड़ी उधेड़कर भीतर का अन्तरंग परखने लगे तो उसे माँस और हड्डियों में एक ही तत्त्व उफनता दृष्टिगोचर होगा- वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है- प्रेम। एक ही सम्पदा कमाई है- प्रेम। एक ही रस हमने चखा है और वह है प्रेम का। यों सभी में हमें अपनापन और आत्मभाव प्रतिबिम्बित दिखाई पड़ता है पर उनके प्रति तो असीम ममता है जो एक लम्बी अवधि में भावनात्मक दृष्टि से हमारे अति समीप रहते रहे हैं।
  ज्ञान और वैराग्य की पुस्तकें हमने बहुत पढ़ी हैं। माया, मोह की निरर्थकता पर बहुत प्रवचन सुने हैं। संसार मिथ्या है, कोई किसी का नहीं- सब स्वार्थ के हैं आदि- आदि। ब्रह्मचर्य में भी सम्मिलित होने का अवसर मिला है। यदा- कदा उन शब्दों को दूसरों के सामने दुहराया भी है। पर अपनी दुर्बलता को प्रकट कर देना ही भला है कि हमारी मनोभूमि में अभी तक भी वह तत्त्व- ज्ञान प्रवेश नहीं करता है ; न कोई पराया दीखता है और न कहीं माया का आभास होता है, जिससे विलग, विरत हुआ जाय। जब अपनी ही आत्मा दूसरों में जगमगा रही है तो किससे मुँह मोड़ा जाय? किससे नाता तोड़ा जाय? जो हमें नहीं भुला पा रहे हैं, उन्हें हम कैसे भूल जायेंगे? जो साथ घुले और जुड़े हैं उनसे नाता कैसे तोड़ लें? कुछ भी सूझ नहीं पड़ता। पढ़ा हुआ ब्रह्मज्ञान रत्ती भर भी सहायता नहीं करता। इन दिनों, बहुत करके रात में जब आँख खुल जाती है तब यही प्रसंग मस्तिष्क में घूम जाता है। स्मृति पटल पर स्वजनों की हँसती- बोलती मोह- ममता से भरी एक कतार बढ़ती उमड़ती चली आती है। सभी एक से एक बढ़कर प्रेमी, सभी एक से एक बढ़कर आत्मीय, सभी की एक से एक बढ़कर ममता। इस स्वर्ग में से घसीट कर हमें कोई कहाँ लिये जा रहा है? क्यों लिये जा रहा है? इन्हें छोड़कर हम कहाँ रहेंगे? कैसे रहेंगे? कुछ भी तो सूझ नहीं पड़ता। आँखे बरसती हैं और सिरहाने रखे वस्त्र गीले होते रहते हैं।

    इन दिनों हमारी आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी है जिसका विशेषण कर सकना हमारे लिए कठिन है। हमारी व्यथा, वेदना कष्ट से डरने की, परीक्षा में काँपने की अथवा मोह- ममता न छोड़ सकने वाले अज्ञानी जैसी लगती भर है वस्तुतः वैसी है नहीं। डर या कायरता की मंजिल पार हो चुकी। सुख- सुविधा की इच्छा के लिए अब मरने के दिनों की गुंजायश भी कहाँ रही? शौक- मौज की आयु ढल गई। अब तो कोई और न सही अपना जरा- जीर्ण शरीर भी पग- पग पर असुविधाएँ उत्पन्न करेगा। ऐसी दशा में सुविधाओं की कामना, असुविधाओं की अनिच्छा भी रोने- कलपने का कारण नहीं है। कारण एक ही है, हमारी भावुकता और छलछलाते प्यार से भरी मनोभूमि। जिनका रत्तीभर भी स्नेह हमने पाया है, उनका बदला पहाड़ जैसा प्रतिदान देने के लिए मन मचलता रहता हैं 

   जिनने हमारी कुछ सेवा सहायता की है, उनकी पाई- पाई चुका देंगे। न हमें स्वर्ग जाना है और न मुक्ति लेनी है। चौरासी लाख योनियों के चक्र में एक बार भगवान् से प्रार्थना करके इसलिए प्रवेश करेंगे कि इस जन्म में जिस- जिस ने जितना- जितना उपकार हमारा किया हो, जितनी सहायता की हो, उसका एक- एक कण ब्याज सहित हमारे उस चौरासी लाख चक्र में भुगतान करा दिया जाये। घास, फूल, पेड़, लकड़ी, बैल, गाय, भेड़ आदि बन कर हम किसी न किसी के कुछ काम आते रह सकते हैं और इससे अपने उपकारियों के अनुदान का बदला पूरे, अधूरे रूप में चुकाते रह सकते हैं। सद्भावना का भार ही क्या कम है जो किसी की सहायता का भार और ओढ़ा जाय? यह सुविधा भगवान् से लड़- झगड़कर प्राप्त कर लेंगे, पर जिनने समय- समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया है, हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर, सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव, स्नेह एवं अपनत्व प्रदान किया है, उनके लिए क्या कुछ किया जाय, समझ में नहीं आता। इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो, वहाँ एक प्रहर की वर्षा कर सकने का सुअवसर मिल जाय। मालूम नहीं ऐसा सम्भव होगा कि नहीं, यदि सम्भव न हो सके तो हमारी अभिव्यंजना उन सभी तक पहुँचे, जिनकी सद्भावना किसी रूप में हमें प्राप्त हुई हो। वे उदार सज्जन अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया नहीं गया वरन् उसे पूरी तरह स्मरण रखा गया ।
 
   हमारे मन की व्यथाएँ बहुत हैं। उनका समाधान क्या हो सकता है कौन जाने? पर अपने इस आन्तरिक उद्वेग की घड़ियों में यह भी अच्छा ही है कि हम जी खोलकर अपनी बात कह लें और परिजनों को बता सकें कि हम क्या सोचते और चाहते हैं- कहते हुए विदा हो सकें ।

   विदाई के दिन समीप आते जा रहे हैं, हमारी भावनाओं में उतनी ही तेजी से उफान आता चला जा रहा है। बार- बार जो हूक और ऐंठन कलेजे में उठती है उसका कारण यदि कोई दुर्बलता हो सकती है तो एक ही हो सकती है कि जिनको प्यार किया, उनको समीप पाने की अभिलाषा भी सदा बनी रही ।
   प्यार के धागों को इस तरह तोड़ना पड़ेगा, इसकी कभी कल्पना भी न की थी। आने- जाने की बात बहुत दिन से कही सुनी जा रही थी। उसकी जानकारी भी थी, पर यह पता न था कि प्रियजनों के बिछुड़ने की व्यथा कितना अधिक कचोटने वाली- ऐंठने मरोड़ने वाली होती हैं

   अपनों से छिपाया क्या जाय? अब हम अपने अंतर की हर घुटन, व्यथा और अनुभूति को अपनों के आगे उगलेंगे, ताकि हमारे अन्तर का भार हल्का हो जाय और परिजनों को भी वास्तविकता का पता चल जाय। आत्मकथा तो कैसे लिखी जा सकेगी, पर जो अन्तर्द्वन्द्व घुमड़ते हैं, उन्हें तो बाहर लाया ही जा सकता है। इसे सुनने से सुनने वालों को मानवी सत्ता के एक पहलू को समझने का अवसर मिलेगा ।

   किसी ने हमें विद्वान्, किसी ने तपस्वी, किसी ने तत्त्वदर्शी, किसी ने यांत्रिक, किसी ने लोकसेवी, किसी ने प्रतिभा पुञ्ज आदि कुछ भी समझा हो, हम अपनी आँखों और अपनी समझ में केवल मात्र एक अति सहृदय, अति भावुक और अतिशय स्नेही प्रकृति के एक नगण्य से मनुष्य मात्र रहे हैं।
   प्रेम के व्यापार में घाटा किसी को नहीं रहता, फिर हमें ही नुकसान क्यों उठाना पड़ता? नुकसान एक ही रहा है कि सोचने में न आया, स्नेह का तन्तु जितना मधुर है, वियोग की घड़ियों में वह उतना ही तीखा बन जाता है।

    स्नेह में दूरी बाधक नहीं होती, आत्मीयता शरीर से नहीं, आत्मा से होती है- आदि तत्त्वदर्शन हमने पढ़े तो बहुत हैं, दूसरों को सुनाये भी हैं पर उनका प्रयोग सफलतापूर्वक कर सकना कितनी भी ऊँची स्थिति पर पहुँचे व्यक्ति के लिए कितना सम्भव है, यह कभी सोचा न था। लगता है अभी अपनी आत्मिक प्रगति नगण्य ही हैं। 

   स्नेहियों के स्नेह और अनुग्रहियों के अनुग्रहों का कितना ऋण भार लेकर विदा होना पड़ रहा है, यह सोच कर कभी- कभी बहुत कष्ट होता है। अच्छा होता जन्म से कहीं एकान्त में चले गये होते।

  सोचते तो बहुत रहे, स्वप्न बड़े- बड़े देखते रहे, अमुक के लिए यह करेंगे, अमुक को यह देंगे। पर किया जा सका और दिया जा सका, वह इतना कम है कि आत्मग्लानि होती है और लज्जा से सिर नीचा हो जाता है। 

   एक इच्छा अवश्य मन में थी कि असीम स्नेह बरसाने वाले स्वजनों के लिए प्रतिदान में जो कुछ अपने भीतर बाहर और कुछ शेष बच रहा है, उसे राई रत्ती देकर जाते और सबके चरणों की धूल सिर पर रखकर कहते- ‘इस नगण्य से प्राणी से अभी इतना ही बन पड़ा। ८४ लाख योनियों में यदि विचरण करना पड़ा, तो हर शरीर को लेकर आप लोगों की सेवा में उपलब्ध प्रेम और सहकार का कुछ न कुछ ऋण- भार चुकाने के लिए अतिश्रद्धा के साथ उपस्थित होते रहेंगे और जिस शरीर से जितनी सेवा सहायता बन पड़ेगी, जितनी कृतज्ञता और श्रद्धाव्यक्त कर सकने की क्षमता रहेगी, उसका पूरा- पूरा उपयोग आपके समक्ष करते रहेंगे। 

   हम अज्ञान ग्रस्त, मोह- बन्धन में बँधे प्राणी अपना दूरवर्ती हित नहीं समझते, वह शक्ति समझती है और जिसमें हमारा परिवार और हमारे समाज, धर्म एवं विश्व का कल्याण है, उसी को करने जा रहे हैं।

  अपना मन कितना ही इधर- उधर क्यों न होता हो, यह निश्चित है कि हमें ढाई वर्ष बाद निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा। यों यह मृत्यु जैसी स्थिति है, पर संतोष इतना ही है कि वस्तुतः ऐसी बात होगी नहीं ।

  वियोग की घड़ियों में भी सन्तोष केवल इस बात का है कि दूसरे लोग भले ही शरीर समेत हमसे मिल न सकें पर जिन्हें अभीष्ट है, उनके साथ भावनात्मक सम्बन्ध यथावत बना रहेगा वरन् सच पूछा जाय तो और भी अधिक बढ़ जाएगा। 

  हमारा अपना आन्तरिक ढाँचा एक विचित्र स्तर का बन चुका है और उसे आग्रहपूर्वक वैसा ही बनाए रहेंगे। सहृदयता, ममता, स्नेह, आत्मीयता की प्रवृत्ति हमारे रोम- रोम में कूट- कूट कर भरी है। यह इतनी सरस व सुखद है कि किसी भी मूल्य पर इसे छोड़ने की बात तो दूर, घटाना भी सम्भव न हो सकेगा ।
  तृष्णा और वासना से छुटकारा पाने का नाम हम मुक्ति मानते रहे हैं। सो उसे प्राप्त कर चुके। उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन पद्धति बनाए रहने, दूसरों में केवल अच्छाई देखने और सबमें अपनी ही आत्मा देखकर असीम प्रेम करने की तीन धाराओं का संयुक्त स्वरूप हम स्वर्ग मानते रहे हैं, सो उसका रसास्वादन चिरकाल से हो रहा है। अब न स्वर्ग जाने की इच्छा है, न मुक्ति पाने की ।

  ऐसा वैराग्य जिसमें स्नेह सौजन्य से, अनन्त आत्मीयता से वंचित होना पड़े, हमें तनिक भी अभीष्ट नहीं। हमारी ईश्वर भक्ति पूजा- उपासना से आरम्भ होती है और प्राणी मात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपने ही शरीर के अंग, अवयवों की तरह अपनेपन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती जाती हैं।

  जिनका स्नेह- सद्भाव, सहयोग, अनुग्रह अपने ऊपर रहा है, उनकी ओर से तनिक भी मुख मोड़ा जाय, उनके प्रति उदासीनता और उपेक्षा अपनाई जाय, कोई कृतघ्र ही ऐसा सोच सकता हैं।

  रोटी ने नहीं, भावभरी आत्मीयता के अनुदान जहाँ- तहाँ से हमें मिल सके हैं, उन्हीं ने हमारी नस- नाड़ियों में जीवन भरा है और उसी के सहारे हम इस विशाल संघर्ष से भरे जीवन में जीवित रह सकने और कुछ कर सकने लायक कार्य करने में समर्थ रहे हैं ।

  लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएँ हैं, उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरन्तर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे। ........... लोग हमें भूल सकते हैं, पर हम अपने किसी स्नेही को नहीं भूलेंगे।

  कोई माता विवशता में कहीं चली जाती है तो चलते समय अपने बच्चों को बार- बार दुलार करती, बार- बार चूमती, लौट- लौट कर देखती और ममता से भरी गीली आँखें आँचल से पोंछते आगे बढ़ती है। ऐसा ही कुछ उपक्रम अपना भी बन रहा है। सोचते हैं, जिन्हें अधूरा प्यार किया अब उन्हें भरपूर प्यार कर लें। जिन्हें छाती से नहीं लगाया, जिन्हें गोदी में नहीं खिलाया, जिन्हें पुचकारा- दुलारा नहीं, उस कमी को अब पूरा कर लें। किसी को कुछ अनुदान, आशीर्वाद देना अपने हाथ में न हो तो दुलार देना तो अपने हाथ में है ही ।

  अब आने वाली विषम घड़ियाँ यों एक बारगी कलेजे को कपड़ा निचोड़ने की तरह ऐंठती है और अनायास ही रुलाई से कण्ठ भर देती हैं, फिर भी इसके पीछे कोई विवशता नहीं। महान् उद्देश्य के लिए, लोकमंगल के लिए, नव- निर्माण के लिए, तिल- तिल करके अपने को गला देने में हमें असीम सन्तोष, अपार आनन्द और उच्चकोटि का गर्व हैं कोई चमड़ी उधेड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय लगा मिलेगा, जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरन्तर गलते रहकर गंगा- यमुना बहाता रहता हैं।

  प्यार, प्यार, प्यार यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है। सो बाकी दिनों अब अपनों से अपनी बातें ही नहीं कहेंगे, अपनी सारी ममता भी उन पर उड़ेलते रहेंगे। शायद इससे परिजनों को भी यथोचित सुखद अनुभूति मिले ।

   प्रतिफल और प्रतिदान की आशा किए बिना हमारा भावना प्रवाह तो अविरल जारी ही रहेगा। परिजनों से परिपूर्ण स्नेह- यही इन पिछले दिनों का हमारा उपहार है, जिसे कोई भुला सके तो भुला दे। हम तो जब तक मस्तिष्क में स्मृति और हृदय में भावना का स्पन्दन विद्यमान है, आजीवन उसे याद ही रखेंगे ।

   हर किसी को विश्वास रखना चाहिए कि और कुछ हमारे पास हो चाहे न हो असीम प्यार भरी ममता से हमारा अन्तःकरण भरा- पूरा अवश्य है। जिसने हमें तिल भर प्यार किया है उसके लिए अपने मन से ताड़ बराबर ममता उमड़ी है। लम्बी अवधि से जिनके साथ हँसते, खेलते और प्यार करते चले आ रहे हैं उनसे विलग होने की बात सोच कर हमारा मन भी गाय- बछड़े के वियोग की तरह कातर हो उठता है। कई बार लगता है छाती में कुछ झूल रहा है। यह वियोग कैसे सहा जायगा। जिसकी कल्पना मात्र से दिल बैठ जाता है, उस असह्य को सहन करने में कितना बोझ पड़ेगा? और कहीं उस बोझ से यह टूटा खचड़ा चरमरा कर बैठ तो नहीं जायेगा ऐसी आशंका होती हैं।

  प्रियजनों के विछोह की कल्पना न जाने क्यों कलेजे को मरोड़ डालती है। ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से यदि इसे मानवीय दुर्बलता कहा जाय तो हमें अपनी यह त्रुटि स्वीकार है। आखिर एक नगण्य से तुच्छ मानव ही तो हम हैं। कब हमने दावा किया है योगी- यती होने का।
  
  प्यार करना सीखने और सिखाने में सारी जिन्दगी चली गई। यदि कोई धन्धा किया है तो एक मँहगी कीमत देकर प्यार खरीदना और सस्ते दाम पर उसे बेचना। इस व्यापार से लाभ हुआ या घाटा उसका हिसाब कौन लगाये ?    यों मरना अभी देर में है, पर जब परस्पर मिलने- जुलने और हँसने- खेलने, सुनने और समझने की सुविधा न रही, एक- दूसरे से दूर- समीप के आनन्द से वंचित रहकर जीवित भी रहे, तो यह आनन्द उल्लास जिसे पाने का आदी यह मन बन चुका है, कहाँ मिल सकेगा ?

  जिनके असीम स्नेह जलाशय में स्वच्छन्द मछली की तरह क्रीड़ा कल्लोल करते हुए लम्बा जीवन बिता चुके अब उस जलाशय से विलग होने की घड़ी भारी तड़पन उत्पन्न करती हैं ।

  शरीर- साधन और श्रम के द्वारा विभिन्न कार्यों में सहायता करने वाले भी कम नहीं रहे हैं, पर उनकी संख्या और भी अधिक है जो भावभरी आत्मीयता के साथ अपनी श्रद्धा, ममता और सद्भावना हमारे ऊपर उड़ेलते रहे हैं। सच पूछा जाय तो यही वह शक्ति स्रोत रहा है, जिसे पीकर हम इतना कठिन जीवन जी सके हैं।

जिसने कोई प्रत्यक्ष अनुदान नहीं दिया, उन पाषाण प्रतिमाओं के चरणों में आजीवन मस्तक झुकाते रहे हैं तो क्या उन देवियों और देवताओं की प्रतिमायें हमारी आराध्य नहीं रह सकतीं, जिनकी ममता हमारे ऊपर समय- समय पर बरसी और प्राणों में सजीवता उत्पन्न करती रही है।
 
सहेलियों से बिछुड़ते हुए और पति के घर जाते हुए जिस तरह किसी नव- वधू की द्विधा मनःस्थिति होती है, लगभग वैसी ही अपनी है और रुँधे कण्ठ एवं भावनाओं के उफान से उफनता अन्तःकरण लगभग उसी स्तर का है।
 
रात को बिना कहे चुपचाप पत्थर की तरह चल खड़े होने का साहस अपने में नहीं, इस स्तर का वैराग्य अपने को मिला नहीं। इसे सौभाग्य, दुर्भाग्य जो भी कहा जाय कहना चाहिए।

अपनी सभी सहेलियों से एक बार छाती से छाती जुड़ाकर मिल लेने और अपने अब तक के साथ- साथ हँस- खेलकर बड़े होने की स्मृतियों को ताजा कर, फफक- फफक कर रो लेने में लोक उपहास भले ही होता हो, पर अपना चित्त हल्का हो जायेगा, सो ही हमसे बन पड़ रहा है- ............. सन्त, ज्ञानी, वैरागी, ब्रह्मवेत्ता के लिए इस प्रकार की वेदना, अशोभनीय हो सकती है, पर हम उस स्तर के हैं कहाँ ?

लोग प्यार करना सीखें। हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में और ईश्वर में, दसों- दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव- भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।

हमारी अंतःस्थिति कुछ ऐसी है कि जिनका रत्तीभर भी स्नेह हमें मिला है, उनके प्रति पर्वत जितनी ममता सहज ही उमड़ती है ............. जो हमें श्रद्धा, सद्भावना, आत्मीयता एवं ममता की दृष्टि से देखते हैं, देखेंगे, प्यार करते हैं, प्यार करेंगे, उनसे विमुख नहीं हो सकते। उनके साथ भी सम्पर्क किसी न किसी रूप में बनाये रहना है।
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