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Books - लोकसेवियों के लिए दिशाबोध

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अध्यात्म क्षेत्र की वरिष्ठता विनम्रता पर निर्भर -

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    युग शिल्पियों की समर्थता, वरिष्ठता, उनकी विद्या, बुद्धि, आयु, वंश आदि के आधार पर नहीं वरन् व्यक्तित्व की विशिष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है। यह किस नियम अनुशासन पर निर्धारित है, इसके लिए एक आचार संहिता ‘ युग शिल्पियों के सप्त महाव्रत ’ के नाम से प्रस्तुत की जा चुकी है। जो उसे जितनी गम्भीरता से समझने का, जितनी तत्परता से अपनाने का प्रयत्न करेंगे, वे उसी अनुपात में युग पुरुष बनने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे, मूर्धन्य महामानव कहलायेंगे और अपनी आत्मिक विभूतियों से असंख्यों को अनुप्राणित करेंगे, अपने ढाँचे में ढालेंगे।

    बड़ा, उससे बड़ा, सबसे बड़ा बनने की ललक इतनी मदान्ध हो जाती है कि न न्याय सूझता है, न औचित्य और न परिणाम, न मर्यादाओं का ध्यान रहता है और न नम्रता सधती है। बैल बनने की प्रतिस्पर्धा में एक मेढक अपने पेट में हवा भरता चला गया और अन्त में उदर, कलेवर फट जाने पर बेमौत मरा। वह कहानी मनुष्यों पर लागू होती है, जितनी जल्दी बन पड़े, जितना अधिक बटोरना संभव हो उतना बिना प्रतीक्षा किए, बिना मूल्य चुकाये, किसी भी छल, छद्म से अपने लिए उपलब्ध कर लिया जायें । यही है सेवा मार्ग पर चलने वालों की दुर्गति बनाने वाली ललक, भावनात्मक अवगति। आश्चर्य होता है कि जब ख्याति की, पदवी की इतनी अधिक लिप्सा थी तो उसके लिए दूसरे सस्ते उपाय, हथकण्डे हो सकते थे। सेवा का जटिल मार्ग क्यों चुना गया? यदि चुन ही लिया गया तो सेवा की अभिन्न सहचरी नम्रता को भी साथ लेकर चलना था। सेवा धर्म के साथ शालीनता का समन्वय रहना चाहिए। लोकसेवी को निस्पृह एवं विनम्र होना चाहिए। इसी में उसकी गरिमा और उज्ज्वल भविष्य की संभावना है। जो बड़प्पन लूटने, साथियों की तुलना में अधिक चमकने, उछलने का प्रयत्न करेंगे वे औंधे मुँह गिरेंगे और अपने दाँत तोड़ लेंगे। साथी क्यों किसी का दर्प सहेंगे, किसी के बड़े बनने पर अपनी हेठी क्यों स्वीकार करें। सुन्द, उपसुन्द की कथा प्रसिद्ध है। एक सुन्दरी पर आसक्त होकर दोनों आपस में लड़ पड़े और मरकर समाप्त हो गये। मुगलों ने कई पीढ़ियों तक बाप की, भाइयों की छाती पर चढ़कर गद्दी हथियाई। मध्यकालीन सामन्तों ने ऐसे कितने ही कुकृत्य किये जिनमें उत्तराधिकारी बालकों की हत्या करके स्वयं मात्र दरबारी होते हुए भी सहासनारूढ़ हो बैठे। संस्थाओं के विघटन में यह पद लोलुपता ही प्रधान कारण रही हैं ।  चक्रवर्ती युधिष्ठिर के अनुशासन में न रहकर अपना स्वतंत्र वर्चस्व चमकाने के लिए व्याकुल कौरवों ने वह अनीति अपनाई जो अन्ततः महाभारत के रूप में महाविनाश का कारण बनी। कृष्ण का यादव वंश कोई भूखा नंगा नहीं था, लेकिन उसका हर सदस्य अपनी विशिष्टता सिद्ध करने और अन्यों को गिराने के लिए सामूहिक आत्मघात की स्थिति तक जा पहुँचा। यही सब देखकर व्यास जी ने अकाट्य सिद्धान्त के रूप में लिखा था-

    बहवः यत्र नेतारः बहवः मानकाक्षिणः ।
    सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति, स दल अवसीदति ॥

    जहाँ बहुत लोग नेता बनें, जहाँ बहुतों की महत्त्वाकाँक्षा, यश लिप्सा हो, वह दल अन्ततः नष्ट होकर रहेगा।

    युग शिल्पियों को समय रहते इस खतरे से बचना चाहिए। हममें से एक भी लोकेषणाग्रस्त बड़प्पन का महत्त्वाकाँक्षी न बनने पाए। जो युग शिल्पी विश्व विनाश को रोकने चले हैं, यदि वे महत्त्वाकाँक्षा अपनाकर साथियों को पीछे धकेलेंगे, अपना चेहरा चमकाने के लिए प्रतिद्वंद्विता खड़ी करेंगे, तो अपने पैरों कुल्हाड़ी मारेंगे और इस मिशन को बदनाम, नष्ट, भ्रष्ट करके रहेंगे, जिसकी नाव पर वे चढ़े हैं।

    भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त हुए राजसूय यज्ञ में आग्रह पूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गाँधी जी काँग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। राम- भरत में से दोनों ने राजतिलक की गेंद एक- दूसरे की ओर लुढ़काने में कोर कसर न रहने दी। चाणक्य झोंपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमंत्री का ठाठ- बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा- जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है। नहुष ने ऋषियों को पालकी में जोता और सर्प बनने का शाप ओढ़ने को विवश हुए। पेशवाओं के प्रधान न्यायाधीश राम शास्त्री की पत्नी जब राजमहल से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण के उपहार लेकर वापस लौटी तो उनने दरवाजा बंद कर लिया और कहा ब्राह्मणों की पत्नी को अपरिग्रही आदर्श का पालन करना होगा, अन्यथा विनम्रता की सम्पदा हाथ से चली जाएगी और हम लोग द्रोणाचार्य की तरह नौकर बनेंगे और कुछ भी करने के लिए तैयार होते रहेंगे।

    युग शिल्पियों को राजकाजी लोगों की तरह बड़प्पन, ठाठ- बाट, वैभव की न तो चाह करनी चाहिए और न उसके लिए अपने पुनीत क्षेत्र में हाथ पैर पीटकर ईर्ष्या, द्वेष का विष बोना चाहिए। जो जितना बड़ा हो वह उतना ही नम्र होकर रहे। अनुशासन पाले और योग्यता के अनुरूप वर्चस्व पाने का प्रयास न करे। मिशन में योग्यता का नहीं उस सज्जनता का महत्त्व है, जिसके साथ नम्रता, निरहंकारिता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है । हम में से कोई अहंकार प्रदर्शित न करे। छोटा बनकर रहे और अनुशासन पालने में अपना गौरव समझे। इस रीति- नीति का परित्याग करने वाले मान के भूखे व्यक्ति सृजन शिल्पी न बनें।

    सिख धर्म के छठवें गुरु अर्जुनदेव संगत में जूठे बर्तन माँजने का काम करते थे। गुरु गद्दी के इच्छुकों में से सभी को अयोग्य ठहरा कर गुरु रामदास ने अपना उत्तराधिकारी अर्जुनदेव को इस आधार पर घोषित किया कि वे नम्रता, निस्पृहता और अनुशासन पालन में अग्रणी पाये गये। अध्यात्म क्षेत्र में वरिष्ठता योग्यता के आधार पर नहीं, आत्मिक सद्गुणों की अग्रि परीक्षा में जाँची जाती है। इस गुण शृंखला में निरहंकारिता को, विनयशीलता को अति महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सरकारी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर पदोन्नति होती और नौकरी बढ़ती है। वही मापदण्ड यदि अध्यात्म क्षेत्र में भी अपनाया गया तो फिर भावनाओं का कहीं भी कोई महत्त्व न रहेगा। महत्त्वाकांक्षी लोग ही इस क्षेत्र पर भी अपना आधिपत्य जमाने के लिए योग्यता की दुहाई देने लगेंगे, तब सदाशयता की कोई पूछ ही नहीं रहेगी। संन्यास लेते समय अपने अब तक के वंश, यश, पद, गौरव, इतिहास का विस्मरण करना होता है। गुरु आश्रम एवं सम्प्रदाय का एक विनम्र सदस्य बनकर रहना पड़ता है। सेवा धर्म भी एक प्रकार से हल्की संन्यास परम्परा है। उसमें भूतकाल में अर्जित योग्यताओं, वरिष्ठताओं को प्रायः पूरी तरह भुला कर मिशन की गरिमा के साथ जुड़े हुए एक स्वयंसेवी के हाथों में जितनी प्रतिष्ठा लगती है, उसी में सन्तोष करना होता है। स्मरण रहे अधिक वरिष्ठ व्यक्ति अधिक विनम्र होते हैं। फलों से ड़ालियाँ लद जाने पर आम का वृक्ष धरती की ओर झुकने लगता है। अकड़ते तो पतझड़ के डंठल ही हैं।

    गाँधी जी के साबरमती आश्रम में टट्टी साफ करने से लेकर छोटे- मोटे ऐसे सभी काम अपने हाथों करने पड़ते थे, जिन्हें करने में आमतौर से बड़े आदमी अपनी हेटी मानकर नौकरों से कराते हैं। विनोबा के पवनार आश्रम में सभी आश्रमवासी कुएँ से पानी खींचते और पहरेदारी करते थे। शान्तिकुञ्ज के हर कार्यकर्त्ता को सफाई और पहरेदारी का काम अपने हाथों करना पड़ता है। यहाँ कोई मेहतर नहीं। शौचालय, स्नानघर, नालियाँ सभी मिलजुलकर साफ करते हैं। नेतागिरी के लिए विग्रह खड़े करने वाले क्षेत्र दूसरे हो सकते हैं पर सेवा धर्म में इस प्रकार की लिप्सा का थोड़ा प्रदर्शन भी सुहाता नहीं है। स्काउटिंग की जिन्होंने शिक्षा पाई है वे जानते हैं कि वहाँ अनुशासन का पालन ही वरिष्ठता का चिह्न माना जाता है। पदवी पाने के लिए विग्रह करने वालों के लिए स्वयंसेवी संगठनों में कोई स्थान नहीं होता।

    गुरुद्वारों में श्रद्धालु सेवी हर आगन्तुकों के जूते पोंछते और यथा स्थान रखते देखे जाते हैं। महिलाएँ अपनी चुनरी से सीढ़ियाँ साफ करती हैं। इजराइल की प्रधान मंत्री गोल्डा मेयर सरकारी कर्मचारियों के दफ्तर में स्वयं पहुँचती और समाधान तथा मार्गदर्शन खड़े- खड़े चलते- फिरते ही करती चलती थीं।
    केरल में जब निम्बूदरी भाई मुख्यमंत्री थे तब वे घर से दफ्तर तक साइकिल पर आते- जाते थे। यह नम्रता ही है जिसे सज्जनता का दूसरा नाम कहा जा सकता है। युग शिल्पियों की सेवा साधना में इसी आचार संहिता का परिपालन किया जाता है। नेतागिरी गाँठने वाले यहाँ पाते कुछ नहीं अपनी प्रतिष्ठा का श्राद्ध तर्पण अपने हाथों ही करते चलते हैं ।    

    साधु ब्राह्मण परम्परा में अपरिग्रही, सादगी, मितव्ययिता, नम्रता को वरिष्ठता का प्रतीक चिह्न माना गया है। विलासी, अहंकारी, उद्धत, कटुभाषी इस क्षेत्र में हेय माने जाते हैं। भिक्षाटन के लिए जाने, घर- घर से रोटी माँगकर खाने के पीछे अहंकार गलाने की वह साधना करनी पड़ती है, जिसके बिना आध्यात्मिक उत्कृष्टता पनपती ही नहीं। जोंक जहाँ अपने पंजे गड़ा लेती है वहाँ से भरपेट रक्त पीकर ही छूटती है। छुड़ाने का एक ही उपाय है कि उस पर पिसा हुआ नमक छिड़क दिया जाय तो देखते- देखते गलने लगती है और छूटकर तत्क्षण एक कोने पर गिर पड़ती है। अहमन्यता एक प्रकार की जोंक है, उससे पीछा छुड़ाने के लिए ऐसे छोटे काम अपने हाथों करने होते हैं, जिन्हें आमतौर से छोटे लोगों द्वारा किये जाने योग्य समझा जाता है ।    

    युग शिल्पी एक महान् मिशन के अंग अवयव होने के कारण ही सम्मान पाते हैं और उच्चस्तरीय व्यक्तित्व का श्रेय पाते हैं। उन्हें सार्वजनिक प्रयोजनों में ‘ मैं ’ ‘ मैं ’ शब्द का उपयोग न करके ‘ हम ’ ‘ हम लोग ’ कहना चाहिए। दोष दुर्गुणों की, मूल अपराधों की स्वीकृति में तो ‘मैं’ शब्द का उपयोग हो सकता है किन्तु श्रेय तो सभी के सम्मिलित प्रयत्नों से बन पड़ा है, इसलिए उसके किए जाने में सभी के मिले- जुले प्रयत्न का संकेत रहना चाहिए। साथियों को स्नेह, दुलार, सहयोग देने में हम अग्रणी रहें। सफलता की चर्चा में उनके श्रम सहयोग का उल्लेख करें। कर्तव्य पालन को सर्वोपरि मानें और अधिकार के दावेदार न बनें। ऐसी निरहंकारिता का खाद- पानी पाकर ही वे सप्त महाव्रत कल्पवृक्ष की तरह फलते, फूलते और सिद्ध सफलताओं से लादते हैं, जिन्हें सेवा क्षेत्र में काम करने वालों के उपलब्ध होने वाले दिव्य वरदान कहा गया है ।      
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