• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • पहला अध्याय
    • दूसरा अध्याय
    • तीसरा अध्याय
    • चौथा अध्याय
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • पहला अध्याय
    • दूसरा अध्याय
    • तीसरा अध्याय
    • चौथा अध्याय
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - मै क्या हूँ ?

Media: TEXT
Language: EN
SCAN TEXT SCAN


तीसरा अध्याय

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 2 4 Last
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्घिर्यो बुद्घेः परतस्तु सः॥ गीता ३/४२॥

शरीर से इन्द्रियाँ परे (सूक्ष्म) हैं। इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और बुद्धि  से परे आत्मा है। आत्मा तक पहुँचने के लिए क्रमशः सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी। पिछले अध्याय में आत्मा को शरीर और इन्द्रियों से ऊपर अनुभव करने के साधन बताये गये थे। इस अध्याय में मन का स्वरूप समझने और उससे ऊपर आत्मा को सिद्घ करने का हमारा प्रयत्न होगा। प्राचीन दर्शनशास्त्र मन और बुद्घि को अलग-अलग गिनता है। आधुनिक दर्शनशास्त्र मन की ही सर्वोच्च श्रेणी को बुद्घि मानता है। इस बहस में आपको कोई खास दिलचस्पी लेने की आवश्यकता नहीं है। दोनों का मतभेद इतना बारीक है कि मोटी निगाह से वह कुछ भी प्रतीत नहीं होता। दोनों ही मन तथा बुद्घि को मानते हैं। दोनों ही स्थूल मन से बुद्घि को सूक्ष्म मानते हैं। हम पाठकों की सुविधा के लिए बुद्घि को मन की ही उन्नत कोटि में गिन लेंगे और आगे का अभ्यास आरम्भ करेंगे।

अब तक तुमने यह पहचाना है कि हमारे भौतिक आवरण क्या हैं? अब इस पाठ में यह बताने का प्रयत्न किया जायगा कि असली अहम् 'मैं ' से कितना परे है। वह सूक्ष्म परीक्षण है। भौतिक आवरणों का अनुभव जितनी आसानी से हो जाता है, उतना सूक्ष्म शरीर में से अपने वास्तविक अहम् को पृथक कर सकना आसान नहीं है। इसके लिए कुछ अधिक योग्यता और ऊँची चेतना होनी चाहिए। भौतिक पदार्थों से पृथकता का अनुभव हो जाने पर भी अहम् के साथ लिपटा हुआ सूक्ष्म शरीर गड़बड़ में डाल देता है। बहुत से लोग मन को ही आत्मा समझने लगे हैं। आगे हम मन के रूप की व्याख्या न करेंगे, पर ऐसे उपाय बतावेंगे जिससे स्थूल शरीर और भद्दे 'मैं' के टुकड़े-टुकड़े कर सको और उनमें से तलाश कर सको कि इनमें अहम् कौन-सा है? और उनमें भिन्न वस्तुएँ कौन-सी हैं? इस विश्लेषण को तुम मन के द्वारा कर सकते हो और उसे इसके लिए मजबूर कर सकते हो कि इन प्रश्नों का सही उत्तर दे।

शरीर और आत्मा के बीच की चेतना मन है। साधकों की सुविधा के लिए मन को तीन भागों में बाँटा जाता है। मन के पहिले भाग का नाम प्रवृत्त मानस है। यह पशु-पक्षी आदि अविकसित जीवों और मनुष्यों में समान रूप से पाया जाता है। गुप्त मन और सुप्त मानस भी उसे कहते हैं। शरीर को स्वाभाविक और जीवन्त बनाये रखना इसी के हाथ में है। हमारी जानकारी के बिना भी शरीर का व्यापार अपने आप चलता रहता है। भोजन की पाचन क्रिया, रक्त का घूमना, क्रमशः रस, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, वीर्य का बनना, मल त्याग, श्वाँस-प्रश्वाँस, पलकें खुलना, बन्द होना आदि कार्य अपने आप होते रहते हैं। आदतें पड़ जाने का कार्य इसी मन के द्वारा होता है। यह मन देर में किसी बात को ग्रहण करता है पर जिसे ग्रहण कर लेता है, उसे आसानी से छोड़ता नहीं। हमारे पूर्वजों के अनुभव और हमारे वे अनुभव जो पाशविक जीवन से उठकर इस अवस्था में आने तक प्राप्त हुए हैं, इसी में जमा हैं। मनुष्य एक अल्प बुद्घि साधारण प्राणी था। उस समय की ईर्ष्या, द्वेष, युद्घ-प्रवृत्ति, स्वार्थ, चिन्ता आदि साधारण वृत्तियाँ इसी के एक कोने में पड़ी रहती हैं। पिछले अनेक जन्मों के नीच स्वभाव जिन्हें प्रबल प्रयत्नों द्वारा काटा नहीं गया है, इसी विभाग में इकट्ठे रहते हैं। यह एक अद्भुत अजायबघर है, जिसमें सभी तरह की चीजें जमा हैं। कुछ अच्छी और बहुमूल्य हैं, तो कुछ सड़ी-गली, भद्दी तथा भयानक भी हैं। जंगली मनुष्यों, पशुओं तथा दुष्टों में जो लोभ, हिंसा, क्रूरता, आवेश, अधीरता आदि वृत्तियाँ होती हैं, वह भी सूक्ष्म रूपों में इसमें जमा हैं। यह बात दूसरी है कि कहीं उच्च मन द्वारा पूरी तरह से वे वश में रखी जाती हैं कहीं कम। राजस और तामसी लालसाएँ इसी मन से सम्बन्ध रखती हैं। इन्द्रियों के भोग, घमण्ड, क्रोध, भूख, मैथुनेच्छा, निद्रा आदि प्रवृत्त मानस के रूप है।

प्रवृत्त मन से ऊपर दूसरा मन है, जिसे 'प्रबुद्ध मानस' कहना चाहिए। इस पुस्तक को पढ़ते समय तुम उसी मन का उपयोग कर रहे हो। इसका काम सोचना, विचारना, विवेचना करना, तुलना करना, कल्पना, तर्क तथा निर्णय आदि करना है। हाजिर जबावी, बुद्घिमत्ता, चतुरता, अनुभव, स्थिति का परीक्षण यह सब प्रबुद्घ मन द्वारा होते हैं। याद रखो जैसे प्रवृत्त मानस 'अहम्' नहीं है उसी प्रकार प्रबुद्घ मानस भी वह नहीं है। कुछ देर विचार करके तुम इसे आसानी के साथ 'अहम्' से अलग कर सकते हो। इस छोटी-सी पुस्तक में बुद्घि के गुण धर्मों का विवेचन नहीं हो सकता, जिन्हें इस विषय का अधिक ज्ञान प्राप्त करना हो, वे मनोविज्ञान के उत्तमोत्तम ग्रन्थों का मनन करें। इस समय इतना काफी है कि तुम अनुभव कर लो कि प्रबुद्घ मन भी एक आच्छादन है न कि 'अहम्'।

तीसरे सर्वोच्च मन का नाम 'अध्यात्म मानस' है। इसका विकास अधिकांश लोगों में नहीं हुआ होता। मेरा विचार है कि तुम में यह कुछ-कुछ विकसने लगा है, क्योंकि इस पुस्तक को मन लगाकर पढ़ रहे हो और इसमें वर्णित विषय की ओर आकर्षित हो रहे हो। मन के इस विभाग को हम लोग उच्चतम विभाग मानते हैं और आध्यात्मिकता, आत्म-प्रेरणा, ईश्वरीय सन्देश, प्रतिभा आदि के रूप में जानते हैं। उच्च भावनाएँ मन के इसी भाग में उत्पन्न होकर चेतना में गति करती हैं। प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, न्याय, निष्ठा, उदारता, धर्म प्रवृत्ति, सत्य, पवित्रता, आत्मीयता आदि सब भावनाएँ इसी मन से आती हैं। ईश्वरीय भक्ति इसी मन में उदय होती है। गूढ़ तत्त्वों का रहस्य इसी के द्वारा जाना जाता है। इस पाठ में जिस विशुद्घ 'अहम्' की अनुभूति के शिक्षण का हम प्रयत्न कर रहे हैं, वह इसी 'अध्यात्म मानस' के चेतना क्षेत्र से प्राप्त हो सकेगी। परन्तु भूलिए मत, मन का यह सर्वोच्च भाग भी केवल उपकरण ही है। 'अहम्' यह भी नहीं है।

तुम्हें यह भ्रम न करना चाहिए कि हम किसी मन की निन्दा और किसी की स्तुति करते हैं और भार या बाधक सिद्घ करते हैं। बात ऐसी नहीं है। हम सोचते तो यह हैं कि मन की सहायता से ही तुम अपनी वास्तविक सत्ता और आत्म-ज्ञान के निकट पहुँचे हो और आगे भी बहुत दूर तक उसकी सहायता से अपना मानसिक विकास कर सकोगे इसलिए मन का प्रत्येक विभाग अपने स्थान पर बहुत अच्छा है, बशर्ते कि उसका ठीक उपयोग किया जाय।

साधारण लोग अब तक मन के निम्न भागों को ही उपयोग में लाते हैं, उनके मानस-लोक में अभी ऐसे असंख्य गुप्त प्रकट स्थान हैं जिनकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकी है अतएव मन को कोसने के स्थान पर आचार्य लोग दीक्षितों को सदैव यह उपदेश देते हैं कि उस गुप्त शक्ति को त्याज्य न ठहराकर ठीक प्रकार से क्रियाशील बनाओ।

यह शिक्षा जो तुम्हें दी जा रही है मन के द्वारा ही क्रिया रूप में आ सकती है और उसी के द्वारा समझने, धारण करने एवं सफल होने का कार्य हो सकता है इसलिए हम सीधे तुम्हारे मन से बात कर रहे हैं, उसी से निवेदन कर रहे हैं कि महोदय! अपनी उच्च कक्षा से आने वाले ज्ञान को ग्रहण कीजिए और उसके लिए अपना द्वार खोल दीजिए। हम आपकी बुद्घि से प्रार्थना करते हैं-भगवती! अपना ध्यान उस महातत्त्व की ओर लगाइए और सत्य के अनुभवी, अपने आध्यात्मिक मन द्वारा आने वाली दैवी चेतनाओं में कम बाधा दीजिए।

अभ्यास

सुख और शान्तिपूर्वक स्थित होकर आदर के साथ उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बैठो, जो उच्च मन की उच्च कक्षा द्वारा तुम्हें प्राप्त होने को है।
पिछले पाठ में तुमने समझा था कि 'मैं' शरीर से परे कोई मानसिक चीज है, जिसमें विचार, भावना और वृत्तियाँ भरी हुई हैं। अब इससे आगे बढ़ना होगा और अनुभव करना होगा कि यह विचारणीय वस्तुएँ आत्मा से भिन्न हैं।

विचार करो कि द्वेष, क्रोध, ममता, ईर्ष्या, घृणा, उन्नति आदि की असंख्य भावनाएँ मस्तिष्क में आती रहती हैं। उनमें से हर एक को तुम अलग का सकते हो, जाँच कर सकते हो, विचार कर सकते हो, खण्डित कर सकते हो, उनके उदय, वेग और अन्त को भी जान सकते हो। कुछ दिन के अभ्यास से अपनी भावनाओं की परीक्षा करने का ऐसा अभ्यास प्राप्त कर लोगे मानो अपने किसी दूसरे मित्र की भावनाओं के उदय, वेग और अन्त का परीक्षण कर रहे हो। यह सब भावनाएँ तुम्हारे चिन्तन केन्द्र में मिलेंगी। उनके स्वरूप का अनुभव कर सकते हो और उन्हें टटोल तथा हिला-डुलाकर देख सकते हो। अनुभव करो कि यह भावनाएँ तुम नहीं हो। ये केवल ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें आप मन के थैले में लादे फिरते हो। अब उन्हें त्यागकर आत्म स्वरूप की कल्पना करो। ऐसी भावना सरलता पूर्वक कर सकोगे।

उन मानसिक वस्तुओं को पृथक करके तुम उन पर विचार कर रहे हो, इसी से सिद्घ होता है कि वह वस्तुएँ तुम से पृथक हैं। पृथकत्व की भावना अभ्यास द्वारा थोड़े समय बाद लगातार बढ़ती जायगी और शीध्र ही एक महान आकार में प्रकट होगी।

यह मत सोचिए कि हम इस शिक्षा द्वारा यह बता रहे हैं कि भावनाएँ कैसे त्याग करें। यदि तुम इसी शिक्षा की सहायता से दुष्प्रवृत्तियों को त्याग सकने की क्षमता प्राप्त कर सको, तो बहुत प्रसन्नता की बात है, पर हमारा यह मन्तव्य नहीं है, हम इस समय तो यही सलाह देना चाहते हैं कि अपनी बुरी-भली सब दुष्प्रवृत्तियों को जहाँ की तहाँ रहने दो और ऐसा अनुभव करो कि 'अहम्' इन सबसे परे एवं स्वतंत्र है। जब तुम 'अहम्' के महान् स्वरूप का अनुभव कर लो, तब लौट आओ और उन वृत्तियों को जो अब तक तुम्हें अपनी चाकर बनाये हुए थीं, मालिक की भाँति उचित उपयोग में लाओ, अपनी वृत्तियों को अहम् से परे के अनुभव में पटकते समय डरो मत। अभ्यास समाप्त करने के बाद फिर वापस लौट आओगे और उनमें से अच्छी वृत्तियों को इच्छानुसार काम में ला सकोगे। अमुक वृत्ति ने मुझे अधिक बाँध लिया है, उससे कैसे छूट सकता हूँ, इस प्रकार की चिन्ता मत करो। यह चीजें बाहर की हैं। इसके बंधन में बँधने से पहले 'अहम्' था और बाद में भी बना रहेगा, जब अपने को पृथक् करके उनका परीक्षण कर सकते हो, तो क्या कारण है कि एक ही झटके में उठाकर अलग नहीं फेंक सकोगे? ध्यान देने योग्य बात यह है कि तुम इस बात का अनुभव और विश्वास कर रहे हो कि 'मैं' बुद्घि और इन शक्तियों का उपयोग कर रहा हूँ। यही 'मैं' जो शक्तियों को उपकरण मानता हैं, मन का स्वामी 'अहम् 'है।

उच्च आध्यात्मिक मन से आई प्रेरणा भी इसी प्रकार अध्ययन की जा सकती है। इसलिए उन्हें भी अहम् से भिन्न माना जायगा। आप शंका करेंगे कि उच्च आध्यात्मिक प्रेरणा का उपयोग उस प्रकार नहीं किया जा सकता, इसलिए सम्भव है वे प्रेरणाएँ 'अहम्' वस्तुएँ हों? आज हमें तुमसे इस विषय पर कोई विवाद नहीं करना है, क्योंकि तुम आध्यात्मिक मन की थोड़ी बहुत जानकारी को छोड़कर अभी इसके सम्बन्ध में और कुछ नहीं जानते। साधारण मन के मुकाबिले में वह मन ईश्वरीय भूमिका के समान है। जिन तत्त्वदर्शियों ने अहम् ज्योति का साक्षात्कार किया है और जो विकास ही उच्च, अत्युच्च सीमा तक पहुँच गये हैं, वे योगी बतलाते हैं कि अहम् आध्यात्मिक मन से ऊपर रहता है और उसको अपनी ज्योति से प्रकाशित करता है, जैसे पानी पर पड़ता हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब सूर्य जैसा ही मालूम पड़ता है। परन्तु सिद्घों का अनुभव है कि वह केवल धुँधली तस्वीर मात्र है। चमकता हुआ आध्यात्मिक मन यदि प्रकाशबिम्ब है, तो 'अहम्' अखण्ड ज्योति है, उस उच्च मन में होता हुआ आत्मिक प्रकाश पाता है, इसी से वह अध्यात्मिक मन इतना प्रकाशमय प्रतीत होता है। ऐसी दशा में उसे ही 'अहम्' मान लेने का भ्रम हो जाता है। असल में वह भी 'अहम्' है नहीं। 'अहम्' उस प्रकाश मणि के समान है, जो स्वयं सदैव समान रूप से प्रकाशित रहती है, किन्तु कपड़ों से ढकी रहने के कारण अपना प्रकाश बाहर लाने में असमर्थ होती है। ये कपड़े जैसे-जैसे हटते जाते हैं, वैसे ही वैसे प्रकाश अधिक स्पष्ट होता जाता है। फिर भी कपड़ों के हटने या उनके और अधिक मात्रा में पड़ जाने के कारण मणि के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता।

इस चेतना में ले जाने का इतना ही अभिप्राय है कि 'अहम्' की सर्वोच्च भावना में जागकर तुम एक समुन्नत आत्मा बन जाओ और अपने उपकरणों का ठीक उपयोग करने लगो। जो पुराने, अनावश्यक, रद्दी और हानिकर परिधान हैं, उन्हें उताकर फेंक सको और नवीन एवं अद्भुत क्रियाशील औजारों को उठाकर उनके द्वारा अपने सामने के कार्यों को सुन्दरता और सुगमता के साथ पूरा कर सको, अपने को सफल एवं विजयी घोषित कर सको।

इतना अभ्यास और अनुभव कर लेने के बाद तुम पूछोगे कि अब क्या बचा, जिसे 'अहम्' से भिन्न न गिनें? इसके उत्तर में हमें कहना है कि 'विशुद्घ आत्मा।' इसका प्रमाण यह है कि अपने अहम् को शरीर, मन आदि अपनी सब वस्तुओं से पृथक करने का प्रयत्न करो। छोटी चीजों से लेकर उससे सूक्ष्म, उससे सूक्ष्म, उससे परे से परे वस्तुओं को छोड़ते-छोड़ते विशुद्घ आत्मा तक पहुँच जाओगे। क्या अब इससे भी परे कुछ हो सकता है? कुछ नहीं। विचार करने वाला-परीक्षा करने वाला और परीक्षा की वस्तु, दोनों एक वस्तु नहीं हो सकते। सूर्य अपनी किरणों द्वारा अपने ही ऊपर नहीं चमक सकता। तुम विचार और जाँच की वस्तु नहीं हो। फिर भी तुम्हारी चेतना कहती है 'मैं' हूँ। यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है। अपनी कल्पना शक्ति, स्वतन्त्रता शक्ति लेकर इस 'अहम्' को पृथक करने का प्रयत्न कर लीजिए, परन्तु फिर भी हार जाओगे और उससे आगे नहीं बढ़ सकोगे। अपने को मरा हुआ नहीं मान सकते। यही विशुद्घ आत्मा अविनाशी, अविकारी, ईश्वरीय समुद्र की बिन्दु परमात्मा की किरण है।

हे साधक! अपनी आत्मा का अनुभव प्राप्त करने में सफल होओ और समझो कि तुम सोते हुए देवता हो। अपने भीतर प्रकृति की महान सत्ता धारण किए हुए हो, जो कार्यरूप में परिणत होने के लिए हाथ बाँधकर खड़ी हुई आज्ञा माँग रही है। इस स्थान तक पहुँचने में बहुत कुछ समय लगेगा। पहली मंजिल तक पहुँचने में भी कुछ देर लगेगी, परन्तु आध्यात्मिक विकास की चेतना में प्रवेश करते ही आँखें खुल जायेंगी। आगे का प्रत्येक कदम साफ होता जायेगा और प्रकाश प्रकट होता जायेगा।

इस पुस्तक के अगले अध्याय में हम यह बताएँगे कि आपकी विशुद्घ आत्मा भी स्वतंत्र नहीं, वरन् परमात्मा का ही एक अंश है और उसी में किस प्रकार ओत-प्रोत रही है? परन्तु उस ज्ञान को ग्रहण करने से पूर्व तुम्हें अपने भीतर 'अहम्' की चेतना जगा लेनी पड़ेगी। हमारी इस शिक्षा को शब्द-शब्द और केवल शब्द समझकर उपेक्षित मत करो, इस निर्बल व्याख्या को तुच्छ समझकर तिरस्कृत मत करो, यह एक बहुत सच्ची बात बताई जा रही है। तुम्हारी आत्मा इन पंक्तियों को पढ़ते समय आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने की अभिलाषा कर रही है। उसका नेतृत्व ग्रहण करो और आगे को कदम उठाओ। 

अब तक बताई हुई मानसिक कसरतों का अभ्यास कर लेने के बाद 'अहम्' से भिन्न पदार्थों का तुम्हें पूरा निश्चय हो जायगा। इस सत्य को ग्रहण कर लेने के बाद अपने को मन और वृत्तियों का स्वामी अनुभव करोगे और तब उन सब चीजों को पूरे बल और प्रभाव के साथ काम में लाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लोगे।

इस महान तत्त्व की व्याख्या में हमारे यह विचार और शब्दावली हीन, शिथिल और सस्ते प्रतीत होते होंगे। यह विषय अनिर्वचनीय है। वाणी की गति वहाँ तक नहीं है। गुड़ का मिठास जबानी जमा खर्च द्वारा नहीं समझाया जा सकता। हमारा प्रयत्न केवल इतना ही है कि तुम ध्यान और दिलचस्पी की तरफ झुक पड़ो और इन कुछ मानसिक कसरतों को करने के अभ्यास में लग जाओ। ऐसा करने से मन वास्तविकता का प्रमाण पाता जायेगा और आत्म-स्वरूप में दृढ़ता होती जायेगी। जब तक स्वयं अनुभव न हो जाय, तब तक ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एक बार जब तुम्हें उस सत्य के दर्शन हो जायेंगे तो वह फिर दृष्टि से ओझल नहीं हो सकेगा और कोई वाद-विवाद उस पर अविश्वास नहीं करा सकेगा।

अब तुम्हें अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। तुम शासक हो और मन आज्ञा-पालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक तुम्हारे ऊपर हो रहे थे, उन सबको फड़फड़ाकर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। तुम्हें आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है, अपने को राजा अनुभव करो। दृढ़तापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकर करें और नये सन्धि-पत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य-प्रबन्ध को सर्वोच्च एवं सुन्दरतम बनाने में रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।

लोग समझते हैं कि मन ने हमें ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि हमारी वृत्तियाँ हमें बुरी तरह काँटों में घसीटे फिरती हैं और तरह-तरह से त्रास देकर दुखी बनाती हैं। साधक इन दुखों से छुटकारा पा जावेंगे, क्योंकि वह उन सब उद्गमों से परिचित हैं और यहाँ काबू पाने की योग्यता सम्पादन कर चुके हैं। किसी बड़े मिल में सैकड़ों घोड़ों की ताकत से चलने वाला इंजन और उसके द्वारा संचालित होने वाली सैकड़ों मशीनें तथा उनके असंख्य कल-पुर्जे किसी अनाड़ी को डरा देंगे। वह उस घर में घुसते ही हड़बड़ा जायगा। किसी पुर्जे में धोती फँस गई, तो उसे छुटाने में असमर्थ होगा और अज्ञान के कारण बड़ा त्रास पावेगा। किन्तु वह इँजीनियर जो मशीनों के पुर्जे-पुर्जे से परिचित है और इंजन चलाने के सारे सिद्धान्त को भली भाँति समझा हुआ है, उस कारखाने में घुसते हुए तनिक भी न घबरायेगा और गर्व के साथ उन दैत्याकार यन्त्रों पर शासन करता रहेगा, जैसे एक महावत हाथी पर और सपेरा भयंकर विषधरों पर करता है। उसे इतने बड़े यंत्रालय का उत्तरदायित्व लेते हुए भय नहीं अभिमान होगा। वह हर्ष और प्रसन्नतापूर्वक शाम को मिल मालिक को हिसाब देगा, बढ़िया माल की इतनी बड़ी राशि उसने थोड़े समय में ही तैयार कर दी है। उसकी फूली हुई छाती पर से सफलता का गर्व मानो टपका पड़ रहा है। जिसने अपने 'अहम्' और वृत्तियों का ठीक-ठीक स्वरूप और सम्बन्ध जान लिया है, वह ऐसा ही कुशल इंजीनियर, यंत्र संचालक है। अधिक दिनों का अभ्यास और भी अद्भुत शक्ति देता है। जागृत मन ही नहीं, उस समय प्रवृत्त मन, गुप्त मानस भी शिक्षित हो गया होता है और वह जो आज्ञा प्राप्त करता है, उसे पूरा करने के लिए चुपचाप तब भी काम किया करता है, जब लोग दूसरे कामों मे लगे होते हैं या सोये होते हैं। गुप्त मन जब उन कार्यों को पूरा सामने रखता है, तब नया साधक चौंकता है कि यह अदृष्ट सहायता है, यह अलौकिक करामात है, परन्तु योगी उन्हें समझाता है कि वह तुम्हारी अपनी अपरिचित योग्यता है, इससे असंख्य गुनी प्रतिभा तो अभी तुम में सोई पड़ी है।

संतोष और धैर्य धारण करो कार्य कठिन है, पर इसके द्वारा जो पुरस्कार मिलता है, उसका लाभ बड़ा भारी है। यदि वर्षों के कठिन अभ्यास और मनन द्वारा भी तुम अपने पद, सत्ता, महत्व, गौरव, शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको, तब भी वह करना ही चाहिए। यदि तुम इन विचारों में हमसे सहमत हो, तो केवल पढ़कर ही संतुष्ट मत हो जाओ। अध्ययन करो, मनन करो, आशा करो, साहस करो और सावधानी तथा गम्भीरता के साथ इस साधन-पथ की ओर चल पड़ो।

इस पाठ का बीज मंत्र-

-        'मैं' सत्ता हूँ। मन मेरे प्रकट होने का उपकरण है।

-        'मैं' मन से भिन्न हूँ। उसकी सत्ता पर आश्रित नहीं हूँ।

-        'मैं' मन का सेवक नहीं, शासक हूँ।

-     'मैं' बुद्धि, स्वभाव, इच्छा और अन्य समस्त मानसिक उपकरणों को अपने से अलग कर सकता हूँ। तब जो कुछ शेष रह जाता है, वह 'मैं' हूँ।

-        'मैं' अजर-अमर, अविकारी और एक रस हूँ।
-'मैं हूँ'।.....



First 2 4 Last


Other Version of this book



मैं क्या हूँ ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

હુ કોણ છું?
Type: SCAN
Language: EN
...

मै क्या हूँ ?
Type: TEXT
Language: EN
...

What am I ?
Type: SCAN
Language: EN
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • पहला अध्याय
  • दूसरा अध्याय
  • तीसरा अध्याय
  • चौथा अध्याय
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj