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Books - मै क्या हूँ ?

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चौथा अध्याय

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First 3 5 Last
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत्।

'संसार में जितना भी कुछ है वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।'

पिछले अध्यायों में आत्म-स्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्न किया गया है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बताने का प्रयत्न किया जायेगा। अब तक जिज्ञासु 'अहम्' का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वह उससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत् तत्व परमेश्वर का ही वह अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।

तुम्हें अब इस तरह अनुभव करना चाहिए कि 'मैं' अब तक अपने को जितना समझता हूँ उससे कई गुना बड़ा हूँ। 'अहम्' की सीमा समस्त ब्रह्माण्डों के छोर तक पहुँचती है। वह परमात्म शक्ति की सत्ता में समाया हुआ है और उसी से इस प्रकार पोषण ले रहा है, जैसे गर्भस्थ बालक अपनी माता के शरीर से। वह परमात्मा का निज तत्त्व है। तुम्हें आत्मा परमात्मा की एकता का अनुभव करना होगा और क्रमशः अपनी अहन्ता को बढ़ाकर अत्यन्त महान् कर देने को अभ्यास में लाना होगा। तब उस चेतना में जग सकोगे, जहाँ पहुँच कर योग के आचार्य कहते हैं 'सोहम्'।          

आइए, अब इसी अभ्यास की यात्रा आरम्भ करें। अपने चारों ओर दूर तक नजर फैलाओ और अन्तर नेत्रों से जितनी दूरी तक के पदार्थों को देख सकते हो देखो, प्रतीत होगा कि एक महान् विश्व चारों ओर बहुत दूर, बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह विश्व केवल ऐसा ही नहीं है जैसा मोटे तौर पर समझा जाता है, वरन् यह एक चेतना का समुद्र है। प्रत्येक परमाणु आकाश एवं ईथर तत्त्व में बराबर गति करता हुआ आगे को बह रहा है। शरीर के तत्त्व हर घड़ी बदल रहे हैं। आज जो रासायनिक पदार्थ एक वनस्पत्ति में है, वह कल भोजन द्वारा हमारे शरीर में पहुँचेगा और परसों मल रूप में निकलकर अन्य जीवों के शरीर का अंग बन जायगा। डाक्टर बताते हैं कि शारीरिक कोष हर घड़ी बदल रहे हैं, पुराने नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं। यद्यपि देखने में शरीर ज्यों का त्यों रहता है, पर कुछ ही समय में वह बिलकुल बदल जाता है और पुराने शरीर का एक कण भी बाकी नहीं बचता। वायु, जल और भोजन द्वारा नवीन पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं और श्वाँस क्रिया तथा मल त्याग के रूप में निकल रहे हैं। भौतिक पदार्थ बराबर अपनी धारा में बह रहे हैं। नदी-तल में पड़े हुए कछुए के ऊपर होकर नवीन जलधारा बहती रहती है, तथापि वह केवल इतना ही अनुभव करता है कि पानी मुझे घेरे हुए है और मैं पानी में पड़ा हुआ हूँ। हम लोग भी उस निरन्तर बहने वाली प्रकृति-धारा से भलीभाँति परिचित नहीं होते, तथापि वह पल भर भी ठहरे बिना बराबर गति करती रहती है। यह मनुष्य शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् अन्य जीवधारियों, वनस्पतियों और जिन्हें हम जड़ मानते हैं, उन सब पदार्थों में होती हुई आगे बढ़ती रहती है। हर चीज हर घड़ी बदल रही है। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय, इस प्रवाह की एक बूँद को क्षण भर भी रोककर नहीं रखा जा सकता यह भौतिक सत्य, आध्यात्मिक सत्य भी है। फकीर गाते हैं-'यह दुनियाँ आनी जानी है।'          

भौतिक द्रव्य प्रवाह को तुम समझ गए होगे। यही बात मानसिक चेतनाओं की है। विचारधाराएँ, शब्दावलियाँ, संकल्प आदि का प्रवाह भी ठीक इसी प्रकार जारी है। जो बातें एक सोचता है, वही बात दूसरे के मन में उठने लगती है। दुराचार के अड्डों का वातावरण ऐसा घृणित होता है कि वहाँ जाते-जाते नये आदमी का दम घुटने लगता है। शब्दधारा अब वैज्ञानिक यन्त्रों के वश में आ गई है। रेडियो, बेतार का तार शब्द-लहरों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मस्तिष्क में आने-जाने वाले विचारों के अब फोटो लिए जाने लगे हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुक आदमी किन विचारों को ग्रहण कर रहा है और कैसे विचार छोड़ रहा है ? बादलों की तरह विचार प्रवाह आकाश में मँडराता रहता है और लोगों की आकर्षण शक्ति द्वारा खींचा व फेंका जा सकता है। यह विज्ञान बड़ा महत्वपूर्ण और विस्तृत है, इस छोटी पुस्तक में उसका वर्णन कठिन हैं।

मन के तीनों अंग-प्रवृत्त मानस, प्रबुद्घ मानस, आध्यात्मिक मानस भी अपने स्वतंत्र प्रवाह रखते हैं अर्थात् यों समझना चाहिए कि 'नित्यः सर्वगतः स्थाणु रचलोऽयं सनातनः।' आत्मा को छोड़कर शेष सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक परमाणु गतिशील हैं। यह सब वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थानों को चलती रहती हैं। जिस प्रकार शरीर के पुराने तत्त्व आगे बढ़ते और नये आते रहते हैं, उसी प्रकार मानसिक पदार्थों के बारे में भी समझना चाहिए। उस दिन आपका निश्वय था कि आजीवन ब्रह्राचारी रहूँगा, आज विषय भोगों से नहीं अघाते। उस दिन निश्चय था अमुक व्यक्ति की जान लेकर अपना बदला चुकाऊँगा, आज उनके मित्र बने हुए हैं। उस दिन रो रहे थे कि किसी भी प्रकार धन कमाना चाहिए, आज सब कुछ त्याग कर सन्यासी हो रहे हैं। ऐसे असंख्य परिवर्तन होते रहते हैं। क्यों? इसलिए कि पुराने विचार चले गये और नये उनके स्थान पर आ गए।

विश्व की दृश्य-अदृश्य सभी वस्तुओं की गतिशीलता की धारणा, अनुभूति और निष्ठा यह विश्वास करा सकती है कि सम्पूर्ण संसार एक है। एकता के आधार पर उसका निर्माण है। मेरी अपनी वस्तु कुछ भी नहीं है या सम्पूर्ण वस्तुएँ मेरी हैं। तेज बहती हुई नदी के बीच धार में तुम्हें खड़ा कर दिया जाय और पूछा जाय कि पानी के कितने और कौन से परमाणु तुम्हारे हैं, तब क्या उत्तर दोगे? विचार करोगे कि पानी की धारा बराबर बह रही है। पानी के जो परमाणु इस समय मेरे शरीर को छू रहे हैं, पलक मारते-मारते बहुत दूर निकल जायेंगे। जल-धारा बराबर मुझसे छूकर चलती जा रही है, तब या तो सम्पूर्ण जल धारा को अपनी बनाऊँ या यह कहूँ कि मेरा कुछ भी नहीं है, यह विचार कर सकते हो।

संसार जीवन और शक्ति का समुद्र है। जीव इसमें होकर अपने विकास के लिए आगे को बढ़ता जाता है और अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएँ लेता और छोड़ता जाता है। प्रकृति मृतक नहीं है। जिसे हम भौतिक पदार्थ कहते हैं, उसके समस्त परमाणु जीवित हैं। वे सब शक्ति से उत्तेजित होकर लहलहा, चल, सोच और जी रहे हैं। इसी जीवित समुद्र की सत्ता के कारण हम सबकी गतिविधि चल रही है। एक ही तालाब की हम सब मछलियाँ हैं। विश्व व्यापी शक्ति, चेतना और जीवन के परमाणु विभिन्न अभिमानियों को झंकृत कर रहे हैं।

उपरोक्त अनुभूति आत्मा के उपकरणों और वस्त्रों के विस्तार के लिए काफी है। हमें सोचना चाहिए कि यह सब शरीर मेरे हैं, जिनमें एक ही चेतना ओत-प्रोत हो रही है। जिन भौतिक वस्तुओं तक तुम अपनापन सीमित रख रहे हो, अब उससे बहुत आगे बढ़ना होगा और सोचना होगा कि 'इस विश्व सागर की इतनी बूँदें ही मेरी हैं, यह मानस भ्रम है। मैं इतना बड़ा वस्त्र पहने हुए हूँ, जिसके अंचल में समस्त संसार ढँका हुआ है।' यही आत्म-शरीर का विस्तार है। इसका अनुभव उस श्रेणी पर ले पहुँचेगा, जिस पर पहुँचा हुआ मनुष्य योगी कहलाता है। गीता कहती है :

सर्व भूतस्य चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र सम दर्शनः।

अर्थात्-सर्वव्यापी अनन्त चेतना में एकीभाव से स्थित रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है।

अपने परिधान का विस्तार करता हुआ सम्पूर्ण जीवों के बाह्य स्वरूपों में आत्मीयता का अनुभव करता है। आत्माओं की आत्माओं में तो आत्मीयता है ही, ये सब आपस में परमात्म सत्ता द्वारा बँधे हुए हैं। अधिकारी आत्माएँ आपस में एक हैं। इस एकता के ईश्वर बिलकुल निकट हैं। यहाँ हम परमात्मा के दरबार में प्रवेश पाने योग्य और उनमें घुल-मिल जाने योग्य होते हैं वह दशा अनिर्वचनीय है। इसी अनिर्वचनीय आनन्द की चेतना में प्रवेश करना समाधि है और उनका निश्चित परिणाम आजादी, स्वतन्त्रता, स्वराज्य, मुक्ति, मोक्ष होगा।

एकता अनुभव करने का अभ्यास

ध्यानास्थित होकर भौतिक जीवन प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रह्माण्डों में एक ही चेतना शक्ति लहरा रही है, उसी के समस्त विकार भेद से पंचतत्त्व निर्मित हुए हैं। इन्द्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुःखमय अनुभव होते हैं, वह तत्त्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रिया हैं, जो इन्द्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारें उत्पन्न करती हैं। समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्त्व एक ही है और उसमें 'मैं' भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रहा हूँ जैसे दूसरे। यह एक साझे का कम्बल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं। इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्घि को ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और हृदय को स्पष्टतः अनुभव करने दो।

स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्त्व की एकता की कल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भाँति एक ही तत्त्व है। तुम्हारा मन महामन की एक बूँद है। जो ज्ञान और विचार मस्तिष्क में भरे हुए हैं, वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया जाता है। यह भी एक अखण्ड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्र रूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो।

अपने शारीरिक और मानसिक वस्त्रों के विस्तार की भावना दृढ़ होते ही संसार तुम्हारा और तुम संसार के हो जाओगे। कोई वस्तु विरानी न मालूम पड़ेगी। यह सब मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं, इन दोनों वाक्यों में तब तुम्हें कुछ भी अन्तर मालूम न पड़ेगा। वस्त्रों से ऊपर आत्मा को देखो- यह नित्य, अखण्ड, अजर, अमर, अपरिवर्तनशील और एकरस है। वह जड़, अविकसित, नीच प्राणियों, तारागणों, ग्रहों, समस्त ब्रह्माण्डों को प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है। विराना, घृणा करने योग्य, सताने के लायक या छाती से चिपका रखने के लायक कोई पदार्थ वह नहीं देखता। अपने घर और पक्षियों के घोंसले के महत्त्व में उसे तनिक भी अन्तर नहीं दीखता। ऐसी उच्च कक्षा का प्राप्त हो जाना केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्वर के लिए ही नहीं वरन् संसारिक लाभ के लिए भी आवश्यक है। इस ऊँचे टीले पर खड़ा होकर आदमी संसार का सच्चा स्वरूप देख सकता है और यह जान सकता है कि किस स्थिति में, किससे क्या बर्ताव करना चाहिए ? उसे सद्गुणों का पुञ्ज, उचित क्रिया, कुशलता और सदाचार सीखने नहीं पड़ते, वरन् केवल यही चीजें उसके पास शेष रह जाती हैं और वे बुरे स्वभाव न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं, जो जीवन को दुःखमय बनाये रहते हैं।

यहाँ पहुँचा हुआ स्थित-प्रज्ञ देखता है कि सब अविनाशी आत्माएँ यद्यपि इस समय स्वतंत्र, तेज स्वरूप और गतिवान प्रतीत होती हैं, तथापि उनकी मूल सत्ता एक ही है, विभिन्न घटों में एक ही आकाश भरा हुआ है और अनेक जलपात्रों में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब झलक रहा है। यद्यपि बालक का शरीर पृथक् है, परन्तु उसका सारा भाग माता-पिता के अंश का ही बना है। आत्मा सत्य है, पर उसकी सत्यता परमेश्वर है। विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है, अन्त में आकर यहाँ एकता है। वहीं वह स्थित है, जिस पर खड़े होकर जीव कहता है-'सोऽहमस्मि' अर्थात् वह परमात्मा मैं हूँ और उसे अनुभूति हो जाती है कि संसार के सम्पूर्ण स्वरूपों के नीचे एक जीवन, एक बल, एक सत्ता, एक असलियत छिपी हुई है।

दीक्षितों को इस चेतना में जग जाने के लिए हम बार-बार अनुरोध करेंगे, क्योंकि 'मैं क्या हूँ?' इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना सच्चा ज्ञान है। जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता से परिपूर्ण होना चाहिए। कोरी कल्पना या पोथी-पाठ से क्या लाभ हो सकता है? सच्ची सहानुभूति ही सच्चा ज्ञान है और सच्चे ज्ञान की कसौटी, उसका जीवन व्यवहार में उतारना ही हो सकता है।

इस पाठ के मंत्रः


१-  मेरी भौतिक वस्तुएँ महान् भौतिक तत्त्व की एक क्षणिक झाँकी हैं।

२-  मेरी मानसिक वस्तुएँ अविच्छिन्न मानस तत्त्व का एक खण्ड हैं।

३-  भौतिक और मानसिक तत्त्व निर्बाध गति से बह रहे हैं, इसलिए मेरी वस्तुओं का दायरा सीमित नहीं। समस्त ब्रह्माण्डों की वस्तुएँ मेरी हैं।

४- अविनाशी आत्मा परमात्मा का अंश है और अपने विशुद्घ रूप में वह परमात्मा ही है।

५-  मैं विशुद्घ हो गया हूँ, परमात्मा और आत्मा की एकता का अनुभव कर रहा हूँ।

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