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Books - मनुष्य गिरा हुआ देवता या उठा हुआ पशु ?

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


मान भी ले कि विकासक्रम सही है पर

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First 4 6 Last
विकास क्रम या अनुवंशिकी विज्ञान के अनुसार मनुष्य दूसरे प्राणियों से विकसित हुआ अथवा उसने अपनी सारी विशेषतायें पूर्वजों से अर्जित कीं। इस सिद्धान्त को एक सीमा तक ही सही माना जाना चाहिए। पूरी तरह यही सत्य है अथवा विकास की अंतिम सीमा इसी को मान लेना पूर्वाग्रह ग्रस्त मान्यताओं से प्रेरित व पीड़ित कहा जायगा। यदि इन मान्यताओं को पूरी तरह सच मान भी लिया जाय तो उन घटनाओं को क्या कहेंगे जो आये दिन मनुष्य की बुद्धि को चकरा देती हैं। उदाहरण के लिए भूरी या नीली आंखों वाले माता पिता की संतान भी भूरी या नीली आंखों वाली हो तो इसे कोई आश्चर्य जनक बात नहीं कहेंगे क्योंकि बच्चे का शरीर माता पिता के शरीरों के गुण-सूत्र (क्रोमोसोम्स) से ही तो बनता है? स्वभाव और गुणों में भी पैतृक संस्कारों का प्रभाव रहता है कई बार तो यह इतने जबर्दस्त रूप में व्यक्त होता है कि कोई आश्चर्य किये बिना नहीं रह सकता।

उदाहरण के लिए फ्रांस के कलरमाण्ट शहर का क्रेटीन परिवार। क्रेटीन एक पादरी था एक बार घर वालों से किसी बात पर विवाद हो जाने के कारण ईर्ष्यावश उसने एक ऐसी लड़की से विवाह कर लिया जिसके वंशजों को पीढ़ियों से कुख्यात अपराधी माना जाता रहा था। इस दम्पत्ति से जीन क्रेटीन नामक पुत्र पैदा हुआ जिसे हत्या और डाके जनी के अपराध में फांसी दी गयी। जीनक्रेटीन के पियरी, टामस तथा बैपटिस तीन लड़के हुए। अपने पिता के समान यह तीनों भी अपराध जगत के मूर्धन्य निकले और यह तीनों भी फांसी के भेंट चढ़े। पियरी के इकलौते लड़के जीन फ्रान्सिस, टामस के दो पुत्र—फ्रान्सिस और मार्टिन, बैपटिस की एक मात्र संतान जीन फ्रान्सिस—इन सब में भी हत्या और डकैती के दुर्गुण पाये गए वह सभी फांसी से या सजा भुगतते मरे। मार्टिन का मार्टिन जूनियर केने के सुधार गृह में रखा गया वहां उसने आत्म हत्या करली। जीन फ्रान्सिस और उसकी पत्नी मेरी टेम से सात संतानें—सभी पुत्र जन्मे और वह सभी हत्या और लूटपाट के मामले में दंड के भागी बने।

किन्तु जो बातें परम्परा गत न रही हों यदि वह प्रकाश में आयें तो यही कहा जा सकता है कि संसार में कोई एक ऐसी सत्ता अवश्य है जो प्राकृतिक नियमों से भी सर्वोपरि है। लैटले (फ्रान्स) में एक बार भयंकर तूफान आया। तेज बिजली कड़की और टूट पड़ी एक किसान के कृषि फार्म पर। उस फार्म में हजारों काली और सफेद भेड़ें थीं। बिजली से केवल निर्जीव वस्तुएं बच सकती हैं, काले-गोरे का भेदभाव उसे क्या? किन्तु यही तो उसने भेदभाव किया—जितनी काली भेड़ें थीं मर गईं किन्तु उस बिजली गिरने के फलस्वरूप एक भी सफेद भेड़ का बाल तक बांका न हुआ।

कोई पदार्थवादी कह सकता है कि इसमें कोई बात शरीर कोशों से सम्बन्धित रही होती जिसे विज्ञान न समझ पाया हो पर जिसने सफेद और काली भेड़ों को गुणशः दो भागों में बांट दिया हो—एक को विद्युत प्रभावक और दूसरे को विद्युत शक्ति से भी सुरक्षित रहने से ओतप्रोत।

दो आंख, दो हाथ, दो कान, दो नथुने सब के होते हैं किन्तु आज तक विश्व-मानव के इतिहास में दो दिलों का एक भी उदाहरण नहीं जिससे यह कहा जा सके कि यह अनुवांशिक गुण होगा किन्तु अपवाद से रिक्त रह जाये तो ईश्वरीय सत्ता को कौन माने। ठोस पत्थर के अन्दर जल और उस जल में मेंढक जैसा अद्भुत करतब था भगवान का। नेपल्स (इटली) जियेसेप डीमाये के शरीर में एक नहीं दो-दो हृदय थे दोनों काम करते थे। दोनों के अनुसार शरीर की सारी मशीनरी का ढांचा भिन्न था। लन्दन की एकेडमी आफ मेडिसिन आकर्षित हुई और उसने इस विलक्षण रहस्य को जानने का यत्न किया। दुर्भाग्य से दिल तो तभी पढ़े जा सकने थे जब उनकी चीरफाड़ हो। भला चंगा आदमी उसके लिए क्यों राजी होता। डी माये तैयार तो हो गये और अपना एक दिल 30 हजार रुपये में बेच भी दिया किन्तु करार के अनुसार वह दिल मृत्यु के बाद ही लिया और परीक्षण किया जा सकता था संभव है वैज्ञानिकों ने उससे कोई नई जानकारी पाई हो पर अभी तक उसके बारे में कोई नया अनुसंधान सामने नहीं आया। चीन के चिहली नगर में एक यूनानी रहता था उसका जन्म 1389 में हुआ मृत्यु 1464 में। 75 वर्ष वह संसार के विलक्षण आश्चर्य के रूप में जिया। शी-स्वान नामक इस व्यक्ति का शरीर पारदर्शक था उसके शरीर के भीतर का मांस हड्डियां श्वांस गमन के मार्ग तक एक्स किरणों से भी अधिक स्पष्ट सभी अंग देखे जा सकते थे। मनुष्य शरीर में अद्भुत शक्ति के प्रदर्शन का यह अद्भुत उदाहरण था जिसका विज्ञान कोई भी हल प्रस्तुत नहीं कर सका।

शांसी प्रानत के राज्य मन्त्री श्री लूमिन की आंखों में दो-दो पुतलियां थीं जो जीव-विज्ञान का अविजित-आश्चर्य ही बनी रहीं। लूमिन बाद में गवर्नर हो गये उनकी आंखों से काम करने की क्षमता में कोई अन्तर नहीं था। फ्रांस के टूरकोइंग स्थान में सन् 1793 में एक ऐसी लड़की ने जनम लिया जिसकी केवल एक आंख थी वह 15 वर्ष तक ‘‘क्लीमेंट चाइल्ड’’ के नाम से विख्यात रहीं। यह एक आंख भी भारतीय योगियों की तृतीय आंख का प्रमाण थी और नाक के ठीक ऊपर दोनों भौहों के बीच थी। योग-विज्ञान की मान्यता है कि इस स्थान पर पीयूष ग्रन्थि होती है जो वस्तुतः आध्यात्मिक तीसरे नेत्र का काम करती है उसका जागरण हो जाने पर मनुष्य करोड़ों मील दूर की भी वस्तुयें देख और अनुभव कर सकता है। यह लड़की इस आंख से सब कुछ देख सकती थी। उसे देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि भगवान् ने उसे भेजकर मनुष्य को यह समझाने का प्रयास किया होगा कि मनुष्य बाह्य दृष्टिवादी ही न हरकर अंतर्दृष्टा भी बने, बिना उसके वह विश्व के यथार्थ को जान-समझ नहीं सकता।

ग्रान्सवर्ग के एक चरवाहे वाल्टर रिडिल मैन के पास एक भेड़ थी। भेड़ें संसार में बहुत हैं बहुत हो चुकीं और न जाने कितनी अभी होंगी—इस सामान्य से जीव से लाभ तो हैं पर उसमें कोई विशेषता न होने से उसे कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं। उसके शरीर में ऊन उगने का एक प्राकृतिक नियम है। दुनिया की हर भेड़ के शरीर में ऊन ही उगती है किन्तु इस भेड़ की पीठ पर घास उगती थी और भगवान की उस प्रेरणा का दिग्दर्शन कराती थी कि यह शरीर माटी का एक घरौंदा मात्र है प्रकृति की खूबसूरती है कि उसने हर शरीर में नई आकृति गढ़ी पर उससे यह सत्य ओझल नहीं हो जाता कि शरीर का उपयोग केवल पार्थिव सुखों तक ही सीमित है यदि उसका असाधारण उपयोग करना हो तो उसके चेतन अंश की भी खोज और प्राप्ति की जानी चाहिए परमात्मा ने यह प्रेरणा इस भेड़ को पीठ में घास उगाकर दी और अपनी महत्ता भी प्रतिपादित कर दी कि वह प्राकृतिक नियमों से भी बढ़कर कलाकार और रचनाकार है।

ईश्वर वाणी है—‘‘अद्भुतः अश्रुतोऽहम्’’—मैं अद्भुत हूं, जो कभी नहीं सुना गया वह भी मैं ही हूं यह थोड़े से उदाहरण इस तथ्य से साक्षी हैं। प्रयत्न करें, साधनायें करें, तो उसके विराट तात्विक स्वरूप को पाकर हम धन्य भी हो सकते हैं जिसके लिए मनुष्य जैसा शरीर जीव को प्रदान किया गया है।

वेदन के सम्राट गैंड डची के उत्तराधिकारी कास्पर हासर विसके के बारे में कहा जाता है कि वह दिन में सितारे देख व गिन सकता था। कासपर हासर का वाल्यावस्था में अपहरण कर लिया गया था। उसे 18 वर्ष तक लगातार एक अंधेरी कोठरी में रखा गया। एक रात वह चुपचाप काल-कोठरी से निकल भागा तब वह 18 वर्ष की उम्र का था। अन्सपच बाइबेरिया में पहली बार उसने प्रकाश के दर्शन किये पर तब तक न जाने उसकी किस आन्तरिक शक्ति का विकास हो चुका था कि वह दिन में भी बखूबी तारे देख सकता था।

कास्पर हासर ही नहीं विलक्षणताओं से भरे इस संसार में जीव-तत्व की सर्व समर्थता, पूर्णता और उसके अद्भुत पन के सैकड़ों प्रमाण-पत्र मिलते हैं। सन् 1024 को राजसिंहासन में बैठे इंग्लैंड के सम्राट ‘‘एडवर्ड दि कनफेसर’’ जिसने 1066 तक राज्य किया—की आंखें लाल थीं, चमड़ा दूध के समान तथा बाल और दांडी बर्फ के समान सफेद थे।

आस्ट्रेलिया में एक ‘‘बुश टर्की’’ नामक एक चिड़िया पाई जाती है जो अण्डे से निकलते ही उड़ जाती है और शत्रुओं के आक्रमण से लेकर अपनी खुराक ढूंढ़ लेने तक के सारे काम-काज भी करने लगती है लगता है उसे सारा ज्ञान अदृश्य संसार से ही सिखाकर भेज दिया जाता है।

अद्भुत और अश्रुत—

विचित्र प्रकार के जीव-जन्तुओं के लिये न्यूयार्क अमेरिका का चिड़ियाघर विश्व-प्रसिद्ध है। कई वर्ष पूर्व यहां एक ऐसा सर्प लाया गया, जिसके दो सिर थे। भारतवर्ष में एक ‘दुमुहा’ नामक सर्प पाया जाता है, इसके दोनों तरफ मुख होते हैं। किंवदन्ती है कि यह सर्प 6 माह एक तरफ के मुख से चलता है, 6 माह दूसरी ओर से। पर न्यूयार्क का सर्प यह जिसका नाम ‘किंग स्नेक’ रखा गया, एक ऐसा सर्प था, जिसके एक ही तरफ दो मुख थे। दोनों मुख लगभग 3-3 इंच के थे। दोनों में दो दो आंखें, नाक और जीभें भी थीं। श्वांस और भोजन ग्रहण करने की नली भी दो थीं, जो आगे चलकर मिलती और एक हो जाती थीं।

सांप के कहीं दो सिर नहीं होते, इसलिये क्रमागत सन्तानों में भी अनन्त काल तक ऐसी विशेषता नहीं पाई जानी चाहिये थी, फिर सर्प के दो मुख क्यों हो गये। मजेदार बात तो यह थी कि दोनों मुखों के दो मस्तिष्क दो व्यक्तित्व भी थे। जब कभी एक मुख कोई शिकार पकड़ता लोभी व्यक्ति की तरह दूसरा भी उस पर झपट पड़ता।

एक दिन किसी बात पर दोनों सिर झगड़ बैठे। एक ने आवेश में आकर दूसरे को मुख में भर लिया। मनुष्य जाति जिस तरह धन से नहीं अघाती और अधिक, और अधिक की तृष्णा में सामाजिक विषमता उत्पन्न करती है, सांप ने उसी तृष्णा में दूसरे मुख को अन्त तक निगल लिया। चिड़ियाघर के अधिकारी दौड़े। किसी तरह दोनों को छुड़ाया पर दुर्गति ऐसी हो गई थी कि अन्ततः वह सर्प मर ही गया।

एक कछुए के साथ भी प्रकृति ने गहरा मजाक किया था। गोल आकृति वाले इस कछुए के भी दो सिर थे। दोनों के लिये दो दो पैरों का विभाजन प्रकृति ने कर दिया था। पर उनमें कभी समझौता नहीं हो सका। एक सिर पूर्व की ओर तैरना चाहता तो दूसरा पश्चिम को। परिणाम यह होता कि वह जहां का तहां चक्कर काटता रहा जाता। भारतवर्ष को स्वतन्त्रता प्राप्त किए आज 32 वर्ष हो गये पर अपनी खींचा-तानी प्रवृत्ति के कारण यहां के निवासी जितने दुःखी, पराधीनता में थे, स्वाधीनता में उससे भी अधिक दुखी हैं। दण्डकारण्य क्षेत्र (जगदलपुर) के एक कबायली परिवार में नरसैया नामक गोंड के एक पुत्र हुआ, जिसकी छोटी-सी पूंछ भी थी। यह लड़का जिसका नाम हनमैया रखा गया, जब 14 वर्ष की आयु का हुआ, तो उसकी पूंछ काफी बढ़ गई। बिस्तर में महारानी अस्पताल के सिविल सर्जन डा. ए.सी. गौड़ ने लड़के की परीक्षा करके बताया कि लड़के के सामान्य रूप से हाथ पैर बढ़ने के साथ-साथ पूंछ भी बढ़ रही है। पूंछ गोलाकार और रीढ़ की सबसे नीचे तिकोनी हड्डी के एक इन्च ऊपर थी, लड़का जब चलता, तब वह पैण्डुलम की तरह हिलती।

डनवर (कोलम्बिया) में एक किसान के पास हरफोर्ड नामक गाय है जिसके दो स्थानों पर थन हैं सामान्य स्थान में भी और पीठ में भी। दोनों थनों से दूध निकलता है। दो जीभों वाली गायें बहुत मिलती हैं पर थनों वाली नहीं। फिर थनों में दूध पीयूष ग्रन्थि (पिट्यूटरी ग्रन्थि) की क्रिया से बनता है इसलिये दोनों स्थानों से पीयूष ग्रन्थि का सम्बन्ध निर्विवाद है और वह यह बताता है कि भीतर ही भीतर शरीरों की गुप्त रचना करने वाली सत्ता कुछ भी कर सकने में समर्थ है। आंख फोड़वा (ग्रास हापर्स) की दो आंखें होती हैं, वह एक नियम है, पर एक ग्रास हापर्स वह भी होते हैं जिनके पांच-पांच आंखें होती हैं और पांचों आंखें देखती भी हैं। कैलीफोर्निया के ह्विटियर में लैरी स्टोन नामक व्यक्ति ने एक बतख पाली। डैफी नामक यह बतख आधे अण्डे देती है और आधे अण्डों से ही पूरे और स्वस्थ बच्चे पैदा होते हैं।

बहुत दिन पहले जापान में एक मुर्गा उत्पन्न हुआ था। जैसे सब मुर्गे होते हैं, ऐसा ही यह भी था, किन्तु इस मुर्गे की पूंछ असामान्य रूप से लम्बी अर्थात् पूरे 30 फुट लम्बी थी। जैसे किसी पेटी आलसी और मुफ्त का माल मारने वाले का पेट इतना मोटा हो जाता है कि उसका चलना-फिरना कठिन हो जाता है, अपनी इस अनावश्यक लम्बी पूंछ के कारण ‘याकोहामा काक’ नामक यह मुर्गा भी चल फिर नहीं पाता था। एक पिंजरा बनाया गया था। उसमें बैठने के लिए एक ऊंची डाल जैसी बनाई गई थी, बेचारा दिन भर उसी में बैठा रहता था। इस मुर्गे को जो भी देखता हंसे बिना नहीं रहता था। कभी-कभी वह बाहर निकाला जाता था तो दो तीन नौकर उसकी पूंछ ऊपर उठाकर चलते थे, तब थोड़ा बहुत घूम भी पाता था, नहीं तो बहुत पाकर भी वह गुमसुम बैठा ही रहता था।

मनुष्य जाति यों शरीरों से भिन्न प्रतीत होती है पर इच्छायें, आकांक्षायें, आवश्यकतायें सब की एक तरह की हैं। संसार में व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि इच्छाओं और आवश्यकताओं के औचित्य पर विचार किया जाय, और सबको आवश्यकता के अनुसार जीवनदायी सुविधायें मिलती रहें। इसकी एक शर्त है, वह यह कि लोग अपने लिए कम से कम चाहे समाज के लिए अधिकतम देने की भावना रखें। देने वाला घाटे में नहीं रहता।

दक्षिणी ट्रिनीडाड द्वीप पर पहली बार पर्यटक ‘‘नवीन’’ की खोज में गये तो उन्हें पहले से ही स्वागत के लिए तैयार ‘‘टर्न’’ और ‘‘अल्वेट्रास’’ नामक के दो पक्षी मिले। बतख की सी आकृति वाले इन पक्षियों की विशेषता यह थी कि वह बिना हिचकिचाहट यात्रियों के पास चले आये, एक बार भगवान् राम के सहयोगी सहचर रीछ वानर समुद्र के किनारे बैठे कुछ परामर्श कर रहे थे तब कहीं से संपाती नामक भयानक गृद्ध वहां जा पहुंचा, उसे देखते ही उन सबके प्राण सूख गये थे। वैसे ही इन यात्रियों के हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से धड़क उठे थे पर इनके कन्धों पर आ बैठने वाले इन पक्षियों ने मानो उनको लज्जित करते हुये कहा हो—‘‘हम तुम्हारे जैसे किसी भी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए पीड़ित-प्रताड़ित और मारकर खा जाने वाले नहीं, आत्मा की आकांक्षायें क्या हैं, हम उसे जानते और आचरण करते हैं।

यह बातें—बेचारे पक्षियों ने मुख से नहीं कहीं पर उनके व्यवहार से यही भावार्थ निकलता था। इन पक्षियों ने इनका स्वागत किया। कुछ उन्हें अपने घोंसलों तक ले गये, उनका मनुष्य की तरह अभिवादन किया और यात्रियों के अभिवादन का उत्तर भी दिया।

सारी पृथ्वी में यह जो प्रकृति दिखाई दे रही है वह हमारी दृष्टि में भले ही तुच्छ जान पड़े पर अध्ययन यह बताता है कि वह एक ही आत्म चेतना की विलक्षण और रहस्यपूर्ण परिणति है। एक ही चेतना अपनी इच्छा आकांक्षाओं के रूप में अनेक शरीर धारण करती रहती है। प्रकृति निर्जीव नहीं, जीवित क्रिया शक्ति है गुण और जीवन पद्धति उतनी ही विलक्षण हैं जितनी इच्छा और वासनाओं वाला यह संसार रहस्यपूर्ण है।

डार्विन के मन में विकासवाद सिद्ध करने का एक भूत सवार था इसी कारण उन्होंने सैकड़ों विलक्षण जीव-जन्तुओं का अध्ययन किया पर, उन सबकी शारीरिक रचना का वह अंश ही चुनने में व्यस्त रहे जो विकासवाद का सिद्धांत सिद्ध करने में सहायक मिला। आज का जीव शास्त्र का विद्यार्थी कदाचित् प्रश्न कर देता कि यदि प्राकृतिक परिवर्तनों और इच्छा शक्ति के कारण ही जीव एक कोशीय अवस्था से विकसित होकर बहुकोशीय क्षुद्र जन्तुओं की श्रेणी में आये और क्रमशः हाइड्रा, मछली, घोड़ा, बन्दर आदि बनते-बनते मनुष्य बन गया तो फिर जीवों के स्वभाव और बनावट की इस विलक्षणता का क्या रहस्य है? वह किस बात के विकसित परिणाम हैं जो आज भी अनेक जीवों में दिखाई देते हैं।

उत्तरी अमेरिका में अलास्का से बाजा कैलीफोर्निया तक समुद्र में 60 फुट से 1800 फुट तक की गहराई में ‘‘लेम्प्रे’’ जाति की एक मछली पाई जाती है इसका नाम है ‘‘हैगफिश’’। कोई कल्पना नहीं कर सकता कि कई इंजनों वाले जेट विमान के समान इस मछली के 4 हृदय होते हैं, पेट होता ही नहीं और नथुना भी केवल एक ही होता है, दांत जीभ में होते हैं। अपने शरीर को रस्सी की सी गांठ लगाकर यह किसी मरे हुए जीव के शरीर में घुस जाती है और उसका सारा शरीर चटकर जाती है पर आश्चर्य है कि भोजन न मिले तो भी वह वर्षों तक जीवित बनी रह सकती है।

हैगफिस किस जीव का विकास है यह सोचना पड़ता तो डारविन अपना सिद्धान्त अपने हाथों से काट देते। स्वयं आज का विज्ञान जगत भी प्रकृति के इस रहस्य को सुलझा सकने में असहाय अनुभव कर रहा है। सन् 1864 में कोपन हेगन की साइन्स एकेडमी ने घोषित किया कि जो वैज्ञानिक यह खोज कर लेगा कि हैगफिश की प्रजनन विधि क्या है उसे भारी पुरस्कार दिया जायेगा पर आज तक भी यह पुरस्कार कोई वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सका।

जिस प्रकार ‘‘हैगफिश’’ की प्रजनन विधि ज्ञात नहीं हो सकी उसी प्रकार वैज्ञानिक सर्वत्र पाये जाने वाले तिलचट्टे (काक्रोच) की आयु निर्धारित करने में असफल रहे हैं। अनुमान है कि करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी में देनोसारस श्रेणी के जीवों का आविर्भाव हुआ तब तिलचट्टा पृथ्वी में विद्यमान था। इसकी सम्भावित आयु 35 करोड़ वर्ष बताई जाती है इतनी अवधि पार कर लेने पर भी कठोर से कठोर और भयंकर से भयंकर प्राकृतिक परिवर्तन झेल लेने पर भी इसकी शारीरिक रचना में न तो कोई अन्तर आया न विकास हुआ तब फिर जीव-जगत को नियमित और प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुरूप विकास की संज्ञा कैसे दी जा सकती है।

तेज से तेज गर्मी, वर्ष भर बर्फ जमी रहने वाले ग्लेशियर, पहाड़ और मैदान सब जगह यह तिलचट्टे पाये जाते हैं महीने भर तक भोजन पानी नहीं मिले तो भी उसका काम चल सकता है दो महीने तक केवल पानी पर उपवास करके दिखा सकता है कि भोजन शरीर की आवश्यकता नहीं तो 5 महीने तक वह सूखा भोजन ही लेता रह कर यह सिद्ध कर देता है कि मनुष्य पानी के बिना भी शरीर धारण करने में समर्थ हो सकता है। यह सब चेतना के आन्तरिक गुणों पर आधारित रहस्य हैं, जिन्हें केवल शारीरिक अध्ययन द्वारा नहीं जाना जा सकता उसे समझने के लिए आत्म-चेतना के विज्ञान का एक नया अध्याय खोलना आवश्यक है। यह अध्याय जीवन के शरीर धारण की प्रक्रिया से सम्बन्धित और आध्यात्मिक तथ्यों व तत्वदर्शन का अध्याय होगा जिसके लिये हमारे पूर्वजों ने कठोर से कठोर तप किया था और सनातन सत्यों का प्रतिपादन किया था जो धार्मिक विरासत के रूप में अभी भी हमारे पास विद्यमान हैं।

तिलचट्टे की भूख भी भयंकर होती है आहार प्रारम्भ कर देता है तो अपने अण्डे भी नहीं छोड़ता। मादा अपने बच्चों से बड़ा स्नेह रखती है प्रायः हर दो दिन में यह 1 अण्डा दे देती है। एक रूसी जीव-शास्त्री ने एक बार पौने पांच लाख तिलचट्टों के ऐसे शव ढूंढ़ निकाले जो एक ही तिलचट्टे दम्पत्ति की सन्तान थे। नर काक्रोच बड़ा सफाई व सौन्दर्य-पसन्द जीव है। वह घन्टों अपने शरीर और मूंछों की सफाई में लगाता और उन्हें सुन्दर ढंग से संवारता है। इसकी मुंछे लम्बी होती हैं और एरियल का काम देती हैं। मूंछों की मदद से वह अंधेरे में भी अपना रास्ता आसानी से तय कर लेता है। विज्ञान के लिये यह खुली चुनौतियां हैं आज जो खोजें मनुष्य ने करली हैं प्रकृति उनका ज्ञान आदि काल से अपने गर्भ में छिपाये हुए है। सृष्टि के यह विलक्षण जीव प्रकृति की चेतना के ही परिणाम हैं वह वह इस बात के साक्षी भी हैं कि प्रकृति एक ‘‘परिपूर्ण वैज्ञानिक’’ है विज्ञान की पूर्ण शोध और जानकारी का लाभ किसी प्रकृतिस्थ को ही उपलब्ध हो सकता है।

तिलचट्टे की विलक्षणतायें और भी हैं। उसके बच्चे सप्ताहों भूखे रह सकते हैं। वह स्वयं बर्फ की चट्टान में दब जाता है बर्फ पिघलकर उधर निकलती है और यह इधर उठकर चल देता है इसका बाहरी आवरण इतना कठोर होता है कि पांव से दब जाने पर भी यह मरता नहीं है। दौड़ने में यह किसी सुन्दर विमान से कम नहीं यह सब गुण ही हैं जिन्होंने वैज्ञानिकों का ध्यान इसकी शोध के लिए आकर्षित किया। पर बेचारे जीव शास्त्री उसकी इस शारीरिक विलक्षणता पर ही उलझे रहे मानसिक रहस्यमयता का एक भी पर्दा वे उघाड़ न सके।

अनेक अस्त्र-शस्त्र बनाकर मनुष्य ने अपनी बौद्धिक चतुरता और दक्षता का परिचय दिया पर हम नहीं जानते प्रकृति इस सम्बन्ध में कितनी धनवान् है। उष्ण कटिबन्धीय समुद्र में एक ट्रिगर फिरा [वह मछली जिनके शरीर में कांटे होते हैं] पाई जाती है इसका नाम है ‘‘हुमुहुमु-नुकुनकु’’ जैसा विलक्षण नाम वैसी ही विलक्षण स्वयं भी। इसकी पूंछ पीठ और सिर पर कुछ कांटे होते हैं जिन्हें यह अपनी इच्छा और नाड़ियों के द्वारा जब चाहती है तरेर कर सीधा और तीक्ष्ण कर देती है फलस्वरूप किसी भी दुश्मन की इस पर घात नहीं लग पाती। इसके दांतों की बनावट विचित्र होती है दोनों जबड़ों में बाहर आठ-आठ दांतों के अतिरिक्त ऊपर के जबड़े में एक प्लेट की शक्ल में 6 दंतों की भीतरी पंक्ति भी होती है। ऐसा किस सुविधा के लिए है यह वही जानती है क्योंकि प्रकृति की कोई भी रचना निरर्थक नहीं भले ही मनुष्य सारगर्भित कल्पनाओं के स्थान पर वह क्रियाकलाप और रचनायें गढ़ता रहे जो उसे लाभ पहुंचाने के स्थान पर हानिकारक होती हों।

प्रकृति में ऐसे अनेकों योगी हैं जो अपने ही मरे, कुचले टूटे-फूटे शरीर का अपने प्राणों के बल पर पुनः उपयोग कर लेते हैं।

जीवित स्पंज को लेकर टुकड़े-टुकड़े कर डालिये, उससे भी मन न भरे तो उन्हें पीसकर कपड़े से छान लीजिए। पिसे और कूट कपड़छन किये शारीरिक द्रव्य को पानी में डाल दीजिये। शरीर के सभी कोश धीरे-धीरे फिर एक स्थान पर मिल जायेंगे और कुछ दिन बाद पूरा नया स्पंज फिर से अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ कर देगा। चुनौती है स्पंज की कि जब तक प्राण है तब तक मुझे शरीर के अवसान की कोई चिन्ता नहीं मरना जीना तो मात्र प्राणों का ही खेल है।

हाइड्रा, स्टेण्टर तथा प्लेनेरिया आदि जीवों में यह गुण होता है कि वे अपने शरीर के एक छोटे से अंश को (300 वें भाग तक छोटे टुकड़े को) ही तोड़कर नया शरीर बना देते हैं उन्हें गर्भ धारण, भ्रूण विकास और प्रजनन जैसी परेशानियां उठानी नहीं पड़तीं। लगता है प्राण-तत्व की जानकारी होने के कारण ही प्राचीन भारत के तत्वदर्शी एक भ्रूण से 100 कौरव, घड़े से कुंभज और जंघा से सरस्वती पैदा कर दिया करते थे। अन्य एक कोशीय जीवों में पैरामीशियम तथा यूग्लीना में भी एक कोश से विभक्त होकर दूसरा स्वस्थ कोश अर्थात् नया जीव पैदा कर देने की क्षमता होती है। यह घटनायें इस बात की साक्षी हैं कि ऐसी क्षमतायें अणु जैसी सूक्ष्म मनःस्थिति तक पहुंचने वाली क्षमता से ही प्रादुर्भूत हो सकती हैं।

टूटे हुए शारीरिक अंगों के स्थान पर नये अंग पैदा कर लेने की क्षमता ही कुछ कम विलक्षण नहीं ट्राइटन, सलामाण्डर, गोह अपने कटे हुए शरीर की क्षति पूर्ति तुरन्त अंग के विकास के रूप में कर लेते हैं। अमेरिका, अफ्रीका में पाये जाने वाला शीशे का सांप जरा-सा छूने से टूट जाता है पर उसमें यह विशेषता होती है कि अपने टूटे हुए अंग को पुनः जोड़ लेता है। आइस्टर, शम्बूक, घोंघा, समुद्री मकड़ी, मन्थर आदि जीवों में भी यह गुण होते हैं। स्टारफिस के पेट में कोई जहरीला कीड़ा चला जाए तो वह अपना पूरा पेट ही बाहर निकाल कर फेंक देती है और नया पाचन संस्थान तैयार कर लेती है, पर सलामेंसिनानेस, साहलिस तथा काटो गास्टर जीव तो स्पंज की तरह होते हैं उन्हें कितना ही मार डालिए, मरना उनके लिए जबरदस्ती प्राण निकाल देने के समान होता है जहां दबाव समाप्त हुआ यह अपने प्राणों को फिर मरे मराये शरीर पर प्रवेश करके जीवन यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं। इतना सब देखने पर भी वैज्ञानिकों की बुद्धि को क्या कहा जाये जो यह कहते हैं कि प्राण कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मात्र एक रासायनिक चेतना है।

न विकासवाद, न आनुवंशिकता—

इस तरह की घटनाओं से सिद्ध होता है कि एक सार्वभौमिक सत्ता है जो अपनी इच्छा से विलक्षण कौतुक उपस्थित करती रहती है। इन विलक्षणताओं का कोई भौतिक आधार नहीं होता इसलिए उन्हें आध्यात्मिक ही कहना उपयुक्त लगता है। ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत हैं जिनका कोई भौतिक आधार नहीं वे मात्र किसी इच्छा शक्ति के ही चमत्कार प्रतीत होते हैं जो स्वतन्त्र बुद्धि के रूप में विराट विश्व में क्रियाशील होती है—उसे ही परमात्मा कह सकते हैं।

इटली के एक 43 वर्षीय गिवनी गैलेन्ट की आंखें उल्लू की आंखों जैसी हैं सन् 1928 में उसने अपने माता-पिता से मिलने हरमिन पा जाने के लिए वीजा के लिए आवेदन किया उसे अस्वीकार करते हुए पब्लिक हैल्थ इन्स्पेक्टर ने कहा—आपको दिन के अन्धेपन का रोग है इसलिए यात्रा की अनुमति नहीं दी जा सकती। सचमुच ही वह केवल रात में ही देख सकता था दिन में उसे कुछ दिखाई नहीं देता था। इस प्रकार उसने यह अमान्य कर किया कि देखने के लिए प्रकाश आवश्यक होता है उसने एक प्रकार से सिद्ध किया कि जीवन के सारे गुण उसकी सूक्ष्म चेतना में विद्यमान हैं इसलिए उसे ही जानना और समझना चाहिए।

यह विचित्रतायें किसी भी अनुवांशिक गुण (हेरेडिटी करेक्टर) पर आधारित नहीं होने से अधिक विस्मय पूर्ण हैं। जन्मान्ध हुआ, जन्म से एक आंख न रही हो पर बिना आंखों के जन्म हुआ हो ऐसा एक भी उदाहरण इतिहास में नहीं मिलता। लेकिन फ्रांस में सबेलनासी आक्स में एक ऐसा लड़का भी जन्मा जिसके एक भी आंख नहीं थी। आंखों का स्थान सपाट था और विज्ञान के चुनौती दे रहा था कि यह किस अनुवांशिक गुण का प्रभाव है। उस लड़के के 6 और भी भाई-बहनें हैं जिनमें से किसी में भी एक तरह का कोई चिन्ह नहीं।

इससे भी विलक्षण था मोमिन्स का डब्लू.जे. ब्रासर्ड। अभी तक विज्ञान का यही तर्क है कि स्त्री व पुरुष के गुण सूत्र (क्रोमोसोम) मिलकर ही शरीर को विविधता का निर्माण करते हैं। यह तो सम्भव है कि माता और पिता के वंशजों में किसी में नीली या भूरी आंखें रही हों और उसके फलस्वरूप कभी नीली आंखों वाली तो कभी भूरी आंखों वाली सन्तानें पैदा होती रही हों पर व्रासर्ड इन सभी वैज्ञानिक मान्यताओं का अपवाद था अर्थात् उसकी एक आंख तो नीली थी और एक भूरी ऐसा किस कारण हुआ? पता नहीं चल पाया पर इतना स्पष्ट हो गया कि जिस प्रकार कोई आदमी कापी पर अपनी इच्छा से चित्र बनाया करता है कोई एक सार्वभौमिक विचार शक्ति है जो संसार की विचित्रताओं का नियमन और सृजन करती है।

आंख वालों की दुनिया के कुछ और आश्चर्य—भौंरे की आंखों का लेन्स ऐसा होता है कि वह पहले एक आकृति की हजार आकृतियां बनाकर भेजती हैं पर दिखाई देती है अन्त में वही एक की एक वस्तु। मक्खियों और तितलियों की आंखें भी ऐसी ही होती हैं। इस विचित्रता में संभवतः एक शिक्षा यह है कि पंच-भौतिक पदार्थों से बनने वाले करोड़ों दृश्यों वाले इस संसार में मनुष्य को भूलना नहीं वरन् एक और अनादि तत्व को ही पकड़ना और प्राप्त करना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब कुछ चार आंखों वाली समुद्री मछलियों के समान अपनी दृष्टि चौमुखी बनायें और आठ-आठ हाथों पावों वाली स्क्वीड मछली की तरह अपने चारों तरफ के वातावरण के अध्ययन की सक्रियता दर्शायें। आंखों की इस अनोखी दुनिया में भेड़िया मकड़ी को भुलाया नहीं जा सकता जिसके कि आठ आंखें होती हैं, इन आठों आंखों का उपयोग वह अपने चारों तरफ के क्षेत्र की जांच और अपने शिकार की टोह में करती है। शिकार को देखते ही वह उस पर टूट पड़ती है और खा जाती है। विवेकशील मनुष्य भी अपनी बुद्धि की आंखों से चारों तरफ देखकर निर्णय करते हैं तभी वह संसार के दैन्य और दुर्भाग्य को जीतकर सफल और समर्थ कहलाते हैं।

आंख या शारीरिक अंगों का मिलना न मिलना कोई बड़े महत्व की बात नहीं। प्रसंग बताते हैं कि उसने संसार के हर कण को परिपूर्ण बनाया है। हमें उस मूल बिन्दु को खोजने भर की आवश्यकता है। स्काटलैंड के इनवर्नस स्थान में 5 फरवरी 1866 में एक लड़का पैदा हुआ, नाम था विलियम मैकफर्सन, वह जन्मान्ध था, उसके हाथ भी नहीं थे फिर भी वह मूल टाइप के उभरे हुए अक्षरों को अपनी जीभ की नोंक से पढ़ लेता था अपने इस दुर्भाग्य के बावजूद भी वह अपने आपको दुनिया का सबसे अधिक सुखी व्यक्ति कहा करता था।

फ्रैंक फोर्ट में ग्रेटेल मेयर नामक ऐसी महिला थी जिसके दो जीभें थीं। लगता है वे पूर्व जन्मों में बहुत बोलने वाली थी तभी उन्हें भगवान ने दो जीभों दीं पर बोल सकना उनके लिए पूंजी के धन की भांति दो जीभों से भी संभव न हुआ। कुमारी फैनी माइल्स अमेरिका के ओहियो प्रांत के विख्यात नगर सिनसिनाटी में 1880 में जन्मीं उनके पैर के पंजे 2-2 फीट लम्बे थे जबकि कि शरीर सामान्य था। यह विचित्रता यह संकेत देती है कि मनुष्य कोई स्वतन्त्र इकाई न होकर इतर प्राणियों का सजातीय है। ऐसा न होता तो यह अनुवांशिक गुण मनुष्य में कहां आ जाते। ऐसी घटनायें ही जीवन के अन्य योनियों में भ्रमण और पुनर्जन्म का भी प्रमाण हैं उनको ठुकराया जाना सम्भव नहीं है।

कई बार की विचित्रतायें तो और भी आश्चर्यजनक होती हैं और वह बताती हैं कि यह संसार किसी बहुत ही कौतुकी सत्ता का खेल है। जार्जिया के ग्रीनविले नगर में ए.एफ. डाडी नामक एक स्त्री को प्रसव के समय अण्डा देते समय लोग चौंके। कुछ दिन तक यह प्रतीक्षा की जाती रही कि अण्डा फूटेगा और बच्चा निकलेगा। किन्तु जब अण्डा न हिला न डुला तो उसे फोड़ा गया, भीतर से निकला एक मूंगफली का दाना। कुछ लोग इस घटना पर हंसे पर अधिकांश यह सोचते रह गये कि यह किस विकासवाद की बला है।

शिकागो (अमेरिका) में जान.टी. बोवर्स के वायु नली नहीं थी, स्वर तन्त्री तथा कण्ठ पिटक आदि कुछ भी नहीं थे फिर भी वह सामान्य व्यक्तियों की भांति ही अपनी जीभ से बोलता और उच्चारण करता था। यह सारी घटनायें यदा-कदा और कहीं एक आध व्यक्तियों के साथ घटित होती हैं। स्पेन में करवेरा डी ब्रुट्रेगा नामक एक गांव में सभी व्यक्तियों के हाथ तथा पैरों में कई-कई अंगुलियां हैं। 6 अंगुलियां तो सभी के हैं केवल एक बुड्ढा ही ऐसा है जिसके 10-10 उंगलियां हाथ-पैरों में हैं। यह लोग संसार के सामान्य लोगों की आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते हैं।

लिसे नमडीयर (आयरलैंड) की घटना है। वहां की एक महिला विद्दी कैशल्स एक ऐसी स्त्री थी जिसने अपने गर्भ से एक बार दो चार नहीं 100 मुर्गी के अण्डे दिये मातृ भावनावश कहें अथवा किन्हीं पूर्वजन्मों के संस्कार जिस तरह मुर्गी अपने अण्डों के ऊपर बैठ कर उन्हें बच्चे न निकलने तक सेती रहती है। बिद्दी कैशल्स भी लगातार एक घोंसला बना कर और अण्डे उसमें सुरक्षित रख कर तीन सप्ताह तक बैठी रही। तीन सप्ताह बाद उन अण्डों से 100 मुर्गी के बच्चे पैदा हुए।

मनुष्यों और जीव जन्तुओं में दृष्टिगोचर होने वाली ये विचित्र विलक्षणतायें सिद्ध करती हैं कि जीवन का विकास और स्वरूप किन्हीं सद्नियमों के अनुसार नहीं होता। जीवों की यह तरह-तरह की आकृति और प्रकृति देखते-देखते शास्त्रकार की जैविक व्याख्या अनायास ही याद आ जाता है—

अनारतं प्रतिदिशं देशे देशे जले स्थले । जायंते वा म्रियंते वा बुदबुदा इध्वाहिनि ।। —योग वसिष्ठ 44। 45। 1-2 एवं जीवाश्रितो भावा भव भावन योहिता । ब्रह्मणः कल्पिताकाराल्लक्षशोऽप्यथ कोटिशः ।। असंख्याताः पुरा जाता जायन्ते चापि वाद्यभोः । उत्पत्तिष्यन्ति चैवाम्बुकणौधा इव निर्झरात् ।। —योग वसिष्ठ 4। 44। 31-2

हे राम! जिस प्रकार जल में अनेक बुलबुले बनते और बिगड़ते रहती हैं उसी प्रकार सब देश और सभी कालों में यह चेतना ही अनेक जीवों के रूपों में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। यह सब चित्त के रूपान्तर का फल है। जीव अपनी इच्छा और कल्पना के द्वारा लाखों और करोड़ों की संख्या में तीनों कालों में उत्पन्न होते रहते हैं जैसे झरने के जल कण।

भारतीय दर्शन की यह मान्यतायें कितनी सत्य और स्पष्ट है उसे समझने के लिये भगवान् ने मनुष्य शरीर जैसा एक परिपूर्ण यन्त्र बनाया है। इसमें भरी चेतना भी एक क्षुद्र जीव ही है जो बौद्धिक विकास के कारण इस स्थिति में है कि अपने यथार्थ अवस्था का ज्ञान, अनुभव और साक्षात्कार कर सकता है और 84 लाख योनियों में भ्रमण कराने वाली इच्छाओं वासनाओं को जीत कर विराट् आत्मा, ब्रह्म और परम पद तक की प्राप्ति कर सकता है।
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