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Books - नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी

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दंड भी और प्यार भी

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शक्ति का सदुपयोग सज्जनों से ही बन पड़ता है। दुर्जन उसका दुरुपयोग करते ही देखे गए हैं। पिछले दिनों ज्ञान और विज्ञान के जो सूत्र हाथ लगे, उनका अनर्थकारी उपयोग ही किया गया। विज्ञान के द्वारा युद्धोन्माद को पूरा करने के साधन जुटाए गए। औद्योगीकरण से यह सोचा गया कि जितना जल्दी जितना अधिक धन बटोरा जा सके, बटोर लिया जाए। बुद्धि को छल- छद्म में नियोजित किया गया। शक्ति को दुर्बलों के शोषण हेतु नियोजित किया गया। संक्षेप में यही है इन दिनों की उपलब्धियों का उपयोग, जिसे सरल और स्वाभाविक मानकर बिना किसी हिचक के प्रयुक्त किया गया।

    विज्ञान के द्वारा उपलब्ध होती हुई सामर्थ्य का भी इसी प्रकार प्रयोग होता चला गया। प्रतिफल जो होना था, हुआ। सर्वत्र प्रदूषण ने डेरा डाल लिया। शक्तिशाली निर्भय होकर अनाचार बरतने लगे। औचित्य की मर्यादाओं को एक प्रकार से भुला ही दिया गया। यही हैं अपने समय की उपलब्धियाँ, जिन्हें चतुरता का नाम दिया जाता है। जिस रीति- नीति को बहुत जन अपनाते हैं, वह एक प्रकार से प्रथा बन जाती है और प्रचलन का रूप धारण कर लेती है। इन दिनों का प्रचलन यही है। छद्म और अनाचार का उन्मुक्त प्रयोग हो रहा है। नियामक सत्ता के आक्रोश के भय का अंकुश ही उठ गया है।

    यह अनाचार सृष्टि व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल है। क्रिया की प्रतिक्रिया न हो तो संसार में अन्धेर ही मच जाए; न्याय का अस्तित्व ही न रहे; पाप से कोई डरे ही नहीं; अनीतिपूर्वक लूट- मार करने के लिए हर कोई आतुर होने लगे, पर ऐसा होता नहीं। जिसने यह सृष्टि बनाई है, उसने क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम भी बनाया है। फलतः अनाचार पर उतारू मनुष्य को औचित्य की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी है। पिछली शताब्दी में दो विश्वयुद्ध और लगभग २०० क्षेत्रीय युद्ध हुए हैं, जिनमें ऐसे घातक अस्त्र- शस्त्रों का उपयोग किया गया कि लोगों को अपार धन- जन की हानि उठानी पड़ी। हवा और जल में इतना विष घुल गया कि लोग मुश्किल से ही जीवनयापन कर रहे हैं। अपराधों की बाढ़- सी आई हुई है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ा गया है। हर कोई आशंकित और आतंकित दिखाई देता है। इन परिस्थितियों में कोई भी चैन से नहीं रह रहा है। अगले दिनों परिस्थितियाँ और भी अधिक बिगड़ने की चेतावनी सभी विज्ञजन दे रहे हैं।

    मनुष्य को सौंपा तो बहुत कुछ गया है, पर इतना नहीं कि वह सृष्टि की व्यवस्था को ही गड़बड़ा कर फेंक दे। उसे संरक्षक ,, माली और अभिवृद्धि करने वालों की जिम्मेदारियों के साथ भेजा गया है। इसलिए नहीं कि वह इस सुरम्य उद्यान के चलते हुए क्रम को ही उलटकर रख दे।

    जब तक सही चाल, सही गति और सही रीति- नीति को अपनाए रहा गया, तब तक सब कुछ ठीक- ठाक चलता रहा। प्रगति का सन्तुलन ठीक बना रहा। परिस्थितियाँ सब ओर से ठीक बनी रहीं। ऐसे ही सन्तुलित अवसर को ‘सतयुग’ नाम दिया जाता है। मनुष्यों में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बने रहने से सभी को पारस्परिक सद्भाव का लाभ मिलता रहा। प्रकृति की अनुकूलता बनी रही। किसी को ऐसे अनिष्ट न सहने पड़े, जो प्रकृति की प्रतिकूलता के कारण उत्पन्न होते हों। सुख- शान्ति का वातावरण बनाए रहना यहाँ की परम्परा है। जब तक मनुष्य ने अपनी मर्यादाएँ बनाए रखीं, तब तक सब कुछ सुखद और सुरम्य ही बना रहा।

इस सृष्टि में जहाँ सदाशयता के उपहार मिलते रहे हैं, वहाँ यह व्यवस्था भी है कि यदि उद्दण्डता भरे अनाचार बरते जाने लगें तो तुरन्त न सही, कुछ ही विलम्ब से उनका कडुआ प्रतिफल अवश्य मिलने लगे। लड़के जब अनुशासन बिगाड़ते और स्कूल में अवांछनीय धमा- चौकड़ी मचाते हैं तो शिक्षक को कड़े अनुशासन का प्रयोग कर भय दिखाना पड़ता हैं। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है। व्यक्ति और समाज को खिन्नता और विपन्नता का त्रास भी सहना पड़ रहा है। आपा- धापी की छीना- झपटी में कलह के कारण मनुष्य को जिस सुख- शान्ति की आवश्यकता है, उसमें भारी कमी पड़ रही है। उद्विग्नता से परेशान लोग नशेबाजी, विलासिता आदि का आश्रय लेकर ही किसी प्रकार अपना गम- गलत करते देखे जाते हैं, पर उतने से भी चैन कहाँ पड़ने वाला है! संसार- व्यवस्था में कुछ आगा- पीछा हो सकता है, किन्तु प्रकृति तो अपना हन्टर सदा सँभाले ही रहती है अन्यथा इतने बड़े विश्व का सुनियोजन हो ही कैसे सके !            

      जिसने यह संसार बनाया है, उसने यह अंकुश भी हाथ में रखा है कि जब मर्यादा का उल्लंघन चरम सीमा तक पहुँच जाए और लोग विवेक खोकर अनाचार अपनाने पर ही उतारू हो जाएँ तो उनकी खोज- खबर ली जाए; काबू में लाने के लिए कठोरता भी अपनाई जाए; उल्टी चाल चलने वाले को कड़ाई अपनाकर सीधा चलने के लिए बाध्य किया जाए। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है। प्रस्तुत विपत्तियों को देखते हुए लोगों को यह समझने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि सही रीति का परित्याग करने पर उन्हें कितनी विपरीतताओं का सामना करना पड़ सकता है। ६०० करोड़ व्यक्तियों के लिए जहाँ स्रष्टा ने समुचित साधन जुटाने की दया दिखाई है, वहाँ उन्हें यह भी करना पड़ा है कि उनके किए के लिए समुचित दण्ड- व्यवस्था का भी विधान हो। सर्वविदित है कि ऐसा कृत्य निर्दयतापूर्ण ही कहा जाएगा, पर व्यवस्था तो व्यवस्था ठहरी। इन दिनों बारीकी से देखने पर यह भली−भाँति समझा जा सकता है कि पिछले दिनों जो अनाचार अपनाया जाता रहा है, उसकी प्रतिक्रिया कितनी कटु और भयंकर हुई है।            
 
     तो क्या सदा यही अपराध करने और प्रताड़ना सहने की क्रिया- प्रतिक्रिया चलती रहेगी? बात ऐसी नहीं है। न्यायकारी की कभी ऐसी नीति नहीं रही है। वह तभी तक धमकाता है, जब तक कि उद्दण्डता से बाज नहीं आया जाता। जब सुधरना आरम्भ कर दिया जाता है तो उद्देश्य पूरा हो जाता है। तब सबके साथ न्याय एवं करुणा बरतने वाले व्यवस्थापक अपनी रीति- नीति को बदल लेते हैं। धमकाने के स्थान पर पुचकारने और प्यार करने का उपचार क्रम चलने लगता है। स्रष्टा का उद्देश्य तो मात्र सुव्यवस्था बनाना है। जैसे ही वह बन जाती है, वह अपनी रीति- नीति बदलने में देर नहीं लगाता।     
   
    अगले दिनों ऐसा ही परिवर्तन होने जा रहा है। दुष्टता के बदले प्रताड़ना सहने की जब आवश्यकता नहीं रहेगी, तो वैसा बरताव भी कोई फिर क्योंकर करेगा! जब सुधारने और समझाने- बुझाने से ही काम चलने लगे तो फिर प्रताड़ना के कटु व्यवहार का प्रयोग क्यों करना पड़ेगा! देखा भी यह जाता है कि जब कोई ढीठपन दिखाने और अनुचित हठवादिता से भरा दुराग्रह करने लगता है तो उसको दण्ड का भय दिखाना और व्यवहार करना पड़ता है, पर जब वह बदलती नीति के अनुरूप सीधी राह चलना अंगीकार कर लेता है तो अभिभावक भी अपनी रीति- नीति तुरन्त बदल देते हैं- जो कार्य प्यार से चले, उसके लिए दण्ड की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाए!  
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