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Books - नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी

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बुद्धिसंगत प्रतिपादनों की स्वीकृति

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साधारणतः जख्म भरने में देर लगती है, पर जब डॉक्टर खून बन्द करने की जल्दी में होते हैं तो टाँके लगातार रक्तस्राव को जल्दी ही बन्द भी कर देते हैं। गत दो हजार वर्षों की निकृष्टता को ठीक होने में भी इसी प्रकार कम समय लगना चाहिए।

    नियन्ता की विशेष व्यवस्था का यह भी एक चमत्कार है कि कम समय में घाव सिए और ठीक किए जा रहे हैं। इक्कीसवीं शताब्दी ऐसे ही चमत्कारों से भरी है, जिसमें देर तक भोगे जाने योग्य दण्ड की जगह उनकी चिह्न- पूजा करके ही किसी प्रकार सुधार कर देने का सुयोग बन गया है। हजारों वर्षों से बरती जा रही है अनीतियों को कम समय में सुधारने का अवसर मिल रहा है और उद्दण्डों को वांछित दण्ड देने की अपेक्षा केवल डरा- धमकाकर ही सही रास्ते पर चलाने का प्रबन्ध बन पड़ रहा है।

    जब मनुष्य उल्टा सोचता और उल्टा करता है तो उसके प्रतिफल भी भयानक ही होते हैं, पर जब यथार्थता को पहचान तथा अपना लिया जाता है तो बड़ी गलती भी थोड़ी ही देर में समझ में आ जाती है और उसका समाधान भी जल्दी ही हो जाता है। बीसवीं सदी का अन्त ऐसा ही है, जिसमें समझदारी तेजी से वापस लौट रही है और सुधार के उपक्रम भी तेजी से बन रहे हैं।

    जो गलती लम्बे समय से चल रही है और आए दिन एक के बाद दूसरा त्रास उपस्थित कर रही है, वह इतनी जल्दी सुधर भी सकती है, इसकी आशा कम ही की जाती थी, पर सुयोग इसी को कहते हैं कि समझदारी को जल्दी ही अपना लिया गया और गलती में समय रहते सुधार कर लिया गया।

    बोया हुआ बीज ही कुछ समय में अंकुर बनकर फूटता है और बिना आवश्यक खाद- पानी लगाए, वह पौधा और फिर पेड़ बन जाता है। सद्बुद्धि का उद्भव और उपक्रम भी ऐसा ही है कि समझदारी लौट पड़ने पर कठिन दीखने वाली समस्याएँ कम समय में सुलझ जाती हैं। दुर्बुद्धि ही दुष्परिणाम उत्पन्न करती है, पर जब वह उलटकर सद्बुद्धि के रूप में बदल जाती है तो फिर परिस्थितियाँ सुधरने में भी देर नहीं लगती।

    लगता है, एक शताब्दी में ही उतना सुधार हो जाएगा, जितना कि सामान्य गणित- क्रम से कई शताब्दियों में होना चाहिए था। समझ में न आने पर कोई गुत्थी हल होने में बहुत समय ले सकती है, पर जब भूल का पता लग जाता है, तो उसका हल निकालने में देर नहीं लगती। इस दृष्टि से इक्कीसवीं सदी को सुधार की शताब्दी के नाम से जाना गया है।

उल्टी समझ हजार समस्याओं का एक कारण है। लोगों ने समझ लिया है कि भलमनसाहत की रीति- नीति ही उचित है और उस को अपनाने से शान्तिपूर्वक रहा जा सकता है। इन दिनों एक हवा चली है कि हर आदमी यह सोचने लगा है कि दुर्बुद्धि का परित्याग किया जाए, दुष्टता से हाथ खींचे जाएँ और रीति- नीति ऐसी अपनाई जाए, जैसी कि सज्जनों को शोभा देती है। नीतिपूर्वक किया गया थोड़ा उपार्जन भी सुख के पर्याप्त साधन जुटा देता है; जबकि अनीतिपूर्वक पाया गया विपुल वैभव भी संकटों पर संकट खड़े करता जाता है। इन दिनों जहाँ भी सुना जाए, भलमनसाहत की रीति- नीति ही चर्चा का विषय बन रही है।

    उदाहरण के लिए शान्तिकुञ्ज से उभर रहा छोटा प्रवाह भी देखा जा सकता है। यहाँ नवयुग के अनुरूप प्रशिक्षण की ऐसी व्यवस्था बनी है, जैसी कि साधारण रीति से विपुल धनशक्ति लगाने एवं विशाल योजना बनाने पर भी बन पड़नी सम्भव नहीं थी। छोटे निर्माण भी ढेरों शक्ति एवं ढेरों साधन चाहते हैं; जबकि शान्तिकुञ्ज के छोटे आश्रम में दो हजार व्यक्तियों का नियमित नवयुग- प्रशिक्षण चल पड़ा है। अभी जहाँ भी विद्यालय चलते हैं, उन सभी में छात्रों को अपना भोजन- व्यय स्वयं वहन करना पड़ता है; जबकि शान्तिकुञ्ज में दो हजार शिक्षार्थी आश्रम में ही नियमित रूप से निःशुल्क भोजन प्राप्त कर रहे हैं। यह प्रबन्ध इसलिए किया गया है कि गरीब- अमीर के बीच किसी प्रकार का भेद- भाव न रहे। किसी निर्धन को यह शिकायत न करनी पड़े कि हमारे पास भोजन- व्यय होता तो हमें ऐसी बहुमूल्य शिक्षा से वंचित क्यों रहना पड़ता!

    प्रशिक्षण प्राय: वाणीमात्र से चलता है। उससे जानकारी भर मिलती है, जो कानों के रास्ते मस्तिष्क तक पहुँचती है। कई बार वह इस कान में प्रवेश करके उस कान से बाहर निकल जाती है, पर शान्तिकुञ्ज में पाँच दिन जैसे स्वल्प समय में जो कहा, सुना और बताया जाता है, उसमें असाधारण प्राण जुड़ा होता है, इसीलिए वह इतना प्राणवान् होता है कि चिरकाल के लिए अन्तराल में अपना स्थान बना लेता है और व्यावहारिक जीवन में क्रियाकलाप बनकर अपने स्थायित्व का परिचय देता रहता है।

    धार्मिक और आध्यात्मिक वक्ताओं और श्रोताओं की आजकल कमी नहीं। जहाँ थोड़ा अधिक आकर्षण होता है, वहाँ बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं, पर वाणी का रस लेने के अतिरिक्त ऐसा कुछ हाथ नहीं लगता, जिसे साथ लेकर जा सकें और जो जीवनधारा में व्यावहारिक बनकर स्थिर रह सके। अनीति और स्वार्थपरता तो लोगों को सुहाती भी है और मन की गहराई तक जम भी जाती है, पर ऐसा कदाचित् ही कहीं देखा जाता है कि कुछ समय का वैचारिक आदान- प्रदान उच्चस्तरीय होते हुए भी अपना स्थान बना सके और जड़ जमा सके। शान्तिकुञ्ज का मार्गदर्शन ही ऐसा है, जो मात्र पाँच दिन के सत्संग से पाँच वर्ष की साधना जितना प्रभाव छोड़ जाता है; साथ ही यह भी सिद्ध करता है कि सार्थक प्रशिक्षण में कितनी गहराई और ऊँचाई होनी चाहिए।

    घिसी- पिटी रटी- रटाई व सुनी- सुनाई बातों को सुनने- समझने में लोगों को देर नहीं लगती। इन सबमें कोई विरोध का झंझट भी नहीं होता; समझने में मस्तिष्क पर दबाव भी नहीं पड़ता, किन्तु समय के साथ चलने वाले युगधर्म में ऐसी अनेक बातों का सम्मिश्रण होता है, जिनमें नवीनता भी रहती है और जो विवादास्पद भी समझी जाती हैं। उन्हें स्वीकारने और हृदयंगम करने में बुद्धि पर दबाव भी बहुत पड़ता है, इसलिए देखा गया है कि लोग घिसी- पिटी बातों को ही सहजतः: समझते और स्वीकारते रहे हैं, पर जिनमें तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरणों की भरमार होने पर भी पूर्वाग्रहों के साथ संगति नहीं बैठती, उनके प्रति असहमति ही व्यक्त करते रहते हैं। ऐसा अब तक कम ही हुआ है कि समय की पुकार और युगधर्म को लोगों ने बिना किसी ननु- नच के; बिना विवाद- झंझट किए स्वीकार कर लिया हो, पर शान्तिकुञ्ज के प्रतिपादन और परामर्श ऐसे ही देखे गए हैं, जिनके प्रति आश्चर्य तो प्रकट किया गया है, पर किसी ने उन्हें यथार्थता से विपरीत ठहराया नहीं है।

    आमतौर से स्वार्थ- सिद्धि के परामर्श ही भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अनुकूल समझे जाते और सहज ग्राह्य होते हैं, पर जिनमें लोक- मंगल और नवनिर्माण के अप्रचलित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया हो ऐसे प्रतिपादनों का विरोध या उपहास ही होता है। आश्चर्य इस बात का है कि प्रचलन का विरोध होते हुए भी युगधर्म की व्याख्या को, नए विचारों को अब सामान्य बुद्धि द्वारा ही समझा और स्वीकारा जा रहा है।


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