
आध्यात्मिक पवित्रता का मार्ग
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शारीरिक और मानसिक पवित्रता के साथ ही आध्यात्मिक पवित्रता
भी आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना आत्मोन्नति जो कि मनुष्य का
प्रधान लक्ष्य है सम्भव नहीं होती । आध्यात्मिक पवित्रता द्वारा ही मनुष्य
में सच्चे प्रेम भक्ति दया उदारता, परोपकार आदि की उत्पत्ति हो
सकती है और देवत्व का विकास हो सकता है ।
यह सृष्टि त्रिगुणमयी है । सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीन गुणों से संसार के समस्त जड़-चेतन ओत-प्रोत हो रहे हैं । तमोगुण में आलस्य (अशान्ति युक्त मूढ़ता) रजोगुण में क्रियाशीलता (चंचलता) सतोगुण में शान्ति युक्त क्रिया (पवित्रता और अनासक्त व्यवहार) होता है ।
प्राय: तमोगुण और रजोगुण की ही लोगों में प्रधानता होती है । सतोगुण आजकल बहुत कम मात्रा में पाया जाता है । क्योंकि उच्च आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप ही सतोगुण का विकास होता है ।
सतोगुण की वृद्धि ही पवित्रता और कल्याण का हेतु है । सात्विकता जितनी बढ़ती जायगी उतना ही प्राणी अपने लक्ष्य के निकट होता जायगा । इसके विपरीत रजोगुण की अधिकता से मनुष्य भोग और लोभ के कुचक्र में फँस जाता है और तमोगुणी तो तीव्र गति से पतन के गर्त में गिरने लगता है ।
तमोगुण प्रधान मनुष्य आलसी अकर्मण्य निराश और परमुखापेक्षी होता है । वह हर बात में दूसरों का सहारा टटोलता है । अपने ऊपर, अपनी शक्तियों के ऊपर उसे विश्वास नहीं होता । दूसरे लोग किसी कुपात्र को सहायता क्यों दें ? जब उसे किसी ओर से समुचित सहयोग नहीं मिलता तो खिन्न और क्रुद्ध हो कर दूसरों पर दोषारोपण करता है और लड़ता-झगड़ता है । लकवा मार जाने वाले रोगी की तरह उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं और जड़ता एवं मूढ़ता में मनोभूमि जकड़ जाती है । शरीर में स्थूल बल थोड़ा बहुत भले ही रहे पर प्राण-शक्ति, आत्मबल, शौर्य एवं तेज का नितान्त अभाव ही रहता है । ऐसे व्यक्ति बहुधा कायर, कुकर्मी, क्रूर, आलसी और अहंकारी होते हैं । उनके आचरण, विचार, आहार, कार्य और उद्देश्य सभी मलीन होते हैं ।
तमोगुण पशुता का चिन्ह है । चौरासी लाख योनियों में तमोगुण ही प्रधान रहता है ।तमोगुणी संस्कार जिस मनुष्य के जीवन में प्रबल हैं उसे नर-पशु कहा जाता है । इस पशुता से जब जीव की कुछ प्रगति होती है तब उसका रजोगुण बढ़ता है । तम की अपेक्षा उसके विचार और कार्यों में राजसिकता अधिक रहती है ।
रजोगुणी में उत्साह अधिक रहता है फुर्ती, चतुराई, चालाकी, होशियारी, खुदगर्जी, दूसरों को उल्लू बनाकर अपना मतलब गाँठ लेने की योग्यता खूब होती है ऐसे लोग बातून, प्रभावशाली, क्रियाशील, परिश्रमी, उद्योगी, साहसी, आशावादी और विलासी होते हैं । उनकी इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं । स्वादिष्ट भोजन बढ़िया ठाठ-बाट विषय वासना की इच्छा सदैव मन में लगी रहती है कई बार तो वे भोग और परिश्रम में इतने निमग्न हो जाते हैं कि अपना स्वास्थ्य तक गँवा बैठते हैं ।
यारबाशी, गप-शप, खेल-तमाशे, नृत्य-गायन भले-विलास शान-शौकत, रौव-दॉव, ऐश आराम, शाबासी, वाहवाही, बड़प्पन और धन-दौलत में रजोगुणी लोगों का मन खूब लगता है ।सत्य और शिव की ओर उनका ध्यान नहीं जाता, पर 'सुन्दरम् को देखते ही लट्टू हो जाते हैं । ऐसे लोग बहिर्मुखी होते हैं बाहर की बातें तो बहुत सोचते हैं पर अपनी आन्तरिक दुर्बलता पर विचार नहीं करते अपनी बहुमूल्य योग्यताओं परिस्थितियों और शक्तियों को अनावश्यक रूप से हलकी छछोरी और बेकार की बातों में बर्बाद करते रहते हैं ।
सतोगुण की वृद्धि जब किसी मनुष्य में होती है तो अन्तरात्मा में धर्म, कर्तव्य और पवित्रता की इच्छा उत्पन्न होती है । न्याय और अन्याय का सत् और असत् का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, ग्राह्य और त्याज्य का भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है । तत्वज्ञान, धर्मविवेक दूरदर्शिता, सरलता, नम्रता और सज्जनता से उसकी दृष्टि भरी रहती है । दूसरों के साथ करुणा, दया, मैत्री, उदारता, स्नेह आत्मीयता और सद्भावना का व्यवहार करता है कुच-कांचन की तुच्छता को समझकर वह तप साधना, स्वाध्याय, सत्संग, सेवा, दान और प्रभु शरणागति की ओर अग्रसर होता है ।
सात्विकता की अभिवृद्धि होने से आत्मा में असाधारण शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं आनन्द रहता है । उसका प्रत्येक विचार और कार्य पुण्यमय होता है, जिससे निकटवर्ती लोगों को भी ज्ञात और अज्ञात रूप से बड़ी शान्ति एवं प्रेरणा प्राप्त होती है ।
तमोगुण सबसे निकृष्ट अवस्था है । रजोगुण उससे कुछ ऊँचा तो है पर मनुष्यता से नीचा है । मनुष्य का वास्तविक परिधान सतोगुण है । मनुष्यता का निवास सात्विकता में है । आत्मा को तब तक शान्ति नहीं मिलती जब तक कि उसे सात्विकता की परिस्थिति प्राप्त न हो । जो मनुष्य जितना सतोगुणी है वह परमात्मा के उतना ही समीप है । इस दैवी तत्व को प्राप्त करके जीव धन्य होता है क्योंकि जीवन लग्न की प्राप्ति का एक मात्र साधन सतोगुण ही है प्रत्येक पवित्र-जीवन के प्रेमी को अपनी सात्विकता की अभिवृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
वास्तव में सतोगुणी जीवन सब प्रकार की पवित्रता की जड़ है । इससे मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का प्रादुर्भाव होता है और वह हर तरह के मलिन आचरणों से दूर रहकर शुद्ध और पवित्र बन सकता है । सतोगुणी मनुष्य दैनिक रहन-सहन खान-पान आहार-विहार सब बातों में शुद्धता का विचार रखता है और इसके परिणाम स्वरूप उसके मन वचन और कर्म में अशुद्ध भावनाओं का प्रवेश नहीं हो पाता । वह सब के लिए हितकारी विचार करता है दूसरों को अच्छी लगने बाली बातें मुँह से निकालता है और दूसरों-सबकी भलाई के काम करता है । ऐसा व्यक्ति केवल आत्मिक और मानसिक पवित्रता का हो विचार नहीं रखता वरन् उसके चारों ओर का वातावरण पवित्र रहता है प्रत्येक वस्तु में शुद्धता का विचार रखा जाता है और कोई भी गन्दा काम नहीं किया जा सकता जैसा हम अन्यत्र लिख चुके हैं कि शरीर का राजा मन है और मन पर आत्मा द्वारा शासन किया जा सकता है ।
इसलिए पवित्र जीवन का वास्तविक उद्गम स्थान आत्मा ही है । अगर हम आत्मा की शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखेगे तो हमारा शेष समस्त जीवन स्वयं ही पवित्रता की ओर प्रेरित होगा और आत्मा उसी अवस्था में जागृत और उच्च भाव सम्पन्न होती है जब उसकी प्रवृत्ति सतोगुण को ओर हो । गीता में भी कहा है-
सर्व द्वारेषु देहेSस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवद्धं सत्त्वमित्युत ।।
अर्थात्-''जिस काल में देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोध शक्ति उत्पन्न होती है उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है ।'' और भी कहा है-सत्वात्संजायने ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।प्रमाद मोहौ तमसो भवतो ज्ञानSमेव च ।।
अर्थात्- सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निस्सन्देह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद मोह और अज्ञान की उत्पत्ति होती है ।
यह सृष्टि त्रिगुणमयी है । सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीन गुणों से संसार के समस्त जड़-चेतन ओत-प्रोत हो रहे हैं । तमोगुण में आलस्य (अशान्ति युक्त मूढ़ता) रजोगुण में क्रियाशीलता (चंचलता) सतोगुण में शान्ति युक्त क्रिया (पवित्रता और अनासक्त व्यवहार) होता है ।
प्राय: तमोगुण और रजोगुण की ही लोगों में प्रधानता होती है । सतोगुण आजकल बहुत कम मात्रा में पाया जाता है । क्योंकि उच्च आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप ही सतोगुण का विकास होता है ।
सतोगुण की वृद्धि ही पवित्रता और कल्याण का हेतु है । सात्विकता जितनी बढ़ती जायगी उतना ही प्राणी अपने लक्ष्य के निकट होता जायगा । इसके विपरीत रजोगुण की अधिकता से मनुष्य भोग और लोभ के कुचक्र में फँस जाता है और तमोगुणी तो तीव्र गति से पतन के गर्त में गिरने लगता है ।
तमोगुण प्रधान मनुष्य आलसी अकर्मण्य निराश और परमुखापेक्षी होता है । वह हर बात में दूसरों का सहारा टटोलता है । अपने ऊपर, अपनी शक्तियों के ऊपर उसे विश्वास नहीं होता । दूसरे लोग किसी कुपात्र को सहायता क्यों दें ? जब उसे किसी ओर से समुचित सहयोग नहीं मिलता तो खिन्न और क्रुद्ध हो कर दूसरों पर दोषारोपण करता है और लड़ता-झगड़ता है । लकवा मार जाने वाले रोगी की तरह उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं और जड़ता एवं मूढ़ता में मनोभूमि जकड़ जाती है । शरीर में स्थूल बल थोड़ा बहुत भले ही रहे पर प्राण-शक्ति, आत्मबल, शौर्य एवं तेज का नितान्त अभाव ही रहता है । ऐसे व्यक्ति बहुधा कायर, कुकर्मी, क्रूर, आलसी और अहंकारी होते हैं । उनके आचरण, विचार, आहार, कार्य और उद्देश्य सभी मलीन होते हैं ।
तमोगुण पशुता का चिन्ह है । चौरासी लाख योनियों में तमोगुण ही प्रधान रहता है ।तमोगुणी संस्कार जिस मनुष्य के जीवन में प्रबल हैं उसे नर-पशु कहा जाता है । इस पशुता से जब जीव की कुछ प्रगति होती है तब उसका रजोगुण बढ़ता है । तम की अपेक्षा उसके विचार और कार्यों में राजसिकता अधिक रहती है ।
रजोगुणी में उत्साह अधिक रहता है फुर्ती, चतुराई, चालाकी, होशियारी, खुदगर्जी, दूसरों को उल्लू बनाकर अपना मतलब गाँठ लेने की योग्यता खूब होती है ऐसे लोग बातून, प्रभावशाली, क्रियाशील, परिश्रमी, उद्योगी, साहसी, आशावादी और विलासी होते हैं । उनकी इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं । स्वादिष्ट भोजन बढ़िया ठाठ-बाट विषय वासना की इच्छा सदैव मन में लगी रहती है कई बार तो वे भोग और परिश्रम में इतने निमग्न हो जाते हैं कि अपना स्वास्थ्य तक गँवा बैठते हैं ।
यारबाशी, गप-शप, खेल-तमाशे, नृत्य-गायन भले-विलास शान-शौकत, रौव-दॉव, ऐश आराम, शाबासी, वाहवाही, बड़प्पन और धन-दौलत में रजोगुणी लोगों का मन खूब लगता है ।सत्य और शिव की ओर उनका ध्यान नहीं जाता, पर 'सुन्दरम् को देखते ही लट्टू हो जाते हैं । ऐसे लोग बहिर्मुखी होते हैं बाहर की बातें तो बहुत सोचते हैं पर अपनी आन्तरिक दुर्बलता पर विचार नहीं करते अपनी बहुमूल्य योग्यताओं परिस्थितियों और शक्तियों को अनावश्यक रूप से हलकी छछोरी और बेकार की बातों में बर्बाद करते रहते हैं ।
सतोगुण की वृद्धि जब किसी मनुष्य में होती है तो अन्तरात्मा में धर्म, कर्तव्य और पवित्रता की इच्छा उत्पन्न होती है । न्याय और अन्याय का सत् और असत् का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, ग्राह्य और त्याज्य का भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है । तत्वज्ञान, धर्मविवेक दूरदर्शिता, सरलता, नम्रता और सज्जनता से उसकी दृष्टि भरी रहती है । दूसरों के साथ करुणा, दया, मैत्री, उदारता, स्नेह आत्मीयता और सद्भावना का व्यवहार करता है कुच-कांचन की तुच्छता को समझकर वह तप साधना, स्वाध्याय, सत्संग, सेवा, दान और प्रभु शरणागति की ओर अग्रसर होता है ।
सात्विकता की अभिवृद्धि होने से आत्मा में असाधारण शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं आनन्द रहता है । उसका प्रत्येक विचार और कार्य पुण्यमय होता है, जिससे निकटवर्ती लोगों को भी ज्ञात और अज्ञात रूप से बड़ी शान्ति एवं प्रेरणा प्राप्त होती है ।
तमोगुण सबसे निकृष्ट अवस्था है । रजोगुण उससे कुछ ऊँचा तो है पर मनुष्यता से नीचा है । मनुष्य का वास्तविक परिधान सतोगुण है । मनुष्यता का निवास सात्विकता में है । आत्मा को तब तक शान्ति नहीं मिलती जब तक कि उसे सात्विकता की परिस्थिति प्राप्त न हो । जो मनुष्य जितना सतोगुणी है वह परमात्मा के उतना ही समीप है । इस दैवी तत्व को प्राप्त करके जीव धन्य होता है क्योंकि जीवन लग्न की प्राप्ति का एक मात्र साधन सतोगुण ही है प्रत्येक पवित्र-जीवन के प्रेमी को अपनी सात्विकता की अभिवृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
वास्तव में सतोगुणी जीवन सब प्रकार की पवित्रता की जड़ है । इससे मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का प्रादुर्भाव होता है और वह हर तरह के मलिन आचरणों से दूर रहकर शुद्ध और पवित्र बन सकता है । सतोगुणी मनुष्य दैनिक रहन-सहन खान-पान आहार-विहार सब बातों में शुद्धता का विचार रखता है और इसके परिणाम स्वरूप उसके मन वचन और कर्म में अशुद्ध भावनाओं का प्रवेश नहीं हो पाता । वह सब के लिए हितकारी विचार करता है दूसरों को अच्छी लगने बाली बातें मुँह से निकालता है और दूसरों-सबकी भलाई के काम करता है । ऐसा व्यक्ति केवल आत्मिक और मानसिक पवित्रता का हो विचार नहीं रखता वरन् उसके चारों ओर का वातावरण पवित्र रहता है प्रत्येक वस्तु में शुद्धता का विचार रखा जाता है और कोई भी गन्दा काम नहीं किया जा सकता जैसा हम अन्यत्र लिख चुके हैं कि शरीर का राजा मन है और मन पर आत्मा द्वारा शासन किया जा सकता है ।
इसलिए पवित्र जीवन का वास्तविक उद्गम स्थान आत्मा ही है । अगर हम आत्मा की शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखेगे तो हमारा शेष समस्त जीवन स्वयं ही पवित्रता की ओर प्रेरित होगा और आत्मा उसी अवस्था में जागृत और उच्च भाव सम्पन्न होती है जब उसकी प्रवृत्ति सतोगुण को ओर हो । गीता में भी कहा है-
सर्व द्वारेषु देहेSस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवद्धं सत्त्वमित्युत ।।
अर्थात्-''जिस काल में देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोध शक्ति उत्पन्न होती है उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है ।'' और भी कहा है-सत्वात्संजायने ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।प्रमाद मोहौ तमसो भवतो ज्ञानSमेव च ।।
अर्थात्- सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निस्सन्देह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद मोह और अज्ञान की उत्पत्ति होती है ।