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Books - प्राणघातक व्यसन

Media: TEXT
Language: HINDI
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न से चरित्रहीनता की वृद्धि होती है

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नित्यप्रति बाजारों, गलियों और रेलवे स्टेशनों पर बढ़ती हुई पान की आदत देखी जा सकती है । आधुनिक युग में पान का व्यसन उत्तरोत्तर वृद्धि पर है । इसका प्रयोग प्राय: हानिकर है, यह लोग जानते ही नहीं । आधुनिक सभ्यता ने इसे कुछ ऐसा अपना लिया है कि इसमें अशिष्टता, हानि या अश्लीलता नहीं समझी जाती ।

पान वासना उद्दीप्त करने वाला उत्तेजक मिश्रण है । मध्य युग में वेश्याएँ विशेष रूप से पान का उपयोग करती रही थीं । आज भी अधिकतर निम्नकोटि के मिरासी, भिश्ती, मजदूर, छैलछबीले कामुक व्यक्ति इसका प्रयोग करते हैं । वेश्या, मदिरा और पान-इन तीनों का संग है । मुगल काल में वेश्याओं और कामुकता को विशेष प्रोत्साहन मिलने से पान की लोकप्रियता बढ़ी । मुगल बादशाह और नवाब पान के आदी ही नहीं बन गए थे, वरन यह व्यसन इतनी बढ़ती पर था कि उसके बिना उनका जीवन दूभर हो गया था । पानदान और वेश्याएँ उनके साथ युद्ध में भी रहती थीं ।

आजकल पान का प्रचार इतना बढ़ गया है कि साधारण व्यक्ति भी दो-चार पान खा ही लेता है । अभ्यस्त व्यक्ति पचास से सौ तक पान चबा जाते हैं । सुपारी को महीन काटकर खुशबूदार चीजें मिलाकर ऐसा आकर्षक बनाया जाता है कि उसे खाना फैशन सा हो गया है । जर्दा, अधिक चूना तथा अनेक कृत्रिम पदार्थ डालकर उसे ऐसा बना दिया जाता है कि उससे हानि होने की अधिक संभावना है ।

पान का रासायनिक विश्लेषण करने पर इसमें पियोरीन, पियोरिडीन, ऐरेकोलीन, एमीलीन, मरक्यूरिक एलमीन, पियोरोवेटीन इत्यादि विष-तत्त्व विद्यमान रहते हैं । स्थान वैभिन्य के साथ-साथ पान के रासायनिक तत्व भी परिवर्तित होते रहते हैं । जैसे मद्रासी पान में पियरोवेटीन नामक विष की मात्रा अधिक है । काला पान सबसे अधिक विषयुक्त समझा जाता है ।

एक विशेषज्ञ का कथन है कि यदि सादे २८५ पानों का विष निकालकर कुत्तों को खिला दिया जाए तो वे पाँच मिनट के अंदर समाप्त हो जाएँगे, परंतु चूने और कत्थे से लगे ५८ पान ही विष की उक्त मात्रा देने में समर्थ हो जाएँगे । इसलिए कत्थे-चूने लगे पान सादे पान से अधिक विषैले प्रमाणित हुए ।

पियरोवेटीन नामक विष हृदयगति को शिथिल तथा निष्क्रिय बनाने वाला होता है । अन्य विषों के कीटाणु मस्तिष्क पर आक्रमण करते हैं और उसकी सूक्ष्मता नष्ट कर देते हैं । इन विषों के प्रभाव से मस्तिष्क अशांत रहने लगता है । नींद का लोप हो जाता है । पान से कामेन्द्रियाँ उत्तेजित रहती हैं तथा मन विषय वासनामय गंदे विचारों से परिपूर्ण रहता है । कामवासना को बढ़ाने के कारण यह आध्यात्मिक सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिए विषतुल्य है । कहा जाता है कि एरकोलिन विष चूने तथा कत्थे से संयुक्त होकर, अत्यंत कामोद्दीपक हो जाता है । यह पुरुष-स्त्री के शुक्र तथा रज-कीटों का नाश कर देता है ।

अधिक पान खाने से भूख कम हो जाती है । पान खाने वालों की पानी से तृप्ति हो जाती है । पान का घातक प्रभाव दाँतों पर होता है । सुपारी, चूना, कत्था, जर्दा इत्यादि के सूक्ष्म कण यत्र- तत्र मसूड़ों या कटे हुए दाँतों के छिद्रों में एकत्रित हो जाते हैं । ये मसूड़ों को काला तथा दाँतों की जड़ों को खोखला बना देते हैं । दाँतों में कीड़े लग जाते हैं और प्राय: पायरिया नामक घातक रोग उत्पन्न हो जाता है । दाँतों के इतने अस्पताल देखने से ज्ञात होता है कि तीस - चालीस वर्ष की अवस्था में ही आधुनिक बाबुओं के दाँत गिर जाते या खोखले होकर अनेक बीमारियों की सृष्टि करते हैं ।

सौ में से नब्बे या इससे भी अधिक लोगों के दाँत गिरने का कारण उनका पान का बहुत अधिक व्यवहार ही है । पान के रेशे सुपाड़ी के बारीक टुकड़े और चूना जाकर दाँतों के बीच में फँस जाते हैं । समय पाकर ये इतने अधिक हो जाते हैं कि दाँतों पर जोर डालकर उनके बीच संधि को बढ़ा देते हैं । इनको हटाने के लिए जीभ सदा दाँतों के बीच में लगी रहती है । कुछ समय पश्चात मसूडो़ं में सूजन हो जाती है और उनके भीतर पीव उत्पन्न हो जाती है । दाँतों में असह्य पीड़ा रहती है और कुछ समय पश्चात जब उनकी जड़ की नसें आदि भलीभाँति नष्ट हो जाती हैं तो वे गिर पड़ते हैं । पान का व्यसन दाँतों का अंत कर देता है । लोग बिना दाँत के भोजन को भलीभाँति न कुचल सकने के कारण उसे वैसे ही निगल जाते हैं । अंत में दाँतों का कार्य उदर को करना पड़ता है और वह भी कुछ समय पश्चात निर्बल हो जाता है । भोजन भलीभाँति नहीं पचता और मनुष्य निर्बल होते-होते अंत में पान के व्यसन के कारण काल के गाल में पहुँच जाता है ।

पान खाना अशिष्टता, ओछापन तथा कामोत्तेजक स्वभाव का द्योतक है । पान की दुकान पर खड़े होकर पान खाना असभ्य, वासनाप्रिय, दिखावटी, अस्थिरता, लोलुपता को स्पष्ट करता है । मनुष्य का पतन प्राय: पान से ही प्रारंभ होता है । वह इसे साधारण सा व्यसन मानकर हँसी-हँसी में आरंभ करता है, किंतु धीरे-धीरे यह आदत का एक अंग बनता है । तंबाकू खाने को तबियत करती है, फिर सिगरेट प्रारंभ होती है, अंत में मदिरा और व्यभिचार तक हद पहुँच जाती है । अत: चतुर व्यक्ति को इस व्यसन से दूर ही रहना उत्तम है । सुपरी का भी शौक बुरा है । इससे खुश्की रहती है, दाँतों पर अनावश्यक बोझ पड़ता है, कुछ चबाए बिना मन नहीं मानता, मन एकाग्र नहीं हो पाता और चंचलता बढ़ती रहती है ।

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