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Books - प्राणघातक व्यसन

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भाँग, गाँजा और चरस की नाशकारी कुटेव

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भाँग और गाँजा भारत के ग्रामों में फैले हुए महारोग हैं, जो निरंतर भयंकर विनाश कर रहे हैं । दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे अपढ़, पिछड़े, साधु, वैरागी, भिखारी, पंडे, पुरोहित लोग भाँग के विशेष शौकीन होते हैं । भगवान शंकर की आड़ लेकर ये लोग निरंतर भाँग, गाँजा और चरस का प्रयोग करते हैं । हमारा कलंक है कि हम ऐसे साधुओं से घृणा नहीं करते ।

श्री बैजनातेथ महोदय लिख हैं- ''भाँग, गाँजा, चरस के प्रचारक तो ८० लाख उत्साही साधु तथा ग्रामों में स्थित मंदिर हैं । मंदिरों और साधुओं द्वारा भक्ति का प्रचार कितना होता है, सो तो भगवान ही जानें, किंतु वे प्राय: भंगडियों के अड्डे तो जरूर होते हैं । शाम-सुबह ग्राम के व्यक्ति बाबाजी की धूनी पर और शहरों के सेठिया तथा गुंडे इत्यादि अपने बाग- बगीचों या शहर के बाहर वाले मंदिरों में भाँग छानने अथवा सुलफा पीने (गाँजे का दम लगाने) के लिए नियम एवं एक निष्ठापूर्वक एकत्र होते हैं । ये लाखों स्थान दुर्गुणों को बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं । तीर्थस्थानों में तो यह बुराई और भी अधिक परिमाण में पाई जाती है । प्रत्येक घाट तथा मंदिर निश्चित रूप से भाँग का अड्डा होता है ।''

स्मरण रखिए, भाँग, गाँजा, चरस इत्यादि भयंकर विषैले पदार्थ हैं । इनमें प्रवृत्त होने से मानव की वृत्तियाँ पापमय हो जाती हैं, मन उत्तेजना एवं विकारों से परिपूर्ण हो जाता है । सुश्रुत ने इन्हें कफ और खाँसीवर्द्धक बताया है । भाँग का पौधा विषैला है, जिससे भाँग, गाँजा, चरस तीनों नशीली चीजें तैयार होती हैं । सुश्रुत ने भाँग या गाँजे के पौधे का स्थावर विषों में उल्लेख किया है और इसकी जड़ को विष माना है । (देखिए सुश्रुत कल्प अध्याय- २)

कुछ चिकित्सकों के अनुसार इन मादक वस्तुओं के प्रयोग से शक्ति क्षीण होती है, नेत्र का रंग सुर्ख पड़ जाता है और सर में चक्कर आने लगते हैं । भाँग पीकर मदहोश हो जाते हैं और भोजन अधिक खाते हैं, किंतु यह तो एक प्रकार की अस्वाभाविक क्षुधा होती है । नशा उतरते पर अपच, पेट का भारीपन, उलटी और पेट के अन्य विकार उत्पन्न होते हैं । गाँजा पीने वालों के दिमाग बहुत जल्दी बिगड़ जाते है । भाँग पीने वालों के चित्त की स्थिरता जाती रहती है और उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता । भंगड़ी व्यक्ति सनकी होता है । उसके मन में जैसे ही एक बात उठती है, वह वैसे ही उसे कर बैठता है । ये व्यर्थ के व्यय मनुष्य को पनपने नहीं देते । गरीब मूर्खों की अधिकतर आय इन्हीं अनावश्यक मादक वस्तुओं में नष्ट हुआ करती है । भाँग, गाँजा, चरस इत्यादि से मनुष्य की वासना उदीप्त होती है और वह व्यभिचार में प्रवृत्त होता है । ऐसा व्यक्ति व्यापार, उद्यम, कला-कौशल या किसी उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को करने के योग्य नहीं रह जाता ।

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