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Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

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प्रतिभा संवर्धन के दो आधार साहसिकता एवं सुव्यवस्था

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एक कहावत है कि ‘‘ईश्वर मात्र उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ इसी से जुड़ती हुई एक और उक्ति है- जिसमें दैव पर ‘‘दुर्बल का घातक’’ होने का आरोप लगाया गया है। गीताकार का कथन है कि ‘‘मनुष्य अपना शत्रु आप है और स्वयं अपना मित्र भी।’’ यह उसकी इच्छा निर्भर है कि अस्त- व्यस्तता अपनाकर अपने को दुर्गति के गर्त में धकेले अथवा चुस्त- दुरुस्त रहकर प्रगति के शिखर पर निर्बाध गति से आगे बढ़ता चला जाए। गीताकार ने आगे चलकर अर्जुन के बहाने हर विचारशील से यह आग्रह किया है कि ‘‘अपने को उठाने में लगो, गिरते चलने की धृष्टता मत करो।’’

    संसार कितना भी सुखद, सुंदर, सुविधाजनक क्यों न हो, पर अपने में त्रुटियाँ रहने पर वह सारा विस्तार निरर्थक बनकर रहेगा। अपनी आँखें काम न करें, तो संसार भर का दृश्य और सौंदर्य समाप्त हुआ समझा जाना चाहिए। कानों की श्रवण शक्ति चली जाए, तो प्रवचन- कर्ता परामर्शदाता और गायक व वादक निरर्थक बन गए ही समझे जा सकते हैं। दिमाग खराब हो चले तो समझना चाहिए कि संसार का हर मनुष्य उलटी चाल चल रहा है। पेट खराब हो जाए या रक्त में विषाक्तता घुस पड़े, तो दुर्बलता रुग्णता से होकर अकाल मृत्यु का भयंकर आक्रमण अब- तब में होने ही जा रहा है, यह मानना चाहिए।

    प्रगति का इतिहास, सुनियोजित तन्मयता और तत्परता की आधार- शिला पर ही लिखा गया है। इनके अभाव में किसी को पूर्वजों की कमाई या सुविधाजनक परिस्थितियों का अंबार ही हाथ क्यों न लग जाए, वह सारे वैभव को फुलझड़ी की तरह जलाकर क्षणभर का मनोरंजन कर लेगा और फिर सदा- सर्वदा पश्चाताप से सिर धुनता रहेगा। हमारी कर्मों की कलम ही अपने भविष्य की भली- बुरी संभावना रचती रही है।

    शरीर का भारी, लंबा- तगड़ा होना एक बात है और हिम्मत का धनी होना सर्वथा दूसरी। तगड़ापन कुछ अच्छा और आश्चर्यजनक तो लगता है, पर उनमें इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति, हिम्मत और प्राण ऊर्जा की कमी हो तो उसे कायरता और भीरुता के कारण चिंतित, शंकाशील, खिन्न- उद्विग्न ही देखा जाएगा। तनिक- सी कठिनाई आ जाने पर राई को पर्वत की तरह बड़ा बना लेने और किसी प्रकार बचने- बचाने की ही कामना बनी रहेगी। वह यह समझ ही नहीं सकता कि कठिनाइयाँ कागज के बने हाथी की तरह बड़ी और डरावनी तो होती हैं, पर मनस्वी के प्रतिरोध की एक ठोकर भी वे सह नहीं सकतीं।

    हर छोटे परमाणु में अजस्र शक्ति भरी होती है। यदि उसके विस्फोट का नियोजन किया जा सके, तो प्रतीत होगा, ‘न कुछ’ दिखने वाले में ‘सब कुछ’ स्तर की सशक्तता भरी हुई है। आवश्यकता मात्र प्रसुप्ति के जागरण भर की है। औसत आदमी का इतना ही नगण्य- सा स्तर जाग्रत् रहता है, जिससे वह पेट एवं परिवार की गाड़ी किसी प्रकार धकेलता रहे। जिनके अंतराल में सुनियोजित उच्चस्तर की महत्त्वाकाँक्षाएँ अपना ताना- बाना बुनती रहती हैं, वे इतने बड़े कार्य संपन्न कर लेते हैं, जिन्हें देखकर साथियों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़े, बाह्य दृष्टि से एक जैसे लगने वाले व्यक्तियों के बीच भी जमीन- आसमान जितना अंतर पाया जाता है। यह अंतर कहीं बाहर से आ धमका हुआ नहीं होता, वरन् व्यक्ति ने उनकी संरचना अपने हाथों स्वयं ही की होती है। हिम्मत बढ़ाना, साहस जुटाना, पराक्रम दिखाना और जो अनुचित है उससे लड़ पड़ने में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे असंभव तो क्या कठिन भी माना जा सके। प्रगति भीतर से आरंभ होती है और बाहर तो उसकी स्वरूप तदनुरूप परिणति- परछाई ही दिखाई देती है।

झाड़ी, अँधेरे में भूत बन दिल दहला देती है। रस्सी को साँप समझने वाले की अँधेरे के माहौल में घिग्घी बँध जाती है। ‘‘शंका डायन मनसा भूत’’ की कहावत सोलहों आने सच है। हिम्मत वाले लंबी दुर्गम यात्राएँ एकाकी पूरी करते हैं, पर कायरों को रात के समय पेशाब करने बाहर जाना पड़े, तो किसी साथी को जगाना पड़ता है। राणा सांगा को लड़ाई के मैदान में अस्सी से अधिक घाव लगे थे, पर वे कुछ भी परवाह किए बिना तब तक दोनों हाथों से तलवार चलाते रहे, जब तक कि उनके प्राण नहीं निकल गए। भीष्म पितामह का शरीर चुभे हुए बाँणों से ऊपर टँगा हुआ था, पीड़ा बहुत थी, पर उन्होंने मौत से स्पष्ट कह दिया था कि उत्तरायण सूर्य होने में अभी बहुत दिन है, तब तक मृत्यु को वापस लौटना चाहिए, जब तक इच्छित मुहूर्त न आ जाए। मौत को मनस्वी का कहना मानना ही पड़ा। किसी ने सच ही कहा है बहादुर जिंदगी में एक बार मरते हैं, पर कायरों को तो पग- पग पर मरना पड़ता है।

    इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि मनुष्य अपनी मानसिक क्षमता का मात्र सात प्रतिशत ही शरीर यात्रा के साधन जुटाने भर में आजीवन गँवाता- खपाता रहता है जबकि उसकी ९३ प्रतिशत सामर्थ्य सोई, खोई, मरी, मूर्च्छित या अविज्ञात स्थिति में ही पड़ी रहती है। अपनी दौलत भरी तिजोरी की चाबी खो देने पर कोई दरिद्रियों की तरह दुर्गतिग्रस्त स्थिति में फिरे, तो उसके लिए कोई क्या कुछ करे? यदि आत्मनिर्माण में जुटा जा सके, बुरी आदतों को कूड़े- करवट की तरह बुहारा जा सके, दृष्टिकोण में मानवी गरिमा के अनुरूप मान्यताओं का समावेश किया जा सके, तो समझना चाहिए कि वनमानुष के नर- नारायण में बदल जाने जैसा कायाकल्प उपलब्ध हो गया। उसे प्रकारांतर से व्यवस्था बुद्धि का विकास कहा जा सकता है। अपना एवं दूसरों का प्रबंध कर सकना यों एक बहुत मामूली व्यवस्था मालूम पड़ती है, पर सही बात यह है कि उससे बढ़कर और कोई गौरवास्पद वैभव- वरदान है नहीं।

    सेनापति भी आरंभ में मामूली सिपाही की तरह भरती होता है। फिर अधिकारी देखता रहता है कि इनमें से किसमें व्यवस्था बुद्धि है। वह अनुपात जिसमें जितना बढ़ा- चढ़ा पाया जाता है, वह उतनी ही भारी जिम्मेदारियाँ उठाता और अपने कौशल के बल पर असंभव को संभव कर दिखा जाता है। गौरवान्वित वे इसी आधार पर होते रहते हैं। मिल, फैक्ट्रियों, कारखानों, उद्योगों की प्राणशक्ति कुशल प्रबंधक- संचालकों पर केंद्रित रहती है। उन्हीं की दूरदर्शिता से छोटे कारखाने बढ़कर आशातीत प्रगति का श्रेय पाते और अपने कौशल से हर किसी को अचंभे में डालते हैं। संस्थानों को शानदार स्तर और आंदोलनों को छोटे शुभारंभ से आगे बढ़ाते हुए आशातीत सफलता तक यही प्रतिभावान् पहुँचकर दिखाते हैं।

    अँग्रेजी जमाने में प्रांतों के शासनाध्यक्ष ‘गवर्नर’ कहलाते थे। केंद्रीय सरकार का सूत्र संचालक गवर्नर जनरल (वायसराय) कहलाता था। गवर्नर शब्द का सीधा अर्थ है ‘प्रबंधक’। अपनी इसी विशेषता के कारण इंजीनियर बड़े- बड़े निर्माण कार्य संपन्न करते और व्यवसायी छोटा- सा उद्योग खड़ा करके देखते- देखते धन कुबेर बनते हैं। विपत्तियों से जूझने और प्रगति के महत्त्वपूर्ण आधार खड़े करने में जो भी सफल हुए हैं, उनमें साहसिकता और सुव्यवस्था का गुण सुनिश्चित रूप से विद्यमान रहा है।

    शक्ति, शक्ति है। उसे भले काम की तरह बुरे काम में भी लगाया जा सकता है। दैत्य, दानव, आततायी, आतंकवादी और अनाचारी तक इसी विशेषता के आधार पर रोमांच खड़े कर सकने वाले दुष्कर्म कर बैठते हैं। अनीति का आचरण करते हुए भी, अपने आतंक से दूर- दूर तक विपन्नता खड़ी कर देने वाले दस्यु और तस्कर तक अपनी सफलता का ढिंढोरा पीटते समय कारण एक ही बताते हैं कि उन्होंने अपने साहस और व्यवस्था बुद्धि के सहारे ही यह कमाल दिखाए हैं।

    सद्गुणों में अनेक धर्मधारणाओं और व्रतअनुशासनों का वर्णन किया जाता है। उनके कारण स्वर्ग मोक्ष की, ऋद्धि- सिद्धि की विभूतियाँ हस्तगत होने की बात कही जाती है। ऐसे प्रतिपादन प्राय: संयम और परमार्थ की महत्ता को ही बताते हैं। इन समस्त उपचारों का उद्देश्य एक ही है, कि व्यक्तित्व हर दृष्टि से स्फूर्तिवान एवं श्रमशील बने। मनोयोगपूर्वक कार्य में संलग्न होने में अपनी प्रतिष्ठा, वरिष्ठता एवं सफलता, समर्थता की अनुभूति करे। मानवी गरिमा के अनुरूप अपने गुण, कर्म, स्वभाव को विनिर्मित कर लेना, संसार में एक नए देवता की अभिवृद्धि करना है। व्यक्ति के बहिरंग पर जो कुछ आच्छादित है, उसका अनेकानेक अनुकरण करते और उसके प्रभाव से अनुप्रमाणित होते हैं। यहाँ तक कि मरने के उपरांत भी हरिश्चंद्र, भागीरथी जैसों की कथा−गाथा अक्षुण्ण बनी रहकर, अनेकानेकों को प्रकाश देती रहती है। यही बात अंतरंग के संबंध में भी है। यदि चिंतन, चरित्र, व्यवस्था, आस्था, विश्वास, श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा की उच्चस्तरीय स्थिति है, तो उसका प्रभाव- परिणाम धारणकर्ता तक ही सीमित नहीं रहता। उसका प्रभाव न जाने कितनों को, विशेषतया संपर्क क्षेत्र वालों को उठाने, उछालने की क्रिया- प्रक्रिया संपन्न करता है। तेजोवलय अंतरिक्ष में उड़ता है और जहाँ भी पहुँचता है, वहीं अपने अनुरूप चेतना- वसंत खिलता चलता है।

    पारस को छूकर लोहा, सोना बनता है या नहीं? इसमें अभी संदेह है, पर यह सुनिश्चित है कि प्रतापी व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी सहयोगी बना लेते हैं। महामानवों में से अधिकांश की जीवनगाथा यही बताती है, कि वे अपनी प्रामाणिकता और प्रखरता के बल पर हर दिशा से प्राणशक्ति संग्रह करते हुए, न जाने कहाँ से चलकर कहाँ जा पहुँचे। मात्र अपने प्रभाव से दूसरों द्वारा ऐसे- ऐसे कृत्य करा लेने में सफल हुए, जिन्हें वे कदाचित् स्वयं हाथ में लेते तो न कर पाते। ऐसी दिव्य क्षमता को अर्जित कर लेना और उससे अनेकों की अस्त- व्यस्तता को सुनियोजितता में बदल देना, सफल वरदान यही है। दान देने की तरह, दान दिलाना भी पुण्य मानना चाहिए। साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त- अनुशासित किया जाए, समझना चाहिए कि उसकी सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार किसी ने खोल दिया। भले ही उस अविज्ञात शक्तिपुंज की जय- जयकार कहीं न होती हो।

    मनुष्यों में से अधिकांश की आकृति- प्रकृति लगभग मिलती- जुलती है। उनका खान- पान सोना, जागना आदि भी एक- सा ही होता है। कोई तो साधनों- अभावों का रोना रोता रहता है, किन्तु किसी की प्रतिभा उन्हीं साधनों- अवसरों के रहते चौगुना- सौगुना काम करा देती है। उसका यश, प्रभाव और कौशल इतना बढ़ा देती है कि देखने वाले तक आश्चर्यचकित रह जाते हैं। रीछ- वानरों की, ग्वाल- बालों की, भिक्षु- परिव्राजकों की, सत्याग्रहियों की टोलियों को निमंत्रित या गठित करने कौन कहाँ गया था। फूलों पर तितलियाँ और मधुमक्खियाँ न जाने कहाँ- कहाँ से दौड़ती चली आती है? महामानवों के असुविधा भरे जीवन भी ऐसे आकर्षक होते हैं कि उसी कष्टसाध्य परिपाटी को अपनाने के लिए अनेकानेक आतुर होते और कदम- से मिलाते आदर्शवादी संरचना के लिए प्रयाण करते देखे गए हैं।

    संसार में जितनी भव्यताएँ दीख पड़ती है, वे मात्र साधनों के सहारे ही खड़ी नहीं हो गईं। उनके पीछे किन्हीं सृजन शिल्पियों की मेधा ने ऐसा जादू- चमत्कार दिखाया कि ठीक समय पर उसकी योजना बन गई, ढाँचा खड़ा हो गया, उसमें प्रयुक्त होने वाले तारतम्य को बिठा दिया गया और फिर स्वप्नों को साकार बनाने में अपने आपको पूरी तरह खपा दिया। इसी प्रक्रिया का नाम सफलता है। उसे वरण करने के लिए किन्हीं दूसरों की मनुहार करने की जरूरत नहीं है। यदि व्यक्ति अपनी समझ को क्रमश: तेज करता चले, क्रमश: अधिक बड़ी जिम्मेदारियाँ कंधों पर उठाता और उन्हें पूरी करता चले, तो समझना चाहिए कि इसी विकसित प्रबंध शक्ति के आधार पर वह जहाँ भी जाएगा, सरताज बन कर रहेगा। यही सबसे बड़ी दैवी विभूति है, जो व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनाती है।

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