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Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

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इस विश्व की सबसे बड़ी शक्ति

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First 5 7 Last
संसार के सुविस्तृत इतिहास का भूतकालीन पर्यवेक्षण करने पर इसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि लालसा, वासना और आकांक्षाओं से पीड़ित तो अनेकानेक रहते चले आए, पर उनमें से सफल थोड़े- से ही हुए। कारण यह कि मूल्य चुकाने के लिए जेब में कुछ न होने से उन्हें सजी- धजी दुकान देखते हुए भी निराश होकर वापस लौटना पड़ा। इस हाट में बिकता तो एक- से बड़ा आकर्षण हैं, पर सभी तो बदले की कीमत चाहते हैं। यदि वह अपने पास न हो तो फिर भटकने, थकने और निराशा भरे निःश्वास छोड़ते रहने के अतिरिक्त और क्या कुछ हाथ लगने वाला है। दूसरी ओर वे हैं जो लाखों का माल कुछ देर में खरीद- बेचकर मुनाफे से थैली भर लेते हैं।

    भाग्योदय, वरदान और अनुग्रह, उदारता अथवा अनुकंपा के नाम पर बहुत कुछ पाने की इच्छा- आशा की जाती है, पर यह सब मिलकर भी ओस कणों से अधिक और कुछ नहीं बनता। मोती तो पसीने से टपकते हैं, दौलत तो हाथ खोदते हैं। प्रगति के लिए हिम्मत से कम में गुजारा नहीं। सरंजाम कोई कितना ही इकट्ठा क्यों न कर ले, पर उसे सुव्यवस्थित और सुनियोजित किए बिना उसको रूठने और पलायन करने से रोका नहीं जा सकता। शक्ति की महिमा- महत्ता तो बहुत है, पर वह उसी के पास ठहरती है, जो उसके सुसंचालन की विद्या से परिचित है।     

    संसार में निर्माण एक- से बढ़कर। पनामा और स्वेज की नहरें, पीसा की झुकी मीनार, चीन की दीवार, अंगकोरवाट (कम्बोडिया) के खंडहर, मिस्र के पिरामिड, आगरे का ताजमहल, हावड़ा का पुल जैसे महान् निर्माणों को देखकर लोग आश्चर्य तो बहुत करते हैं, पर भूल जाते हैं कि इन्हें साधनों का ढेर भर बताकर पीछा नहीं छूटता। देखना यह भी होगा कि इनके पीछे कितनों की कल्पना ने योजना बनाकर प्रत्यक्ष ढाँचा खड़ा करने में कितनी कुशलता और एकाग्रता खपाई है? यही सार संक्षेप में मनुष्य का वर्चस्व है जो जहाँ भी चमकता है, वहाँ आकाश की बिजली की तरह कड़कता और अपनी क्षमता से अवगत भी कराता है।

    डार्विन के कथनानुसार औसत आदमी को बंदर की औलाद और वनमानुष मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। प्राणी विकास के विज्ञानी एक ही बात कहते हैं कि सृष्टि के आदि में मात्र अमीबा स्तर के एककोशीय प्राणी उत्पन्न हुए, पर उसमें प्रचंड इच्छाशक्ति विद्यमान थी। वही हलचल बनी और मनोबलयुक्त क्रियाशीलता के बल पर उचित स्तर के काय कलेवर बनते चले गए। अंग- प्रत्यंग उगे, स्वभाव, अभ्यास बने और उन्हें अपने- अपने निर्वाह साधन जुटाने के अवसर मिलते चले गए। वे यह भी कहते हैं कि जड़ माने जाने वाले पदार्थों पर भी प्राणी की प्रचंड इच्छाशक्ति काम करती है और प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता उत्पन्न कर लेती है।

    लोगों को पैसे का, रूप- सौन्दर्य का, शिक्षा का, पद का, सम्मान- सहयोग का मूल्य तो मालूम है और उनके लिए ललचाते हुए, सिर पर पैर रखकर दौड़ने जैसी भगदड़ भी मचाते हैं, पर कहने लायक कुछ उपलब्धि उन्हीं के हाथ आती है जो अपने को अर्द्ध- मूर्च्छित अर्द्ध- मृतक आलसी, प्रमादी, निराश, हताश स्तर की कीचड़ में फँसे रहने से इनकार कर देते हैं। भीतर से उभरी शक्ति बाहर के हर क्षेत्र में वर्चस्व का प्रभाव- परिचय पग- पग पर प्रस्तुत करती है। सभी प्रजातियाँ, सभी संरचनाएँ यह प्रमाण- परिचय देती हैं कि वे अपने संकल्पबल से उभरी और अनुकूल रूप धारण करने में समर्थ हुई है। उनने अपने निर्वाह साधन इसी आधार पर जुटाए हैं और प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी अज्ञात प्रेरणा से बाधित होकर अपने आपको ढाला है। यह संकल्पशक्ति ही है जो प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान रहकर अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय देती है। प्राणियों में मनुष्य सचमुच महान् है। सृष्टि को ईश्वर की संरचना माना जाता है, पर ईश्वर के वर्तमान स्वरूप को किसने जाना? इसका उत्तर खोजते समय इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उसे मनुष्य ने बनाया।

    इतिहास साक्षी है कि जब- जब जिन वर्गों ने उस क्षेत्र में पराक्रम सँजोया है, उसने उसी क्षेत्र में आशातीत सफलताएँ पाई हैं। अग्नि प्रज्ज्वलन से लेकर पहिए के आविष्कार तक उसकी प्रथम कृति थी, जिसने अनेकानेक साधनों- वाहनों का उद्भव आसान कर दिया। कभी उसने कृषि, पशुपालन, वस्त्र निर्माण, भवन निर्माण, व्यवसाय आदि के सहारे प्रगति के नए आयाम खोजे होंगे। भाषा और लिपि का अविष्कार अपने समय में अतिक्रांतिकारी माध्यम माना गया होगा। धर्म, समाज और शासन का गठन उन लोगों की भारी सफलता थी जो वानरों की तरह यायावर जीवन बिताते आदिमकाल की उपहासास्पद स्थिति में रहते थे। वैज्ञानिक आविष्कारों से सुसज्जित दुनिया जब गढ़ी जाने लगी तब तो मानो प्रकृति पर विजय पाने का नगाड़ा ही बजने लगा। अब तो ऐसे अणु- आयुधों के जखीरे जमा हो गए हैं, जिनसे स्रष्टा की इस सुंदर संरचना धरित्री के देखते- देखते धूल बनाकर अंतरिक्ष में उड़ा दिया जाए, यहाँ प्राणी या वनस्पति वर्ग के सभी सदस्य सर्वथा लुप्त प्राय: हो जाएँ। इस प्रकार मनुष्य ईश्वर का समर्थ सहायक भी सिद्ध होता है और संघर्ष प्रतिद्वन्द्वी भी। उसकी यह शक्ति चेतना से जानी- जाने वाली किसी प्रचंड संकल्पबल की वशवर्ती है उसी के सहारे कठपुतली की तरह नाचती रहती है। इसी की न्यूनाधिकता से मनुष्य क्षुद्र और महान् बनता है। उसके उच्चस्तरीय होने पर देव और निकृष्टता अपनाने पर दैत्य का उद्भव होता है। दैवी शक्तियों से संपन्न व्यक्ति ही सिद्ध पुरुष या देवमानव कहलाता है।


बुद्धिमत्ता, प्रतिभा, व्यवस्था, संरचना, परिवर्तन आदि के अनेक प्रयोग जहाँ- तहाँ होते रहते हैं। और उनके प्रयोक्ता बली, महाबली कहलाते हैं, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि समस्त, कलाकौशलों, निर्माणों और सफलताओं की जन्मदात्री वह संकल्पशक्ति रूप प्राणाग्नि ही है, जो चिनगारी से बढ़ते- बढ़ते दावानल का रूप धारण करती देखी जाती है। उत्थान और पतन उसी के दो चित्र- विचित्र खिलौने हैं।

    जिन दिनों इंग्लैण्ड पर जर्मनी द्वारा दिन- रात भयंकर बमवर्षा अनवरत रूप से हो रही थी, तब सर्वसाधारण को यही सोचते- कहते देखा जाता था कि इंग्लैण्ड का पतन अब हुआ, तब हुआ। इन घोर निराशा के दिनों में भी, उस देश के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का आत्मविश्वासपूर्वक यही कहना था कि रूस व अमेरिका का जो भी होना हो, इंग्लैण्ड जीतकर रहेगा। इतने प्रगाढ़ आत्मविश्वास को देखकर स्टालिन और रूजवेल्ट दंग रह गए। तीनों ने मिलकर वे कदम उठाए कि देखते- देखते पासा पलट गया, मित्र राष्ट्र विजयी होकर रहे।

    स्मृति की तरह विस्मृति भी मनुष्य के स्वभाव में सम्मिलित है। पर उस दुर्गुण के इस सीमा तक पहुँच जाने को क्या कहा जाए, जिसमें अपने आपके आत्मगौरव को ओजस्, तेजस् और वर्चस् को ही भुला जाए? आज कुछ ऐसा ही सम्मोहन- व्यामोह किसी शैतान द्वारा बिखेरा गया दीखता है, जिससे हतप्रभ होकर व्यक्ति अपने को दीन, दुर्बल, अशक्त, असहाय, अभागा आदि समझने लगा है। यदि उसे अपने जीवट पर विश्वास हुआ होता, तो कठिन- से विघ्न- बाधाओं को चुनौती देते हुए अब तक न जाने कहाँ- से पहुँच गया होता।

    कुछ वर्ष पहले की ही एक खबर है। साइबेरिया के हिम प्रदेश में बंदी बनाए गए कुछ कैदी उस दुर्गम क्षेत्र से भाग निकले। प्राय: चार हजार मील के अति दुर्गम, आहार सामग्री से रहित क्षेत्र को पार करते हुए किसी प्रकार भारत आ पहुँचने का दुस्साहस उन्होंने कर ही दिखाया, इसके बाद उन्हें उनके देश- पोलैण्ड सम्मान सहित पहुँचा दिया गया।

    अनगिनत आंदोलनों के योजनाकार अपनी लगन को साकार बनाकर रहे हैं। इसके पीछे सुयोग या सहयोग का भी एक भाग हो सकता है, पर प्रधानता प्रचंड आत्मविश्वास की ही रही है। प्रगति का ढाँचा उसी पर खड़ा होता है। साधन अनायास ही नहीं जुट जाते, उनके लिए अपने आपको इतना प्रामाणिक और प्रखर सिद्ध करना होता है कि स्वेच्छा सहयोग बरसने में कहीं कोई कमी न रहे।

    आत्मविस्मृति के दल- दल में से उबारकर मनुष्य समुदाय के एक वर्ग को इन्हीं दिनों प्रबल प्रतिभा का धनी बनाना है। इस प्रयास को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी है। कारण कि इन्हीं दिनों कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किए जाने के लिए, दैवी चेतना किन्हीं समर्थों की प्रतीक्षा कर रही है। मनुष्य स्वभाव में, प्रचलन में नरक जैसे दुर्गंधित कचरे को हटाने के लिए ऐसे जुझारू प्रवृत्ति चाहिए, जो तूफान बनकर बरसे और जो ढहाया- गिराया जाना ही है उसे स्थानांतरित करके ही रहे।

    सृजन इतना, इस स्तर का होना मानों खंडहरों को बटोरकर उस स्थान पर नए सिरे से भव्य भवन खड़े किए जा रहे हों। इसके लिए बादलों जैसे सशक्त समुदाय की आवश्यकता है, जो तपते धरातल को अपनी वर्षा से जलमग्न कर दे। धरित्री पर हरी घास उगाकर उसे मखमली हरीतिमा से महिमा मंडित कर दे। इन योद्धाओं के अग्रगामी बने बिना न तो दरिद्रता से लोहा लिया जा सकता है और न अस्वस्थता एवं अशिक्षा से ही पिंड छूटेगा।

    सैन्य शिक्षण, व्यवसाय, विद्यालय, व्यायामशालाओं, विद्यालयों, कला केंद्रों की कमी नहीं, पर दुर्भाग्य इसी बात का है कि प्रतिभा परिष्कार की सांगोपांग व्यवस्था कहीं पर नहीं है। कठिनाई इस मार्ग में यही एक है कि प्राण चेतना अंतःकरण के अंतराल में से उभरती नहीं, किन्तु उस गहन- गह्वर तक पहुँचने, कुरेदने, उभारने वाले उपकरणों का एक प्रकार से सर्वथा अभाव ही हो गया। इस कमी के रहते अन्य किसी क्षेत्र का विकास भले ही हो जाए, पर प्रचंड प्रतिभा संपन्न ऐसे व्यक्तियों का दर्शन हो नहीं सकेगा, जो नवयुग की महती आवश्यकताओं को देखते हुए, अनय से जूझने और सृजन को साकार बनाने में अपने अतिरिक्त पौरुष का परिचय दे सके। इन दिनों इन्हीं महामानवों को, सुगढ़ व्यक्तित्वों- प्रतिभावानों को ढूँढ़ निकालने की प्रक्रिया संपन्न होनी है।



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