
इन विभीषिकाओं से कौन जूझेगा? कैसे जूझेगा?
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प्रत्यक्ष समस्याओं में अनेक ऐसी हैं, जो देखने में अत्यंत भयावह मालूम
पड़ती हैं और जिसका समाधान भी सरल नहीं दीख पड़ता। सारी दुनिया उनके कारण
चिंतित है। मूर्धन्य जनों को बहुत माथा- पच्ची करने के उपरांत भी कोई हल
नहीं सूझ पड़ता।
इन समस्याओं में सर्वप्रथम है- वातावरण में सतत घुल रहा जहर। औद्योगिक कारखाने वायु को विषमय बना रहे हैं। लगता है कि कहीं शुद्ध वायु के अभाव में घुटन से ही जीवों को दम न तोड़ना पड़े। औद्योगिक उत्पादनों के विषैले रसायन जलाशयों में बहाए जाते हैं। वही पानी घूम फिर कर पीने के काम आता है। मंद विष पीते रहने पर देर सबेर उनका प्रतिफल मरण ही हो सकता है। रासायनिक खादें और कीटनाशक विष आहार में सम्मिलित होकर स्वास्थ्य को चौपट करते हैं,। वायु प्रदूषण के कारण वातावरण का तापमान दिन- दिन बढ़ता जाता है, विश्व का हिम भंडार पिघलने और समुद्रों में बाढ़ आने की चुनौती देता है। पृथ्वी के ऊपर का सुरक्षा कवच भी फटता जा रहा है और खतरा बढ़ रहा है कि अंतरिक्षीय मारक किरणें कहीं धरातल को भूनकर न रख दें।
प्रदूषण का शोषण वृक्ष वनस्पतियों के माध्यम से होता है। उन्हें बेतरह काटा जा रहा है। इससे धरती के रेगिस्तान बन जाने, भूमि की उर्वरता समुद्र में बहकर पहुँच जाने, भयंकर बाढ़ें आने, वर्षा का अनुपात घट जाने जैसी कितनी ही प्रकृति के कोप से उत्पन्न होने वाली विभीषिकाएँ क्रमश: निरंतर बढ़ती जा रही हैं।
उद्योगों में कोयला, खनिज तेल आदि का इतना अधिक दोहन हो रहा है कि उस चिरसंचित भूगर्भ वैभव का अंत निकट आता जा रहा है। ईंधन के अभाव में कारखाने एवं द्रुतगामी वाहन भविष्य में कैसे चलते रहेंगे? यह एक बड़ा प्रश्न है। फिर इसी प्रयोजन के लिए धातुएँ भी तो असाधारण मात्रा में प्रयुक्त होती हैं। उनकी खदानें भी तो सीमित हैं। जिस तेजी से उनका दोहन हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि निकट भविष्य में धातुओं की उपलब्धि भी दुर्लभ हो जाएगी।
धरती को तेजी से वनस्पति उत्पादन से छीन कर आवासीय प्रयोजन के लिए, कारखाने, दफ्तरों के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। उपजाऊ भूमि की कमी पड़ती जाने पर पशु- पक्षियों तथा अन्य जीव जंतुओं का निर्वाह कठिन हो जाएगा और धरती का संतुलन भी गड़बड़ा जाएगा।
पशुओं, वृक्षों और मनुष्यों के निर्वाह का परस्पर अन्योऽन्याश्रित संबंध है। इन तीनों में से एक घटेगा- मिटेगा तो शेष दो का भी सफाया हो जाएगा। वृक्षों की पत्तियों से, पशुओं के, मनुष्यों के मल- मूत्र से धरती की उर्वरता कायम रहती है और उसी के आधार पर जीवधारियों को आहार उपलब्ध होता है। बादल अपने आप बरसने का जितना उपक्रम अपनाते हैं, उससे कहीं अधिक पृथ्वी की परिस्थितियाँ उन पर बरसने का दबाव डालती हैं। यदि यह दबाव बना रहे तो जिस प्रकार रेगिस्तानों में वर्षा नहीं होती, उसी प्रकार अन्यत्र भी बूँद- बूँद पानी के लिए तरसना पड़ेगा। पानी और हवा के बिना तो जीवन थोड़े समय भी स्थिर नहीं रह सकता। फिर आहार की उपज भी नहीं हो सकती और निर्वाह साधनों के अभाव में न मनुष्य जी सकता है और न प्राणियों, वनस्पतियों में से ही किसी का जीवन स्थिर रह सकता है। वर्तमान प्रवाह प्रचलन पूरे जोर से ऐसी ही दिशाधारा अपना रहा है, जिसके कारण भविष्य हर प्रकार अंधकारमय ही दीख पड़ता है।
ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों करना पड़ रहा है? इसके संबंध में एक बात बहुत जोर देकर कही जाती है कि मनुष्यों की जनसंख्या बेहिसाब बढ़ रही है। उनके लिए तदनुरूप ही बढ़े चढ़े साधन चाहिए। आहार, जल, मकान, कारखाने, व्यवसाय, विद्यालय, चिकित्सालय आदि अनेकों साधन चाहिए। उस संदर्भ में हाथ सिकोड़ा जाए, तो उत्पन्न होते जाने वाले मनुष्य समुदाय की व्यवस्थाएँ कैसे बनें? मनुष्यों की अभिवृद्धि अनायास ही रुकती भी तो नहीं।
इन दिनों एक नया व्यवसाय जन्मा है- युद्ध बीसवीं सदी में दो विश्वयुद्ध एवं प्राय: २०० क्षेत्रीय युद्ध हो चुके हैं। इनमें कितनी युवा शक्ति मरी, कितने परिवार अनाथ हुए, इसकी बात तो अलग, युद्ध सामग्री बनने में जो जन शक्ति, धन शक्ति, बुद्धि शक्ति लगी, उतने साधनों से इसी धरती को न जाने कितना समुन्नत बनाया जा सकता था। अभी भी जो तैयारियाँ चल रही हैं, उससे प्रतीत होता है कि सृजन प्रयत्नों की तुलना में ध्वंस की तैयारियाँ कहीं अधिक बढ़ चढ़ कर हैं।
अर्थ संतुलन ऐसा गड़बड़ाया है कि गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। अर्थ, लिप्सा में, मंडियाँ हथियाने के लिए धनाध्याक्षों की हविश अनेक प्रकार के उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद रचते हैं और उनके परिणाम स्वरूप दुःख बढ़ते चले जा रहे हैं।
इस सबका परिणाम यह हुआ है कि जन साधारण का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य बेतरह गड़बड़ाने लगा है। दोनों ही क्षेत्रों में इतने अधिक रोग बढ़ रहे हैं कि उनके निवारण के लिए बनने वाले चिकित्सक, आविष्कार, अस्पताल सभी बौने पड़ते जा रहे हैं। लगता है अगले दिनों पूर्ण स्वस्थ रह सकना अत्यंत कठिन हो जाएगा।
शिक्षा का उद्देश्य नौकरी भर रह जाने से बेकारी- बेरोजगारी की बाढ़ रोक सकना कठिन हो जाएगा। मँहगी ठाठ- बाट के लिए व्याकुल बनाने वाली पढ़ाई अपना संतुलन बिठाने के लिए वेतन की ही तरह रिश्वत को भी समानांतर साधन बना रही है। बताया जाता है कि जनता की भलाई के नाम पर सरकार जो कुछ करती है, उसका ८५ फीसदी नौकरशाही तंत्र पर खर्च हो जाता है। शेष १५ प्रतिशत भी उपयुक्त व्यक्तियों तक पहुँचता होगा कि नहीं, इसमें संदेह है। बिचौलिए उसमें से भी बड़ा अंश हड़प जाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं।
कहने को प्रजातंत्र का प्रचलन है और सत्ता का सूत्र संचालक मतदाता माना जाता है। पर यह कोई रहस्य नहीं रहा कि मतदाता जिन विभ्रमों और दबावों के बीच रह रहा है, उसे देखते हुए उसके लिए विवेकपूर्ण निर्णय कर सकने का धरातल भी तो नहीं रह गया है। शासन संचालन को देखते हुए नये सिरे से सोचना पड़ता है कि राजतंत्र, अधिनायकवाद आदि की तुलना प्रजातंत्र को मिल भी सकती है या नहीं?
प्रत्यक्षवाद ने आदर्शों पर से आस्थाएँ बुरी तरह डगमगा दी हैं। जैसे भी बने स्वार्थ साधन ही प्रमुख दृष्टिकोण रह गया है। मानवीय गरिमा के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता की चर्चा तो कहने सुनने को मिल जाती है, पर उसका व्यावहारिक प्रचलन मुश्किल से ही कहीं देखने को मिलता है। छद्म, पाखण्ड, प्रपंच ही भक्त और भगवान् का, क्रिया- कृत्यों और धर्म- कलेवरों का रूप धारण करता जा रहा है। इन परिस्थितियों में हर सोचने वाले का मन टूटता और संदेह होता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना का उद्देश्य किस प्रकार, किस आधार पर पूरा हो सकेगा?
इन समस्याओं में सर्वप्रथम है- वातावरण में सतत घुल रहा जहर। औद्योगिक कारखाने वायु को विषमय बना रहे हैं। लगता है कि कहीं शुद्ध वायु के अभाव में घुटन से ही जीवों को दम न तोड़ना पड़े। औद्योगिक उत्पादनों के विषैले रसायन जलाशयों में बहाए जाते हैं। वही पानी घूम फिर कर पीने के काम आता है। मंद विष पीते रहने पर देर सबेर उनका प्रतिफल मरण ही हो सकता है। रासायनिक खादें और कीटनाशक विष आहार में सम्मिलित होकर स्वास्थ्य को चौपट करते हैं,। वायु प्रदूषण के कारण वातावरण का तापमान दिन- दिन बढ़ता जाता है, विश्व का हिम भंडार पिघलने और समुद्रों में बाढ़ आने की चुनौती देता है। पृथ्वी के ऊपर का सुरक्षा कवच भी फटता जा रहा है और खतरा बढ़ रहा है कि अंतरिक्षीय मारक किरणें कहीं धरातल को भूनकर न रख दें।
प्रदूषण का शोषण वृक्ष वनस्पतियों के माध्यम से होता है। उन्हें बेतरह काटा जा रहा है। इससे धरती के रेगिस्तान बन जाने, भूमि की उर्वरता समुद्र में बहकर पहुँच जाने, भयंकर बाढ़ें आने, वर्षा का अनुपात घट जाने जैसी कितनी ही प्रकृति के कोप से उत्पन्न होने वाली विभीषिकाएँ क्रमश: निरंतर बढ़ती जा रही हैं।
उद्योगों में कोयला, खनिज तेल आदि का इतना अधिक दोहन हो रहा है कि उस चिरसंचित भूगर्भ वैभव का अंत निकट आता जा रहा है। ईंधन के अभाव में कारखाने एवं द्रुतगामी वाहन भविष्य में कैसे चलते रहेंगे? यह एक बड़ा प्रश्न है। फिर इसी प्रयोजन के लिए धातुएँ भी तो असाधारण मात्रा में प्रयुक्त होती हैं। उनकी खदानें भी तो सीमित हैं। जिस तेजी से उनका दोहन हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि निकट भविष्य में धातुओं की उपलब्धि भी दुर्लभ हो जाएगी।
धरती को तेजी से वनस्पति उत्पादन से छीन कर आवासीय प्रयोजन के लिए, कारखाने, दफ्तरों के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। उपजाऊ भूमि की कमी पड़ती जाने पर पशु- पक्षियों तथा अन्य जीव जंतुओं का निर्वाह कठिन हो जाएगा और धरती का संतुलन भी गड़बड़ा जाएगा।
पशुओं, वृक्षों और मनुष्यों के निर्वाह का परस्पर अन्योऽन्याश्रित संबंध है। इन तीनों में से एक घटेगा- मिटेगा तो शेष दो का भी सफाया हो जाएगा। वृक्षों की पत्तियों से, पशुओं के, मनुष्यों के मल- मूत्र से धरती की उर्वरता कायम रहती है और उसी के आधार पर जीवधारियों को आहार उपलब्ध होता है। बादल अपने आप बरसने का जितना उपक्रम अपनाते हैं, उससे कहीं अधिक पृथ्वी की परिस्थितियाँ उन पर बरसने का दबाव डालती हैं। यदि यह दबाव बना रहे तो जिस प्रकार रेगिस्तानों में वर्षा नहीं होती, उसी प्रकार अन्यत्र भी बूँद- बूँद पानी के लिए तरसना पड़ेगा। पानी और हवा के बिना तो जीवन थोड़े समय भी स्थिर नहीं रह सकता। फिर आहार की उपज भी नहीं हो सकती और निर्वाह साधनों के अभाव में न मनुष्य जी सकता है और न प्राणियों, वनस्पतियों में से ही किसी का जीवन स्थिर रह सकता है। वर्तमान प्रवाह प्रचलन पूरे जोर से ऐसी ही दिशाधारा अपना रहा है, जिसके कारण भविष्य हर प्रकार अंधकारमय ही दीख पड़ता है।
ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों करना पड़ रहा है? इसके संबंध में एक बात बहुत जोर देकर कही जाती है कि मनुष्यों की जनसंख्या बेहिसाब बढ़ रही है। उनके लिए तदनुरूप ही बढ़े चढ़े साधन चाहिए। आहार, जल, मकान, कारखाने, व्यवसाय, विद्यालय, चिकित्सालय आदि अनेकों साधन चाहिए। उस संदर्भ में हाथ सिकोड़ा जाए, तो उत्पन्न होते जाने वाले मनुष्य समुदाय की व्यवस्थाएँ कैसे बनें? मनुष्यों की अभिवृद्धि अनायास ही रुकती भी तो नहीं।
इन दिनों एक नया व्यवसाय जन्मा है- युद्ध बीसवीं सदी में दो विश्वयुद्ध एवं प्राय: २०० क्षेत्रीय युद्ध हो चुके हैं। इनमें कितनी युवा शक्ति मरी, कितने परिवार अनाथ हुए, इसकी बात तो अलग, युद्ध सामग्री बनने में जो जन शक्ति, धन शक्ति, बुद्धि शक्ति लगी, उतने साधनों से इसी धरती को न जाने कितना समुन्नत बनाया जा सकता था। अभी भी जो तैयारियाँ चल रही हैं, उससे प्रतीत होता है कि सृजन प्रयत्नों की तुलना में ध्वंस की तैयारियाँ कहीं अधिक बढ़ चढ़ कर हैं।
अर्थ संतुलन ऐसा गड़बड़ाया है कि गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। अर्थ, लिप्सा में, मंडियाँ हथियाने के लिए धनाध्याक्षों की हविश अनेक प्रकार के उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद रचते हैं और उनके परिणाम स्वरूप दुःख बढ़ते चले जा रहे हैं।
इस सबका परिणाम यह हुआ है कि जन साधारण का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य बेतरह गड़बड़ाने लगा है। दोनों ही क्षेत्रों में इतने अधिक रोग बढ़ रहे हैं कि उनके निवारण के लिए बनने वाले चिकित्सक, आविष्कार, अस्पताल सभी बौने पड़ते जा रहे हैं। लगता है अगले दिनों पूर्ण स्वस्थ रह सकना अत्यंत कठिन हो जाएगा।
शिक्षा का उद्देश्य नौकरी भर रह जाने से बेकारी- बेरोजगारी की बाढ़ रोक सकना कठिन हो जाएगा। मँहगी ठाठ- बाट के लिए व्याकुल बनाने वाली पढ़ाई अपना संतुलन बिठाने के लिए वेतन की ही तरह रिश्वत को भी समानांतर साधन बना रही है। बताया जाता है कि जनता की भलाई के नाम पर सरकार जो कुछ करती है, उसका ८५ फीसदी नौकरशाही तंत्र पर खर्च हो जाता है। शेष १५ प्रतिशत भी उपयुक्त व्यक्तियों तक पहुँचता होगा कि नहीं, इसमें संदेह है। बिचौलिए उसमें से भी बड़ा अंश हड़प जाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं।
कहने को प्रजातंत्र का प्रचलन है और सत्ता का सूत्र संचालक मतदाता माना जाता है। पर यह कोई रहस्य नहीं रहा कि मतदाता जिन विभ्रमों और दबावों के बीच रह रहा है, उसे देखते हुए उसके लिए विवेकपूर्ण निर्णय कर सकने का धरातल भी तो नहीं रह गया है। शासन संचालन को देखते हुए नये सिरे से सोचना पड़ता है कि राजतंत्र, अधिनायकवाद आदि की तुलना प्रजातंत्र को मिल भी सकती है या नहीं?
प्रत्यक्षवाद ने आदर्शों पर से आस्थाएँ बुरी तरह डगमगा दी हैं। जैसे भी बने स्वार्थ साधन ही प्रमुख दृष्टिकोण रह गया है। मानवीय गरिमा के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता की चर्चा तो कहने सुनने को मिल जाती है, पर उसका व्यावहारिक प्रचलन मुश्किल से ही कहीं देखने को मिलता है। छद्म, पाखण्ड, प्रपंच ही भक्त और भगवान् का, क्रिया- कृत्यों और धर्म- कलेवरों का रूप धारण करता जा रहा है। इन परिस्थितियों में हर सोचने वाले का मन टूटता और संदेह होता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना का उद्देश्य किस प्रकार, किस आधार पर पूरा हो सकेगा?