
कठिन समस्याओं के सरल समाधान
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भूमि में उर्वरता की समुचित मात्रा हो, तो उस पर खेत, उद्यान आदि की विविध
सुषमा- हरीतिमा उगाई जा सकती है। यदि वह ऊसर हो, नमक उगलती हो तो, फिर घास
का तिनका तक जमने वाला नहीं है। भूमि से संबंधित कोई भी संपदा उपार्जित
करने के लिए भूमि का सही समतल होना आवश्यक है।
संसार में अगणित प्रकार की सुविधा संपदाओं का अभिवर्धन आवश्यक होता है। पर उसके लिए उस मानवीय चेतना का स्वस्थ, समुन्नत होना आवश्यक है, जो वैभव उत्पादन के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यदि भूमि पर, साधनों पर आधिपत्य जमाकर बैठे हुए अथवा योजनाएँ बनाने वाले लोग विकृत मस्तिष्क के होंगे, तो वे कुछ बना सकना तो दूर विग्रह और ध्वंस ही खड़े करेंगे। उलझी हुई समस्याओं का समाधान तो उनसे बन ही कैसे पड़ेगा?
इन दिनों पतन- पराभव का संकट, विग्रह का संकट, विग्रह का वातावरण बन कर खड़े हुए अराजकता स्तर के असमंजसों की चर्चा विगत पृष्ठों पर की गई है। इनका निवारण- निराकरण इन्हीं दिनों किया जाना आवश्यक है। देर करने का समय है नहीं, अन्यथा अवसर चूकने पर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगेगा नहीं। क्षयजन्य रुग्णता को दूर करने की प्राथमिकता तो दी जाती है पर अगला कदम यही होता है कि रुग्णता से क्षीण, जर्जर काया को सही स्थिति मे लाया जाए और जीवनी शक्ति को इतना बढ़ाया जाए, जिससे दुर्बलता दूर हो सके और स्वस्थ समर्थ मनुष्य की तरह जीवनयापन कर सकना संभव हो सके।
मस्तिष्क विकृत, हृदय निष्ठुर, रक्त दूषित, पाचन अस्त- व्यस्त हो, शरीर के अंग- प्रत्यंगों में विषाणुओं की भरमार हो, तो फिर वस्त्राभूषण की भरमार, अगर- चंदन का लेपन और इत्र- फुलेल का मर्दन बेकार है। वस्त्र आभूषण जुटा देने और तकिये के नीचे स्वर्ण मुद्राओं की पोटली रख देने से भी कुछ काम न चलेगा। जबकि स्वस्थ, सुडौल होने के कारण सुन्दर दीखने वाला शरीर गरीबी में भी हँसती- हँसाती जिंदगी जी लेता है, आए दिन सामने आती रहने वाली समस्याओं से भी निपट लेता है और किसी न किसी प्रकार, कहीं न कहीं से प्रगति के साधन जुटा लेता है। वस्तुतः: महत्त्व साधनों या परिस्थितियों का नहीं, व्यक्तिगत स्वस्थता, प्रतिभा और दूरदर्शिता का है। वह सब उपलब्ध रहे तो फिर, न अभावों की शिकायत करनी पड़ेगी और न जिस- तिस प्रकार के व्यवधान सामने आने पर भी अभ्युदय में कोई बाधा पड़ेगी।
औसत नागरिक स्तर का जीवन स्वीकार कर लेने पर सुविस्तृत खेतों, देहातों में रहा जा सकता है और वायुमण्डल, वातावरण को प्रफुल्लता प्रदान करते रहने, संतुष्ट रखने में सहायक हुआ जा सकता है। प्राचीनकाल की सुसंस्कृत पीढ़ी इसी प्रकार रहती थी और मात्र हाथों के सहारे बन पड़ने वाले श्रम से जीवनयापन के सभी आवश्यक साधन सरलतापूर्वक जुटा लेती थी। न प्रदूषण फैलने का कोई प्रश्न था और न शहरों की ओर देहाती प्रतिभा पलायन का कोई संकट। न देहात दरिद्र, सुनसान, पिछड़े रहते थे और न शहर गंदगी, घिचपिच, असामाजिकता के केन्द्र बनते थे। आज भी उस पुरातन रीति को अपनाया जा सके, तो जिन समस्याओं के कारण सर्वत्र त्राहि- त्राहि मची हुई है, उनके उभरने के कारण शेष न रहें।
‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ का सिद्धांत अपनाते ही प्रस्तुत असंख्य समस्याओं में से एक के भी पैर न टिक सकेंगे। अपराधों की भरमार भी क्यों न हो, जब हर व्यक्ति ईमानदारी, समझदारी और बहादुरी की नीति अपनाकर श्रमशीलता, सभ्यता और सुसंस्कारिता को व्यावहारिक जीवन में स्थान देने लगेगा, तो देखते- देखते समस्याओं के रूप में छाया अंधकार मिटता चला जाएगा। गुजारे के लायक इतने साधन इस संसार में मौजूद हैं कि हर शरीर को रोटी, हर तन को कपड़ा हर सिर को छाया और हर हाथ को काम मिल सके। तब गरीबी- अमीरी की विषमता भी क्यों रहेगी? जाति लिंग के नाम पर पनपने वाली विषमता का अनीतिमूलक और दुःखदाई प्रचलन भी क्यों रहेगा?
मनुष्य स्नेह और सहयोगपूर्वक रहने के लिए पैदा हुआ है। लड़ने, मरने और त्रास देने के लिए नहीं। यदि आपाधापी न मचे, तो फिर एकता और समता में बाधा उत्पन्न करने वाली असंख्य कठिनाइयों में से एक का भी कहीं अस्तित्व दृष्टिगोचर न हो। युद्ध प्रयोजनों में जो संपदा, शक्ति और प्रतिभा का नियोजन हो रहा है, उन सब को यदि बचाया जा सके और उन समूचे साधनों को नवसृजन के प्रयोजनों में लगाया जा सके, तो समझना, चाहिए कि इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य के संबंध में जो कल्पनाएँ की गई हैं वे सभी दस वर्ष के भीतर नये सिरे से नये ढाँचे में ढलकर साकार हो जाएँगी।
बिजली के अतिशय उत्पादन के लिये अणु ईंधन को व्यवहार में लाया जाने लगा है। इसकी बढ़ोत्तरी चल पड़े, तो आणविक राख एवं विकिरण का एक नया महादैत्य पैदा हो जाएगा, जिससे जान बचाना मुश्किल पड़ेगा। इसका विकल्प एक ही हो सकता है कि स्थानीय साधनों से छोटे बिजली घर, जनरेटर स्तर के बनाये जाएँ और उनके उत्पादन से एक दो हार्स पावर से चलने वाले छोटे कुटीर उद्योग लगाकर उनके संयुक्त सम्मिश्रण से आधुनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। इसी प्रकार के उत्पादन का उपयोग करने के लिये हर उपभोक्ता को सहमत किया जाए।
शासन तंत्र प्राय: ऐसी खर्चीली और कर्तव्य विमुख नौकरशाही के आधार पर चल रहे हैं, जिसके कर्मचारी, मालिकों के भी मालिक बनकर रह रहे हैं। ऐसी दशा में जन कल्याण की वास्तविक व्यवस्था बन पड़ने की आशा तो एक प्रकार से अत्यंत ही क्षीण स्तर की रह जाती है। होना यह चाहिए कि सहकारिता के आधार पर विकेंद्रीकृत शासन एवं सेवा भावना के आधार पर समूची व्यवस्था का संचालन हो। ऐसा शासन ही आदर्श हो सकता है और उसी के माध्यम से भौतिक एवं आत्मिक प्रगति का समग्र प्रयोजन पूरा हो सकता है।
समाज के सामने असंख्यों विकृतियों और व्यक्ति के सामने असंख्य समस्याओं के अंबार खड़े हैं। उनमें से प्रत्येक को अलग- अलग समस्या मानकर, उनके पृथक्- पृथक् समाधान सोचने में यद्यपि विश्व की मूर्धन्य प्रतिभाएँ अपने- अपने ढंग से उपाय खोजने और उपचार खड़े करने के लिए भारी माथा पच्ची कर रही हैं, पर उनसे कुछ बन नहीं पा रहा है। न अस्पतालों, चिकित्सकों, औषधि, आविष्कारों पर असीम धनशक्ति, जनशक्ति लगाने से रोग काबू में आ रहे हैं और न पुलिस, कानून, कचहरी, जेल आदि अपराधों को कम करने में समर्थ हो रहे हैं। गरीबी हटाओ का नारा तो बहुत आकर्षक है, पर वस्तुतः: अचिंत्य- चिंतन दुर्व्यसनों आदि के रहते बैंकों के भारी कर्ज और ढेरों अनुदान बाँटने पर भी समस्या का वास्तविक हल हाथ लग नहीं रहा है। अगले दिनों जनमानस यह देखकर रहेगा कि अगणित समस्याएँ उत्पन्न कहाँ से होती हैं? उस रानी मक्खी को खोजना है, जो आए दिन असंख्यों अण्डे बच्चे जनती है और जिनकी भरण पोषण में छत्तों की समस्त मधुमक्खियों के लगे रहने पर भी समस्याएँ जहाँ की तहाँ बनी रहती हैं।
संसार में अगणित प्रकार की सुविधा संपदाओं का अभिवर्धन आवश्यक होता है। पर उसके लिए उस मानवीय चेतना का स्वस्थ, समुन्नत होना आवश्यक है, जो वैभव उत्पादन के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यदि भूमि पर, साधनों पर आधिपत्य जमाकर बैठे हुए अथवा योजनाएँ बनाने वाले लोग विकृत मस्तिष्क के होंगे, तो वे कुछ बना सकना तो दूर विग्रह और ध्वंस ही खड़े करेंगे। उलझी हुई समस्याओं का समाधान तो उनसे बन ही कैसे पड़ेगा?
इन दिनों पतन- पराभव का संकट, विग्रह का संकट, विग्रह का वातावरण बन कर खड़े हुए अराजकता स्तर के असमंजसों की चर्चा विगत पृष्ठों पर की गई है। इनका निवारण- निराकरण इन्हीं दिनों किया जाना आवश्यक है। देर करने का समय है नहीं, अन्यथा अवसर चूकने पर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगेगा नहीं। क्षयजन्य रुग्णता को दूर करने की प्राथमिकता तो दी जाती है पर अगला कदम यही होता है कि रुग्णता से क्षीण, जर्जर काया को सही स्थिति मे लाया जाए और जीवनी शक्ति को इतना बढ़ाया जाए, जिससे दुर्बलता दूर हो सके और स्वस्थ समर्थ मनुष्य की तरह जीवनयापन कर सकना संभव हो सके।
मस्तिष्क विकृत, हृदय निष्ठुर, रक्त दूषित, पाचन अस्त- व्यस्त हो, शरीर के अंग- प्रत्यंगों में विषाणुओं की भरमार हो, तो फिर वस्त्राभूषण की भरमार, अगर- चंदन का लेपन और इत्र- फुलेल का मर्दन बेकार है। वस्त्र आभूषण जुटा देने और तकिये के नीचे स्वर्ण मुद्राओं की पोटली रख देने से भी कुछ काम न चलेगा। जबकि स्वस्थ, सुडौल होने के कारण सुन्दर दीखने वाला शरीर गरीबी में भी हँसती- हँसाती जिंदगी जी लेता है, आए दिन सामने आती रहने वाली समस्याओं से भी निपट लेता है और किसी न किसी प्रकार, कहीं न कहीं से प्रगति के साधन जुटा लेता है। वस्तुतः: महत्त्व साधनों या परिस्थितियों का नहीं, व्यक्तिगत स्वस्थता, प्रतिभा और दूरदर्शिता का है। वह सब उपलब्ध रहे तो फिर, न अभावों की शिकायत करनी पड़ेगी और न जिस- तिस प्रकार के व्यवधान सामने आने पर भी अभ्युदय में कोई बाधा पड़ेगी।
औसत नागरिक स्तर का जीवन स्वीकार कर लेने पर सुविस्तृत खेतों, देहातों में रहा जा सकता है और वायुमण्डल, वातावरण को प्रफुल्लता प्रदान करते रहने, संतुष्ट रखने में सहायक हुआ जा सकता है। प्राचीनकाल की सुसंस्कृत पीढ़ी इसी प्रकार रहती थी और मात्र हाथों के सहारे बन पड़ने वाले श्रम से जीवनयापन के सभी आवश्यक साधन सरलतापूर्वक जुटा लेती थी। न प्रदूषण फैलने का कोई प्रश्न था और न शहरों की ओर देहाती प्रतिभा पलायन का कोई संकट। न देहात दरिद्र, सुनसान, पिछड़े रहते थे और न शहर गंदगी, घिचपिच, असामाजिकता के केन्द्र बनते थे। आज भी उस पुरातन रीति को अपनाया जा सके, तो जिन समस्याओं के कारण सर्वत्र त्राहि- त्राहि मची हुई है, उनके उभरने के कारण शेष न रहें।
‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ का सिद्धांत अपनाते ही प्रस्तुत असंख्य समस्याओं में से एक के भी पैर न टिक सकेंगे। अपराधों की भरमार भी क्यों न हो, जब हर व्यक्ति ईमानदारी, समझदारी और बहादुरी की नीति अपनाकर श्रमशीलता, सभ्यता और सुसंस्कारिता को व्यावहारिक जीवन में स्थान देने लगेगा, तो देखते- देखते समस्याओं के रूप में छाया अंधकार मिटता चला जाएगा। गुजारे के लायक इतने साधन इस संसार में मौजूद हैं कि हर शरीर को रोटी, हर तन को कपड़ा हर सिर को छाया और हर हाथ को काम मिल सके। तब गरीबी- अमीरी की विषमता भी क्यों रहेगी? जाति लिंग के नाम पर पनपने वाली विषमता का अनीतिमूलक और दुःखदाई प्रचलन भी क्यों रहेगा?
मनुष्य स्नेह और सहयोगपूर्वक रहने के लिए पैदा हुआ है। लड़ने, मरने और त्रास देने के लिए नहीं। यदि आपाधापी न मचे, तो फिर एकता और समता में बाधा उत्पन्न करने वाली असंख्य कठिनाइयों में से एक का भी कहीं अस्तित्व दृष्टिगोचर न हो। युद्ध प्रयोजनों में जो संपदा, शक्ति और प्रतिभा का नियोजन हो रहा है, उन सब को यदि बचाया जा सके और उन समूचे साधनों को नवसृजन के प्रयोजनों में लगाया जा सके, तो समझना, चाहिए कि इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य के संबंध में जो कल्पनाएँ की गई हैं वे सभी दस वर्ष के भीतर नये सिरे से नये ढाँचे में ढलकर साकार हो जाएँगी।
बिजली के अतिशय उत्पादन के लिये अणु ईंधन को व्यवहार में लाया जाने लगा है। इसकी बढ़ोत्तरी चल पड़े, तो आणविक राख एवं विकिरण का एक नया महादैत्य पैदा हो जाएगा, जिससे जान बचाना मुश्किल पड़ेगा। इसका विकल्प एक ही हो सकता है कि स्थानीय साधनों से छोटे बिजली घर, जनरेटर स्तर के बनाये जाएँ और उनके उत्पादन से एक दो हार्स पावर से चलने वाले छोटे कुटीर उद्योग लगाकर उनके संयुक्त सम्मिश्रण से आधुनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। इसी प्रकार के उत्पादन का उपयोग करने के लिये हर उपभोक्ता को सहमत किया जाए।
शासन तंत्र प्राय: ऐसी खर्चीली और कर्तव्य विमुख नौकरशाही के आधार पर चल रहे हैं, जिसके कर्मचारी, मालिकों के भी मालिक बनकर रह रहे हैं। ऐसी दशा में जन कल्याण की वास्तविक व्यवस्था बन पड़ने की आशा तो एक प्रकार से अत्यंत ही क्षीण स्तर की रह जाती है। होना यह चाहिए कि सहकारिता के आधार पर विकेंद्रीकृत शासन एवं सेवा भावना के आधार पर समूची व्यवस्था का संचालन हो। ऐसा शासन ही आदर्श हो सकता है और उसी के माध्यम से भौतिक एवं आत्मिक प्रगति का समग्र प्रयोजन पूरा हो सकता है।
समाज के सामने असंख्यों विकृतियों और व्यक्ति के सामने असंख्य समस्याओं के अंबार खड़े हैं। उनमें से प्रत्येक को अलग- अलग समस्या मानकर, उनके पृथक्- पृथक् समाधान सोचने में यद्यपि विश्व की मूर्धन्य प्रतिभाएँ अपने- अपने ढंग से उपाय खोजने और उपचार खड़े करने के लिए भारी माथा पच्ची कर रही हैं, पर उनसे कुछ बन नहीं पा रहा है। न अस्पतालों, चिकित्सकों, औषधि, आविष्कारों पर असीम धनशक्ति, जनशक्ति लगाने से रोग काबू में आ रहे हैं और न पुलिस, कानून, कचहरी, जेल आदि अपराधों को कम करने में समर्थ हो रहे हैं। गरीबी हटाओ का नारा तो बहुत आकर्षक है, पर वस्तुतः: अचिंत्य- चिंतन दुर्व्यसनों आदि के रहते बैंकों के भारी कर्ज और ढेरों अनुदान बाँटने पर भी समस्या का वास्तविक हल हाथ लग नहीं रहा है। अगले दिनों जनमानस यह देखकर रहेगा कि अगणित समस्याएँ उत्पन्न कहाँ से होती हैं? उस रानी मक्खी को खोजना है, जो आए दिन असंख्यों अण्डे बच्चे जनती है और जिनकी भरण पोषण में छत्तों की समस्त मधुमक्खियों के लगे रहने पर भी समस्याएँ जहाँ की तहाँ बनी रहती हैं।