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Books - समस्याएँ आज की समाधान कल के

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देवमानवों का अवतरण

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इतने कामों को करेगा कौन? होंगे कैसे? नरक को स्वर्ग में उलट देने की प्रक्रिया का आखिर माध्यम क्या होगा? उस योजना के क्रियान्वित होने की विधि- व्यवस्था किस प्रकार बन पड़ेगी? ऐसे अनेकों असमंजस भरे प्रश्न इन दिनों असंख्यों के मन में उठ रहे होंगे। उठने स्वाभाविक भी हैं, क्योंकि विशाल पर्वत जैसे टीले और समुद्र जैसे गहरे खंदक को समतल बना देने की बात सचमुच ही आश्चर्यजनक है। कई बार तो वैसा बन पड़ने का विश्वास तक नहीं होता, पर आस्थावानों को विश्वास करने का कोई कारण नहीं। संव्याप्त अंधकार की गहरी और लंबी निशा में जब हाथ को हाथ नहीं सूझते, पलट कर सो जाने के अतिरिक्त और कुछ समझ में नहीं आता, तब न जाने क्या आश्चर्य होता है कि ब्रह्ममुहूर्त, उषाकाल और अरुणोदय का सिलसिला आरम्भ होकर दोपहर के तपते दिनमान में बदल जाता है। इसे कहते हैं- असम्भव का सम्भव होना। जब ऐसे ही अगणित चमत्कार इस सृष्टि में आए दिन होते हम देखते हैं, तो किसी को प्रतिकूलताओं को उलट कर अनुकूलता में बदल जाने पर क्यों आश्चर्य करना चाहिए? बाल की नोंक से भी छोटा शुक्राणु जब कुछ ही दिनों में हँसता खेलता शिशु और फिर बाद में पराक्रमी प्रौढ़ बन सकता है, तो उपयोगी परिवर्तन की बात पर किसी को क्यों अविश्वास करना चाहिए?

    युग बदलते ही रहे हैं। पिछला सतयुग यदि आलसी निद्रा से विरत होकर फिर अपना कारोबार सँभाल ले, तो उसमें असंभव- संभव जैसी निरर्थक ऊहापोह क्यों करनी चाहिए? मनुष्य के लिए तो एक चींटी उत्पन्न करना तक असंभव है, पर भगवान् इसी अपने धरातल पर क्षण- क्षण में कोटि- कोटि संख्या में चित्र- विचित्र आकृति- प्रकृति के प्राणी उत्पन्न करता रहता है। आस्तिकों को तो कम से कम यह तथ्य भूलना ही नहीं चाहिए। वर्तमान युग परिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष की योजना नहीं है। इसके पीछे महाकाल का दुर्धर्ष संकल्प काम कर रहा है। प्रकृति ने नई संरचना के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना आरम्भ कर दिया है। इस दिव्य दर्शन को जो आँखें समय रहते देख सकें, उन्हें बड़भागी ही कहा जाएगा और जो समय की चुनौती स्वीकार करने में अपने पैर आगे बढ़ा सकें उनके लिए तो अंगद- हनुमान नल- नील जैसी उपमा देने से कम में बात बनती ही नहीं।

    इन्हीं दिनों एक प्रचण्ड शक्तिशाली जाज्वल्यमान तारक प्रकट हो रहा है, जिसकी लपलपाती लपटें संसार भर के जीवन्त और संवेदनशील मनुष्यों को झकझोर कर खड़ा करेगी और कार्य क्षेत्र में उतारने के लिए बाधित करेंगी। यह देव- समुदाय देखने में भले ही रीछ- वानरों जैसा हो, पर पुरुषार्थ ऐसा करेगा, जिसे असंभव को संभव बनाने जैसा माना जा सके। ईश्वर- विश्वासी जानते हैं कि भगवान् का अनुग्रह जहाँ साथ हैं, वहाँ असंभव जैसी कोई चीज शेष नहीं रह जाती।

    जब आवेश की ऋतु आती है तो जटायु जैसा जीर्ण- शीर्ण भी रावण जैसे महायोद्धा के साथ निर्भय होकर लड़ पड़ता है। गिलहरी श्रद्धामय श्रमदान देने लगती है और सर्वथा निर्धन शबरी अपने संचित बेरों को देने के लिए भाव विभोर होती है। सुदामा को भी तो अपनी चावल की पोटली समर्पित करने में संकोच बाधक नहीं हुआ था। यह अदृश्य में लहराता दैव प्रवाह है, जो नवसृजन के देवता की झोली में समयदान, अंशदान ही नहीं, अधिक साहस जुटाकर हरिश्चन्द्र की तरह अपना राजपाट और निज का ,स्त्री बच्चों का शरीर तक बेचने में आगा- पीछा नहीं सोचता। दैवी आवेश जिस पर भी आता है, उसे बढ़- चढ़ कर आदर्शों की लिए समर्पण कर गुजरे बिना चैन ही नहीं पड़ता।

    यही है महाकाल की वह अदृश्य अग्नि शिखा, जो चर्मचक्षुओं से तो नहीं देखी जा सकती है, पर हर जीवंत व्यक्ति से समय की पुकार कुछ महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ कराये बिना छोड़ने वाली नहीं है। ऐसे लोगों का समुदाय जब मिलजुलकर अवाँछनीयताओं के विरुद्ध निर्णायक युद्ध छेड़ेगा और विश्वकर्मा की तरह नई दुनिया बनाकर खड़ी करेगा, तो अंधे भी देखेंगे कि कोई चमत्कार हुआ। पतन के गर्त में तेजी से गिरने वाला वातावरण किसी वेधशाला से छोड़े गये उपग्रह की तरह ऊँचा उठ कर अपनी नियत कक्षा में द्रुतगति से परिभ्रमण करने लगेगा।

    अपने युग का अवतार हर किसी को दो संदेश सुनाएगा, एक आत्मपरिष्कार और दूसरा सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन। ध्वंस और सृजन की यह दुहरी प्रक्रिया इन्हीं दिनों तेजी से चलेगी और निरर्थक टीलों को गिराती, भयंकर खड्डों को पाटती हुई सब कुछ समतल करती चली जाएगी, ऐसा समतल जिस पर नंदनवन और चंदनवन जैसे अगणित उद्यान लगाये जा सकें।
अंतरिक्ष से धरती पर उतरने वाली युग चेतना गंगावतरण की तरह धरती पर गिरेगी, मत्स्यावतार को पीछे छोड़ देने वाली गति से आगे बढ़ेगी। उसका कार्यक्षेत्र असीम होगा। जल, थल और नभ की समूची परिधि उसकी पकड़ में होगी।

    फिर होगा क्या? उत्तर एक ही है- विचार परिवर्तन करुणा से ओत- प्रोत भावसंवेदना, व्यक्तियों में संयम और कार्यक्रम में आदर्शवादी पराक्रम। बस इतने भर नवगठन से अपनी दुनिया का काम चल जाएगा। उससे वे सभी समस्याएँ, जो इन दिनों सुरसा, सिंहिका, ताड़का और सूर्पणखा जैसी विकरालता धारण किये हुए हैं, अपना अस्तित्व गँवाती चली जाएँगी। फिर सृजन, अभ्युदय, उत्थान ने तो निश्चय किया है कि साधनों के अभाव वाले सतयुग की तुलना में आज अपेक्षाकृत अधिक साधन संपन्न और बुद्धि कौशल प्राप्त होने के कारण वह मात्र सतयुग की पुनरावृत्ति न करेगा, वरन् धरती पर स्वर्ग उतार कर रहेगा।

    दुर्गावतरण की पुरानी कथा का अब नया संस्करण नई सजधज के साथ नये सिरे से नये रूप में प्रकट होने के लिए सहमत ही नहीं, उतारू भी हो गया है। देवमानव अपनी संयुक्त शक्ति को पहली बार संगठित करेंगे। उन्हें अनुभव हो गया है कि पिछले दिनों उनने ज्ञान, कर्म और भक्ति की साधना तो की, पर यह भूल गये कि उन्हें संगठित शक्ति का अभिनव जागरण करना चाहिए और जहाँ तक उनका प्रभाव पहुँचे वहाँ उन्हें उच्चस्तरीय आलोक का मुक्त हस्त से विस्तार करना चाहिए। उनने अपनी पिछली भूलों को सुधारने का निश्चय किया है और कार्यक्रम बनाया है कि जिन भी मनुष्यों में जीवट पाया जाएगा, उन सभी में देवत्व का उदय किये बिना वे चैन से नहीं बैठेंगे।

    लगता है, विश्व चेतना ने अपनी रीति- नीति और दिशाधारा में उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकने वाले सभी तथ्यों का परिपूर्ण समावेश कर लिया है। उसी का उद्घोष दसों- दिशाओं में गूँज रहा है, उसी लालिमा का आभास अंतरिक्ष के हर प्रकोष्ठ में परिलक्षित हो रहा है। न जाने किसका पाञ्चजन्य बज रहा है और एक ही ध्वनि निःसृत कर रहा है- बदलाव उच्चस्तरीय बदलाव, समग्र बदलाव। यही होगी अगले समय की प्रकृति और नियति। मनुष्यों में से जिनमें भी मनुष्यता जीवित होगी, वे यही सोचेंगे- यही करेंगे। उसकी परिवर्तन- प्रक्रिया अपने आप से आरंभ होगी और परिवार- परिकर को प्रभावित करती हुई समूचे समाज को महाकाल के अभिनव निर्धारण से अवगत और अनुप्राणित करेगी।
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