
बच्चे को जीवन-सम्पर्क में लाइये
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आपका बच्चा आपके जीवन का बड़ा सहायक और दु:ख बँटाने वाला बन सकता है, यदि वह सुशील है और उत्तरदायित्व को समझता है । उसे धीरे-धीरे जीवन, समाज, अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का भान करा दिजिए । अपनी शिक्षा प्रेम से सने हुए वाक्यों में दीजिए ।
ज्यों-ज्यों वह बड़ा बनता है, त्यों-त्यों उस पर से अपना अधिकार हटाकर मैत्री भाव धारण कीजिए, अर्थात् उसे अपना मित्र मानिए, मातहत नहीं । मित्र का सम्बन्ध रखने से बालक का आत्म-विश्वास निरन्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होता रहता है । उसे स्वतंत्र रुप से विकसित होने का अवसर प्राप्त होगा । प्रेम का ही नियंत्रण सर्वश्रेष्ठ और स्थायी हो सकता है । बच्चे को स्वाधीन रख कर ही हम उसे जीवन और संसार के उत्तरदायित्व की शिक्षा प्रदान कर सकते हैं । जो निरन्तर छोटी-बड़ी बातों में माता-पिता के पथ-प्रदर्शन के मुहताज बने रहते हैं, वे अपनी मौलिकता, नीर-क्षीर विवेक दृष्टि, स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने की क्षमता, नेतृत्व इत्यादि सद्गुणों का विकास नहीं कर पाते हैं । धीरे-धीरे अपना हाथ खींचकर जीवन, समाज और सांसारिक उत्तरदायित्व का बोझ बालक पर डालना चाहिए ।
बालक जब किशोरावस्था को पार करता हुआ युवावस्था में प्रवेश करता है तो उसके नवीन रक्त में खूब उत्साह होता है, वह कुछ करना चाहता है । बड़ी-बड़ी इच्छाएँ और योजनाएँ उसके मन में भरी होती हैं, परन्तु अनुभव की कमी के कारण बहुधा उचित मार्ग, उचित साधन एवं उचित कार्यक्रम नहीं अपना पाता । फलस्वरुप उसे कई बार असफलता और निराशा का मुख देखना पड़ता है, जिससे उसकी हिम्मत टूट जाती है और भविष्य के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्य करने लायक साहस उसमें नहीं रह जाता ।
इस परिस्थिति के आने देने से पूर्व अभिभावकों का कर्तव्य है कि बच्चों की गतिविधि और विचारधारा का बारीकी से निरीक्षण करते रहें और उन्हें समयानुसार ऐसी सलाह देते रहें कि वे गलत कदम उठाने से बचे रहें । बहुधा अति उत्साह के कारण लड़के अपनी इच्छा को प्रधानता देकर अभिभावकों की सलाह पर कम ध्यान देते देखे गये हैं । ऐसा होने पर भी बुद्धिमान अभिभावकों का कर्तव्य है कि रुष्ट हो बैठने या असहयोग करने की नीति न अपनायें, वरन उसकी भूल को मानसिक दुर्बलता समझकर क्षमा की भावना से काम लें और उन्हें अनिष्ट से बचाने एवं उचित मार्ग बताने के अपने कर्तव्य को सदैव तत्परतापूर्वक पालन करते रहें
ज्यों-ज्यों वह बड़ा बनता है, त्यों-त्यों उस पर से अपना अधिकार हटाकर मैत्री भाव धारण कीजिए, अर्थात् उसे अपना मित्र मानिए, मातहत नहीं । मित्र का सम्बन्ध रखने से बालक का आत्म-विश्वास निरन्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होता रहता है । उसे स्वतंत्र रुप से विकसित होने का अवसर प्राप्त होगा । प्रेम का ही नियंत्रण सर्वश्रेष्ठ और स्थायी हो सकता है । बच्चे को स्वाधीन रख कर ही हम उसे जीवन और संसार के उत्तरदायित्व की शिक्षा प्रदान कर सकते हैं । जो निरन्तर छोटी-बड़ी बातों में माता-पिता के पथ-प्रदर्शन के मुहताज बने रहते हैं, वे अपनी मौलिकता, नीर-क्षीर विवेक दृष्टि, स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने की क्षमता, नेतृत्व इत्यादि सद्गुणों का विकास नहीं कर पाते हैं । धीरे-धीरे अपना हाथ खींचकर जीवन, समाज और सांसारिक उत्तरदायित्व का बोझ बालक पर डालना चाहिए ।
बालक जब किशोरावस्था को पार करता हुआ युवावस्था में प्रवेश करता है तो उसके नवीन रक्त में खूब उत्साह होता है, वह कुछ करना चाहता है । बड़ी-बड़ी इच्छाएँ और योजनाएँ उसके मन में भरी होती हैं, परन्तु अनुभव की कमी के कारण बहुधा उचित मार्ग, उचित साधन एवं उचित कार्यक्रम नहीं अपना पाता । फलस्वरुप उसे कई बार असफलता और निराशा का मुख देखना पड़ता है, जिससे उसकी हिम्मत टूट जाती है और भविष्य के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्य करने लायक साहस उसमें नहीं रह जाता ।
इस परिस्थिति के आने देने से पूर्व अभिभावकों का कर्तव्य है कि बच्चों की गतिविधि और विचारधारा का बारीकी से निरीक्षण करते रहें और उन्हें समयानुसार ऐसी सलाह देते रहें कि वे गलत कदम उठाने से बचे रहें । बहुधा अति उत्साह के कारण लड़के अपनी इच्छा को प्रधानता देकर अभिभावकों की सलाह पर कम ध्यान देते देखे गये हैं । ऐसा होने पर भी बुद्धिमान अभिभावकों का कर्तव्य है कि रुष्ट हो बैठने या असहयोग करने की नीति न अपनायें, वरन उसकी भूल को मानसिक दुर्बलता समझकर क्षमा की भावना से काम लें और उन्हें अनिष्ट से बचाने एवं उचित मार्ग बताने के अपने कर्तव्य को सदैव तत्परतापूर्वक पालन करते रहें