
शिष्टाचार और सहृदयता
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सद्भावना की तरह हमारे व्यवहार में सहृदयता की भी आवश्यकता है । सच पूछा जाए तो सहृदय व्यक्ति ही सद्भावना का व्यवहार करने वाला होता है । सहृदय व्यक्ति परिचितों के साथ ही नहीं अपरिचितों से भी प्रेम पूर्ण भाषण करता है, सहानुभूति प्रकट करता है और इस प्रकार वह सबका मन आकर्षित कर लेता है । सहृदयता के बिना मनुष्य के अनेक गुण निरर्थक हो जाते हैं और उसे प्राय: मित्रहीन, एकाकीपन का जीवन ही बिताना पड़ता है ।
रूखापन जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है । कई आदमियों का स्वभाव बडा़ नीरस, रूखा, शुष्क, निष्ठुर, कठोर और अनुदार होता है । उनका आत्मीयता का दायरा बहुत ही छोटा और संकुचित होता है । उस दायरे से हानि-लाभ, उन्नति-अवनति, खुशी-रंज, अच्छाई-बुराई से उन्हें कुछ मतलब नहीं होता । अपने अत्यंत ही छोटे दायरे में स्त्री, पुत्र, तिजोरी, मोटर मकान आदि में उन्हें थोड़ा रस जरूर होता है बाकी की अन्य वस्तुओं के प्रति उनके मन में बहुत ही अनुदारतापूर्ण रुखाई होती है ।
जिसने अपनी विचारधारा और भावनाओं को शुष्क नीरस और कठोर बना रखा है, वह मानव जीवन के वास्तविक रस का आस्वादन करने से वंचित ही रहेगा । उस बेचारे ने व्यर्थ ही जीवन धारण किया और वृथा ही मनुष्य शरीर को कलंकित किया । आनंद का स्रोत सरसता की अनुभूतियों में है । परमात्मा को आनंदमय कहा जाता है । क्यों ? इसलिए कि वह सरस है, प्रेममय है । श्रुति कहती है- "रसो वै सः'' अर्थात वह परमात्मा रसमय है । भक्ति द्वारा, प्रेम द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना संभव बताया गया है । निस्संदेह जो वस्तु जैसी हो उसको उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है । परमात्मा दीनबंधु, करुणासिंधु, रसिकबिहारी, प्रेम का अवतार, दयानिधान, भक्तवत्सल है । उसे प्राप्त करने के लिए अपने अंदर वैसी ही लचीली, कोमल, स्निग्ध, सरस भावनाएँ पैदा करनी पड़ती हैं । भगवान भक्त के वश में हैं, जिनका हृदय कोमल है, भावुक है, परमात्मा उनसे दूर नहीं है । आप अपने हृदय को कोमल, द्रवित, पसीजने वाला, दयालु, प्रेमी और सरस बनाइए । संसार के पदार्थों में जो सरसता का अपार भंडार भरा हुआ है उसे ढूँढना और प्राप्त करना सीखिए ।
रूखापन जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है । कई आदमियों का स्वभाव बडा़ नीरस, रूखा, शुष्क, निष्ठुर, कठोर और अनुदार होता है । उनका आत्मीयता का दायरा बहुत ही छोटा और संकुचित होता है । उस दायरे से हानि-लाभ, उन्नति-अवनति, खुशी-रंज, अच्छाई-बुराई से उन्हें कुछ मतलब नहीं होता । अपने अत्यंत ही छोटे दायरे में स्त्री, पुत्र, तिजोरी, मोटर मकान आदि में उन्हें थोड़ा रस जरूर होता है बाकी की अन्य वस्तुओं के प्रति उनके मन में बहुत ही अनुदारतापूर्ण रुखाई होती है ।
जिसने अपनी विचारधारा और भावनाओं को शुष्क नीरस और कठोर बना रखा है, वह मानव जीवन के वास्तविक रस का आस्वादन करने से वंचित ही रहेगा । उस बेचारे ने व्यर्थ ही जीवन धारण किया और वृथा ही मनुष्य शरीर को कलंकित किया । आनंद का स्रोत सरसता की अनुभूतियों में है । परमात्मा को आनंदमय कहा जाता है । क्यों ? इसलिए कि वह सरस है, प्रेममय है । श्रुति कहती है- "रसो वै सः'' अर्थात वह परमात्मा रसमय है । भक्ति द्वारा, प्रेम द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना संभव बताया गया है । निस्संदेह जो वस्तु जैसी हो उसको उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है । परमात्मा दीनबंधु, करुणासिंधु, रसिकबिहारी, प्रेम का अवतार, दयानिधान, भक्तवत्सल है । उसे प्राप्त करने के लिए अपने अंदर वैसी ही लचीली, कोमल, स्निग्ध, सरस भावनाएँ पैदा करनी पड़ती हैं । भगवान भक्त के वश में हैं, जिनका हृदय कोमल है, भावुक है, परमात्मा उनसे दूर नहीं है । आप अपने हृदय को कोमल, द्रवित, पसीजने वाला, दयालु, प्रेमी और सरस बनाइए । संसार के पदार्थों में जो सरसता का अपार भंडार भरा हुआ है उसे ढूँढना और प्राप्त करना सीखिए ।