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Books - शिष्टाचार और सहयोग

Media: TEXT
Language: HINDI
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शिष्टाचार के कुछ साधारण नियम

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''अंग्रेजी में एक कहावत है- "मैनर मेक्स ए मैन ।'' अर्थात मनुष्य का परिचय उसके शिष्टाचार, बैठने, उठने, बोलने, खाने, पीने, के ढंग से मिलता है । खेद का विषय है कि आजकल शिष्टाचार की भावना घटती जाती है और खासकर अनेक नवयुवकों में, उच्छ्रंखलता की भावना को प्रश्रय मिल रहा है । जब शिक्षित कहलाने वालों की यह प्रवृत्ति है तो सर्व साधारण पर उसका प्रभाव और भी बुरा पड़ना स्वाभाविक है । इस परिस्थिति पर असंतोष व्यक्त करते हुए एक विद्वान ने उचित ही कहा है ''हम बैठते हैं तो पसर कर । बोलते हैं तो चिंघाड़कर । पान खाते हैं तो पीक कुरते पर । खाने बैठें तो सवा गज धरती पर टुकड़े और सब्जी फैला दी । धोती पहनी तो कुरता बहुत नीचा हो गया । कुरता मैला तो धोती साफ । बिस्तर साफ तो खाट ढीली । कमरे में झाडू तो दरवाजे पर कूड़ा पडा़ है । चलते हैं तो चीजें गिराते हुए । उठते हैं तो दूसरों को धकियाते हुए- ये सब तरीके (मैनर) ही किसी को संस्कृत या सभ्य बनाते हैं । हम चाहे घर पर हों या समाज में, हमें चाहिए कि इनका ध्यान रखें ।''

इसी प्रकार की और सामाजिक त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है, जैसे पुस्तकें उधार लेकर वापस न करना वायदे पर आदमी को घर बुलाना और स्वयं घर से गायब रहना, दुकानदार से वस्तुएँ उधार खरीद कर दाम देना भूल जाना, जब व्यापार चल निकले तो खराब निम्नकोटि का माल बनाकर दाम पूरा चार्ज करना, पत्रों का जबाव न देना, अपने रोजाना के काम पर देरी से आना, दफ्तर की अनेंक चीजें जैसे कलम, रोशनाई, निब, पेंसिल, कागज, कारबन, पैकिंग, बक्स इत्यादि को चोरी से घर ले जाकर व्यक्तिगत काम में ले लेना मुँह से कुछ कहकर आचरण में कुछ दूसरा ही कार्य करना ये ऐसी अशोभनीय बातें हैं जो मानवता की उच्च प्रतिष्ठा के किसी भी प्रकार अनुकुल नहीं हैं । मानवता की रक्षा के लिए इनका तुरंत परित्याग कर देना चाहिए ।

हम यह समझते हैं कि भारतीय और यूरोपियन, या मुसलमानी समाजों में बहुत-सी भिन्नताएँ हैं और इसलिए हम किसी दूसरे देश के शिष्टाचार के नियमों की पूरी नकल नहीं कर सकते । साथ ही यह भी सत्य है कि वैज्ञानिक आविष्कारों और आवागमन की अभूतपूर्व वृद्धि ने वर्तमान परिस्थितियों को इतना बदल दिया है कि हमारे देश की (प्राचीन शिष्टाचार की पद्धति भी अनेक अंशों में असामयिक हो गई है । इसलिए हमको वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल और मनुष्यता की रक्षा करने वाले नियमों पर आचरण करना चाहिए । स्मरण रखो कि जिसमें सभ्यता, स्वच्छता नहीं, जो अपने क्षुद्र आवेगों को वश में नहीं रख सकता, वह कुलीन नहीं कहला सकता, चाहे उसका जन्म किसी बडे़ घराने में ही क्यों न हुआ हो । इसलिए जो लोग समाज में आदर और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाने की अभिलाषा रखते हैं उन्हें सभ्यता, स्वच्छता और शिष्टाचार के नियमों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए । शिष्टाचार के असंख्य रूप हैं, इसलिए इस संबंध में कुछ संक्षिप्त बातें ही यहाँ दी जाती हैं-

१- सम्मानीय व्यक्ति, गुरुजन आदि के मिलते ही हाथ-जोडकर या पैर छूकर या जैसा दैनिक नियम हो उसके अनुसार आदर प्रकट करो ।

२- सम्मानीय व्यक्ति को अपने से सम्मानित आसन पर बैठाओ । उनके खड़े रहने पर खुद बैठे रहना, आसन न छोड़ना, उच्चासन पर बैठना अविनय है ।

३- सम्मानीय व्यक्ति के पास शिष्टता से बैठो । टांग पसारना, बैठने में कुछ शान बघारते हुए आराम तलब बनना, आदि ठीक नहीं ।

४-सम्मानीय व्यक्तियों के सामने उनके कारण के सिवाय, अपने ही कारण से किसी दूसरे आत्मीय व्यक्ति पर क्रोध प्रकट करना गालियाँ बकना ठीक नहीं । ऐसा काम आवश्यक ही हो तो यथासाध्य उनके उठकर चले जाने पर करना चाहिए । उनके सामने दूसरे पर अधिकार प्रदर्शन भी यथाशक्य कम करो ।

५- उपर्युक्त शिष्टाचार अपने घर आए हुए जनसमूह के सामने भी करना चाहिए जैसे जब चार आदमी बैठे हों तब अपने आदमी को भी गाली देना आदि ठीक नहीं ।

६- अपने साथियों का भी यथासाध्य शिष्टाचार करो ।

७- अपने से छोटों के शिष्टाचार का ठीक प्रत्युत्तर दो ।

८- खास जरूरत के बिना सदा मिठास से बोलो, आज्ञा में भी यथायोग्य शब्द और स्वर की कोमलता होना चाहिए ।

१ -रेलगाड़ी आदि में दूसरों की उचित सुविधा का ध्यान रखो ।

१०- गुरुजनों, महिलाओं तथा जो लोग धूम्रपान नहीं करते उनके सामने खासकर पास से धूम्रपान मत करो ।

११- साधारण दृष्टि से जो काम शारीरिक श्रम का हो वह काम अगर तुम्हारे बड़े करते हों तो तुम उस काम को ले लो या उसमें शामिल हो जाओ ।

१२- प्रवास में महिलाओं की सुविधा का पूरा ख्याल रखो ।

१३- दूसरों का नंबर मारकर आगे मत बढ़ो । यह बात टिकट लेने, पानी भरने आदि के बारे में ही है । आत्मविश्वास की दृष्टि से नहीं ।

१४- साइकिल से गिर पड़ने आदि किसी के संकट में हँसो नहीं । दुर्घटना में सहानुभूति प्रकट कर सको तो करो नहीं तो कम से कम चुप जरूर रहो ।

१५- साधारणत: अपने मुँह से अपनी तारीफ मत करो । न अपने कामों का झूठा और अतिशयोक्ति पूर्ण अविश्वसनीय वर्णन करो ।

१६- आपसी बातचीत में जहाँ बोलने की जरूरत हो वहीं बोलो, बीच-बीच में इस प्रकार मत कूदो जिसे सुनने वाले नापसंद करते हों ।

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