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Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2

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नित्य कर्म

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नित्य कर्म

प्रतिदिन प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में निद्रा त्यागकर उठे। आंख खुलते ही ईश्वर का ध्यान करें और मल-मूत्र का विसर्जन करके स्नान करे। शुद्ध धुले हुए वस्त्र धारण करे। आहार-विहार को ठीक रखे। बुरे कर्मों से बचे। बुरे विचारों से दूर रहे। ब्रह्मचर्य से रहे। पुरश्चरण के लिये जिन नियमों का पालन करना चाहिये, उनका उल्लेख नीचे किया जाता है।

पूजा त्रैकालिकी नित्यं जपस्तर्पणमेव च ।

होमो ब्राह्मण भुक्तिश्च पुरश्चरणं तदुच्यते ।।

—कुलार्णव तंत्र

नित्यप्रति त्रिकाल पूजन, जप, तर्पण, होम तथा ब्राह्मण भोजन कराना पुरश्चरण कहलाता है।

पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले जलाशये ।

गोष्ठे देवालयेऽश्वत्थे उद्याने तुलसी वने ।।

पुण्य क्षेत्रे गुरोः पार्श्वे चित्तैकाग्रयस्थलेऽपि च ।

पुरश्चरणकृन्मंत्री सिध्यत्येव न संशयः ।।

—विश्वामित्र कल्प

पहाड़ की चोटी पर, नदी किनारे, बिल्व वृक्ष के नीचे नदी या तालाब पर, गौशाला में, देव मन्दिर में, पीपल के नीचे, बगीची में, तुलसी-वन में, तीर्थ-स्थान में, गुरु के निकट या जहां चित्त की एकाग्रता बढ़ती हो उस स्थान पर मन्त्र जानने वाले को पुरश्चरण करना चाहिये, वहां सिद्धि मिलती है, इसमें सन्देह नहीं।

क्षीराहारी फलाशी वा शाकाशी वा हविष्यभुक् ।

भिक्षाशी वा जपेद्यत्तत्कृच्छ्र चान्द्रसमं भवेत् ।।

दूध पीने वाला, फल खाने वाला, शाक खाने वाला, हविष्यान्न खाने वाला या भिक्षान्न खाने वाला यदि जप करे, तो वह कृच्छ्र के समान होता है अर्थात् फिर उसे जप करने में पूर्ण कृच्छ्र करने की आवश्यकता नहीं होती है।

लवणं क्षारमम्लं च गृञ्जनादि निषेधितम् ।

ताम्बूलं च द्विभुक्तिश्च दुष्टावासः प्रमत्तता ।।

नमक, क्षार, खटाई, प्याज आदि निषिद्ध भोजन, पान, दो बार का भोजन तथा दुष्ट-वास और प्रमाद यह छोड़ देने चाहिये।

श्रुतिस्मृति-विरोधं च जपं रात्रौ विवर्जयेत् ।

श्रुतिस्मृति का विरोध तथा रात्रि का जप वर्जित है।

भूशय्या ब्रह्मचारित्वं मौनचर्य्या तथैव च ।

नित्यं त्रिषवणं स्नानं क्षौरकर्म विवर्जनम् ।।

नित्य-पूजा नित्यदानमानन्द-स्तुति-कीर्त्तनम् ।

नैमित्तिकार्चनं चैव विश्वासो गुरुदेवयोः ।।

जप-निष्ठा द्वादशैते धर्माः स्युर्मन्त्रसिद्धिदाः ।

पृथ्वी-शयन, ब्रह्मचर्य-व्रत, मौन, त्रिकाल सन्ध्या, स्नान, बाल न बनवाना, नित्य-पूजन, दान, स्तुति, कीर्तन, नैमित्तिक अर्चन, गुरु एवं देवता का विश्वास तथा जप में निष्ठा—ये बारह मन्त्र सिद्ध करने वाले के लिये आवश्यक कार्य हैं।

ज्येष्ठाषाढौ भाद्रपदं पौषं तु मलमासकम् ।

अंगारशनिवारौ तु व्यतिपातञ्च वैधृतिम् ।।

अष्टमीं नवमीं षष्ठीं चतुर्थीं च त्रयोदशीम् ।

चतुर्दशीममावस्यां प्रदोषचं तथा निशा ।।

ज्येष्ठ आषाढ़, भाद्रपद, पौष तथा अधिक मास, मंगल व शनिवार, व्यतिपात तथा वैधृति योग, अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा अमावस्या, प्रदोष, रात्रिकाल ये पुरश्चरण के लिये वर्जित हैं।

यमाग्नि रुद्र सार्पेन्द्रि वसु श्रवण जन्मभम् ।

मेष कर्क तुला कुम्भमकरं चैव वर्जयेत् ।।

सर्वाण्येतानि वर्ज्यानि पुरश्चरण कर्मणि ।

भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, श्रवण और जन्म नक्षत्र तथा मेष, कर्क, तुला, कुम्भ, मकर लग्नों के समय पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये।

गुरु शुक्रोदये शुद्धे लग्ने सद्वारशोधिते ।

चन्द्रतारानुकूल्ये च शुक्ल पक्षे विशेषतः ।।

पुरश्चरणकं कुर्यान्मत्रसिद्धिः प्रजायते ।

गुरु, शुक्र के उदय होने पर, शुद्ध लग्न में अच्छे वार में अनुकूल चन्द्र तथा तारा में, विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में पुरश्चरण करने में मन्त्र की सिद्धि होती है।

कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मुक्तिः श्रीर्व्याघ्रचर्मणि ।

स्यात्पौष्टिकं च कौशेयं शान्तिकं वेत्रविष्टरम् ।।

वंशासने व्याधिनाशः कम्बले दुःख-मोचनम् ।

सर्वोभावेत्वासनार्थं कुशविष्टरमुत्तमम् ।।

काले मृग का चर्म ज्ञान सिद्धि के लिये, मोक्ष तथा श्री के लिये व्याघ्र का चर्म, पुष्टि कार्य के लिये रेशम, शान्ति कार्य के लिये वेत, व्याधिनाश के लिये बांस, दुःख मोचन के लिये कम्बल का आसन लेना चाहिये।

आरम्भदिनमारभ्य समाप्तिदिवसावधि ।

नन्यूनं नातिरिक्तं च जपं कुर्याद् दिने-दिने ।।

नैरंतर्येण कुर्वीत न स्ववृत्तौ च लिंपयेत् ।

प्रातरारभ्य विधिवज्जपेन्मध्यंदिनावधि ।।

मनः संहरणं शौचं ध्यानं मन्त्रार्थचिन्तनम् ।

प्रारम्भिक दिन से लेकर अन्तिम दिन तक एक-सा ही, एक ही संख्या में जप करे, न कम करे न अधिक। निरन्तर ऐसा करता ही रहे, अपनी वृत्ति के चक्कर में लिप्त न हो जाए। प्रातः से लेकर मध्याह्न तक विधिवत् जप करता रहे। मन से पवित्र रहे और मन्त्रार्थ का चिन्तन करता रहे।

होमस्य तु दशांशेन तर्पणं समुदीरितम् ।

तर्पणस्य दशांशेन चाभिषेकस्ततः परम् ।

अभिषेक दशांशेन कुर्यात् ब्राह्मण भोजनम् ।

होम का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश अभिषेक तथा अभिषेक का दशांश ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये।

2—सन्ध्या

पुरश्चरण आरम्भ करते हुए सबसे पूर्व सन्ध्या करनी चाहिये। सन्ध्या की अनेक विधियां प्रचलित हैं। यजुर्वेदीय, ऋग्वेदीय, सामवेदीय सन्ध्यायें प्रसिद्ध हैं। दाक्षिणात्यों की सन्ध्यायें, उत्तर में जो सन्ध्या आजकल प्रचलित है वह और धार्मिक जनता में जो सन्ध्या आजकल प्रचलित है, वह श्रुति और स्मृति दोनों के मिश्रित मन्त्रों वाली हैं। आर्यसमाजी सन्ध्या अलग है। इनमें से किसी भी सन्ध्या को अपनाया जा सकता है। हमारे मत से गायत्री ब्रह्म सन्ध्या सर्वोत्तम है, जिसका दर्शन ‘गायत्री महाविज्ञान’ पुस्तक के प्रथम भाग में हम भली-भांति कर चुके हैं।

3—गायत्री पूजन

एक चौकी पर गायत्री की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये। यह प्रतिमा, गायत्री मन्त्र के अक्षरों में या देवी के चित्र या मूर्ति रूप में हो सकती है। उसका धूप, दीप, चन्दन, गन्ध, अक्षत, नैवेद्य, ताम्बूल, पूगीफल, दूर्वा, पुष्प, अर्घ्य, नमस्कार आदि से पूजन करना चाहिये। मानसी पूजा में ध्यानावस्थित होकर भावना रूप में ही यह सब पूजा पदार्थ गायत्री माता के सम्मुख उपस्थित करके उनका पूजन किया जाता है।

पूजा से पूर्व गायत्री का आह्वान करना चाहिये और विश्वास करना चाहिये कि विश्वव्यापी गायत्री शक्ति का एक विशिष्ट भाग यहां पूजा को स्वीकार करने के लिये पधारा हुआ है। आह्वान मन्त्र यह है—

आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि ।

गायत्रिच्छन्दसां प्रातः ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते ।।

पूजा के उपरान्त ध्यान, कवच, न्यास एवं स्तोत्र के द्वारा गायत्री की धारणा तथा प्रतिष्ठा करनी चाहिये। यह पंचोपचार पूजा कहलाती है। पांचों का आगे वर्णन किया जाता है।

4—ध्यान

ध्यान का अभिप्राय है—किसी वस्तु को श्रद्धा और रुचिपूर्वक, सम्मान सहित मनोभूमि में धारण करना। इस प्रकार जिस मूर्ति को मन में धारण किया जाता है वह एक प्रकार से अपना आदर्श बन जाती है और उसी के अनुरूप अपने गुण, कर्म, स्वभाव बनने लगते हैं।

गायत्री का ध्यान करते समय उस महाशक्ति की विशेषताओं एवं महत्ताओं का ध्यान आता है, वह एक प्रकार से अपना आदर्श बनाती है और उसमें वे विशेषतायें स्वयमेव बढ़ने लगती हैं। शक्ति का उपासक दिन-दिन शक्तिमान् बनेगा।

गायत्री के दो प्रकार के ध्यान नीचे दिये गये हैं, वर्णपरक और शक्तिपरक। इनका यथा रुचि ध्यान करें।

।। वर्णानां ध्यानम् ।।

तत्कारं चम्पकापीतं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।

शतपत्रासनारूढं ध्यायेत् सुस्थानसंस्थितम् ।।

चम्पक पुष्प जैसा पीत, ब्रह्मा, विष्णु, शिवात्मक, कमलासन रूप, सुन्दर स्थान पर स्थित (तत्) कार का ध्यान करे।

सकारं चिन्तयेद्देवमतसी पुष्पसन्निभम् ।

पद्म मध्यस्थितं सौम्यमुपपातक नाशनम् ।।

अलसी के पुष्प के सदृश आभा वाले पद्म के बीच में स्थित सौम्य तथा उपपातकों के विनाश कर्त्ता ‘स’ कार का ध्यान करना चाहिये।

विकारं कपिलं नित्यं कमलासनसंस्थितम् ।

ध्यायेच्छान्तो द्विजः श्रेष्ठ महापातकनाशनम् ।।

कमलासन पर स्थित विद्रुम के समान महापापों को विनाश करने वाले ‘वि’ कार का द्विज शान्त चित्त से ध्यान करे।

तुकारं चिन्तयेत्प्राज्ञ इन्द्रनील सम प्रभम् ।

निर्दहेत् सर्वपापानि ग्रहोगसमुद्भवम् ।।

इन्द्रमणि के समान प्रभा वाले, ग्रह रोगों से समुत्पन्न समस्त पापों का दहन करने वाले ‘तु’ कार का विद्वान् ध्यान करें।

वकारं वह्नि दीप्ताभं चिन्तयेच्च विचक्षणः ।

भ्रूणहत्या कृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ।।

प्रज्वलिताग्नि के समान आभा वाले ‘व’ कार का पण्डित लोग ध्यान करें, इसके चिन्तन से भ्रूण हत्या से लगा हुआ पाप शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है।

रेकारं विमलं ध्यायेत् शुद्ध स्फटिक सन्निभम् ।

पापं नश्यति तत्क्षिप्रमगम्यागमनोद्भवम् ।।

शुद्ध स्फटिक के तुल्य निर्मल ‘रे’ कार का ध्यान करने से अगम्य स्थान में जाने से लगा हुआ पाप दूर होता है।

णिकारं चिन्तयेद्योगी शुद्ध स्फटिक सन्निभम् ।

अभक्ष्य-भक्षणं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ।।

शुद्ध स्फटिक के सदृश ‘णि’ कार का योगी पुरुष ध्यान करें, क्योंकि इसका ध्यान करने से अभक्ष्य वस्तु खा लेने से लगा पाप शीघ्र ही विनष्ट होता है।

यकारं तारकावर्णमिन्दु शेषविभूषितम् ।

योगिनां वरदं ध्यायेत् ब्रह्म-हत्याविनाशनम् ।।

तारों के वर्ण वाले चन्द्र से विभूषित ‘य’ कार का ध्यान करना चाहिये, क्योंकि इस महान् वर के प्रदान करने वाले ‘य’ कार से ब्रह्म-हत्या सम्बन्धी पाप नष्ट होता है।

भकारं कृष्ण वर्णं तु नील मेघ समप्रभम् ।

ध्यात्वा पुरुषहत्यादि पापं नाशयति द्विजः ।।

नील मेघ की आभा के समान, कृष्ण, कान्त ‘भ’ कार का ध्यान करने से द्विज पुरुष की हत्या आदि पापों का नाश करता है।

गो कारं रक्त वर्णं च कमलासन संस्थितम् ।

गोहत्यादि कृतं पापं ध्यात्वा नश्यति तत्क्षणात् ।।

रक्तवर्ण, कमलासन पर बैठे हुए, ‘गो’ कार का ध्यान करने से गोहत्या आदि महापापों का शीघ्र ही विनाश होता है।

देकारं रक्त संकाशं कमलासनसंस्थितम् ।

चिन्तयेत्सततं योगी स्त्री-हत्या गहनं परम् ।।

रक्त वर्ण वाले कमलासन पर स्थित ‘दे’ कार का ध्यान स्त्री-हत्या आदि पापों से मुक्ति देता है, योगी पुरुष निरन्तर उसका चिन्तन करें।

वकारं चिन्तयेच्छुद्धं जातीयुष्यसमप्रभम् ।

गुरु हत्या कृतं पापं ध्यानात् नश्यति तत्क्षणात् ।।

जाती फूल के समान आभा वाले ‘व’ कार का ध्यान करे। इसके ध्यान करने से गुरु हत्या का पाप शीघ्र ही विनष्ट होता है।

स्यकारं तं तथा भानुं सुवर्ण सदृश प्रभम् ।

मनसा चिन्तितं पापं ध्यात्वा दूरमपाहरेत् ।।

सुवर्ण के समान आभा वाले ‘स्य’ कार का मन से चिन्तन कर पापों को दूर करना चाहिये।

धीकारं चिन्तयेच्छुक्लं कुन्दपुष्पसमप्रभम् ।

पितृ मातृवधात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।।

कुन्द पुष्प के समान आभा वाले शुक्लवर्ण ‘धी’ कार के चिन्तन करने से माता-पिता के वध करने के लगे हुए पाप से मुक्त हो जाता है।

मकारं पद्म रागाभं चिन्तयेद्दीप्ततेजसम् ।

पूर्वजन्मार्जितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ।।

पद्म के रंग के समान आभा वाले, दीप्त तेज के समान ‘म’ कार का ध्यान करने से पूर्व जन्म के पापों का अविलम्ब नाश होता है।

हिकारं शंख वर्णन्तु पूर्ण चन्द्र समप्रभम् ।

अशेष पाप दहनं ध्यायेन्नित्यं विचक्षणः ।।

पूर्ण चन्द्र के समान कान्ति वाले, शंख के से वर्ण वाले सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाले ‘हि’ कार का ध्यान करे।

धिकारं पाण्डवं ध्यायेत् पद्मस्योपरि संस्थितम् ।

प्रतिग्रहकृतं पापं स्मरणादेव नश्यति ।।

पद्म के ऊपर स्थित पाण्डुवर्ण ‘धि’ कार का ध्यान करना चाहिये। प्रतिग्रह पाप स्मरण मात्र से ही दूर हो जाते हैं।

यो कारं रक्तवर्णं तु इन्द्रगोपसमप्रभम् ।

ध्यात्वा प्राणि-वधं पापं निर्दहेन्मुनि पुंगवः ।।

रक्त वर्ण गोप के समान प्रभा वाले ‘यो’ कार का ध्यान कर श्रेष्ठ मुनि लोग, प्राणी वध के पाप से मुक्त होते हैं।

द्वितीयश्चैव यः प्रोक्तो यो कारो रक्त सन्निभः ।

निर्दहेत् सर्व पापानि पुनः पापं न लिप्यते ।।

द्वितीय ‘यो’ कार, जो रक्त वर्ण को कहा जाता है उसका ध्यान करने पर, सब पापों को विनष्ट कर देता है तथा पुनः पापों में प्रलिप्त नहीं होना पड़ता।

नः कारन्तु मुखं पूर्वमादित्योदयसन्निभम् ।

सकृद् ध्यात्वा द्विज श्रेष्ठः स गच्छेत्परमं पदम् ।।

उदय होते हुए सूर्य की आभा वाले ‘नः’ कार का ध्यान पूर्व की ओर मुख करके करने से श्रेष्ठ द्विज परम पद को प्राप्त होता है।

नीलोत्पलदलश्यामं प्र—कारं दक्षिणायनम् ।

सकृद् ध्यात्वा द्विजः श्रेष्ठः संगच्छेदीश्वरं पदम् ।।

नीलकमल के समान श्याम वर्ण ‘प्र’ कार का ध्यान करके श्रेष्ठ ब्राह्मण ईश्वर पद को प्राप्त करे।

सौम्यं गोरोचनापीतं चोकारं चतुराननम् ।

सकृद् ध्यात्वा द्विजः श्रेष्ठः संगच्छेद्वैष्णवं पदम् ।।

सौम्य गोरोचन जैसे पीले वर्ण वाले ‘चो’ कार का एक बार ध्यान कर, श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णु पद को प्राप्त होता है।

शुक्लवर्णेन्दुसंकाशं दकारं पश्चिमाननम् ।

सकृद् ध्यात्वा द्विजः श्रेष्ठ संगच्छेद् ब्रह्मणः पदम् ।।

शुक्लचन्द्र के समान पश्चिम मुखी ‘द’ कार का ध्यान कर श्रेष्ठ द्विज, ब्रह्मा पद को प्राप्त करता है।

यात्कारं तु शिवं प्रोक्तं चतुर्वदनसमप्रभम् ।

प्रत्यक्ष फलदो ब्रह्म विष्णुरुद्र इति स्मृतिः ।।

‘यात्’ कार को तो शिव अर्थात् कल्याणकारी कहा है। यह ब्रह्मा के समान आभा वाला प्रत्यक्ष शुभ फल देने वाला है।

न भवेत्सूतकं तस्य मृतकं च न विद्यते ।

यस्वेवं न विजानाति गायत्रीं च तथाविधाम् ।।

जो इस प्रकार गायत्री को सविधि जानता है, उसको न तो कभी सूतक ही होता है और न कभी मृत्यु ही होती है।

कथितं सतकं तस्य मृतकं च मयानघ ।

न च तीर्थ-फलं प्रोक्तं तथैव सूतके सति ।।

हे पाप रहित! मैंने उसके सूतक मृतक वर्णन किये। उनके होने पर उसे न दान का फल प्राप्त है और न उसे तीर्थ में जाने का फल लाभ होता है।

गायत्री शक्ति ध्यान

वर्णास्त्र कुण्डिका हस्तां शुद्ध निर्मल ज्योतिषीम् ।

सर्व तत्त्वमयीं वन्दे गायत्रीं वेदमातरम् ।।

वर्णास्त्र युक्त कुण्डिका सहित हाथ वाली शुद्ध निर्मल ज्योति स्वरूपिणी, सब तत्त्वों से युक्त वेदमाता गायत्री की वन्दना करता हूं।

मुक्ता-विद्रुमहेम-नील-धवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणैः

युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् ।

गायत्रीं वरदाभयांकुशकशां शूलं कपालं तथा,

शंखं चक्रमथारविंदयुगलं हस्तैर्वहती भजे ।।

मोती, विद्रुम, सुवर्ण, नील तथा श्वेत आभायुक्त तीन नेत्र वाले मुख युक्त, चन्द्र जटिल रत्नों के मुकुट को धारण करने वाली, तत्त्वार्थ प्रकाशन करने वाली, अभय वरदान प्रदान करने वाली, त्रिशूल, कपाल, शंख तथा चक्र और कमल हाथों में धारण करती हुई गायत्री देवी का ध्यान करता हूं।

पंचवक्त्रां दशभुजां सूर्य कोटि समप्रभाम् ।

सावित्रीं ब्रह्मवरदां चन्दकोटि सुशीतलाम् ।।

त्रिनेत्रां सितवक्त्रां च भुक्ताहार विराजिताम् ।

वराभयांकुशकशां हेम पात्राक्षमालिकाम् ।।

शंखचकक्राब्ज युगलं कराभ्यां दधतीं पराम् ।

सितपंकज संस्थां च हंसारूढां सुखस्मिताम् ।।

ध्यात्वैवं मानसाम्भोजे गायत्री-कवचं पठेत् ।

पांच मुंह, दश भुजा वाली, करोड़ों सूर्य के समान प्रभावती, सावित्री, ब्रह्मवरदा, करोड़ों चन्द्र के समान शीतल, तीन नेत्र वाली, शीतल वाणी बाली, मोतियों का हार धारण करने वाली, वर, अभय, अंकुश, हेमपात्र, अक्षमाला, शंख, चक्र हाथों में धारण करने वाली, श्वेत कमल पर स्थित, हंसारूढ़, मन्द-मन्द मुस्कराती हुई गायत्री का हृदय-कमल पर ध्यान करके तब गायत्री कवच का पाठ करना चाहिये।

कवच

कवच का अर्थ है आच्छादन। किसी से अपने को ढक लिया जाए, तो उसे कवच पहनना कहेंगे। लड़ाई के समय प्राचीनकाल में योद्धा लोग एक विशेष प्रकार के चमड़े और लोहे से बने हुए वस्त्र पहनते थे, जिससे दूसरों के द्वारा किया हुआ प्रहार उन वस्त्रों पर ही रह जाता था। इन वस्त्रों को कवच कहते थे। कवच का काम रक्षा करना है। रक्षा करने वाली वस्तु को कवच कहा जा सकता है।

जिस प्रकार पदार्थों से बने हुए कवच के द्वारा शरीर की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न ऐसे दैवी कवच भी होते हैं, जिसका आवरण ओढ़ लेने पर हमारी रक्षा हो सकती है। मन्त्र शक्ति, कर्मकाण्ड और श्रद्धा का सम्मिश्रित आध्यात्मिक कवच इस प्रकार का है कि उससे अपने आपको आच्छादित कर लेने पर शरीर और मन पर आक्रमण करने वाले अनिष्टों को सफलता नहीं मिलती है।

नीचे दो कवच दिये हैं। एक में गायत्री के अक्षरों को ‘शक्ति बीज’ मानकर उनके द्वारा अपनी रक्षा का आच्छादन बुना जाता है। दूसरे कवच में गायत्री को शक्ति मानकर उसके विविध रूपों द्वारा अपने चारों ओर एक घेरा स्थापित किया जाता है। सुविधा और रुचि के अनुसार इनमें से किसी एक को या दोनों को ही काम में लाया जा सकता है।

शान्त चित्त होकर कवच का पाठ करते हुए ध्यान करना चाहिये कि मेरे अमुक अंग पर अमुक शक्ति का आच्छादन (कवच चढ़ गया है। अब वहां कोई अनिष्ट उसी प्रकार आक्रमण नहीं कर सकता, जिस प्रकार योद्धा के शरीर पर धारण किये हुए कवच को शत्रु नहीं तोड़ सकते। अब मेरे अंग-प्रत्यंगों पर चढ़े हुए आध्यात्मिक कवच का भेदन करके कोई विकार मुझे शारीरिक, मानसिक अथवा किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचा सकते। इस भावना के साथ धारण किया हुआ कवच सचमुच ही एक बड़ा महत्त्वपूर्ण रक्षा-कार्य पूरा करता है।

अक्षर शक्ति कवच

तत्पदं पातु मे पादौ जंघे मे सवितुः पदम् ।

वरेण्यं कटि देशन्तु नाभिं भर्गस्तथैव च ।।

‘तत्’ ये मेरे पैरों की रक्षा करे। ‘सवितुः’ यह पद मेरी जंघाओं की रक्षा करे। ‘वरेण्यं’ पद मेरे कटि प्रदेश की रक्षा करे। ‘भर्ग’ पद मेरी नाभि की रक्षा करे।

देवस्य मे तु हृदयं धीमहीति गलं तथा ।

धियो मे पातु जिह्वायां यः पदं पातु लोचने ।।

‘देवस्य’ पद मेरे हृदय की तथा ‘धीमहि’ मेरे गले की रक्षा करे। ‘धियो’ मेरी जीभ की तथा ‘यः’ पद मेरे दोनों चक्षुओं की रक्षा करे।

ललाटे नः पदं पातु मूर्द्धानं मे प्रचोदयात् ।

‘नः’ पद मेरे ललाट की और ‘प्रचोदयात्’ मेरे शिर की रक्षा करे।

तद्वर्णः पातु मूर्द्धानं संकारः पातु भालकम् ।

‘तत्’ वर्ण मूर्धा की, ‘स’ कार भाल की रक्षा करे।

चक्षुषी मे विकारस्तु श्रोत्रे रक्षेत्तुकारकः ।

नासापुटे वकारो मे रेकारस्तु मुखे तथा ।

‘वि’ मेरे नेत्रों की और ‘तु’ कार कर्णों की रक्षा करे, ‘व’ कार नासापुट की और ‘रे’ कार कपाल की रक्षा करे।

णिकारस्त्वधरोष्ठे च यकारस्तूर्ध्व ओष्ठके ।

आस्य मध्ये भकारस्तु गोकारस्तु कपोलयोः ।।

‘णि’ कार नीचे के ओष्ठ की, ‘य’ कार उपरोष्ठ की, मुख के मध्य में ‘भ’ कार और ‘गो’ कार दोनों कपोलों की रक्षा करे।

देकारः कण्ठ देशे च वकारः स्कन्ध देशयोः ।

स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वाम हस्तकम् ।।

‘दे’ कार कण्ठ प्रदेश की, ‘व’ कार दोनों कन्धों में, ‘स्य’ कार दायें हाथ की तथा ‘धी’ यह बायें हाथ की रक्षा करे।

मकारो हृदयं रक्षेद्धिकारो जठरं तथा ।

धिकारो नाभिदेशं तु यो कारस्तु कटि द्वयम् ।।

‘म’ कार हृदय की रक्षा करे, ‘हि’ कार पेट की और ‘यो’ कार कटि द्वय की रक्षा करे।

गुह्यं रक्षतु यो कार ऊरू मे नः पदाक्षरम् ।

प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जंघ देशयोः ।।

‘यो’ कार गुह्य प्रदेश की रक्षा करे, दोनों ऊरुओं में ‘न’ पद रक्षा करे। ‘प्र’ कार दोनों घुटनों की रक्षा करे। ‘चो’ कार जंघा प्रदेश की रक्षा करे।

दकारो गुल्फदेशे तु याकारः पादयुग्मकम् ।

तकार व्यंजनं चैव सर्वांग मे सदाऽवतु ।।

‘द’ कार गुल्फ की रक्षा करे, ‘य’ कार दोनों पैरों की रक्षा करे। तकार व्यंजन मेरे समस्त अंगों की रक्षा करे।

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