• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • भूमिका
    • गायत्री माहात्म्य
    • अथ गायत्री उपनिषद्
    • गायत्री रामायण
    • गायत्री हृदयम्
    • गायत्री पञ्जरम्
    • ।। अथ गायत्री पञ्जरम् ।।
    • ।। इति गायत्री पञ्जरम् ।।
    • गायत्री संहिता
    • गायत्री तन्त्र
    • मारण प्रयोग
    • नित्य कर्म
    • न्यास
    • श्री गायत्री चालीसा
    • गायत्री अभियान की साधना
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • भूमिका
    • गायत्री माहात्म्य
    • अथ गायत्री उपनिषद्
    • गायत्री रामायण
    • गायत्री हृदयम्
    • गायत्री पञ्जरम्
    • ।। अथ गायत्री पञ्जरम् ।।
    • ।। इति गायत्री पञ्जरम् ।।
    • गायत्री संहिता
    • गायत्री तन्त्र
    • मारण प्रयोग
    • नित्य कर्म
    • न्यास
    • श्री गायत्री चालीसा
    • गायत्री अभियान की साधना
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT TEXT SCAN TEXT


गायत्री माहात्म्य

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 1 3 Last
        गायत्री के इतने महान् लाभों के मूल में क्या-क्या कारण हैं, जिनके कारण इतना सब आश्चर्य होता है, इसके बारे में पूर्ण जानकारी होना तो मनुष्यों के लिए कठिन है, पर उन महान् कारणों में एक कारण यह भी है कि गायत्री के पीछे अनेक मनस्वी साधकों का जगमगाता हुआ साधना-बल है। सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा से लेकर आधुनिक काल तक समस्त ऋषि-मुनियों ने, साधु-महात्माओं ने, श्रेय मार्गियों ने गायत्री मंत्र का आश्रय लिया है। इन सबके द्वारा जितना साधन, जप, अनुष्ठान गायत्री मन्त्र का हुआ है उतना और किसी का नहीं हुआ। अत्यन्त उच्चकोटि की आत्माओं ने अपनी सर्वश्रेष्ठ भावनाओं को सर्वाधिक एकाग्रता और तन्मयता के साथ गायत्री में लगाया है। कल्प-कल्पान्तरों से यह क्रम चलता आया है। इस प्रकार इस एक मंत्र के पीछे इतनी उच्च कोटि की आत्म-विद्युत् सम्मिलित हो गयी है कि सूक्ष्म लोकों में उसका एक भारी पुंज जमा हो गया है। 
विज्ञान बताता है कि कोई शब्द या विचार कभी नष्ट नहीं होता। आज जो बातें कही जा रही हैं या सोची जा रही हैं, वे अपनी तरंगों के साथ आकाश में फैल जायेगी और अनन्त काल तक सृष्टि के अन्तराल में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहेंगी। जो तरंगें विशेष बलवान् होती हैं, वे तो विशेष रूप से प्रदीप्त रहती हैं। महाभारत युद्ध के संस्मरण और तानसेन के गायन की तरंगों को सूक्ष्म आकाश में से पकड़कर रिकार्ड बना लेने के लिए वैज्ञानिक प्रयत्न चल रहे हैं। यदि वे सफल हुए तो प्राचीनकाल की महत्वपूर्ण वार्त्ताओं को ज्यों का त्यों हम कानों से सुन सकेंगे, तब भगवान् कृष्ण के मुख से निकली गीता को ज्यों का त्यों अपने कानों से सुनना सम्भव हो जायेगा। शब्द और विचारों को सूक्ष्म से स्थूल करना भले ही अभी बहुत काल तक कठिन रहे, पर इतना निश्चित है कि उनका अस्तित्व नष्ट नहीं होता। अब तक असंख्यों महान् व्यक्तियों के द्वारा गायत्री के प्रति जिस श्रद्धा और साधना का उपयोग हुआ है, वह नष्ट नहीं हो गयी है, वरन् सूक्ष्म–जगत् में उसका प्रबल अस्तित्व बना हुआ है। ‘‘एक प्रकार के पदार्थों का एक स्थान पर सम्मिलन’’ के सिद्धान्तानुसार उन सभी साधकों की श्रद्धाएं, साधनाएं, भावनाएं, तपश्चर्याएं एक स्थान पर एकत्रित होकर एक प्रबल चैतन्यता-युक्त आध्यात्मिक विद्युत-भण्डार जमा हो गया है। 
जिन्हें विचार-विज्ञान का थोड़ा-सा भी परिचय है, वे जानते हैं कि मनुष्य जिस प्रकार सोचता है उसी प्रकार का एक आकर्षण-चुम्बकत्व उसके मस्तिष्क में उत्पन्न हो जाता है। यह चुम्बकत्व निखिल आकाश में उड़ते हुए उसी जाति के अन्य विचारों को आकर्षित करके अपने पास बुला लेता है और थोड़े ही समय में उसके पास उस जाति के विचारों का भारी जमाव जुड़ जाता है। साधुता की बात सोचने वाले दिन-दिन साधुता के विचारों, गुणों, कर्मों और स्वभावों से परिपूर्ण होते जाते हैं। इसी प्रकार दुष्टता एवं पाप के विचार का मस्तिष्क थोड़े ही समय में उस दिशा में बड़ा कुशल हो जाता है। यह सब विचार-आकर्षण विज्ञान के अनुसार होता है। इसी विज्ञान के अनुसार गायत्री के साधकों की, ये विचार-श्रृंखलाएं सम्बद्ध हो जाती हैं, जो सृष्टि के आदि को लेकर अब तक की महान् आत्माओं द्वारा तैयार की गयी है। ऊंची दीवारों पर कोई व्यक्ति अपने बाहुबल द्वारा बड़ी मुश्किल से चढ़ सकता है, परन्तु कोई अच्छी सीढ़ी दीवार के सहारे लगा दी जाए, तो उस पर पैर रखते ही आसानी से मनुष्य दीवार पर चढ़ जाता है। भूतकाल के साधकों की बनायी हुई सीढ़ी पर चढ़कर हम गायत्री तत्व तक आसानी से चढ़ सकते हैं और उस स्थान पर प्राप्त होने वाली समृद्धियों को सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। 
गायत्री-साधना में जितना श्रम हमें करना पड़ता है, उससे अनेक गुनी सहायता पूर्वकाल के महान् साधकों द्वारा छोड़ी हुई सम्पत्ति से मिल जाती है और हम अनायास ही उन महान् लाभों से लाभान्वित हो जाते हैं, जिसके लिए किसी समय किन्हीं साधकों को बहुत अधिक श्रम करना पड़ता होगा, परन्तु सूक्ष्म जगत् में ऐसे सूक्ष्म विधान निर्मित हो चुके हैं, जिन पर आरूढ़ होते ही हम द्रुतगति से दौड़ने लगते हैं। पानी की बूंद समुद्र में गिर कर समुद्र बन जाती है, एक सिपाही जब सेना में भर्ती हो जाता है, तो वह सेना का अंग बन जाता है, एक नागरिक की पीठ पर उसकी सरकार की समस्त ताकत होती है, इसी प्रकार एक साधक जो गायत्री शक्ति-पुंज के साथ आबद्ध हो जाता है, उसे उस शक्ति-पुंज द्वारा लाभ उठाने का पूरा-पूरा अवसर मिल जाता है। जितना प्रकाशवान् शक्ति-पुंज गायत्री मन्त्र के पीछे है, उतना और किसी वेद-मन्त्र के पीछे नहीं है। यही कारण है कि गायत्री की साधना से स्वल्प श्रम में अत्यधिक लाभ प्राप्त होता है। इतने पर भी हम देखते हैं कि कितने ही मनुष्य गायत्री की महिमा को जानते हुए भी उससे लाभ नहीं उठाते। किसी के बिल्कुल पास, यहां तक कि जेब में ही प्रचुर धन रखा हो, पर यदि वह उसका उपयोग करके आनंद प्राप्त न करे, तो वह उसका दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। गायत्री एक दैवी विद्या है, जो परमात्मा ने हमारे लिए सुलभ बनाई है। ऋषि-मुनियों ने धर्म-शास्त्रों में पग-पग पर हमारे लिए गायत्री-साधना द्वारा लाभान्वित होने का आदेश किया है, इतने पर भी यदि हम उससे लाभ न उठाएं, साधना न करें, तो उसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।
 अथ गायत्री माहात्म्य 
गायत्री की महिमा का वेद, शास्त्र, पुराण सभी वर्णन करते हैं। अथर्ववेद में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, पशु, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है— ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् । मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।। —अथर्व. 19/71/1 अथर्ववेद में स्वयं वेद भगवान् ने कहा है— 
मेरे द्वारा स्तुति की गई, द्विजों को पवित्र करने वाली वेदमाता गायत्री, आयु, प्राण, शक्ति, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज उन्हें प्रदान करें। 
यथा मधु च पुष्पेभ्यो घृतं दुग्धाद्रसात्पयः । एवं हि सर्ववेदानां गायत्री सारमुच्यते ।। —वृहद् योगियाज्ञवल्क्यस्मृति 4.16 
‘‘जिस प्रकार पुष्पों का सारभूत मधु, दूध का घृत, रसों का सारभूत पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है।’’ 

तदित्यृचः समो नास्ति मन्त्रो वेदचतुष्टये । सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च दानानि च तपांसि च । समानि कलया प्राहुर्मुनयो न तदित्यृचः ।। —विश्व‍ामित्र 
‘‘गायत्री मन्त्र के समान मन्त्र चारों वेदों में नहीं है। सम्पूर्णवेद, यज्ञ, दान, तप, गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं हैं, ऐसा मुनि लोग कहते हैं।’’ 
गायत्री छन्दसां मातेति ।। —महानारायणोपनिषद 15/1 ‘‘गायत्री वेदों की माता अर्थात् आदि कारण है।’’ त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादम्यादमदूदुहत् । तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ।। —मनु. अ. 2/77 ‘‘परमेष्ठी प्रजापति ब्रह्माजी ने तीन ऋचा वाली गायत्री के तीनों चरणों को तीन वेदों से सारभूत निकाला है।’’ 
गायत्र्यास्तु परन्नास्ति शोधनं पापकर्मणम् । महाव्याहृतिसंवुक्ता प्रणवेन च संजपेत् ।। —सम्वर्त स्मृ. शलो. 214 ‘‘पाप को नाश करने में समर्थ गायत्री के समान अन्य कोई मन्त्र नहीं है, अतः प्रणव तथा महाव्याहृतियों के सहित गायत्री मन्त्र का जाप करें।’’ 
नान्नतोय-समं दानं न चाहिंसापरं तपः । न गायत्री समं जाप्यं न व्याहृति-समं हुतम् ।। —सूत संहिता यज्ञ वैभव खण्ड अ. 6/30
 ‘‘अन्न और जल के समान कोई भी दान, अहिंसा के समान तप, गायत्री के समान जप, व्याहृति के समान अग्निहोत्र कोई भी नहीं है।’’ 
हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे । तस्मात्तामभ्यसेन्नित्यं ब्राह्मणो हृदये शुचिः ।। ‘‘गायत्री, नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली है, अतः द्विज नित्य ही पवित्र हृदय से गायत्री का अभ्यास करें अर्थात् जपें।’’ 
गायत्री चैव वेदांश्च तुलया समतोलयत् । वेदा एकत्र सांगास्तु गायत्री चैकतः स्थिता ।। —योगी याज्ञवल्क्य. 480 ‘‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया। षट् अंगों सहित वेद एक ओर रखे गये और गायत्री को एक ओर रखा गया।’’ 
सारभूतास्तु वेदानां गुह्योपनिषदो मताः । ताभ्यः सारस्तु गायत्री तिस्रो व्याहृतयस्तथा ।। —योगी याज्ञ. 4.77 ‘‘वेदों के सार उपनिषद् हैं और उपनिषदों का सार गायत्री और तीनों महा व्याहृतियां हैं।’’ 
गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी । गायत्र्यास्तु परन्नास्ति दिवि चेह च पावनम् ।। —शंख स्मृति 12/24 गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री पापों को नाश करने वाली है। गायत्री से अन्य कोई पवित्र करने वाला मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। 
यद्यथाग्निर्देवानां, ब्राह्मणो मनुष्याणाम् । वसन्त ऋतूनामियं गायत्री चास्ति छन्दसाम् ।। 
‘‘जिस प्रकार देवताओं में अग्नि, मनुष्यों में ब्राह्मण, ऋतुओं में वसन्त ऋतु श्रेष्ठ है, उसी प्रकार छन्दों में गायत्री श्रेष्ठ है।’’ 
अष्टादशसु विद्यासु मीमांसाति गरीयसी । ततोऽपि तर्कशास्त्राणि पुराणं तेभ्य एव च ।। ततोऽपि धर्मशास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्द्विज ! ततोऽप्युपनिषच्छ्रेष्ठा गायत्री चे ततोऽधिका ।। दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता । —स्कन्द पु. 4/9/49-51 ‘‘अठारह विद्याओं में मीमांसा अत्यंत श्रेष्ठ है। मीमांसा से तर्कशास्त्र श्रेष्ठ है और तर्कशास्त्र से पुराण श्रेष्ठ हैं। पुराणों से भी धर्मशास्त्र श्रेष्ठ हैं। हे द्विज! धर्मशास्त्रों से वेद श्रेष्ठ हैं और वेदों से उपनिषद् श्रेष्ठ हैं और उपनिषदों से गायत्री मन्त्र अत्यधिक श्रेष्ठ है।’’ प्रणव युक्त यह गायत्री समस्त वेदों में दुर्लभ है। नास्ति अंश समं तीर्थं न देवः केशवात्परः । गायत्र्यास्तु परं जाप्यं न भूतं न भविष्यति ।। —बृ. यो याज्ञ. अ. 10.10.-11 ‘‘गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं हैं, केशव से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। गायत्री मन्त्र के जप से श्रेष्ठ कोई जप न आज तक हुआ है और न होगा।’’ 
सर्वेषां जयसूक्तानामृचां च यजुषां तथा । साम्नां चैकाक्षरादीनां गायत्री परमो जपः ।। —बृ. पाराशर स्मृति अ. 3/4 
‘‘समस्त जप सूक्तों में, ऋक्-यजु एवं सामवेद में तथा एकाक्षरादि मन्त्रों में गायत्री मन्त्र जप परम श्रेष्ठ है।’’ 
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परन्तपः । सावित्र्यास्तु परन्नास्ति पावनं परमं स्मृतम् ।। —अग्नि पुराण 166/18 ‘‘एकाक्षर अर्थात् ‘ओ३म्’ परब्रह्म है। प्राणायाम परम तप है और गायत्री मन्त्र से बढ़कर पवित्र करने वाला कोई मन्त्र नहीं है।’’ 
गायत्र्याः परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम् । हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे ।। —शंख स्मृति अ. 12/25 ‘‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु या मन्त्र पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में भी नहीं है।’’ 
गायत्री चैव वेदाश्च ब्रह्मणा तोलिताः पुरा । वेदेभ्यश्च चतुर्भ्योऽपि गायत्र्यतिगरीयसी ।। —बृ. पाराशर स्मृति अ. 4/16 ‘‘प्राचीनकाल में ब्रह्माजी ने गायत्री को वेदों से तोला। चारों वेदों से भी गायत्री का पलड़ा भारी रहा।’’ 
सोमादित्यान्वयाः सर्वे राघवाः कुरवस्तथा । पठन्ति शुचयो नित्यं सावित्री परमां गतिम् ।। —महाभारत अनु. पर्व अ. 150/77 ‘‘हे युधिष्ठिर! सम्पूर्ण चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी, रघुवंशी तथा कुरुवंशी नित्य ही पवित्र होकर परम गतिदायक गायत्री मन्त्र का जप करते हैं।’’ 
बहुना किमिहोक्तेन यथावत् साधु साधिता । द्विजन्मानामियं विद्या सिद्धा कामदुघा स्मृता ।। 
यहां पर अधिक कहने से क्या लाभ? अच्छी प्रकार सिद्ध की गयी गायत्री विद्या, द्विज जाति के लिए कामधेनु कही गई है।’’ 
सर्ववेदोद्धृतः सारो मन्त्रोऽयं समुदाहृतः । ब्रह्मादिदेवा गायत्री परमात्मा समीरितः ।। 
‘‘यह गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार कहा गया है। गायत्री ही ब्रह्मा आदि देवता है। गायत्री ही परमात्मा कही गयी है।’’ 
या नित्या ब्रह्मगायत्री सैव गंगा न संशयः । सर्वतीर्थमयी गंगा तेन गंगा प्रकीर्तिता ।। —गायत्री तन्त्र 3/143 
‘‘गंगा सर्व तीर्थमय होने से ‘गंगा’ कहलाती है। वह गंगा ब्रह्म गायत्री का ही रूप है।’’ सर्वशास्त्रमयी गीता गायत्री सैव निश्चिता । यागतीर्थं च गोलोकं गायत्रीरूपमद्भुतम् ।। —गायत्री तन्त्र 3/144
‘‘गीता में सब शास्त्र भरे हुए हैं। वह गीता निश्चय ही गायत्री रूप है। याग, तीर्थ और गोलोक यह भी गायत्री के ही रूप हैं।’’ 
अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छन्तिष्ठन् यथा तथा । गायत्रीं प्रजपेद्धीमान् जपात् पापान्निवर्तते ।। —गायत्री तन्त्र ‘‘अपवित्र हो अथवा पवित्र हो, चलता हो अथवा बैठा हो, जिस भी स्थिति में हो, बुद्धिमान् मनुष्य गायत्री का जप करता रहे। इस जप के द्वारा पापों से छुटकारा होता है।’’ मननात् पापतस्त्राति मननात् स्वर्गमश्नुते । मननात् मोक्षमाप्नोति चतुर्वर्गमयो भवेत् ।। —गायत्री तन्त्र ‘‘गायत्री का मनन करने से पाप से छूटते हैं, स्वर्ग प्राप्त होता है और मुक्ति मिलती है तथा चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सिद्ध होते हैं। 
गायत्री तु परित्यज्य अन्यमन्त्रानुपासते । त्यक्त्वा सिद्धान्नमन्यत्र भिक्षामटति दुर्मतिः ।। 
‘‘जो गायत्री को छोड़कर दूसरे मन्त्रों की उपासना करता है, वह दुर्बुद्धि मनुष्य पकाये हुए अन्न को छोड़कर भिक्षा के लिए घूमने वाले पुरुष के समान है।’’ 
नित्ये नैमित्तिके काम्ये तृतीये तपो वर्धने । गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च।। 
‘‘नित्य, नैमित्तिक, काम्य की सफलता तथा तप की वृद्धि के लिये इस लोक तथा परलोक में गायत्री से बढ़कर कोई नहीं है।’’ 
सावित्री - जाप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन स्नातः प्रयतमानसः । गायत्रीं तु जपेत् भक्त्या सर्वपापप्रणाशिनीम् ।। —शंख. 12/30-31 
‘‘गायत्री मन्त्र जानने वाला मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है। इसी कारण स्नान कर समस्त प्रयत्नों से स्थिर चित्त हो सारे पापों के नाश करने वाली गायत्री का जाप करे।’’ 
गायत्री जप के लाभ 
गायत्री का जप करने से कितना महत्वपूर्ण लाभ होता है, इसका कुछ आभास निम्नलिखित थोड़े से प्रमाणों से जाना जा सकता है। ब्राह्मण के लिए तो इसे विशेष रूप से आवश्यक कहा है, क्योंकि ब्राह्मणत्व का सम्पूर्ण आधार सद्बुद्धि पर निर्भर है और वह सद्बुद्धि गायत्री के बताये हुए मार्ग पर चलने से मिलती है। 
सर्वेषां वेदानां गुह्योपनिषत्सारभूतां ततो गायत्रीं जपेत् । —छान्दोग्य परिशिष्ट 

‘गायत्री समस्त वेदों का और गुह्य उपनिषदों का सार है। इसलिए गायत्री मन्त्र का नित्य जाप करें। 
सर्ववेदसारभूता गायत्र्यास्तु समर्चना । ब्रह्मादयोऽपि संध्यायां तां ध्यायन्ति जपन्ति च ।। —दे. भा. स्क. 11 अ. 16/15-16 
‘गायत्री मन्त्र की आराधना समस्त वेदों का सारभूत है। ब्रह्मादि देवता भी संध्या काल में गायत्री का ध्यान करते हैं और जप करते हैं।’ 
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षभवाप्नुयात् ।। — दे. भा. स्क. 12 अ. 8/90 ‘गायत्री मात्र की उपासना करने वाला ब्राह्मण भी मोक्ष को प्राप्त होता है।’ 
ऐहिकामुष्मिकं सर्वं गायत्रीजपतो भवेत् ।—अग्नि पुराण ‘गायत्री जपने वाले को सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुख प्राप्त हो जाते हैं।’ 
वोऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ।। —मनुस्मृति 2/82 
‘जो मनुष्य तीन वर्ष तक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक गायत्री मन्त्र जपता है, वह अवश्य ब्रह्म को प्राप्त करता है और वायु के समान स्वेच्छागमन वाला होता है।’ 
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यात् इति प्राह मनुः स्वयम् । अक्षयमोक्षमाप्नोति गायत्री - मात्र - जापनात् ।। —शौनक 
‘इस प्रकार मनु जी ने स्वयं कहा है कि अन्य देवताओं की उपासना करे या न करे, केवल गायत्री के जप से द्विज अक्षय मोक्ष को प्राप्त होता है।’ त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत् । तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ।। —मनु. 2/77 ‘परमेष्ठी पितामह ब्रह्माजी ने एक-एक वेद से सावित्री के एक-एक पद की रचना की, इस प्रकार तीन पदों का सृजन किया।’ 
एतया ज्ञातया सर्व वाङ्मयं विदितं भवेत् । उपासितं भवेत्तेन विश्वं भुवनसप्तकम् ।। —योगी याज्ञ. 470 ‘गायत्री के जान लेने से समस्त विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है, इस प्रकार उसने केवल गायत्री की ही उपासना नहीं की, अपितु सात लोकों की उपासना कर ली।’ 
ओंकारपूर्विकास्तिस्रो गायत्री यश्च विन्दति । चरितब्रह्मचर्यश्च स वै श्रोत्रिय उच्यते ।। —योगी याज्ञ. ‘जो ब्रह्मचर्य पूर्वक, ओंकार, महाव्याहृतियों सहित गायत्री मन्त्र का जप करता है, वह श्रोत्रिय है।’ 
ओंकारसहितां जपन् तां च व्याहृतपूर्विकाम् । सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेद - पुण्येन युज्यते ।। —मनुस्मृति अ. 2/78 ‘जो ब्राह्मण दोनों संध्याओं में प्रणव-व्याहृति सहित गायत्री मंत्र का जप करता है, वह वेदों के पढ़ने के फल को प्राप्त करता है। 
गायत्रीं जपते यस्तु द्विकालं ब्राह्मणः सदा । असत्प्रतिगृहीतोऽपि स याति परमां गतिम् ।। —अग्निपुराण ‘जो ब्राह्मण सदा सायंकाल और प्रातःकाल गायत्री का जप करता है, वह ब्राह्मण अयोग्य प्रतिग्रह (दान) लेने पर भी परमगति को प्राप्त होता है।’ 
सकृदय जपेद्विद्वान् गायत्रीं परमाक्षरीम् । तत्क्षणात् संभवेत्सिद्धिर्ब्रह्मसायुज्यमाप्नुयात् ।। —गायत्री पुरश्चरण 28
 ‘श्रेष्ठ अक्षरों वाली गायत्री को विद्वान् यदि एक बार भी जपे, तो तत्क्षण सिद्धि होती है और वह ब्रह्मा की सायुज्यता को प्राप्त करता है।’ जप्येनैव तु संसिद्ध्येत् ब्राह्मणो नात्र संशयः । कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ।। —मनु. 2/87 ‘बाह्मण अन्य कुछ करे या न करे, परन्तु वह केवल गायत्री से ही सिद्धि पा सकता है।’ 
कुर्यादन्यत्र वा कुर्यादनुष्ठानादिकं तथा । गायत्रीमात्रनिष्ठस्तु कृतकृत्यो भवेद् द्विजः ।। —गायत्री तन्त्र 8 ‘अन्य अनुष्ठानादि करे या न करे, गायत्री की उपासना करने वाला द्विज कृतकृत्य हो जाता है।’ 
सन्ध्यासु चार्घ्यदानं च गायत्रीजपमेव च । सहस्रत्रितयं कुर्वन् सुरैः पूज्यो भवेन्मुने ।। —गायत्री तन्त्र श्लोक 9 ‘हे मुने! संध्याकाल में ही सूर्य को अर्घ्यदान और तीन हजार नित्य गायत्री जपने मात्र से पुरुष देवताओं का भी पूजनीय हो जाता है।’ 
यदक्षरैकसंसिद्धेः स्पर्धते ब्राह्मणोत्तमः । हरिशंकरकंजोत्थ - सूर्यचन्द्रहुताशनैः ।। —गायत्री पुर. 11 ‘गायत्री के एक अक्षर की सिद्धि मात्र से हरि, शंकर, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवताओं से भी साधक स्पर्धा करने लगता है। 
दशसाहस्रमभ्यस्ता गायत्री शोधनी परा । —लघु अत्रिसंहिता 4.4 दस हजार बार जपी गयी गायत्री परम शोधन करने वाली है। 
सर्वेषाञ्चैव पापानां संकटे समुपस्थिते । दशसहस्रकाभ्यासो गायत्र्याः शोधनं परम् ।। 
‘दस हजार गायत्री का जप, समस्त पापों को तथा संकटों को नाश करके परम शुद्ध करने वाला है।’ 
गायत्रीमेव यो ज्ञात्वा सम्यगुच्चरते पुनः । इहामुत्र च पूज्योऽसौ ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ।। —व्यास ‘जो गायत्री को भली प्रकार जानकर उसका उच्चारण करता है, वह इस लोक और परलोक में ब्रह्म की सायुज्यता को प्राप्त करता है।’ 
मोक्षाय च मुमुक्षूणां श्रीकामानां श्रिये तथा । विजयाय युयुत्सूनां व्याधितानामरोगकृत् ।। —गायत्री पंचांग 1 ‘गायत्री-साधना से मुमुक्षुओं को मोक्ष मिलेगा, श्री कामियों को सम्पत्ति प्राप्त होगी, युद्धेच्छुओं को विजय तथा व्याधिग्रस्त को नीरोगता प्राप्त होगी।’ 
वश्याय वश्यकामानां विद्यायै वेदकामिनाम् । द्रविणाय दरिद्राणां पापिनां पापशान्तये ।। 
‘वशीकरण करने वालों के वशीकरण सिद्ध होंगे, वेदार्थियों को विद्या प्राप्ति, दरिद्रों को धन प्राप्ति, पापियों के पाप की शान्ति हो जाती है।’ 
वादिनां वाद - विजये कवीनां कविताप्रदम् । अन्नाय क्षुधितानां च स्वर्गीय नाकमिच्छताम् ।। 
‘शास्त्रार्थियों को शास्त्र विजय, कवियों को काव्य लाभ, भूखों को अन्न तथा स्वगेच्छुकों को स्वर्ग प्राप्त होता है।’ 
पशुभ्यः पशुकामानां पुत्रेभ्यः पुत्रकामिनाम् । क्लेशिनां शोक-शान्त्यर्थं नृणां शत्रुभयाय च ।। 
‘पशु इच्छुकों को पशु, पुत्रार्थियों को पुत्र, क्लेश-पीड़ितों को शोक-शान्ति, शत्रु-भय वालों को अभय मिलता है। 
अष्टादशसु विद्यासु मीमांसाऽतिगरीयसी । ततोऽपि तर्कशास्त्राणि पुराणं तेभ्य एव च ।। 
‘अठारह विद्याओं में मीमांसा श्रेष्ठ है, उससे श्रेष्ठ तर्कशास्त्र तथा पुराण उससे भी श्रेष्ठ कहे गये हैं।’ 
ततोऽपि धर्मशास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्नृप । ततो ह्युपनिषत् श्रेष्ठा गायत्री च ततोऽधिका ।। 
‘धर्मशास्त्र उनसे भी श्रेष्ठ हैं तथा हे राजन्। उनसे भी श्रेष्ठ श्रुतियां कही गयी हैं। उन श्रुतियों से भी श्रेष्ठ उपनिषद् हैं और उपनिषदों से भी गरीयसी गायत्री कही गयी है। 
तां देवीमुपतिष्ठन्ते ब्राह्मणा ये जितेन्द्रियाः । ते प्रयान्ति सूर्य्यलोकं क्रमान्मुक्तिञ्च पार्थिव ।। —पद्म पुराण ‘जो इन्द्रियजित् ब्राह्मण इस गायत्री की उपासना करते हैं, हे पार्थिव! वे अवश्य ही सूर्य लोक को प्राप्त होते हैं तथा क्रमशः मुक्ति को भी प्राप्त करते हैं।’ 
गायत्री-सार-भात्रोऽपि वरं विप्रः सुसंयतः । —पद्म पु. सृ. खं. 17/281 ‘चार वेदों की सारभूत गायत्री को विधि सहित जानने वाला ब्राह्मण श्रेष्ठ है।’ 
गायत्रीं वस्तु जपति त्रिकालं ब्राह्मणः सदा । अर्थी प्रतिग्रही वापि स गच्छेत्परमां गतिम् ।। 
‘जो ब्राह्मण गायत्री को त्रिकाल में जपता है, वह मांगने वाला या दान लेने वाला (अग्राह्य दान को ग्रहण करने वाला) ही क्यों न हो, वह भी परम गति को प्राप्त हो जाता है। 
गायत्रीं यस्तु जाति कल्यमुत्थाय यो द्विजः । स लिम्पति न पापेन पद्म - पत्रमिवांभसा ।। 
‘जो ब्राह्मण प्रातः उठकर गायत्री का जप करता है, वह जल में कमलपत्र की भांति पापग्रस्त नहीं होता।’ 
अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थो विनिर्णयः । गायत्री-भाष्य-रूपोऽसौ वेदार्थः परिबृंहितः ।। —मत्स्य पुराण ‘गायत्री का अर्थ ब्रह्मसूत्र है। गायत्री का निर्णय महाभारत है, गायत्री का अर्थ वेदों में हुआ है। 
जपन् हि पावनीं देवीं गायत्रीं वेदमातरम् । तपसा भावितो देव्या ब्राह्मणः पूतकिल्विषः ।। 
‘ब्राह्मण वेद-जननी गायत्री को जपता हुआ अनेक पापों से मुक्त हो जाता है।’ 
गायत्री-ध्यानपूतस्य कलां नार्हति षोडशीम् । एवं किल्विषयुक्तस्य विनिर्दहति पातकम् ।। 
‘गायत्री के ध्यान से पवित्र हुई सोलह कलाओं का कोई मूल्यांकन नहीं हो सकता। इस प्रकार वह पाप-युक्त के पापों को शीघ्र ही दहन कर देती है।’ 
उभे सन्ध्ये ह्युपासीत तस्मान्नित्यं द्विजोत्तम । छन्दस्तस्यास्तु गायत्रं गायत्रीत्युच्यते ततः ।। —मत्स्य पुराण 
‘हे द्विज श्रेष्ठ! गायत्री को छन्दानुसार दोनों संध्याकाल में ध्यान करना चाहिये।’ ‘गान करने वाले का यह त्राण करती है, इसीलिये इसे गायत्री कहा है। 
गायन्तं त्रायते यस्मात् गायत्री तु ततः स्मृता । मारीच! कारणात्तस्मात् गायत्री कीर्तिता मया ।। —लंकेश तन्त्र
 ‘हे मारीच! गान करने वाले का त्राण करती है, इसी हेतु मैंने इसे गायत्री कहा है।’ 
ततः बुद्धिमतां श्रेष्ठ नित्यं सर्वेषु कर्मसु । सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।। जपन्ति ये सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् । दशकृत्वः प्रजप्या सा रात्र्यह्नापि कृतं लघु ।। 
‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, अपने नित्य नियमित सभी कार्यों को करते हुए व्याहृतियों के सहित तथा प्रणव के उच्चारण सहित गायत्री को जो पुरुष सदा जपते हैं, उनको कहीं भी भय नहीं है। दस बार जपने से रात्रि तथा दिन के लघु दोषों का निवारण होता है। 

कामकामो लभेत्कार्य गतिकामस्तु सद्गतिम् । अकामस्तु तदाप्नोति यद्विष्णों परमं पदम्।। -वि. धर्मोत्तर पु. - 3 ‘कामाभिलाषी को काम की प्राप्ति होती है और जो मोक्ष की आकांक्षा करते हैं, उन्हें सद्गति प्राप्त होती है। जो पुरुष निष्काम भाव से गायत्री की उपासना करते हैं, वे विष्णु के परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।’ 
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम् । सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेद-पुण्येन युज्यते ।। —मनु. 2/78 
‘व्याहृतिपूर्वक इस गायत्री को दोनों संध्या काल में जपता हुआ ब्राह्मण, वेद पढ़ने के पुण्य को प्राप्त होता है।’ 
इयन्तु सत्याहृतिका द्वारं ब्रह्मपदाप्तये । तस्मात्प्रतिदिनं विप्रैरध्येतव्या तथैव सा ।। 
‘यह गायत्री ब्रह्मपद की प्राप्ति का द्वार है, अतः ब्राह्मणों को व्याहृतिपूर्वक प्रतिदिन इसका अध्ययन (मनन) करना चाहिये। 
योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म पदमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ।। —मनु. 2/82 ‘जो इस गायत्री को तन्द्रा रहित (आलस्य को छोड़कर) तीन वर्ष तक नियमित रूप से जपता है, वह ब्रह्मपद को निस्संदेह उपलब्ध हो जाता है। 
तत् पापं प्रणुदत्याशु नात्र कार्या विचारणा । शतं जप्त्वा तु सा देवी पापौघशमनी स्मृता ।। 
‘इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये कि सब पापों का शीघ्र ही निवारण हो जाता है। सौ बार जप करने पर यह गायत्री पापों के समूह का विनाश कर देती है। 
विधिना नियतं ध्यायेत् प्राप्नोति परमं पदम् । यथा कथञ्चिज्जपिता गायत्री पापहारिणी ।। सर्व-कामप्रदा प्रोक्ता पृथक्कर्म्मसु निष्ठित । 
‘विधिपूर्वक नियत ध्यान करने पर परम पद की प्राप्ति होती है। जिस-किसी भी प्रकार जपी हुई गायत्री पापों का विनाश करती है, भिन्न-भिन्न कार्यों के उद्देश्य से किया हुआ जप भी अभीष्ट की सिद्धि कर देता है। 
गायत्री से पाप और दुःखों से निवृत्ति 
गायत्री साधना से सब पापों की और सब दुःखों की निवृत्ति के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं— 
ब्रह्महत्यादिपापानि गुरूणि च लघूनि च । नाशयत्यचिरेणैव गायत्रीजापको द्विजः ।। —गा. पु. पृ. 62 ‘गायत्री जपने वाले के ब्रह्महत्यादि सभी पाप, छोटे हों चाहे बड़े हों, शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।’ 
गायत्रीजपकृद् भक्त्या सर्वपापैः प्रमुच्यते । —पाराशर ‘भक्तिपूर्वक गायत्री जपने वाला समस्त पापों से छूट जाता है।’ 
सर्वपापानि नश्यन्ति गायत्रीजपतो नृणाम् । —भविष्य पुराण गायत्री जपने वाला समस्त पापों से छूट जाता है।’ 
गायत्र्यष्टसहस्रं तु जपं कृत्वा स्थिते रवौ । मुच्यते सर्वपापेभ्यो यदि न ब्रह्मद्विड् भवेत् ।। —अत्रि स्मृति 3/15 ‘सूर्य के समक्ष यदि गायत्री का आठ हजार जप करें, तो वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। यदि ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी पुरुषों की निन्दा करने वाला न हो, तो।’ 
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्त्रिकं द्विजः । महतोष्येनसो मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते ।। —मनु. अ. 2/79 ‘एकान्त स्थान में प्रणव, महा व्याहृति पूर्वक गायत्री का एक हजार जप करने वाला द्विज, बड़े से बड़े पापों से ऐसे छूट जाता है जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है।’ 
जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि । 
‘जिनसे पुरुषों के पाप दूर हो जाते हैं और वे इस संसार से तर जाते हैं, उनको तीर्थ कहते हैं। गायत्री के इन तीन अक्षरों में वह तीर्थ विद्यमान हैं— ग - गंगा, य - यमुना, त्र - त्रिवेणी समझनी चाहिये।’ 
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वंगनागमः । महान्ति पातकदीनि, स्मरान्नाशमाप्नुयुः ।। —गायत्री पु. 2/2 ‘गायत्री के स्मरण मात्र से ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरु-स्त्री गमन आदि महापातक भी नष्ट हो जाते हैं।’ य एतां वेद गायत्रीं पुमान् सर्वगुणान्विताम् । तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ ! स लोके न प्रणश्यति ।। —महा. भा. भीष्म प. अ. 14/16 ‘हे युधिष्ठिर! जो मनुष्य तत्त्वपूर्वक सर्वगुण सम्पन्न पुण्यमयी गायत्री को जान लेता है, वह संसार में दुःखित नहीं होता।’ गायत्री-निरतं हव्य-कव्येषु विनियोजयेत् । तस्मिन्न तिष्ठते पापं जलबिन्दुरिव पुष्करे ।। 
‘गायत्री जपने वालों को ही पितृकार्य तथा देवकार्य में बुलाना चाहिये, क्योंकि गायत्री उपासक में पाप उसी प्रकार नहीं रहता, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूंद नहीं ठहरती।’ 
गायत्रीं यः पठेद्विप्रो न स पापेन लिप्यते । —लघु अत्रि संहिता 2/12 ‘जो द्विज गायत्री को जपता है, वह पाप में लिप्त नहीं होता।’ चरक संहिता में गायत्री-साधना के साथ आंवला सेवन करने से दीर्घ जीवन का वर्णन आया है। 
सावित्री मनसा ध्यायन् ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । सम्वत्सरान्ते पौषीं वा माघी वा फाल्गुनीं तिथिम् ।। —चरक चिकित्सा आंव. रसा. श्लो. 9 
‘मन से गायत्री को ब्रह्मचर्य पूर्वक एक वर्ष तक ध्यान करता हुआ, वर्ष के उपरान्त में पौष मास अथवा माघ मास की अथवा फाल्गुन मास की किसी शुभ तिथि में तीन दिन क्रमशः उपासना के उपरान्त आंवले के वृक्ष घर चढ़कर जितने आंवले मनुष्य खायेगा, उतने ही वर्ष वह जीवित रहेगा।’ यदिह वा अप्येवं विद् बहु इव प्रतिगृह्णाति ने हैव तद् गायत्र्या एकं च न पदं प्रति । स य इमान् त्रींल्लोकान् पूर्णान् प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतत्प्रथमं पदमाप्नुयादर्थ यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतद् द्वितीयं पदमाप्नुयादथ यावदिदं प्राणि यस्तावत् प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या तत्तृतीयं पदमाप्नुयात् अथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केनचनाप्यं कुत उ एतावत्प्रतिगृह्णीयात् । बृह. उ. 5/14/5-6 ‘गायत्री को सर्वात्मक भाव से जपने वाला मनुष्य, यदि बहुत ही प्रतिग्रह लेता है, तो भी उस प्रतिग्रह का दोष गायत्री के प्रथम पाद उच्चारण के समान भी नहीं होता। यदि समस्त तीन लोकों को प्रतिग्रह में लें, तो उसका दोष प्रथम पाद उच्चारण से नष्ट हो जाता है। यदि तीन वेदों का प्रतिग्रह लें, तो उसका दोष द्वितीय पाद से नष्ट हो जाता है। यदि संसार के समस्त प्राणियों का भी प्रतिग्रह लें, तो उसका दोष तृतीय पाद से नष्ट हो जाता है। अतः गायत्री जपने वाले को कोई हानि नहीं पहुंचती और गायत्री का चौथा पद परब्रह्म है, इसके सदृश दुनिया में भी कुछ नहीं है।’ 
यदह्रा कुरुते पापं तदह्राप्रतिमुच्यते । यद्राच्या कुरुते पाप तद्रात्र्या प्रतिमुच्यते ।। —तै. आ. प्र. 10 अ. 34 ‘हे गायत्री! तुम्हारे प्रभाव से दिन में किये पाप दिन में ही नष्ट हो जाते हैं और रात्रि में किये पाप रात्रि में ही नष्ट हो जाते हैं।’ 
गायत्रीं तु परित्यज्य येऽन्यमन्त्रमुपासते । मुण्डकरा वै ते ज्ञेया इति वेदविदो विदुः ।। 
‘जो गायत्री मन्त्र को त्याग कर अन्य मन्त्र की उपासना करते हैं, वे नास्तिक हैं, ऐसा देवताओं ने कहा है।’ 
गायत्रीं चिन्तयेद्यस्तु हत्पद्मे समुपस्थिताम् । धर्माधर्मविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् ।। 
‘जो मनुष्य हृदय कमल में बैठी हुई गायत्री का चिन्तन करता है, वह धर्म, अधर्म के द्वन्द्व से छूटकर परम् गति को प्राप्त होता है।’ 
सहस्रं जप्ता सा देवी ह्युपपातकनाशिनी । लक्षजाप्ये तथा सा च महापातकनाशिनी ।। कोटिजाप्येन राजेन्द्र ! यदिच्छति तदाप्नुयात् । 
‘एक सहस्र जप करने में गायत्री उपपातकों का विनाश करती है। एक लाख जप करने से महापातकों का विनाश होता है। एक करोड़ जप करने से अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है।’ गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना गायत्री को न जानने वाले अथवा जानने पर भी, उसकी उपासना न करने वाले द्विजों की शास्त्रकारों ने कड़ी भर्त्सना की है और उन्हें अधोगामी बताया है। इस निन्दा में इस बात की चेतावनी दी है कि जो आलस्य या अश्रद्धा के कारण गायत्री साधना में ढील करते हों, उन्हें सावधान होकर इस श्रेष्ठ उपासना में प्रवृत्त होना चाहिये। 
गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता । यया विना त्वधः पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा ।। —देवी भागवत स्कं. 12/अ. 8/89 ‘गायत्री की उपासना नित्य ही समस्त वेदों में वर्णित है। गायत्री के बिना ब्राह्मण की सब प्रकार से अधोगति होती है। 
स्रांगांश्च चतुरो वेदानधीत्यापि सवाङ्मयान् । गायत्रीं यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ।। —यो. याज्ञवल्क्य 
‘सस्वर और सांग चारों वेदों को जानकर भी जो गायत्री मन्त्र को नहीं जानता, उसका परिश्रम व्यर्थ है।’ गायत्रीं यः परित्यज्य चान्यमन्त्रमुपासते । न साफल्यमवाप्नोति कल्पकोटिशतैरपि ।। —बृ. सन्ध्या भाष्य 
‘जो गायत्री मन्त्र को छोड़कर अन्य मन्त्र की उपासना करते हैं, वह करोड़ों जन्मों में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं।’ 
विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपासनतत्परः । शिवोपासनतो विप्रो नरकं याति सर्वथा ।। —देवी भागवत 12/8/92 ‘गायत्री को त्याग कर विष्णु और शिव की पूजा करने पर भी ब्राह्मण नरक में जाता है।’ 
गायत्र्या रहितो विप्रः शूद्रादप्यशुचिर्भवेत् । गायत्री-ब्रह्म-तत्त्वज्ञः सम्पूज्यस्तु द्विजोत्तमः ।। —पारा. स्मृति 8/31 ‘गायत्री से रहित ब्राह्मण शूद्र से भी अपवित्र है। गायत्री रूपी ब्रह्म तत्व को जानने वाला सर्वत्र पूज्य है।’ 
एतयर्चा विसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया । ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां याति साधुषु ।। —मनुस्मृति अ. 2/80 

‘प्रणव व्याहृतिपूर्वक गायत्री मन्त्र का जप सन्ध्याकाल में न करने वाला द्विज, सज्जनों में निन्दा का पात्र होता है।’ 
एवं यस्तु विजानाति गायत्रीं ब्राह्मणस्तु सः । अन्यथा शूद्रधर्मा स्याद् वेदानामपि पारगः ।। —यो. याज्ञ. 4/41-42 ‘जो गायत्री को जानता है और जपता है, वह ब्राह्मण है; अन्यथा वेदों में पारंगत होने पर भी शूद्र के समान है।’ अज्ञात्वैतां तु गायत्रीं ब्राह्मण्यादेव हीयते । अपवादेन संयुक्तो भवेच्छ्रतिनिदर्शनात् ।। —यो. याज्ञ. 4/71 ‘गायत्री को न जानने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से हीन होकर पापयुक्त हो जाता है, ऐसा श्रुति में कहा गया है।’ किं वेदैः पठितैः सर्वैः सेतिहासपुराणकैः । सांगैः सावित्रिहीनेन न विप्रत्वमवाप्यते ।। —बृ. पा. अ. 5/14 ‘इतिहास, पुराणों के तथा समस्त वेदों के पढ़ लेने पर भी यदि ब्राह्मण गायत्री मन्त्र से हीन हो, तो वह ब्राह्मणत्व को नहीं प्राप्त होता है।’ न ब्राह्मणो वेदपाठान्न शास्त्र पठनादपि । देव्यास्त्रिकालमभ्यासाद् ब्राह्मणः स्याद् द्विजोऽन्यथा । —बृ. संध्या भाष्य ‘वेद और शास्त्रों के पढ़ने से ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता। तीनों कालों में गायत्री की उपासना से ब्राह्मणत्व होता है, अन्यथा वह द्विज नहीं रहता है। ओंकारं पितृरूपेण गायत्री मातरं तथा । पितरौ यो न जानाति से विप्रस्त्वन्यरेतसः ।। ‘ओंकार को पिता और गायत्री को माता रूप से जो नहीं जानता, वह पुरुष अन्य की सन्तान है, अर्थात् व्यभिचार से उत्पन्न है।’ उपलभ्य च सावित्रीं गोपतिष्ठति यो द्विजः । काले त्रिकालं सप्ताहात् स पतेन् नात्र संशयः ।। ‘गायत्री मन्त्र को जानकर, जो द्विज इसका आचरण नहीं करता अर्थात् इसे त्रिकाल में नहीं जपता, उसका निश्चय पतन हो जाता है।’ गायत्री आध्यात्मिक त्रिवेणी है पिछले पृष्ठों पर कुछ थोड़े से प्रमाण गायत्री की महिमा-सूचक दिये गये हैं। इस प्रकार के प्रमाण धर्म-शास्त्रों में इतनी बड़ी मात्रा में भरे पड़े हैं कि उनका संग्रह और प्रकाशन करना कठिन है। गंगा, गीता, गौ, गायत्री यह चार आर्य धर्म की शिक्षायें हैं। भारतीय धर्म को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन चारों का माता के समान आदर करता है और एक माता की सन्तान के समान आपस में एकता का अनुभव करता है। गायत्री को आध्यात्मिक त्रिवेणी कहा गया है। गंगा, यमुना के मिलने से एक अदृश्य, सूक्ष्म एवं अलौकिक दिव्य सरिता का आविर्भाव होता है, जिसे सरस्वती कहते हैं। गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का सम्मिलन त्रिवेणी कहलाता है। त्रिवेणी होने के कारण ही प्रयाग को तीर्थराज कहा गया है, सब तीर्थों का राजा माना गया है। इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत् की त्रिवेणी गायत्री है। इसके तीनों अक्षर संकेत रूप से इसी प्रकार के त्रिगुणात्मक सम्मेलन का रहस्योद्घाटन करते हैं। गो-पहला अक्षर, गंगा बोधक है। य-दूसरा अक्षर यमुना का संकेत करता है। त्री-तीसरा अक्षर त्रिवेणी का अस्तित्व बताता है। त्रयी शक्ति में कितने ही त्रिक् घुसे हुए हैं। (1) सत्, चित्, आनन्द (2) सत्य, शिव, सुन्दर (3} सत्, रज, तम, (4) ईश्वर, जीव, प्रकृति (5) ऋक्, यजु, साम, (6) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (7) गुण, कर्म, स्वभाव (8) शैशव, यौवन, बुढ़ापा (9) ब्रह्मा, विष्णु, महेश (10) उत्पत्ति, वृद्धि, नाश (11) सर्दी, गर्मी, वर्षा (12) धर्म, अर्थ, काम (13) आकाश, पाताल, पृथ्वी (14) देव, मनुष्य, असुर आदि अगणित त्रिक गायत्री छन्द के गर्भ में सम्पुटित हैं। जिसमें गहराई तक प्रवेश करके मनन, चिन्तन, परिशीलन रूपी स्नान करने से वैसा ही आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है जैसा कि भौतिक जगत् में त्रिवेणी के स्नान का पुण्य फल माना गया है। इन तीन अक्षरों के अनेक प्रकार की तीन-तीन समस्यायें मनुष्य के सामने उपस्थित की गयी। हैं, जिनका भली प्रकार अवगाहन करने से जीवन-मुक्ति के परम फल को प्राप्त किया जा सकता है। त्रिवेणी की तीन धारायें देखने में बड़ी दुस्तर, भयंकर, विशाल और अगाध दिखाई पड़ती हैं। इस प्रकार से गायत्री में जो समस्यायें सिमटी हुई हैं, वे काफी प्रतीत होती हैं, पर जैसे त्रिवेणी की जलधारा में प्रवेश करके स्नान करने से भय दूर हो जाता है और शान्तिदायक, शीतल प्रफुल्लता प्राप्त होती है, वैसे ही गायत्री में सन्निहित समस्याओं का चिन्तन, मनन और अवगाहन करने से ऐसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है, जो सत्पथ की ओर प्रेरित करता है और शाश्वत शान्ति एवं परमानन्द के द्वार तक पहुंचा देता है। गायत्री निस्संदेह आध्यात्मिक त्रिवेणी है, उसे तीर्थराज ही समझना चाहिये, क्योंकि उसमें सन्निहित तत्त्वज्ञान अति सरल, सुबोध, सुगम, सीधा और स्थायी सुख-शान्ति प्रदान करने वाला है। गायत्री की महिमा अनन्त है। वेद-पुराण, शास्त्र-इतिहास, ऋषि-मुनि, गृही-विरागी सभी समान रूप से उनका महत्त्व स्वीकार करते हैं। उसमें हमारे दृष्टिकोण को बदल देने की अद्भुत शक्ति है। अपनी उलटी विचारधारा, भ्रान्त मनोभूमि यदि सीधी हो जाए, हमारी इच्छायें, आकांक्षायें, विचारधारा, भावनायें यदि उचित स्थान पर आ जायें, तो यह मनुष्य शरीर देवयोनि से बढ़कर और यह भूलोक सुरलोक से बढ़कर हर किसी के लिए आनन्ददायक हो सकता है। हमारी उलटी बुद्धि ही स्वर्ग को नरक बनाये हुए है। इस विषम स्थिति से उबारकर हमारे मस्तिष्क को सीधा करने की शक्ति गायत्री में है। जो उस शक्ति का उपयोग करता है, वह विषय विकारों, भ्रान्त विचारों और दुर्भावों के भव-बन्धन से छूटकर जीवन के सत्य, शिव और सुन्दर रूप का दर्शन करता हुआ परमात्मा की शाश्वत शान्ति को प्राप्त करता है। इसलिये वेदमाता गायत्री को महा महिमामयी कहा गया है। उसका माहात्म्य अनन्त हैं। गायत्री गीता वेदमाता गायत्री का मन्त्र छोटा-सा है। उसमें 24 अक्षर हैं, पर इतने थोड़े में ही अनन्त ज्ञान का समुद्र भरा पड़ा है। जो ज्ञान गायत्री के गर्भ में है, वह इतना सर्वांगपूर्ण एवं परिमार्जित है कि मनुष्य यदि उसे भली प्रकार समझ ले और अपने जीवन में व्यवहार करे, तो इससे लोक-परलोक सब प्रकार से सुख-शान्तिमय बन सकते हैं। आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों ही दृष्टिकोण से गायत्री का सन्देश बहुत ही अर्थपूर्ण है। उसे गम्भीरतापूर्वक समझा और मनन किया जाए, तो सद्ज्ञान का अविरल स्रोत प्रस्फुटित होता है। नीचे संक्षिप्त-सा गायत्री-मन्त्रार्थ दिया जाता है। यही गायत्री गीता है— ओमित्येव सुनामधेयमनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः । सर्वेष्वेव हि तस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम् ।। यं वेदा निगदन्ति न्यायनिरतं श्रीसच्चिदानन्दकम् । लोकेशं समदर्शनं नियमनं चाकारहीनं प्रभुम् ।।1।। अर्थ—जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द, सर्वेश्वर, समदर्शी, नियामक, प्रभु और निराकार कहते हैं, जो विश्व में आत्मा रूप से उस ब्रह्म के समस्त नामों में श्रेष्ठ नाम, पाप-रहित, पवित्र और ध्यान करने योग्य है, वह ‘‘ॐ’’ ही मुख्य नाम माना गया है। भावार्थ—परमात्मा को प्राप्त करने और प्रसन्न करने का मार्ग उसके नियमों पर चलना है। वह निन्दा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता, वरन् कर्मों के अनुसार फल देता है। परमात्मा को सर्वत्र व्यापक समझकर गुप्त रूप से भी पाप न करना चाहिये। प्राणियों की सेवा करना परमात्मा की ही पूजा करना है। परमात्मा को अपने अन्तस् में अनुभव करने से आत्मा पवित्र होती है और सत्, चैतन्यता तथा आनन्द की अनुभूति होती है। भूर्वै प्राण इति ब्रुवन्ति मुनयो वेदान्तपारं गताः, प्राः सर्वविचेतनेषु प्रसृतः सामान्यरूपेण च । एतेनैव विसिद्ध्यते हि सकलं नूनं समानं जगत्, द्रष्टव्यः सकलेषु जन्तुषु जनैर्नित्यं ह्यसुश्चात्मवत् ।।2।। अर्थ—मुनि लोग प्राण को ‘भूः’ कहते हैं। यह प्राण समस्त प्राणियों में सामान्य रूप से फैला हुआ है। इससे सिद्ध है कि यहां सब समान हैं। अतएव सब मनुष्यों और प्राणियों को अपने समान ही देखना चाहिए। भावार्थ—अपने समान सबको कष्ट होता है, इसलिये किसी को सताना नहीं चाहिये। दूसरों के प्रति वहीं व्यवहार करना चाहिये, जो हम दूसरों से अपने लिये चाहते हैं, सबमें समत्व की दृष्टि रखनी चाहिये। कुल, वंश, देश, जाति, समुदाय, स्त्री, पुरुष आदि भेदों के कारण किसी को नीचा-ऊंचा, छोटा-बड़ा नहीं समझना चाहिये। उच्चता और नीचता का कारण तो भले-बुरे कर्म ही हो सकते हैं। भुवर्नाशो लोके सकलविपदां वै निगदितः, कृतं कार्यं कर्त्तव्यमिति मनसा चास्य करणम् । फलाशां मर्त्र्या ये विदधति न वै कर्मनिरताः, लभन्ते नित्यं ते जगति हि प्रसादं सुमनसाम् ।।3।। अर्थ—संसार में समस्त दुःखों का नाश ही ‘भुवः’ कहलाता है। कर्त्तव्य-भावना से किया गया कार्य ही कर्म कहलाता है। परिणाम में सुख की अभिलाषा को छोड़कर जो कार्य करते हैं, वे मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं। भावार्थ—मनुष्य का अधिकार कार्य करना है, फल देने वाला ईश्वर है। अमुक वस्तु प्राप्त होने पर ही सुख माना जाए, ऐसा सोचने के बजाय ऐसा सोचना चाहिये, कि कर्त्तव्य-पालन ही हमारे लिये आनन्द का सर्वोत्तम केन्द्र है। जो अपने कर्त्तव्य कर्म को ही लक्ष्य मान लेता है, वह कर्मयोगी हर घड़ी सुखी रहता है। जो इच्छित फल की आशा के लिये लटका रहता है, उस तृष्णावान् को सदा सत्कर्म करते रहना चाहिये, गीता के कर्मयोग का यही तत्त्व है। स्वरेषो वै शब्दो निगदति मनःस्थैर्य-करणम्, तथा सौख्यं स्वास्थ्यं ह्युपदिशति चित्तस्य चलतः । निमग्नत्वं सत्यव्रतसरसि चाचक्षति उत, त्रिधां शांतिं ह्येतां भुवि च लभते संयमरतः ।।4।। अर्थ—‘स्वः’ यह शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है। चंचल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रखो, यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो, यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शान्ति को प्राप्त करते हैं। भावार्थ—अनिच्छित परिस्थिति प्राप्त होने पर प्रायः मनुष्य शोक, दुःख, क्रोध, द्वेष, दीनता, निराशा, चिन्ता, भय, बेचैनी आदि से उद्विग्न होकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर अहंकार, मद, उद्दण्डता, खुशी में फूलकर अस्वाभाविक आचरण करना, इतराना, अपव्यय, शेखी आदि से ग्रस्त हो जाते हैं। ये दोनों ही स्थितियां एक प्रकार का नशा या ज्वर हैं। ये विवेक को अन्धा कर देते हैं, जिससे विचार और कार्यों की उचित श्रृंखला नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और आदमी अन्धा तथा बावला बन जाता है। इन सत्यानाशी तूफानों से आत्मा की रक्षा करने के लिये मन को स्थिर, सन्तुलित, स्वच्छ एवं सत्यप्रेमी बनाना चाहिये, तभी मनुष्य को आत्मिक, बौद्धिक तथा शारीरिक शांति मिल सकती है। ततो वै निष्पत्तिः स भुवि मतिमान् पण्डितवरः, विजानन् गुह्यं यो मरणजीवनयोस्तदखिलम् । अनन्ते संसारे विचरति भयासक्तिरहित, स्तथा निर्माण वै निजगतिविधीनां प्रकुरुते ।।5।। अर्थ—‘तत्’ शब्द यह बतलाता है कि इस संसार में वही बुद्धिमान् है, जो जीवन और मरण के रहस्य को जानता है। भय और आसक्ति रहित जीता और अपनी गतिविधियों का निर्माण करता है। भावार्थ—मृत्यु सदा सिर पर खड़ी नाचती रहती है। इस समय सांस चल रही है, अगले ही क्षण बन्द हो जाए, इसका क्या ठिकाना है? यह सोचकर इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिये और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिये पाप क्यों किये जाएं, जिससे चिरकाल तक दुःख भोगने पड़ें, ऐसा विचार करना चाहिये। यदि विद्याध्ययन, समाज-सुधार, धर्म-प्रचार आदि श्रेष्ठ कार्य करने हों, तो ऐसा सोचना चाहिये कि जीवन अखण्ड है। यदि इस शरीर से वह कार्य पूरा न हो सका, तो अगले में पूरा करेंगे। यह निर्विवाद है, कि जो इस जीवन का सदुपयोग कर रहा है, उसे मृत्यु के पश्चात् आनन्द ही मिलेगा। परलोक, पुनर्जन्म आदि में सुख ही प्राप्त होगा, पर जो इन जीवन-क्षणों का दुरुपयोग कर रहा है, उसका भविष्य अन्धकारमय है। इसलिये जो बीत चुका है, उसके लिये दुःख न करते हुए शेष जीवन का सदुपयोग करना चाहिये। सवितुस्तु पदं वितनोति धुवं, मनुजो बलवान् सवितेव भवेत् । विषया अनुभूतिपरिस्थितय— स्तु सदात्मन एव गणेदिति सः ।।6।। अर्थ—‘सवितुः’ यह पद बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान् होना चाहिये और सभी विषय तथा अनुभूतियां अपनी आत्मा से ही सम्बन्धित हैं, ऐसा विचारना चाहिये। भावार्थ—सूर्य को वीर्य और पृथ्वी को रज कहा जाता है। सूर्य की शक्ति से संसार की सब क्रियायें होती हैं। इसी प्रकार आत्मा अपनी क्रियाशीलता द्वारा विविध प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न करती है। प्रारब्ध, भाग्य, दैव आदि भी अपने प्राचीन कर्मों का ही परिपाक मात्र है। इसलिये अपने लिये जैसी परिस्थिति अच्छी लगती है, उसी के योग्य अपने को बनाना चाहिये। अपना भाग्य-निर्माण करना हर मनुष्य के अपने हाथ में है। इसलिये आत्म-निर्माण की ओर ही सबसे अधिक ध्यान देना चाहिये। बाहर की सहायता भी अपनी अन्तरंग स्थिति के अनुकूल ही मिलती है। मनुष्य को तेजस्वी, बलवान्, पुरुषार्थी बनना चाहिये। स्वास्थ्य, विद्या, धन, चतुरता, संगठन, यश, साहस और सत्य इन आठ बलों से अपने को सदैव बलवान् बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। वरेण्यञ्चैतद्वै प्रकटयति श्रेष्ठत्वमनिशम् , सदा पश्येच्छ्रेष्ठं मननमपि श्रेष्ठस्य विदधेत् । तथा लोके श्रेष्ठं सरलमनसा कर्म च भजेत्, तदित्थं श्रेष्ठत्वं व्रजति मनुजः शोभितगुणैः ।।7।। अर्थ—‘वरेण्यं’ यह शब्द प्रकट करता है कि प्रत्येक मनुष्य को नित्य श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिये। श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ चिन्तन करना, श्रेष्ठ विचारना, श्रेष्ठ कार्य करना इस प्रकार से मनुष्य को श्रेष्ठता प्राप्त होती है। भावार्थ—मनुष्य वैसा ही बनता है, जैसे उसके विचार होते हैं। विचार सांचा है और जीवन गीली मिट्टी। जैसे विचारों में हम डूबे रहते हैं, हमारा जीवन उसी ढांचे में ढलता जाता है, वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही साथी मिलते हैं, उसी दिशा में जानकारी, रुचि तथा प्रेरणा मिलती है। इसलिये यदि अपने को श्रेष्ठ बनाना है, तो सदा श्रेष्ठ मनुष्यों के संपर्क में रहना, श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ना श्रेष्ठ बातें सोचना, श्रेष्ठ घटनायें देखना, श्रेष्ठ कार्य करना आवश्यक है। दूसरों में जो श्रेष्ठतायें हों उनकी कदर करना और उन्हें अपनाना, श्रेष्ठता में श्रद्धा रखना ये सब बातें उन लोगों के लिये बहुत आवश्यक हैं, जो अपने को श्रेष्ठ बनना चाहते हैं। भर्गो व्याहरते पदं हि नितरां लोकः सुलोको भवेत्, पापे पाप-विनाशने त्वविरतं, दत्तावधानो वसेत् । दृष्ट्वा दुष्कृतिदुर्विपाक-निचयं तेभ्यो जुगुप्सेद्धि च, तन्नाशाय विधीयतां च सततं, संघर्षमेभिः सह ।।8।। अर्थ—‘भर्गो’ यह पद बताता है कि मनुष्य को निष्पाप बनना चाहिये। पापों से सावधान रहना चाहिये। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करे और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिये संघर्ष करता रहे। भावार्थ—संसार में जितने दुःख हैं, पापों के कारण हैं। अस्पतालों में, जेलखानों में तथा अन्यत्र नाना प्रकार के कष्टों से पीड़ित मनुष्य अब के या पुराने पापों से ही दुःख भोगते हैं। नरक में भी पापी ही त्रास पाते हैं। सन्त और परोपकारी पुरुष दूसरों के पापों का बोझ अपने सिर पर लेकर दुःख उठाते हैं और उन्हें शुद्ध करते हैं। चाहे, दूसरों का दुःख कोई सन्त सहे, चाहे पापी स्वयं सहे, हर हालत में दुःखों का कारण पाप ही है। इसलिये जिन्हें दुःख का भय है और सुख की इच्छा है, उन्हें चाहिये कि पापों से बचें और भूतकाल के पापों के लिये प्रायश्चित्त करें। पापों से सावधानी रखना और उन्हें भीतर-बाहर से नष्ट करने के लिये संघर्ष करना—यह बहुत बड़ा पुण्य कार्य है, क्योंकि इससे अगणित प्राणी दुःखों से छुटकारा पाकर सुखी बनते हैं। निष्पापता में ही सच्चे आनन्द का निवास है। देवस्येति तु व्याकरोत्यमरतां मर्त्योऽपि संप्राप्यते, देवानामिव शुद्धदृष्टिकरणात् सेवोपचाराद् भुवि । निःस्वार्थ परमार्थ-कर्मकरणात् दीनाय दानात्तथा, बाह्याभ्यन्तरमस्य देवभुवनं संसृज्यते चैव हि ।।9।। अर्थ—‘देवस्य’ यह पद बतलाता है कि मरणधर्मा मनुष्य भी अमरता अर्थात् देवत्व को प्राप्त कर सकता है। देवताओं के समान शुद्ध दृष्टि रखने से, प्राणियों की सेवा करने से, परमार्थ कर्म करने से, निर्बलों की सहायता करने से मनुष्य के भीतर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है। भावार्थ—परमात्मा की बनाई हुई इस पवित्र सृष्टि में जो कुछ है, पवित्र और आनन्दमय ही है। इस सृष्टि को, संसार को प्रसन्नता की दृष्टि से देखना, उसमें मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गयी बुराइयों को दूर करना और ईश्वरीय श्रेष्ठताओं को विकसित करना, प्रचलित करना देवकर्म है। इस देव-दृष्टि को धारण करने से मनुष्य देवता बन सकता है। जो अपने को शरीर न समझकर आत्मा अनुभव करता है, वह अमर है। उसके पास से मृत्यु का भय दूर हो जाता है। प्राणियों को प्रेम और आत्मीयता की पवित्र दृष्टि से देखना, अपने आचरणों को पवित्र रखना, अपने से निर्बलों को ऊंचा उठाने के लिये अपनी शक्ति का दान करना यह देवत्व है। इन गुण वालों के लिये यह भूलोक भी देवलोक के समान आनन्दमय बन जाता है। धीमहि सर्वविधं शुचिमेव, शक्तिचय वयमित्युपदिष्टः । नो मनुजो लभते सुखशांति- मनेन विनेति वदन्ति हि वेदाः ।।10।। अर्थ—‘धीमहि’ का आशय है कि हम सब लोग हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें। वेद कहते हैं कि इसके बिना मनुष्य सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं होता। भावार्थ—संसार में भौतिक शक्तियां अनेक हैं। धन, पद, वैभव, राज्य, शरीर-बल, संगठन, शस्त्र, विद्या, बुद्धि, चतुरता, कोई विशेष योग्यता आदि के बल पर लोग ऐश्वर्य और प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं, पर यह अस्थायी होती हैं। इनसे सुख मिल सकता है, पर वह छोटे-मोटे आघात में ही नष्ट भी हो सकता है। स्थायी सुख आध्यात्मिक पवित्र गुणों में है, जिन्हें ‘दैवी सम्पदायें’ या ‘दिव्य शक्तियां’ भी कहते हैं। निर्भयता, विवेक, स्थिरता, उदारता, संयम, परमार्थ, स्वाध्याय, तपश्चर्या, दया, सत्य, अहिंसा, नम्रता, धैर्य, अद्रोह, प्रेम, न्यायशीलता, निरालस्य आदि दैवी गुणों के कारण जो सुख मिलता है, उसकी तुलना किसी भी भौतिक सम्पदा से नहीं हो सकती। इसलिये अपनी दैवी सम्पदाओं का कोश बढ़ाने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। धियो मत्योन्मथ्यागमनिगममन्त्रान् सुपतिमान्, विजानीयात्तत्वं विमलनवनीतं परमिव । यतोऽस्मिन् लोके वै संशयगत-विचार-स्थलशते, मतिः शुद्धैवाच्छा प्रकटयति सत्यं सुमनसे ।11। अर्थ—‘धियो’ पद बतलाता है कि बुद्धिमान् को चाहिये, वह वेद-शास्त्रों को बुद्धि से मथ कर मक्खन के समान उत्कृष्ट तत्वों को जाने, क्योंकि शुद्ध बुद्धि से ही सत्य को जाना जाता है। भावार्थ—संसार में अनेक विचारधारायें हैं, उनमें से अनेकों आपस में टकराती भी हैं। एक शास्त्र के सिद्धान्त दूसरे शास्त्र के विपरीत भी बैठते हैं। इसी कारण एक विद्वान् या ऋषि के विचार दूसरे विद्वान् या ऋषि के विचारों से पूर्णतया मेल नहीं खाते। ऐसी स्थिति में विचलित नहीं होना चाहिये। देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार जो बात एक समय बिल्कुल ठीक होती है, वही भिन्न परिस्थितियों में गलत भी हो सकती है। जाड़े के दिनों में जो कपड़े लाभदायक होते हैं, उनसे गर्मी में काम नहीं चलाया जा सकता। इसी प्रकार एक परिस्थिति में जो बात उचित है, वह दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो जाती है। इसलिये किसी ऋषि, विद्वान्, नेता व शास्त्र की निन्दा न करते हुए हमें उसमें से वही तत्त्व लेने चाहिये, जो आज की स्थिति के अनुकूल हैं। इस उचित-अनुचित का निर्णय तर्क, विवेक और न्याय के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये। योनो वास्ति तु शक्तिसाधनचयो न्यूनाधिकश्चाथवा, भागं न्यूनतमं हि तस्य विदधेमात्मप्रसादाय च । यत्पश्चादवशिष्टभागमखिलं त्यक्त्वा फलाशां हृदि, तद्धीनेष्वभिलाववत्सु वितरेद् ये शक्तिहीनाः स्वयम् ।।12।। अर्थ—‘योनः’ पद का तात्पर्य है कि हमारी जो भी शक्तियां एवं साधन हैं, चाहे वे न्यून हों अथवा अधिक हों, उनके न्यून से न्यून भाग को ही अपनी आवश्यकता के लिये प्रयोग में लायें और शेष को निःस्वार्थ भाव से अशक्त व्यक्तियों को बांट दें। भावार्थ—भगवान् ने मनुष्य को ज्ञान, बल तथा वैभव एक अमानत के रूप में इसलिये दिये हैं कि इन विभूतियों से सुसज्जित होकर अपने आप का मान, यश, सुख तथा पुण्य का श्रेय प्राप्त करे और इनका लाभ अधिक से अधिक मात्रा में दूसरों को उठाने दें। अपने ऐश, आराम, भोग, संचय था अहंकार की पूर्ति में इनका उपयोग नहीं होना चाहिये। वरन् लोकहित के लिये, अपने से निर्बलों की सहायता के लिये इनका उपयोग किया जाना चाहिये। विद्वान्, बलवान् या धनवान् का गौरव इसी बात में है कि उनके द्वारा कम ज्ञान वालों को, निर्धनों को ऊंचा उठाने का प्रयास किया जाए। जैसे वृक्ष, कूप, तड़ाग, उपवन, पुष्प, अग्नि, जल, वायु, बिजली आदि श्रेष्ठ समझे जाने वाले पदार्थ, अपनी महान् शक्तियों को लोकहित के लिये सदैव वितरित करते रहते हैं, वैसे ही हमें भी अपनी शक्तियों का जीवन-निर्वाह मात्र अपने लिये रखकर शेष को जनहित के लिये समर्पित कर देना चाहिये। प्रचोदयात् स्वं त्वितरांश्च मानवान्, नरः प्रयाणाय च सत्यवर्त्मनि । कृतं हि कर्माखिलमित्थमंगिना, वदन्ति धर्मं इति हि विपश्चितः ।।13।। अर्थ—‘प्रचोदयात्’ पद का अर्थ है कि मनुष्य अपने आपको तथा दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने के लिये प्रेरणा दे। इस प्रकार किये हुए सब कामों को विद्वान् लोग धर्म कहते हैं। भावार्थ—प्रेरणा संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसके बिना सारी साधन सामग्री बेकार है, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो। प्रेरणा से उत्साहित और प्रवृत्त हुआ मनुष्य यदि कार्य आरम्भ कर देता है, तो साधन अपने आप जुटा लेता है। उसे ईश्वरीय सहायतायें मिलती हैं और अनेक सहयोगी प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये अपने आपको सन्मार्ग पर चलाने के लिए प्रेरणा तथा प्रोत्साहन प्राप्त करना चाहिये तथा दूसरों को श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर करने के लिये उन्हें प्रेरित करना चाहिये। वस्तुयें देकर किसी का उतना उपकार नहीं किया जा सकता है। सत्कार्य के लिये प्रेरणा देना इतना बड़ा पुण्य कार्य है कि उसकी तुलना में छोटी-मोटी पुण्य-क्रियायें बहुत ही तुच्छ बैठती हैं। गायत्री-गीतां ह्येतां यो नरो वेत्ति तत्वतः । स मुक्त्वा सर्वदुःखेभ्यः सदानन्दे निमज्जति ।।14।। अर्थ—जो मनुष्य इस गायत्री-गीता को भली प्रकार जान लेता है, वह सब प्रकार के दुःखों से छूटकर सदा आनन्दमग्न रहता है। गायत्री गीता के उपर्युक्त 14 श्लोक समस्त वेद शास्त्रों में भरे हुए ज्ञान का निचोड़ है। समुद्र मन्थन से 14 रत्न निकले थे। समस्त शास्त्रों के समुद्र का मन्थन करके निकाले गये यह 14 श्लोक रूपी 14 रत्न हैं। जो व्यक्ति इन्हें भली प्रकार हृदयंगम कर लेता है, वह कभी भी दुःखी नहीं रह सकता, उसे सदा आनन्द ही आनन्द रहेगा। गायत्री स्मृति भूर्भुवः स्वस्त्रयो लोका व्याप्तमोम्ब्रह्म तेषु हि । स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तद्वेत्ति विचक्षणः ।।1।। ‘‘भूः भुव; और स्वः ये तीन लोक हैं, उन तीनों लोकों में ॐ ब्रह्म व्याप्त है। जो बुद्धिमान् उस ब्रह्म को जानता है, वही वास्तव में ज्ञानी है।’’ परमात्मा का वैदिक नाम ‘ॐ’ है। ब्रह्म की स्फुरणा का सूक्ष्म प्रकृति पर निरन्तर आघात होता रहता है। इन्हीं आघातों के कारण सृष्टि में गतिशीलता उत्पन्न होती रहती है। कांसे के बर्तन पर जैसे हथौड़ी की हल्की चोट मारी जाए, तो वह बहुत देर तक झनझनाता रहता है, इसी प्रकार ब्रह्म और प्रकृति के मिलन-स्पन्दन स्थल पर ॐ की झंकार होती रहती है। इसलिये यही परमात्मा का स्वयं घोषित नाम माना गया है। यह ॐ तीनों ही लोकों में व्याप्त है। भूः पृथ्वी, भुवः पाताल, स्वः स्वर्ग—ये तीनों ही लोक परमात्मा से परिपूर्ण हैं। भूः शरीर, भुवः संसार, स्वः आत्मा यह तीनों ही परमात्मा के क्रीड़ा-स्थल हैं। इन सभी स्थलों को, निखिल ब्रह्माण्ड को भगवान् का विराट् रूप समझकर उस आध्यात्मिक उच्च भूमिका को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, जो गीता के 11वें अध्याय में भगवान ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाकर प्राप्त कराई थी। परमात्मा को सर्वत्र सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वात्मा देखने वाला मनुष्य माया, मोह, ममता, संकीर्णता, अनुदारता, कुविचार एवं कुकर्मों की अग्नि में झुलसने से बच जाता है और हर घड़ी परमात्मा के दर्शन करने से परमानन्द सुख में निमग्न रहता है। ॐ भूर्भुवः स्वः का तत्त्वज्ञान समझ लेने वाला ब्रह्मज्ञानी एक प्रकार से जीवन-मुक्त ही हो जाता है। तत्—तत्त्वज्ञास्तु विद्वांसो ब्राह्मणाः स्वतपोबलैः । अंधकारमपाकुर्युः लोकादज्ञानसम्भवम् ।।2।। ‘तत्वदर्शी विद्वान् ब्राह्मण अपने एकत्रित तप के द्वारा संसार से अज्ञान द्वारा उत्पन्न अन्धकार को दूर करें।’ ब्राह्मण वे हैं जो तत्त्व को, वास्तविकता को, परिणाम को देखते हैं, जिन्होंने अपनी पढ़ाई को भाषा साहित्य, शिल्पकला, विज्ञान आदि की पेटभरू शिक्षा तक ही सीमित न रखकर जीवन का उद्देश्य, आनन्द और साफल्य प्राप्त करने की ‘विद्या’ भी सीखी है। शिक्षित तो गली-कूचों में मक्खी-मच्छरों की तरह भरे पड़े हैं, पर जो विद्वान् हैं, वे ही ब्राह्मण हैं। भगवान ने जिन्हें तत्त्वदर्शी और विद्वान् बनने की सुविधा एवं प्रेरणा दी है, उन ब्राह्मणों को अपनी जिम्मेदारी अनुभव करनी चाहिये, क्योंकि वे सबसे बड़े धनी हैं। लोग व्यर्थ ही ऐसा सोचते हैं कि धन की अधिकता ही सुख का कारण है। सच बात यह है कि बिना सद्ज्ञान के कोई मनुष्य सुख-शान्ति का जीवन नहीं बिता सकता, चाहे वह करोड़ों रुपयों का स्वामी क्यों न हो। भारतवासी सद्ज्ञान का महत्त्व आदि काल से समझते आये हैं, इसलिये यहां सद्ज्ञान के, ब्रह्मज्ञान के धनी ब्राह्मणों की मान-प्रतिष्ठा सबसे अधिक होती रही है। आज इस गये बीते जमाने में भी उसकी चिह्न पूजा किसी न किसी रूप में ब्राह्मणों के अनधिकारी वंशजों तक को प्राप्त हो जाती है। ब्राह्मणत्व विश्व का सबसे बड़ा धन है। रत्नों का भण्डार बढ़िया, कीमती, मजबूत तिजोरी में रखा जाता है। जो शरीर तपःपूत है, तपस्या की, संयम की, तितिक्षा की, त्याग की अग्नि में तपा-तपा कर जिस तिजोरी को भली प्रकार से मजबूती से गढ़ा गया है, उसी में ब्राह्मणत्व रहेगा और ठहरेगा। जो असंयमी, भोगी, स्वार्थी, तपोविहीन है, वे शास्त्रों की तोतारटन्त भले ही करते हों, पर उस बकवाद के अतिरिक्त अपने में ब्राह्मणत्व को भली प्रकार सुरक्षित एवं स्थिर रखने में समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये ब्राह्मण को, सद्ज्ञान के धनी को, अपने को तपःपूत बनाना चाहिये। तप और ब्राह्मणत्व के सम्मिश्रण से ही सोना और सुगन्ध की उक्ति चरितार्थ होती है। ब्राह्मण को भूसुर कहा जाता है। भूसुर का अर्थ है—पृथ्वी का देवता। देवता वह है जो दे। ब्राह्मण संसार का सर्वश्रेष्ठ धन का, सद्ज्ञान का धनपति होता है। वह देखता है कि जो धन उसके पास अटूट भण्डार के रूप में भरा हुआ है, उसी के अभाव के कारण सारी जनता दुःख पा रही है। अज्ञान से, अविद्या से बढ़कर दुःखों का कारण और कोई नहीं है। जैसे भूख से छटपटाते हुए, करुण क्रन्दन करते हुए मनुष्य को देखकर सहृदय धनी व्यक्ति उन्हें कुछ दान दिये बिना नहीं रह सकते, उसी प्रकार अविद्या के अन्धकार में भटकते हुए जन समूह को सच्चा ब्राह्मण, अपनी सद्ज्ञान रूपी सम्पदा से लाभ पहुंचाता है। यह कर्त्तव्य आवश्यक एवं अनिवार्य है। यह ब्राह्मण की स्वाभाविक जिम्मेदारी है। गायत्री का प्रथम शब्द ‘तत्’ ब्राह्मणत्व की इस महान् जिम्मेदारी की ओर संकेत करता है। जिसकी आत्मा, जितने अंशों में तत्त्वदर्शी, विद्वान् और तपस्वी है, वह उतने ही अंश में ब्राह्मण है। यह ब्राह्मणत्व जिस वर्ण, कुल, वंश के मनुष्य में निवास करता है, उसी का यह कर्त्तव्य-धर्म है कि अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को दूर करने के लिये जो कुछ कर सकता हो, अवश्य करता रहे। स-सत्तावन्तस्तथा शूराः क्षत्रिया लोकरक्षकाः । अन्यायाशक्तिसम्भूता ध्वंसयेयुर्हि त्वापदः ।।3।। ‘‘सत्तावान् और संसार के रक्षक क्षत्रिय अन्याय और अशक्ति से उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को नष्ट करें।’’ जन-बल, शरीर-बल, बुद्धि-बल, सत्ता-शक्ति, पद, शासन, गौरव, बड़प्पन, संगठन, तेज, पुरुषार्थ, चातुर्य, साधन, साहस, शौर्य यह क्षत्रियत्व के लक्षण हैं। जिसके पास इन वस्तुओं में से जितनी अधिक मात्रा है, उतने ही अंशों में उसका क्षत्रियत्व बढ़ा हुआ है। देखा गया है कि यह क्षत्रियत्व जब अनधिकारियों के हाथ में पहुंच जाता है तो इससे उन्हें अहंकार और मद बढ़ जाता है। अहंकार को बड़प्पन समझकर वे उसकी रक्षा के लिये अनेक प्रकार के अनावश्यक खर्च और आडम्बर बढ़ाते हैं। उसकी पूर्ति के लिये अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है, जिसे वे अनीति, अन्याय, शोषण, अपहरण द्वारा पूरी करते हैं। दूसरों को सताने में अपना पराक्रम समझते हैं। व्यसनों की अधिकता होती है और इन्द्रिय लिप्सा में प्रवृत्ति बढ़ती है। ऐसी दशा में वह क्षत्रियत्व उस व्यक्ति की आत्मा को ऊंचा उठाने और तेजस्वी महापुरुष बनाने की अपेक्षा अहंकारी, दम्भी, अत्याचारी, व्यसनी और दुराचार बना देता है। ऐसे दुरुपयोग से बचना ही उचित है। गायत्री का ‘स’ अक्षर कहता है कि हे सत्तावानो! तुम्हें सत्ता इसलिये दी गयी है कि शोषितों और निर्बलों को हाथ पकड़कर ऊंचा उठाओ, उनकी सहायता करो और जो दुष्ट उन्हें निर्बल समझकर सताने का प्रयास करते हैं, उन्हें अपनी शक्ति से परास्त करो। बुराइयों से लड़ने और अच्छाइयों को बढ़ाने के लिये ही ईश्वर शक्ति देता है। उसका उपयोग इसी दिशा में होना चाहिये। वि-वित्तशक्त्या तु कर्त्तव्या उचितभावपूर्तयः । न तु शक्त्या तया कार्यं दर्पौद्धत्यप्रदर्शनम् ।।4।। ‘धन की शक्ति द्वारा तो उचित अभावों की पूर्ति करनी चाहिये। उस शक्ति द्वारा घमण्ड और उद्दण्डता का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। विद्या और सत्ता की भांति धन भी एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है। इसका उपार्जन इसलिये आवश्यक है कि अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति की जा सके। शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा के विकास के लिये, सांसारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए धन का उपयोग होना चाहिये और इसलिये उसे कमाया जाना चाहिये। पर कई व्यक्ति प्रचुर मात्रा में धन जमा करने में अपनी प्रतिष्ठा अनुभव करते हैं। अधिक धन का स्वामी होना उनकी दृष्टि में कोई ‘बहुत बड़ी बात’ होती है। अधिक कीमती सामान का उपयोग करना, अधिक अपव्यय, अधिक भोग, अधिक विलास उन्हें जीवन की सफलता के चिह्न मालूम पड़ते हैं। इसलिये जैसे भी बने धन कमाने की उनकी तृष्णा प्रबल रहती है। इसके लिये वे धर्म-अधर्म का, उचित-अनुचित का विचार करना भी छोड़ देते हैं। धन में उनकी इतनी तन्मयता होती है कि स्वास्थ्य, मनोरंजन, स्वाध्याय, आत्मोन्नति, लोक-सेवा, ईश्वराराधना आदि सभी उपयोग दिशाओं से वे मुंह मोड़ लेते हैं। धनपतियों को एक प्रकार का नशा-सा चढ़ा रहता है, जिससे उनकी सद्बुद्धि, दूरदर्शिता और सत्-असत् परीक्षणी प्रज्ञा कुण्ठित हो जाती है। धनोपार्जन की यह दशा निन्दनीय है। धन कमाना आवश्यक है, इसलिये कि उससे हमारी वास्तविक आवश्यकताएं उचित सीमा तक पूरी हो सकें। इसी दृष्टि से प्रयत्न और परिश्रमपूर्वक लोग धन कमाएं, गायत्री का ‘वि’ अक्षर वित्त (धन) के सम्बन्ध में यही संकेत करता है। तु-तुषाराणां प्रपातेऽपि यत्नो धर्मस्तु चात्मनः । महिमा च प्रतिष्ठा च प्रोक्ता परिश्रमस्य हि ।।5।। ‘‘तुषारापात में भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म है। श्रम की महिमा और प्रतिष्ठा अपार है ऐसा कहा गया है।’’ मनुष्य जीवन में विपत्तियां, कठिनाइयां, विपरीत परिस्थितियां, हानियां और कष्ट की घड़ियां भी आती ही रहती हैं। जैसे रात और दिन समय के दो पहलू हैं वैसे ही सम्पदा और विपदा, सुख और दुःख भी जीवन रथ के दो पहिये हैं। दोनों के लिये ही मनुष्य को धैर्य पूर्वक तैयार रहना चाहिये। न विपत्ति में छाती पीटे और न सम्पत्ति में इतराकर तिरछा चले। कठिन समय में मनुष्य के चार साथी हैं—(1) विवेक, (2) धैर्य, (3) साहस, (4) प्रयत्न। इन चारों को मजबूती से पकड़े रहने पर बुरे दिन धीरे-धीरे निकल जाते हैं और जाते समय अनेक अनुभवों, गुणों, योग्यताओं तथा शक्तियों को उपहार में दे जाते हैं। चाकू पत्थर पर घिसे जाने से तेज होता है, सोना अग्नि में तपकर खरा सिद्ध होता है, मनुष्य कठिनाइयों में पड़कर इतनी शिक्षा प्राप्त करता है जितनी कि दस गुरु मिलकर भी नहीं सिखा सकते हैं। इसलिये कष्ट से डरना नहीं चाहिये वरन् उपर्युक्त चार साधनों द्वारा संघर्ष करके उसे परास्त करना चाहिये। परिश्रम, प्रयत्न, कर्त्तव्य ये मनुष्य के गौरव और वैभव को बढ़ाने वाले हैं। आलसी, भाग्यवादी, कर्महीन संघर्ष से डरने वाले, अव्यावहारिक मनुष्य प्रायः सदा ही असफल होते रहते हैं। जो कठिनाइयों पर विजयी होना और आनंदमय जीवन का रसास्वादन करना चाहते हैं, उन्हें गायत्री मन्त्र का ‘तु’ अक्षर उपदेश करता है कि प्रयत्न करो, परिश्रम करो, कर्त्तव्य पथ पर बहादुरी से डटे रहो, क्योंकि पुरुषार्थी की महिमा अपार है। ‘पुरुष’ कहाने का अधिकारी वही है जो पुरुषार्थी है। व-वद नारीं विना कोऽन्यो निर्माता मनुसन्ततेः । महत्त्वं रचनाशक्तेः स्वस्या नार्या हि ज्ञायताम् ।।6।। ‘‘नारी के बिना मनुष्य को बनाने वाला दूसरा और कौन है अर्थात् मनुष्य की निर्मात्री नारी ही है। नारी को अपनी रचना शक्ति का महत्त्व समझना चाहिये।’’ जन-समाज दो भागों में बंटा हुआ है (1) नर (2) नारी। नर की उन्नति, सुविधा एवं सुरक्षा के लिये काफी प्रयत्न किया जाता है, परन्तु नारी हर क्षेत्र में पिछड़ी हुई है। फलस्वरूप हमारा आधा संसार, आधा परिवार, आधा जीवन पिछड़ा हुआ रह जाता है। जिस रथ का एक पहिया बड़ा और एक छोटा हो, जिस हल में एक बैल बड़ा और दूसरा बहुत छोटा जुता हो, उसके द्वारा संतोषजनक कार्य नहीं हो सकता। हमारा देश, हमारा समाज, समुदाय तब तक सच्चे अर्थों में विकसित नहीं कहा जा सकता, जब तक कि नारी को भी नर के समान ही अपनी क्रियाशीलता एवं प्रतिभा प्रकट करने का अवसर प्राप्त न हो। नारी से ही नर उत्पन्न होता है। बालक की आदि गुरु उसकी माता ही होती है। पिता के वीर्य की एक बूंद निमित्त ही होती है। बाकी बालक के सब अंग-प्रत्यंग माता के रक्त से ही बनते हैं। उस रक्त में जैसी स्वस्थता, प्रतिभा, विचारधारा होगी उसी के अनुसार बालक का शरीर, मस्तिष्क और स्वभाव बनेगा। नारियां यदि अस्वस्थ, अशिक्षित, अविकसित, कूप-मण्डूक और पिछड़ी हुई रहेंगी, तो उनके द्वारा उत्पन्न हुए बालक भी इन्हीं दोषों से युक्त होंगे। ऊसर खेत में अच्छी फसल पैदा नहीं हो सकती। अच्छे फलों का बाग लगाना है तो अच्छी भूमि की आवश्यकता होगी। गायत्री का ‘व’ अक्षर कहता है कि यदि मनुष्य जाति अपनी उन्नति चाहती है तो उसे पहले नारी को शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में प्रतिभावान् सुविकसित बनाना चाहिये। तभी नर समुदाय में सबलता, सूक्ष्मता, समृद्धि, सद्बुद्धि, सद्गुण और महानता के संस्कारों का विकास हो सकता है। नारी को पिछड़ी हुई रखना अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारना है। रे-रेवेव निर्मला नारी पूजनीया सतां सदा । यतो हि सैव लोकेऽस्मिन् साक्षाल्लक्ष्मीर्मता बुधैः ।।7।। ‘‘सज्जन पुरुष को हमेशा नर्मदा नदी के समान निर्मल नारी की पूजा करनी चाहिये; क्योंकि विद्वानों ने उसी को इस संसार में साक्षात् लक्ष्मी माना है।’’ स्त्री लक्ष्मी का अवतार है। जहां नारी सुलक्षिणी है, बुद्धिमती है और सहयोगिनी है, वहां गरीबी होते हुए भी अमीरी का आनन्द बरसता रहता है। धन-दौलत निर्जीव लक्ष्मी है, किन्तु स्त्री लक्ष्मीजी की सजीव प्रतिमा है, उसका यथोचित आदर, सत्कार और परितोषण होना चाहिये। जैसे नर्मदा नदी का जल सदा निर्मल रहता है, उसी प्रकार ईश्वर ने नारी को निर्मल अन्तःकरण दिया है। परिस्थिति दोष के कारण अथवा दुष्ट संगति से कभी-कभी उसमें विकार पैदा हो जाते हैं, पर इन कारणों को बदल दिया जाए, तो नारी हृदय पुनः अपनी शाश्वत निर्मलता पर लौट आता है। स्फटिक मणि को रंगीन मकान में रखा जाए या उसके निकट कोई रंगीन पदार्थ रख दिया जाए, तो वह मणि भी रंगीन छाया के कारण रंगीन दिखायी पढ़ने लगती है। परन्तु पीछे जब उन कारणों को हटा दिया जाए, तो वह शुद्ध, निर्मल, शुभ्र मणि ही दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार नारी जब बुरी परिस्थितियों में फंसी हो, तब बुरी दिखाई देती है। उस परिस्थिति का अन्त होते ही वह निर्मल एवं निर्दोष हो जाती है। वैधव्य, किसी की मृत्यु, घाटा आदि दुर्घटनायें घटित होने पर उसे नव आगन्तुक वधू के भाग्य का दोष बताना नितांत अनुचित है। ऐसी घटनायें होतव्यता के अनुसार होती हैं। नारी तो लक्ष्मी का अवतार होने से सदा ही कल्याणकारिणी और मंगलमयी है। गायत्री का अक्षर ‘रे’ नारी सम्मान की अभिवृद्धि चाहता है, ताकि लोगों को मंगलमय वरदान प्राप्त हो। णि-न्यस्यन्ति ये नराः पादान् प्रकृत्याज्ञानुसारः । स्वस्थाः सन्तस्तु ते नूनं रोगमुक्ता भवन्ति हि ।।8।। ‘‘जो मनुष्य प्रकृति की आज्ञानुसार पैरों को रखते हैं अर्थात् प्रकृति की आज्ञानुसार चलते हैं, वे मनुष्य निश्चय ही रोगों से मुक्त होते हुए स्वस्थ हो जाते हैं। स्वास्थ्य को ठीक रखने और बढ़ाने का राजमार्ग प्रकृति के आदेशानुसार चलना, प्राकृतिक आहार-विहार अपनाना, प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना है। अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, बनावटी, आडम्बर और विलासिता से भरा हुआ जीवन बिताने से लोग बीमार होते हैं और अल्पायु में ही काल के ग्रास बन जाते हैं। (1) भूख लगने पर खूब चबाकर प्रसन्न चित्त से, थोड़ा पेट खाली रखकर भोजन करना (2) फल, शाक, दूध, दही, छिलके समेत अन्न और दालें जैसे ताजे सात्त्विक आहार लेना। (3) नशीली चीजें, मिर्च-मसाले, चाट, पकवान, मिठाइयों, मांस आदि अभक्ष्यों से बचना। (4) सामर्थ्य के अनुकूल श्रम एवं व्यायाम करना। (5) शरीर, वस्त्र, मकान और प्रयोजनीय सामान की भली प्रकार सफाई रखना। (6) रात को जल्दी सोना और प्रातः जल्दी उठना। (7) मनोरंजन, देशाटन, निर्दोष विनोद के लिये पर्याप्त अवसर प्राप्त करते रहना। (8) कामुकता, चटोरेपन, अन्याय, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, क्रोध, पाप आदि के कुविचारों से मन को हटाकर सदा प्रसन्नता और सात्विकता के सद्विचारों में रमण करना। (9) स्वच्छ जलवायु का सेवन (10) उपवास, एनीमा, फलाहार, जल, मिट्टी आदि प्राकृतिक उपचारों से रोग-मुक्ति का उपाय करना। ये दस नियम ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर प्राकृतिक जीवन बिताने से खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करना और प्राप्त स्वास्थ्य को सुरक्षित एवं उन्नत बनाना बिल्कुल सरल है। गायत्री का ‘णि’ अक्षर यही उपदेश करता है। य—यथेच्छति नरस्त्वन्यैः सदान्येभ्यस्तथाचरेत् । नम्रः शिष्टः कृतज्ञश्च सत्यसाहाय्यवान् भवेत् ।।9।। ‘‘मनुष्य दूसरे के साथ उस प्रकार का आचरण करे, जैसा वह दूसरों के द्वारा चाहता है और उसे नम्र, शिष्ट, कृतज्ञ और सच्चाई के साथ सहयोग की भावना वाला होना चाहिये।’’ दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसकी कसौटी यह है कि ‘‘हम दूसरों से जैसा व्यवहार अपने लिये चाहते हैं, वैसा ही आचरण स्वयं भी दूसरों के साथ करें।’’ दुनिया कुएं की आवाज की तरह है। कुएं में मुंह करके जैसी वाणी हम बोलेंगे, बदले में वैसी ही प्रतिध्वनि दूसरी ओर से आयेगी। हर एक मनुष्य चाहता है कि दूसरे आदमी उससे नम्र बोलें, सभ्य व्यवहार करें, ईमानदारी से बरतें, कोई भूल हो जाये तो उसे सहन कर लें, मार्ग में कोई रोड़ा न अटकाएं, उसकी बहिन-बेटियों पर कुदृष्टि न डालें तथा समय-समय पर उदारता एवं सहयोग की भावना का परिचय दें। जब हम दूसरों से ऐसा व्यवहार चाहते हैं तो हमारे लिये भी यह उचित है कि वैसा ही व्यवहार दूसरों से करें। कारण यह है कि सदा ही क्रिया से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। यदि हम बुराई करेंगे, तो दूसरों के मन पर उसकी छाप पड़ेगी, प्रतिक्रिया होगी, जो अपने लिये ही नहीं, अन्यों के लिये भी अहितकर होती है। यदि लोग अपने विचार और कार्यों में वैसे ही तत्त्व भर लें, जैसे कि दूसरों में होने की आशा करते हैं तो संसार में सुख-शान्ति की स्थापना हो सकती है। गायत्री का अक्षर ‘‘य’’ शास्त्रकारों की ‘‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’’ उक्ति का उद्घोष करता है। इसे क्रियात्मक रूप में लाना, गायत्री शिक्षा की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम बढ़ाना है। भ-भवोद्विग्नमना नैव हृदुद्वेगं परित्यज । कुरु सर्वास्ववस्थासु शांतं संतुलितं मनः ।।10।। ‘‘मानसिक उत्तेजना को छोड़ दो। सभी अवस्थाओं में मन को शान्त और सन्तुलित रखो।’’ शरीर में उष्णता की मात्रा अधिक बढ़ जाना ‘ज्वर’ कहलाती है और ज्वर अनेक दुष्परिणामों को पैदा कर सकता है वैसे ही उद्वेग, आवेश, उत्तेजना, मद, आतुरता आदि लक्षण मानसिक ज्वर के हैं। आवेश का अन्धड़-तूफान जिस समय मन में आता है उस समय ज्ञान, विवेक सब का लोप हो जाता है और उस सन्निपात से ग्रस्त व्यक्ति अंड-बंड बातें करता है, न करने लायक अस्त-व्यस्त क्रियायें करता है। यह स्थिति मानव जीवन में सर्वथा अवांछनीय है। विपत्ति पड़ने पर लोग चिन्ता, शोक, निराशा, भय, घबराहट, क्रोध, कायरता आदि विषादात्मक आवेश से ग्रस्त हो जाते हैं और सम्पत्ति बढ़ने पर अहंकार, मद, मत्सर, अति हर्ष, अमर्यादा, नास्तिकता, अतिभोग, ईर्ष्या, द्वेष आदि विध्वंसक उत्तेजना में फंस जाते हैं। कई बार लोभ और भोग का आकर्षण उन्हें इतना लुभा लेता है कि वे आंखें रहते हुए भी अन्धे हो जाते हैं। इन तीनों स्थितियों में मनुष्य का होश-हवास दुरुस्त नहीं रहता। देखने में वह स्वस्थ और भला-चंगा दीखता है, पर वस्तुतः उसकी आन्तरिक स्थिति पागलों, बालकों, रोगियों तथा उन्मत्तों जैसी हो जाती है। ऐसी स्थिति मनुष्य के लिये विपत्ति, त्रास, अनिष्ट और अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकती। इसलिये गायत्री के ‘भ’ शब्द का सन्देश है कि इन आवेशों और उत्तेजनाओं से बचो। दूरदर्शिता, विवेक, शान्ति और स्थिरता से काम लो। बदली की छाया की तरह रोज घटित होती रहने वाली रंग-बिरंगी घटनाओं में अपनी आंतरिक शांति को नष्ट न होने दो। मस्तिष्क को स्वस्थ रखो, चित्त को शान्त रहने दो, आवेश की उत्तेजना से नहीं, विवेक और दूरदर्शिता के आधार पर अपनी विचारधारा और कार्य प्रणाली को चलाओ। गो-गोप्या स्वीया मनोवृत्तिर्नासहिष्णुर्नरो भवेत् । स्थितिमन्यस्य संवीक्ष्य तदनुरूपता चरेत् ।।11।। ‘‘अपने मनोभावों को नहीं छिपाना चाहिये। मनुष्य को असहिष्णु नहीं होना चाहिये। दूसरे की स्थिति को देखकर उसके अनुसार आचरण करें।’’ अपने मनोभाव और मनोवृत्ति को छिपाना, छल, कपट और पाप है। जैसे भीतर है, वैसे ही बाहर प्रकट कर दिया जाए, तो वह पाप निवृत्ति का सबसे बड़ा राजमार्ग है। स्पष्ट कहने वाले, खरी कहने वाले, जैसा पेट में है वैसा मुंह से कहने वाले लोग चाहे किसी को कितने ही बुरे क्यों न लगें, पर वे ईश्वर के आगे, आत्मा के आगे अपराधी नहीं ठहरते। जो आत्मा पर असत्य का आवरण चढ़ाते रहते हैं, वे एक प्रकार के आत्म हत्यारे हैं। कोई व्यक्ति यदि अधिक रहस्यवादी हो, अधिक आपराधिक कार्य करता हो, तो भी वह अपने कुछ ऐसे आत्मीय जन, विश्वासी जीव अवश्य रखना चाहता है, जिनके आगे अपने सब रहस्य प्रकट करके मन हल्का कर लिया करे। ऐसे आत्मीय मित्र और गुरुजन हर मनुष्य को नियुक्त कर लेने चाहिये। प्रत्येक मनुष्य के दृष्टिकोण, विचार, अनुभव, अभ्यास, ज्ञान, स्वार्थ, रुचि एवं संस्कार भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिये सबका सोचना एक प्रकार का नहीं हो सकता। इस तथ्य को समझते हुए दूसरों के प्रति सहिष्णुता होनी चाहिये। अपने से किसी भी अंश में मतभेद रखने वाले को मूर्ख, अज्ञानी, दुराचारी या विरोधी मान लेना उचित नहीं। ऐसी असहिष्णुता झगड़ों की जड़ है। एक-दूसरे के दृष्टिकोण के अन्तर को समझते हुए यथासम्भव समझौते का मार्ग निकालना चाहिये। फिर भी जो मतभेद रह जाए उसे पीछे धीरे-धीरे सुलझाते रहने के लिये छोड़ देना चाहिये। संसार में सभी प्रकृति के मनुष्य हैं। मूर्ख, विद्वान्, रोगी, स्वस्थ, पापी, पुण्यात्मा, पाखण्डी, कायर, वीर, कटुवादी, नम्र, चोर, ईमानदार, निन्दनीय, आदरास्पद, स्वधर्मी, विधर्मी, दया-पात्र, दण्डनीय, शुष्क, सरस, भोगी, त्यागी आदि परस्पर विरोधी स्थितियों के मनुष्य भरे पड़े हैं। उनकी स्थिति के आधार पर ही उनके लिये शक्य सलाह दें। सबसे एक समान व्यवहार नहीं हो सकता और न सब एक मार्ग पर चल सकते हैं। यह सब बातें ‘गो’ अक्षर हमें सिखाता है। दे-देयानि स्ववशे पुंसा स्वेन्द्रियाण्यखिलानि वै ।। असंयतानि खादन्तीन्द्रियाण्येतानि स्वामिनम् ।।12।। ‘मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियां अपने वश में करनी चाहिये। ये असंयत इन्द्रियां स्वामी को खा जाती हैं।’ इन्द्रियां आत्मा के औजार हैं, घोड़े हैं, सेवक हैं। परमात्मा ने इन्हें इसलिये प्रदान किया है कि इनकी सहायता से आत्मा की आवश्यकता पूरी हो और सुख मिले। सभी इन्द्रियां बड़ी उपयोगी हैं। सभी का काम जीव को उत्कर्ष एवं आनन्द प्रदान करना है। यदि उनका सदुपयोग हो, तो क्षण-क्षण पर मानव-जीवन का मधुर रस चखता हुआ प्राणी अपने भाग्य को सराहता रहेगा। किसी इन्द्रिय का भोग पाप नहीं है। सच तो यह है कि अन्तःकरण को, विविध क्षुधाओं को, तृष्णाओं को तृप्त करने की इन्द्रियां एक माध्यम हैं। जैसे पेट की भूख-प्यास को न बुझाने से शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर की क्षुधायें उचित रीति से तृप्त न की जाती रहें, तो आंतरिक क्षेत्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है और अनेक मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। इन्द्रिय भोगों की जगह-जगह निन्दा की जाती है और वासनाओं को दमन करने का उपदेश दिया जाता है। उसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि अनियन्त्रित इन्द्रियां स्वाभाविक एवं आवश्यक मर्यादा का उल्लंघन करके इतनी स्वेच्छाचारी एवं चटोरी हो जाती हैं कि वे स्वास्थ्य और धर्म के लिये संकट उत्पन्न करके भी मनमानी करती हैं। आजकल अधिकांश मनुष्य इसी प्रकार के इन्द्रिय-गुलाम हैं। अपनी वासना पर काबू नहीं रख सकते। बेकाबू हुई वासना अपने स्वामी को खो जाती है। गायत्री का ‘दे’ अक्षर आत्म-नियन्त्रण का उपदेश देता है। इन्द्रियों पर हमारा काबू हो, वे अपनी मनमानी करके हमें जब चाहे जिधर को घसीट न सकें, बल्कि हम जब आवश्यकता अनुभव करें, तब उचित आंतरिक भूख बुझाने के लिये उनका उपयोग कर सकें। यही निग्रह है। निगृहीत इन्द्रियों से बढ़कर मनुष्य का सच्चा मित्र तथा अनियन्त्रित इन्द्रियों से बढ़कर बड़ा शत्रु और कोई नहीं है। व-वस नित्यं पवित्रः सन् बाह्याभ्यन्तरतस्तथा । यतः पवित्रतायां हि राजतेऽतिप्रसन्नता ।।13।। ‘‘मनुष्य को बाहर और भीतर सब तरह से पवित्र होकर रहना चाहिये; क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है।’’ पवित्रता—अहा! कितना शीतल, शान्तिदायक, चित्त को प्रसन्न और हल्का करने वाला शब्द है। कूड़ा, करकट, मैल, विकार, पाप, गन्दगी, दुर्गन्ध, अव्यवस्था, घिचपिच को झाड़-बुहार कर स्वच्छता, सफाई, पवित्रता स्थापित कर ली जाती है, तो पहली और पीछे की स्थिति में कितना भारी अन्तर हो जाता है। मलिनता, अन्ध तामसिकता की प्रतीक है। आलस्य और दारिद्रय, पाप और पतन जहां रहते हैं, वहां मलिनता एवं गन्दगी का निवास होता है। जो इस प्रकृति के हैं उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर, मन सब में गन्दगी और अस्तव्यस्तता भरी रहती है। इसके विपरीत जहां चैतन्य, जागरूकता, सुरुचि, सात्विकता होगी, वहां सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जाएगा। सफाई, सादगी, सजावट, व्यवस्था का नाम ही पवित्रता है। मलिनता से घृणा होनी चाहिये, पर उसे हटाने या उठाने में रुचि होनी चाहिये। जो गन्दगी को छूने या उसे उठाने, हटाने से हिचकिचाते हैं, वे सफाई नहीं रख सकते। मन में, शरीर में, वस्त्रों में, समाज में हर घड़ी गन्दगी पैदा होती है। निरन्तर टूट-फूट का जीर्णोद्धार न किया जाए, तो गन्दगी बढ़ती जाएगी और सफाई चाहने की इच्छा केवल एक कल्पना मात्र बनी रह जाएगी। गायत्री का ‘व’ अक्षर स्वच्छता का सन्देश देता है। स्वच्छ शरीर, स्वच्छ वस्त्र, स्वच्छ निवास, स्वच्छ सामान, स्वच्छ जीविका, स्वच्छ विचार, स्वच्छ व्यवहार—जिसमें इस प्रकार की स्वच्छतायें निवास करती हैं, वह पवित्रात्मा मनुष्य निष्पाप जीवन व्यतीत करता हुआ पुण्य-गति को प्राप्त करता है। स्य-स्यन्दनं परमार्थस्य परार्थो हि बुधैर्पतः । योऽन्यान् सुखयते विद्वान् तस्य दुःखं विनश्यति ।।14।। ‘‘दूसरों का प्रयोजन सिद्ध करना परमार्थ का रथ है, ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है। जो विचारवान् दूसरे लोगों को सुख देता है, उसका दुःख नष्ट हो जाता है।’’ लोक व्यवहार के तीन मार्ग हैं—(1) अर्थ—जिसमें दोनों पक्ष समान रूप से आदान-प्रदान करते हैं, (2) स्वार्थ—दूसरों को हानि पहुंचाकर अपना लाभ करना, (3) परमार्थ—अपनी हानि करके भी दूसरों को लाभ पहुंचाना। स्वार्थ में चोरी, ठगी, अपहरण, शोषण, बेईमानी आदि आते हैं। परमार्थ में दान, सेवा, सहायता, शिक्षा आदि कार्यों को कहा जाता है। अर्थ (जीविका) हमारा नित्यकर्म है। उसके बिना जीवन यात्रा भी नहीं चल सकती। आहार निद्रा, भोजन, मल-त्याग आदि के समान स्वाभाविक होने के कारण उसका विधि-निषेध कुछ नहीं है। वह तो हर एक को करना ही होता है। स्वार्थ त्याज्य है, निन्दनीय है, पाप मूलक है, उससे यथासंभव बचते ही रहना चाहिये। परमार्थ धर्म कार्य है, इससे त्याग का, उदारता का अभ्यास बढ़ता है, आत्म-कल्याण का धर्म-मार्ग प्रशस्त होता है तथा उससे दूसरों का लाभ होने से वे प्रसन्न होकर बदले में प्रत्युपकार करते हैं, प्रशंसा और आदर देते हैं और कृतज्ञ रहते हैं। गायत्री का ‘स्य’ शब्द परमार्थ के लिये प्रेरणा देता है। हर मनुष्य का कर्त्तव्य है कि अर्थ उपार्जन करता हुआ स्वार्थ से बचे और परमार्थ के लिये यथा सम्भव प्रयत्नशील रहे। अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं, प्रशंसनीय वह है जिसके द्वारा दूसरे भी लाभ उठायें। धी-धीरस्तुष्टो भवेन्नैव त्वेकस्यां हि समुन्नतौ । क्रियतामुन्नतिस्तेन सर्वास्वाशासु जीवने ।।15।। ‘‘धीर पुरुष को एक ही प्रकार की उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये। मनुष्य को जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिये।’’ जैसे शरीर के कई अंग हैं और उन सभी का पुष्ट होना आवश्यक होता है, वैसे ही जीवन की अनेक दिशायें हैं और उन सभी का विकास होना सर्वतोमुखी उन्नति का चिह्न है। यदि पेट बहुत बढ़ जाए और हाथ-पांव पतले हो जाएं, तो इस विषमता से प्रसन्नता न होकर चिन्ता ही बढ़ेगी। इसी प्रकार यदि कोई आदमी केवल धनी, केवल विद्वान् या केवल पहलवान बन जाए तो वह उन्नति पर्याप्त न होगी। वह पहलवान किस काम का जो दाने-दाने को मोहताज हो। वह विद्वान् किस काम का जो रोगों से ग्रस्त हो। वह धनी किस काम का, जिसके पास न विद्या है न तन्दुरुस्ती। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिये अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना, उसकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं। जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय आठ दिशायें हैं, वैसे ही जीवन की भी आठ दिशायें हैं, आठ बल हैं। (1) स्वास्थ्य-बल, (2) विद्या-बल, (3) धन-बल, (4) मित्र-बल, (5) प्रतिष्ठा-बल, (6) चातुर्य-बल, (7) साहस-बल, (8) आत्म-बल। इन आठों का यथोचित मात्रा में संचय होना चाहिये। जैसे किसान खेत की सब ओर से रखवाली करता है, जैसे चतुर सेनापति युद्ध क्षेत्र के सब मोर्चों की रक्षा करता है, वैसे ही जीवन के ये आठों मोर्चे सावधानी के साथ ठीक रखे जाने चाहिये। जिधर भी भूल रह जायेगी, उधर से ही शत्रु के आक्रमण होने और परास्त होने का भय रहेगा। गायत्री का ‘धी’ शब्द हमें सजग करता है कि आठों बल बढ़ाओं, आठों मोर्चे पर सजग रहो, अष्टभुजी दुर्गा की उपासना करो, आठों दिशाओं की रखवाली करो, तभी सर्वांगीण उन्नति हो सकेगी। सर्वांगीण उन्नति ही स्वस्थ उन्नति है, अन्यथा किसी एक अंग को बढ़ा लेना और अन्यों को दुर्बल रखना कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं। म—महेश्वरस्य विज्ञाय नियमान्यायसंयुतान् । तस्य सत्तां च स्वीकुर्वन् कर्मणा तमुपासयेत् ।।16।। ‘‘परमात्मा के न्यायपूर्ण नियमों को समझकर और उसकी सत्ता को स्वीकार करते हुए कम से कम उस परमात्मा की उपासना करे।’’ परमात्मा के नियम न्यायपूर्ण हैं। सृष्टि में उसके प्रधान कार्य भी दो ही हैं। (1) संसार को नियमबद्ध रखना, (2) कर्मों का न्यायानुकूल फल देना। इन दोनों ईश्वरीय प्रधान कार्यों को समझकर जो अपने को नियमानुसार बनाता है, प्रकृति के कठोर नियमों को ध्यान में रखता है, सामाजिक, राजकीय, धार्मिक, लोक-हितकारी कानूनों, कायदों को मानता है, वह एक प्रकार से ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है। इसी प्रकार जो यह समझता है कि न्याय की अदालत में खड़ा होना ही पड़ेगा और बुरे-भले कर्मों के अनुसार दुःख-सुख की प्राप्ति अनिवार्यतः होगी, वह ईश्वर के समीप पहुंचता है। काम करने पर ही उसकी उजरत मिलती है। जो पसीना बहायेगा, परिश्रम करेगा, पुरुषार्थ, उद्योग और चतुरता का परिचय देगा, उसे उसके प्रयत्न के अनुसार साधन सामग्री जुटाने में सफलता मिलेगी। परमात्मा की पूजा, उपासना की जितनी साधनायें हैं, जितने कर्मकाण्ड हैं, उनका तात्पर्य यही है कि साधक, परमात्मा के अस्तित्व पर, उसकी सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता पर विश्वास करे। यह विश्वास जितना दृढ़ होगा, उतना ही उसे परमात्मा का नियम और न्याय स्मरण रहेगा। इन दोनों की कठोरता और निश्चितता पर विश्वास होना, सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा का सेतु है, जो समझता है कि शीघ्र या देर-सवेर में, तुरन्त या विलम्ब से कर्म का फल मिले बिना नहीं रह सकता, वह आलसी या कुकर्मी नहीं हो सकता। जो आलस्य और कुकर्म से जितना बचता है, वह ईश्वर का उतना ही बड़ा भक्त है। गायत्री का ‘म’ अक्षर ईश्वर उपासना के रहस्य का स्पष्टीकरण करता है और बताता है कि ईश्वरीय नियम और न्याय का ध्यान रखते हुए हम सत्पथ पर चलें। हि-हितं मत्वा ज्ञानकेन्द्रं स्वातंत्र्येण विचारयेत् ।। नान्धानुसरणं कुर्यात् कदाचित् कोऽपि कस्यचित् ।।17।। ‘‘हितकारी ज्ञान केन्द्र को समझकर स्वतंत्रतापूर्वक विचार करे। कभी भी कोई किसी का अन्धानुसरण न करे।’’ देश, काल, पात्र, अधिकार और परिस्थिति के अनुसार मानव जाति के हल और सुविधा के लिये विविध प्रकार के नियम, धर्मोपदेश, कानून और प्रथाओं का निर्माण एवं परिचालन होता है। परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ इन प्रथाओं एवं मान्यताओं का परिवर्तन होता रहता है। आदिकाल से लेकर अब तक, अनेकों प्रकार की शासन-पद्धतियां, धर्म-धारणायें, रीति-रिवाज तथा परम्परायें बदल चुकी हैं। समय-समय पर जो परिवर्तन होते रहते हैं, उन सभी का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। यही कारण है कि उनमें परस्पर विरोधी बातें दिखाई पड़ती हैं। वास्तव में विरोध कुछ नहीं है। विभिन्न समयों पर विभिन्न कारणों से जो परिवर्तन रीति-नीति में होता रहता है, वह पुस्तकों में लिखा तो है, पर वह स्पष्ट नहीं है कि ये पुस्तकें और प्रथायें किस-किस काल में रही हैं। यदि उनमें काल का उल्लेख होता, तो ग्रन्थों में परस्पर विरोध न दिखाई पड़ता और पाठक समझ जाते कि देश, काल, परिस्थिति के कारण यह अन्तर है, विरोध नहीं। समाज के सुसंचालन के लिये प्रथायें हैं। मनुष्य जाति की सुव्यवस्था के लिये उन्हें बनाया गया है। ऐसा नहीं कि उन प्रथाओं को अपरिवर्तनशील समझकर समाज और जाति के लिये उन्हें अमिट लकीर मान लिया जाए। संसार में आदि काल से बराबर परिवर्तन होता आ रहा है। कई रिवाज आज के लिये अनुपयुक्त हैं, तो ऐसा नहीं कि परम्परा मोह के कारण अन्धानुकरण किया ही जाए। गायत्री का ‘हि’ अक्षर कहता है कि मनुष्य के द्वारा समाज के हित का ध्यान रखते हुए देश, काल और विवेक के अनुसार प्रथाओं को, परम्पराओं को बदला जा सकता है। आज हिन्दू समाज में ऐसी अगणित प्रथायें प्रचलित हैं, जिन्हें बदलने की अत्यधिक आवश्यकता है। धि-धियो मृत्युं स्मरन् मर्म जानीयाज्जीवनस्य च । तदा लक्ष्यं समालक्ष्य पादौ सन्ततपाक्षियेत् ।।18।। ‘‘बुद्धि से मृत्यु का ध्यान रखे और जीवन के मर्म को समझे, तब अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अपने पैरों को चलाए, अर्थात् निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़े।’’ जीवन और मृत्यु के रहस्य को विवेकपूर्वक गम्भीरता से समझना आवश्यक है। मृत्यु कोई डरने की बात नहीं, पर उसे ध्यान में रखना आवश्यक है। न जाने किस समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो और कूच की तैयारी करनी पड़े। इसलिये जो समय हाथ में है, उसे अच्छे से अच्छे उपयोग में लाना चाहिये। धन, यौवन आदि अस्थिर हैं। छोटे से रोग या हानि से इनका विनाश हो सकता है, इसलिये इनका अहंकार न करके, दुरुपयोग न करके, ऐसे कार्यों में लगाना चाहिये, जिससे भावी जीवन में सुख-शान्ति की अभिवृद्धि हो। जीवन एक अभिनय है और मृत्यु उसका पटाक्षेप है। इस अभिनय को हमें इस प्रकार करना चाहिये, जिससे दूसरों की प्रसन्नता बढ़े और अपनी प्रशंसा हो। नाटक या खेल के समय सुखपूर्ण और दुःख भरे अनेकों अवसर आते हैं, पर अभिनयकर्ता समझता है कि यह केवल खेल मात्र हो रहा है, इसमें वास्तविकता कुछ नहीं है, उस खेल के समय होने वाले दुःख के अभिनय में न दुःखी होता है, न सुख के अभिनय में सुखी। वरन् अपना कौशल प्रदर्शित करने में, अपनी नाट्य सफलता में प्रसन्नता अनुभव करता है। जीवन नाटक का भी अभिनय इसी प्रकार होना चाहिये। हर समय मनुष्य पर आये दिन आने वाली सम्पदा-विपदा का कुछ महत्व नहीं, उनकी ओर विशेष ध्यान न देकर अपना कर्म-कौशल दिखाने के लिये हमें प्रयत्नशील रहना चाहिये। मृत्यु जीवन का अन्तिम अतिथि है। इसके स्वागत के लिये सदा तैयार रहना चाहिये। अपनी कार्य प्रणाली ऐसी रखनी चाहिये कि किसी भी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो, तो तैयारी में कोई कमी अनुभव न करनी पड़े। गायत्री का ‘धि’ अक्षर जीवन और मृत्यु के सत्य को समझाता है। जीवन को इस प्रकार बनाओ, जिससे मृत्यु के समय पश्चात्ताप न हो। जो वर्तमान की अपेक्षा भविष्य को उत्तम बनाने के लिये प्रयत्नशील है, वे जीवन और मृत्यु का रहस्य भली प्रकार जानते हैं। यो-यो धर्मो जगदाधारः स्वाचरणे तमानय । मा विडम्बय तं सोऽस्ति ह्येको मार्गे सहायकः ।।19।। ‘‘जो धर्म संसार का आधार है, उस धर्म को अपने आचरण में लाओ। उसकी विडम्बना मत करो। वह तुम्हारे मार्ग में एक ही अद्वितीय सहायक है।’’ धर्म संसार का आधार है। उसके ऊपर विश्व का समस्त भार रखा हुआ है। यदि धर्माचरण उठ जाए और सब लोग पूर्ण रूप से अधर्मी बन जायें, तो एक क्षण के लिये भी कोई प्राणी चैन से न बैठ सकेगा। सबको अपने प्राण बचाने और दूसरे का अपहरण करने की चक्की के दुहरे पाटों के बीच पिसना पड़ेगा। आज अनेक व्यक्ति लुक-छिप कर अधर्माचरण करते हैं, पर उन्हें भी यह साहस नहीं होता कि प्रत्यक्षतः अपने को अधर्मी घोषित करें या अधर्म को उचित ठहराने की वकालत करें। बुराइयां भी भलाई की आड़ लेकर की जाती हैं। इससे प्रकट है कि धर्म ऐसी मजबूत चीज है कि उसी का आश्रय लेकर, आडम्बर ओढ़कर, दुष्ट दुराचारी भी अपना बेड़ा पार लगाते हैं। ऐसे मजबूत आधार को ही हमें अपना अवलम्बन बनाना चाहिये। कई आदमी धर्म को कर्मकाण्ड का, पूजा-पाठ का, तीर्थ-व्रत, दान आदि का विषय मानते हैं और कुछ समय इनमें लगाकर शेष समय को नैतिक-अनैतिक कैसे ही कार्य करने के लिये स्वतंत्र समझते हैं। यह भ्रान्त धारणा है। धर्म, पूजा-पाठ तक ही सीमित रहने वाली वस्तु नहीं है। वरन् उसका उपयोग तो अपनी प्रत्येक विचारधारा और क्रिया-प्रणाली में पूरी तरह होना चाहिये। गायत्री का ‘यो’ अक्षर बताता है कि धर्म की विडम्बना मत करो, उसे आडम्बर मत बनाओ, वरन् उसे अपने जीवन में घुला डालो। जो कुछ सोचो, जो कुछ करो, वह धर्मानुकूल होना चाहिये। शास्त्र की उक्ति है कि—‘‘रक्षा किया हुआ धर्म अपनी रक्षा करता है और धर्म को जो मारता है, धर्म उसे मार डालता है।’’ इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें धर्म को ही अपनी जीवन-नीति बनाना चाहिये। यो-योजनं व्यसनेभ्यः स्यात्तानि पुंसस्तु शत्रवः । मिलित्वैतानि सर्वाणि समये घ्नन्ति मानवम् ।।2।। ‘‘व्यसनों से योजन भर दूर रहे अर्थात् व्यसनों से बचा रहे, क्योंकि वे मनुष्य के शत्रु हैं। ये सब मिलकर समय पर मनुष्य को मार देते हैं।’’ व्यसन मनुष्य के प्राणघातक शत्रु हैं। मादक पदार्थ व्यसनों में प्रधान हैं। तम्बाकू, गांजा, चरस, भांग, अफीम, शराब आदि नशीली चीजें एक से एक बढ़कर हानिकारक हैं। इनसे क्षणिक उत्तेजना आती है। जिन लोगों की जीवनी शक्ति क्षीण एवं दुर्बल हो जाती है, वे अपने को शिथिल तथा अशक्त अनुभव करते हैं। उनका उपचार आहार-विहार इत्यादि में अनुकूल परिवर्तन करके शक्ति संचय की वृत्ति द्वारा वर्धन होना चाहिये। परन्तु भ्रान्त मनुष्य दूसरा मार्ग अपनाते हैं। वे थके घोड़े को चाबुक मार-मारकर दौड़ाने का उपक्रम करके चाबुक को शक्ति का केन्द्र मानने की भूल करते हैं। नशीली चीजें मस्तिष्क को मूर्छित कर देती हैं, जिससे मूर्च्छाकाल में शिथिलतावश पीड़ा नहीं होती। दूसरी ओर वे चाबुक मार-मार कर उत्तेजित करने की क्रिया करती है। नशीली चीजों का सेवन करने वाला ऐसा समझता है कि वे मुझे बल दे रही हैं, पर वस्तुतः उनसे बल नहीं मिलता, वरन् रही-बची हुई शक्तियां भड़ककर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाती हैं और मादक द्रव्य सेवन करने वाला व्यक्ति दिन-दिन क्षीण होते-होते अकाल मृत्यु के मुख में चला जाता है। ‘व्यसन मित्र के वेष में शरीर में घुसते हैं और शत्रु बनकर उसे मार डालते हैं।’ नशीले पदार्थों के अतिरिक्त और भी ऐसी आदतें हैं, जो शरीर और मन को हानि पहुंचाती हैं, पर आकर्षण और आदत के कारण मनुष्य उनका गुलाम बन जाता है। वे उससे छोड़े नहीं छूटते। सिनेमा, नाच, व्यभिचार, मुर्गा-तीतर-बटेर लड़ाना आदि कितनी ही हानिकारक और निरर्थक आदतों के शिकार बनकर लोग अपना धन, समय और स्वास्थ्य निरर्थक बरबाद करते हैं। गायत्री का ‘यो’ अक्षर व्यसनों को दूर करने का आदेश करता है, क्योंकि ये शरीर और मन दोनों का नाश करने वाले हैं। व्यसनी मनुष्य की वृत्तियां नीच मार्ग की ओर ही चलती हैं। नः-नः श्रृण्वेकामिमां वार्तां ‘‘जागृतस्त्वं सदा भव’’ । सप्रमादं नरं नूनं ह्याक्रामन्ति विपक्षिणः ।।21।। ‘‘हमारी यह एक बात सुनो कि तुम हमेशा जाग्रत् रहो; क्योंकि निश्चय ही सोते हुए मनुष्य पर दुश्मन आक्रमण करते हैं।’’ असावधानी, आलस्य, बेखबरी, अदूरदर्शिता ऐसी भूलें हैं, जिन्हें अनेक आपत्तियों की जननी कह सकते हैं। बेखबर आदमी पर चारों ओर से हमले होते हैं। असावधानी में ऐसा आकर्षण है, जिससे खिंच-खिंच कर अनेक प्रकार की हानियां, विपत्तियां एकत्रित हो जाती हैं। असावधान, आलसी पुरुष एक प्रकार से अर्धमृत है। मरी हुई लाश को पड़ी देखकर जैसे चील, कौए, कुत्ते, श्रृंगाल, गिद्ध दूर-दूर से दौड़कर वहां जमा हो जाते हैं, वैसे ही असावधान पुरुष के ऊपर आक्रमण करने वाले तत्व कहीं न कहीं से आकर अपनी घात लगाते हैं। जो स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जागरूक नहीं है, उसे देर-सवेर में बीमारियां आ दबोचेंगी। जो नित्य आते रहने वाले उतार-चढ़ावों से बेखबर है, वह किसी दिन दिवालिया बनकर रहेगा। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर सरीखे मानसिक शत्रुओं की गतिविधियों की ओर से आंखें बन्द किये रहता है, वह कुविचारों और कुकर्मों के गर्त में गिरे बिना नहीं रह सकेगा। जो दुनिया के छल, फरेब, झूठ, ठगी, लूट, अन्याय, स्वार्थपरता, शैतानी आदि की ओर से सावधान नहीं रहता, उसे उल्लू बनाने वाले, ठगने वाले, सताने वाले अनेकों पैदा हो जाते हैं। जो जागरूक नहीं, जो अपनी ओर से सुरक्षा के लिये प्रयत्नशील नहीं रहता, उसे दुनिया के शैतानी तत्त्व बुरी तरह नोंच खाते हैं। इसलिये गायत्री का ‘नः’ अक्षर हमें सावधान करता है कि होशियार रहो, सावधान रहो, जागते रहो, जिससे तुम्हें शत्रुओं के आक्रमण का शिकार न बनना पड़े। विवेकपूर्वक त्याग करना और उदारता से परोपकार करना तो उचित है, पर अपनी बेवकूफी से दूसरे बदमाशों का शिकार बनना सर्वथा अवांछनीय व पापमूलक है। जहां अच्छाई की ओर, उन्नति की ओर बढ़ने का प्रयत्न आवश्यक है, वहां बुराई से सावधान रहने, बचने और उससे संघर्ष करने की भी आवश्यकता है। प्र-प्रकृत्या तु भवोदारो नानुदारः कदाचन । चिन्तयोदारदृष्ट्यैव तेन चित्तं विशुद्ध्यति ।।22।। ‘‘स्वभाव से ही उदार हों, कभी भी अनुदार मत बनें, उदार दृष्टि से ही विचार करें—ऐसा करने से चित्त शुद्ध हो जाता है।’’ अपनी बात, अपनी रीति, अपने रिवाज, अपनी मान्यता, अपनी अक्ल को ही सही मानना और दूसरे सब लोगों को मूर्ख, भ्रान्त, बेईमान ठहराना अनुदारता का लक्षण है। अपने लाभ के लिये चाहे सारी दुनिया का विनाश होता हो तो हुआ करे, ऐसी नीति अनुदार लोगों की होती है। वे सिर्फ अपनी सुविधा और इच्छा को सर्वोपरि रखते हैं। दूसरों की कठिनाई और असुविधा का उन्हें जरा भी ध्यान नहीं होता। गायत्री का ‘प्र’ अक्षर कहता है कि दूसरों की भूलों और कमियों के प्रति हमें कठोर नहीं, उदार होना चाहिये। उनकी उचित इच्छाओं, आवश्यकताओं और मांगों के प्रति हमारी सहानुभूति होनी चाहिये। दूसरे जिस स्थिति में हैं उस स्थिति में हम होते, तो कैसी इच्छा करते? यह सोचकर उस दृष्टि से उनके साथ व्यवहार करना चाहिये और मतभेदों को संघर्ष का कारण न बनाकर जितने अंशों में एकता मिल सके, उसे प्रेम का निमित्त बनाना चाहिये। चो-चोदयत्येव सत्संगो धियमस्य फलं महत् । स्वमतः सज्जनैर्विद्वान् कुर्यात् पर्यावृतं सदा ।।23।। ‘‘सत्संग बुद्धि को प्रेरणा देता है। इस सत्संग का फल महान है। इसलिये विद्वान् अपने आपको हमेशा सत्पुरुषों से घिरा हुआ रखे अर्थात् हमेशा सज्जनों का संग करे।’’ मनुष्य का मस्तिष्क निर्मल जल के समान है। वातावरण, संस्कार और अनुकरण के साधन उसे विभिन्न दिशाओं में मोड़ते हैं। पानी का बहाव नाव को बहा ले जाता है। हवा जिधर को चलती है, पतंगे उधर ही उड़ते हैं। मनुष्य जिस वातावरण में रहता है, रमता है, उधर ही उसकी मनोवृत्तियां चलने लगती हैं और धीरे-धीरे वह उसी ढांचे में ढलने लगता है। जैसे दो बालकों में से जन्म से ही एक को कसाई के यहां रखा जाय तथा एक को ब्राह्मण के यहां, तो बड़े होने पर उन दोनों के गुण, कर्म, स्वभाव में जमीन-आसमान का अन्तर होगा। यह संगति का ही प्रभाव है। जो लोग अच्छाई की दिशा में अपनी उन्नति करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि अपने को अच्छे वातावरण में रखें, अच्छे लोगों को अपना मित्र बनायें और उन्हीं से अपना व्यापार, व्यवहार तथा सम्पर्क रखें। सम्भव हो तो परामर्श, उपदेश और पथप्रदर्शक भी उन्हीं से प्राप्त करें। इस प्रकार की स्थिति में रहने से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वैसा ही प्रभाव अपने ऊपर पड़ता है और उसी दिशा में चलने के लिये प्रेरणा मिलती है। कुसंग में रहने से, बुरे वातावरण के सम्पर्क में आने से मलिनता बढ़ती है। इसलिये उधर से मुंह मोड़े रहना ही उचित है। यथासाध्य अच्छे व्यक्तियों का सम्पर्क बढ़ाने के अतिरिक्त, अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय भी उपयोगी है। सत्संग न हो सके, तो पुस्तकें पढ़कर सत्संग का लाभ उठाया जा सकता है। एकान्त में स्वयं भी अच्छे विचारों का चिन्तन और मनन करने तथा अपने मस्तिष्क को इसी दिशा में लगाये रहने से भी आत्म-सत्संग होता है। यह सभी सत्संग आत्मोन्नति के लिये आवश्यक हैं। गायत्री का ‘च’ अक्षर सत्संग का महत्व बताता है और उसके लिये प्रयत्नशील रहने का उपदेश करता है। द-दर्शनं ह्यात्मनः कृत्वा जानीयादात्म गौरवम् । ज्ञात्वा तु तत्तदात्मानं पूर्णोन्नतिपथं नयेत् ।।24।। ‘‘आत्मा का दर्शन करके आत्मा के गौरव को पहचानो। उसको जानकर तब आत्मा को पूर्ण उन्नति के मार्ग पर ले चलो।’’ मनुष्य शरीर नाशवान् और तुच्छ है। उसके हानि-लाभ भी तुच्छ और महत्त्वहीन हैं, पर उसकी आत्मा ईश्वर का अंश होने के कारण महान् है। उसकी महिमा और महत्ता इतनी बड़ी है कि किसी से भी उसकी तुलना नहीं हो सकती। मनुष्य का गौरव उसके शरीर के कारण नहीं वरन् आत्मा की विशेषताओं के कारण है, जिसकी आत्मा जितनी अधिक बलवान् होती है, वह उतना ही बड़ा महापुरुष कहा जाता है। जिन कार्यों से हमारी प्रतिष्ठा, साख, सम्मान, आदर, श्रद्धा बढ़ती है, वे ही आत्म-गौरव को बढ़ाने वाले हैं। प्रतिष्ठा सबसे बड़ी सम्पत्ति है, फिर आत्मा की प्रतिष्ठा का मूल्यांकन तो हो ही नहीं सकता। इतनी बड़ी अमानत को हमें सब प्रकार सुरक्षित रखना चाहिये। लोग सम्पत्ति द्वारा बनी हुई प्रतिष्ठा को गिरते या नष्ट होते देखकर तिलमिला जाते हैं और उस दुःख से इतने दुःखी हो जाते हैं कि कोई-कोई तो आत्महत्या भी कर डालते हैं। फिर आत्म-प्रतिष्ठा, आत्म-गौरव तथा आत्म-सम्मान तो और भी ऊंची चीज है, उसे तो किसी भी मूल्य पर न गिरने देना चाहिये। जिससे आत्म-गौरव घटता हो, आत्म-ग्लानि होती हो और आत्म-हनन करना पड़ता हो, ऐसे धन, सुख, भोग, पद को लेने की अपेक्षा भूखा और दीन रहना कहीं अच्छा है। गायत्री का ‘द’ अक्षर आत्म-सम्मान की रक्षा और आत्म-हनन की निवृत्ति के लिये हमें बड़े से बड़ा त्याग करने में कभी न झिझकने के लिये तैयार रहने को कहता है। जिसके पास आत्म-धन है, वही सबसे बड़ा धनी है। जिसका आत्म-गौरव सुरक्षित है, वह इन्द्र के समान बड़ा पदवीधारी है, भले ही चांदी, तांबे के टुकड़े उसके पास कम मात्रा में ही क्यों न हों? यात्-यायात्स्वोत्तरदायित्वं निर्वहन् जीवने पिता । कुपितापि तथा पापः कुपुत्रोऽस्ति यथा मतः ।।25।। ‘‘पिता अपने उत्तरदायित्व को निबाहता हुआ जीवन में चले, क्योंकि कुपिता भी उसी प्रकार पापी होता है, जैसे कुपुत्र होता है।’’ जिनके हाथ में प्रबन्ध, व्यवस्था, शासन, स्वामित्व, बल होते हैं, वे प्रायः उसका यथोचित उपयोग नहीं करते। ढील, शिथिलता, लापरवाही भी वैसी ही बुराई है, जैसी कि स्वार्थपरता एवं अनुचित लाभ उठाने की नीति। इसका परिणाम बुरा ही होता है। अक्सर पुत्र, शिष्य, स्त्री, प्रजाजन, सेवक आदि के बिगड़ जाने, बुरे होने, अवज्ञा करने, अनुशासनहीन होने के उदाहरण बहुत सुने जाते हैं। इन बुराइयों का बहुत कुछ उत्तरदायित्व पिता, गुरु, पति, शासक, स्वामी आदि पर भी है, क्योंकि प्रबन्ध शक्ति उनके हाथ में होती है। बुद्धिमत्ता और अनुभव अधिक होने के कारण उत्तरदायित्व उन्हीं का अधिक होता है। व्यवस्था में शिथिलता आने, बुरे मार्ग पर चलने का अवसर देने, नियंत्रण में सावधानी न रखने से भी ऐसी घटनायें प्रायः घटित होती हैं। प्रत्येक सम्बन्ध में दो पक्ष होते हैं। दोनों पक्षों के यथोचित कर्त्तव्य पालन करने से ही वे सम्बन्ध स्थिर और सुदृढ़ रहते हैं, तो भी समझदार पक्ष का उत्तरदायित्व विशेष है। उसे अपने पक्ष पर अधिक मजबूती से खड़ा रहना चाहिये और छोटे पक्ष के साथ उदार बर्ताव करना चाहिये। लोग अपने-अपने अधिकार पर अधिक बल देते हैं और अपने कर्त्तव्य से जी चुराते हैं, यहीं कलह का कारण है। यदि दोनों ओर से अपने-अपने अधिकारों की उपेक्षा न की जाये, तो संघर्ष का अवसर ही न आये और सम्बन्ध बड़ी मधुरता से निभते चले जायें। ‘‘यात्’’ अक्षर पिता-पुत्र में, बड़े-छोटे में, अच्छे सम्बन्ध रखने का नुस्खा यह बताता है कि दोनों ओर से अधिकार की मांग मन्द रखी जाये और कर्त्तव्यों का दृढ़ता से पालन हो। बड़ा पक्ष छोटे पक्ष को संभालने के लिये अधिक सावधानी और उदारता बरते। गायत्री-उपनिषद् वेदों से ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थों का आविर्भाव हुआ है। प्रत्येक वेद के कई-कई ब्राह्मण ग्रन्थ थे, पर अब उनमें से थोड़े ही प्राप्त होते हैं। काल की कुटिल गति ने उनमें से कितनों को लुप्त कर दिया है। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण मिलते हैं—शांखायन और ऐतरेय। शांखायन को कौषीतकि भी कहते हैं।यजुर्वेद के तीन ब्राह्मण प्राप्त हैं—शतपथ ब्राह्मण, काण्व ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण। सामवेद के 11 ब्राह्मण उपलब्ध हैं—आर्षेय ब्राह्मण, जैमिनी आर्षेय ब्राह्मण, संहितोपनिषद् ब्राह्मण, मन्त्र ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, साम विधान ब्राह्मण, षड्विंश ब्राह्मण, दैवत ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण, जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण। अथर्ववेद का केवल मात्र एक ब्राह्मण मिलता है, जिसका नाम गोपथ ब्राह्मण है। गोपथ की 31 से लेकर 38 तक आठ कण्डिकायें गायत्री उपनिषद् कहलाती हैं। इनमें मैत्रेय और मौद्गल्य के परस्पर विवाद के उपाख्यान द्वारा गायत्री का महत्त्वपूर्ण रहस्य समझाया गया है। साधारण शब्दार्थ के अनुसार बुद्धि-प्रेरणा की प्रार्थना ही गायत्री का तात्पर्य है, परन्तु इस उपनिषद् में ब्रह्म-विद्या एवं पदार्थ विद्या से सम्बन्ध रखने वाले कई रहस्यों पर प्रकाश डाला गया है।
First 1 3 Last


Other Version of this book



Gayatri Mahavigyan Part 2
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग ३
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान भाग 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Super Science of Gayatri
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Gayatri Mahavigyan Part 1
Type: SCAN
Language: EN
...

Gayatri Mahavigyan Part 3
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग १
Type: SCAN
Language: MARATHI
...

गायत्री महाविज्ञान-भाग २
Type: SCAN
Language: EN
...

गायत्री महाविज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • भूमिका
  • गायत्री माहात्म्य
  • अथ गायत्री उपनिषद्
  • गायत्री रामायण
  • गायत्री हृदयम्
  • गायत्री पञ्जरम्
  • ।। अथ गायत्री पञ्जरम् ।।
  • ।। इति गायत्री पञ्जरम् ।।
  • गायत्री संहिता
  • गायत्री तन्त्र
  • मारण प्रयोग
  • नित्य कर्म
  • न्यास
  • श्री गायत्री चालीसा
  • गायत्री अभियान की साधना
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj