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Books - सूर्य चिकित्सा विज्ञान

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मिश्रत रंग

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लाल, पीले, नीले रंगों के आपस में मिलने से ही अन्य अनेक रंग बनते हैं। इन अन्य अनेक मिले हुए रंगों के गुण वही होंगे जो उसमें मिले हुए मूल रंगों के हैं। कई रंगों के मिलने से जो रंग बना है उसमें यह देखना चाहिए कि कौन-सा अधिक है। उसी के अनुसार मिश्रित रंग का गुण समझना चाहिए। मान लीजिए कि किसी कांच का रंग बैंगनी है, उसके रंग में नीलापन अधिक है और लाल कम है तो वह थोड़ी-सी गर्मी लिए हुए शीतल होगा किंतु यदि लाल रंग अधिक कम हो तो उसे शीतलता लिए हुए गरम समझना चाहिए।

 विभिन्न रंगों के क्या–क्या गुण होते हैं, इसका कुछ थोड़ा-सा परिचय इस प्रकार है। नारंगी रंग — नारंगी रंग कब्ज को दूर करने वाला है। इस रंग का सूर्य की किरणों का जल पीने से आंतें ठीक होकर अपना काम पूर्ववत् करने लगती हैं, परंतु स्मरण रखना चाहिए इसका अधिक तादाद में पी जाना लाभ के स्थान पर उल्टा हानि कर सकता है। जो लोग दिनभर बैठे रहते हैं और घूमने फिरने का अन्य प्रकार का कोई शारीरिक परिश्रम नहीं करते, उनके लिए नारंगी रंग का सेवन करते रहना बड़ा उपयोगी है।

 12 वर्ष से कम आयु वाले बालकों को लाल रंग नहीं दिया जाता, क्योंकि उनके स्वभाव में स्वयमेव गर्मी और चंचलता अधिक होती है। जिन रोगों में लाल रंग देने का विधान है, उनमें बालकों को हमेशा नारंगी रंग ही देना चाहिए। नारंगी रंग के कुछ दिन के लगातार सेवन से खून खराबी, चर्म रोग और कुष्ठ रोग अच्छे हो जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं को इसके सेवन से दस्त चलने लगते हैं, उन्हें इसकी मात्रा कम कर देनी चाहिए। अनेक चिकित्सकों ने इस रंग का उपयोग शीत ज्वर, नजला, छाती की जलन, अपच, पेट का दर्द, मिर्गी, फेफड़े के रोग आदि पर किया है और उससे अद्भुत लाभ पाया है। बैंगनी रंग — यह शीतल और भेदक है। जब शरीर में गर्मी अधिक बढ़ जाए या ज्ञान-तंतुओं में उत्तेजना हो, तब इस रंग का उपयोग बड़ा लाभप्रद होता है। सन्निपात, प्रलाप, कै, बहुमूत्र तथा प्रमेह रोग में इसके द्वारा अद्भुत लाभ होता है।

 गुलाबी रंग — यह कुछ उत्तेजना देने वाला, हल्का, पाचन करने वाला और शीतल है। गर्भवती स्त्रियों के रोगों में लाल की जगह गुलाबी रंग देना चाहिए। प्रसूत रोग, गर्भाशय की पीड़ा, सिर दर्द, मुंह में छाले आदि में इसका आश्चर्यजनक लाभ होता है। गहरा नीला — यहां गहरा नीला कहने से हमारा मतलब उस रंग से है जो कुछ कालापन लिए हुए है। लाल या पीली झलक उसमें बिल्कुल न होनी चाहिए। गहरा नीला रंग एक प्रकार का टॉनिक है, ताकत देना इसका प्रधान गुण है। प्रमेह आदि के कारण या बहुत दिनों की बीमारी की वजह से लोग बहुत कमजोर हो गए हों, उनके लिए गहरे नीले रंग का उपयोग बहुत मुफीद है। क्षय रोगों में जब कि रोगी की दशा दिन-दिन गिरती ही जाती है, गहरा नीला रंग देना चाहिए।

 इससे रोगी को बड़ी मदद मिलती है और उसका ह्रास रुक जाता है। खाकी रंग — यह रंग पशुओं की कई बीमारियों में बहुत फायदा करता है, परंतु मनुष्यों के लिए उतना उपयोगी नहीं है। यह एक प्रकार का नशा लाता है। पेट में खलबली पैदा करता है और रक्त की चाल को बढ़ा देता है। कोई जहरीली चीज खा लेने पर जब वमन कराने की जरूरत हो तब इसका उपयोग करना चाहिए। हरा रंग — मस्तिष्क को शांति देना है और बुद्धि को विकसित करता है। जुकाम के लिए फायदेमंद है। बैगनी रंग बहुमूत्र, मूत्रकृच्छ में अपना अद्भुत लाभ दिखाता है। आसमानी रंग मानसिक चिंताओं को दूर करता है।

सफेद और काले रंग सूर्य चिकित्सा में प्रयोग नहीं किए जाते क्योंकि इन रंगों के कांचों में होती हुई जो किरणें जाती हैं, वह ऐसी कोई शक्ति उत्पन्न नहीं करती जिनका असर मानव-शरीर के रोगों को दूर करने लायक हो। यह थोड़े से मिश्रण इसलिए बताए गए हैं कि पाठकों की समझ में वास्तविक बात आ जाए। रंगों की कमी वेशी के कारण तथा मिश्रण की मात्राओं में अंतर होने के कारण इतने रंग बन सकते हैं, जिनकी गणना करना असंभव है। यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं, कि हल्का रंग न्यून और गहरा रंग अधिक गुण रखता है, किंतु इतना गहरा जिसमें होकर सूर्य की किरणें अच्छी तरह पार न हो सकें, व्यर्थ होगा। इससे अधिक लाभ मिलना तो दूर न्यून लाभ भी न मिल सकेगा। यह सब होते हुए भी निश्चित रंगों में एक अपनी विशेषता अलग भी होती है।

सूर्य-चिकित्सकों को इसकी जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है। कांच का चुनाव यह बताया जा चुका है कि सूर्य की सप्तरंगी किरणों में से केवल एक रंग लेने के लिए रंगीन कांच ही सर्वोत्तम साधन है क्योंकि उसमें होकर सूर्य किरणों का वही एक रंग पार हो सकता है जिस रंग का कांच हो, इसलिए सूर्य चिकित्सक के लिए एक मात्र उपकरण रंगीन कांच ही है। प्रयोग के लिए कौन-सा कांच लेना चाहिए, यह बड़ी टेढ़ी समस्या है। सूर्य चिकित्सा के लिए खास तौर से जो कांच विदेशों में तैयार किए गए हैं, वह भारतवर्ष में प्रायः प्राप्त नहीं होते, क्योंकि एक तो देश में सूर्य चिकित्सा विज्ञान का अभी प्रचलन ही बहुत कम हुआ है, दूसरे इन कांचों का मूल्य अधिक है।

इन्हीं कारणों से व्यापारी लोग उन्हें मंगाते नहीं। जिन चिकित्सकों को जरूरत होती है, वह इसलिए नहीं मंगाते कि एक तो थोड़े से कांच मंगाने पर मार्गव्यय अधिक पड़ता है, दूसरे रास्ते में टूट-फूट हो जाने का भय भी बना रहता है। जो चीज आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकती उसके स्थान पर हमें सुगमता पूर्वक मिल सकने वाली वस्तु से ही काम चलाना चाहिए। बाजार में कई प्रकार के कांच मिलते हैं। इनमें से सावधानी पूर्वक अपने काम की वस्तु चुन लेनी चाहिए। जो कांच बाजार में मिलते हैं, उनमें अक्सर विशुद्ध एक रंग के कम मिलते हैं जैसे नीला कांच साधारणतः हर दुकानदार के यहां मिल जाएगा, पर उसके संबंध में जानकारी प्राप्त करने पर पता चलेगा कि यह कई किस्म के हैं। मेजरीन या कोबाल्ट नामक कांच में कुछ लाल झलक भी होती है। इसलिए उसमें होकर नीली किरणों के साथ लाल किरणें भी पार होती हैं। इस प्रकार क्यूप्रोडा सल्फेट कलर्ड में नारंगी रंग की मिलावट होती है।

यह परीक्षा साधारण आंखों से नहीं हो सकती। अंधेरे कमरे में एक दीपक जलाना चाहिए और कांच को आंखों के सामने रखकर देखना चाहिए कि दीपक की लौ का रंग कैसा है? जो रंग उस लौ का दिखाई पड़े वही उस कांच का वास्तविक रंग समझना चाहिए। हरे रंग में आयरन ऑक्साइड से प्राप्त हुआ रंग अधिक शांतिदायक होता है। सर्वसाधारण के लिए उन्हें अभी अधिक गहराई में न जाकर जो कांच या बोतल मिल सकें उन्हें ही संग्रह कर लेना चाहिए और अंधेरे कमरे में दीपक की लौ देखकर यह निर्णय करना चाहिए कि इसमें कौन रंग अधिक और कौन कम मात्रा में मिला हुआ है।

उसी के मिश्रण के अनुसार उस कांच का गुण समझकर चिकित्सा में प्रयोग करना चाहिए। यदि विशुद्ध रंग के कांच न मिल सकें तो वह लेने चाहिए जिनमें कम से कम मिश्रण हो और जिस रंग का मिश्रण हो उसी के अनुसार उसका गुण भी समझना चाहिए। यह शीशे बिल्कुल साफ हों, बीच में ऊंचे-नीचे गड्ढेदार या दाग वाले कांच चिकित्सा में प्रयोग होने के अयोग्य हैं। इसी प्रकार बहुत अधिक गहरे रंग के भी अनुपयुक्त हैं। उनमें होकर किरणें ठीक प्रकार पार नहीं हो सकतीं और बाहर ही रह जाती हैं। कांच का रंग न तो बहुत हल्का ही होना चाहिए और न बहुत गहरा। मध्यम रंग के स्वच्छ और आधे सूत मोटे कांच इस कार्य के लिए ठीक हैं। जल, तेल, दूध, शक्कर आदि तैयार करने के लिए रंगीन बोतलों की जरूरत पड़ती है।

 इनमें उपरोक्त बातों का ध्यान रखना चाहिए। बोतलें भीतर बाहर से खूब साफ कर लेनी चाहिए, जिससे प्रस्तुत औषधि में अशुद्धि उत्पन्न न होने पाए। रंगीन कांच न मिलने पर एक दूसरी तरकीब भी काम में लाई जा सकती है। सफेद कांच या बोतल के ऊपर जिस रंग का गटापार्चा (पारदर्शी-बटर पेपर) लगा दिया जाए तो वह उसी रंग का काम देने लगता है। गटापार्चा को कांच पर पूरा चिपकाने की आवश्यकता नहीं है। केवल किनारों पर चिपका देना काफी है जिससे वह न गिरने पाए। जो स्थान चिपकाया गया है, उस स्थान में होकर सूर्य किरणें ठीक तरह से पार नहीं होतीं, इसलिए बोतल पर जहां गटापार्चा चिपकाया गया है, उस भाग को धूप की ओर न रखकर छाया की ओर रखना चाहिए।
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