
जानने योग्य कुछ आवश्यक बातें
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चिकित्सकों को यह भली प्रकार जान लेना चाहिए कि मुफ्त में ही काम चल जाने या पानी, शक्कर, तेल आदि का प्रयोग होने के कारण सूर्य चिकित्सा निर्बल या हीन वीर्य उपचार नहीं है। विधि पूर्वक तैयार किए गए पदार्थ शरीर में रासायनिक द्रव्यों से मिलकर ऐसा वैज्ञानिक सम्मिश्रण तैयार करते हैं कि रोगों में अद्भुत लाभ होता है। हमारे अनुभव में अब तक ऐसे मरीज आ चुके हैं, जो बड़े-बड़े अस्पतालों में महीनों इलाज कराने के बाद निराश हो रहे थे।
सूर्य चिकित्सा ने उनके प्राण बचाए और नवीन जीवन प्रदान किया। जिन रोगों में सर्जरी की आवश्यकता है, उन्हें छोड़कर शेष रोग सूर्य चिकित्सा से अच्छे हो सकते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि यह चिकित्सा प्रणाली बिल्कुल निर्दोष है। अन्य चिकित्सक अन्य प्रकार की विषैली, अप्राकृतिक और तीक्ष्ण औषधियां देकर एक रोग को कुछ समय के लिए अच्छा कर देते हैं, पर वह औषधि ही फिर दूसरे रोग का कारण बन जाती है।
उदाहरण के लिए कुनैन से ज्वर चला जाता है, पर दाह, जलन, कानों में बहरापन, सिर भिन्नाते रहना, गर्मी का प्रकोप आदि दूसरे रोग आ घेरते हैं। ‘डस्प्रीन’ सिर दर्द को दूर कर देती है, पर बाद में दिल के ऊपर नया हमला होता है। सूर्य चिकित्सा इस प्रकार के रोगों से मुक्त है। वह गिरी हुई दीवार को ईंट-ईंट करके चिनती है और कुछ ही दिनों में मजबूत इमारत खड़ी कर देती हैं। अफीम पड़ी हुई बाजीकरण औषधियां खाकर जिन्होंने कुछ दिनों स्तंभन का सुख भोगा था, वे कुछ ही दिनों में शरीर की मूल शक्ति खो बैठे और पीछे सिर धुन-धुन कर पछताए। सूर्य चिकित्सा से बीमारी अच्छी होने में दूसरी औषधि के मुकाबले में कुछ क्षण अधिक लग सकते हैं, परंतु जो लाभ होगा वह स्थाई होगा।
सच बात तो यह है कि सूर्य चिकित्सा द्वारा ही सबसे जल्दी आराम होता है। एक रोग के, एक-सी स्थिति के, दो मरीजों को लिया जाए और एक का इलाज सूर्य चिकित्सा से और दूसरे का अन्य पद्धतियों से किया जाए और उसका अंतिम परिणाम देखा जाए तो पता चलेगा कि तीक्ष्ण एवं विषैली दवाओं से एक रोग दब गया, किंतु दूसरा उठ खड़ा हुआ, उसे ठीक करने पर फिर समय लगा। निश्चय ही उतने समय में सूर्य चिकित्सा द्वारा उपचारित दूसरा रोगी स्वस्थ हो गया। इस प्रकार यह आरोप ठीक नहीं कहा जा सकता है कि इस पद्धति से रोगी देर में अच्छे होते हैं। कुछ देरी होती भी है तो वह केवल पुराने रोगों में, जो रोग पुराने नहीं हैं, उनमें तो बहुत ही जल्दी लाभ होता है।
कई बार तो जादू की तरह बीमारियां अच्छी होती देखी जाती हैं। यह कहना ठीक नहीं, किरणों द्वारा तैयार पानी आदि में बहुत थोड़ी ही शक्ति हो सकती है, उसी भ्रम में यदि चिकित्सक भी रहा तो रोगी संकट में पड़ सकता है। लाल रंग का तैयार किया हुआ पानी यदि अधिक तादाद में पी लिया जाए तो दस्त लग जाएंगे और रोगी गर्मी के मारे बेचैन हो जाएगा। कभी-कभी तो मुंह या पेशाब के रास्ते खून तक जाने लगता है। नीला पानी अधिक पी जाने से जुकाम, सर्दी पसली में दर्द, खांसी, जोड़ों में दर्द आदि उपद्रव हो सकते हैं।
चिकित्सकों को सावधान किया जाता है कि वे इस भ्रम में न रहें कि इस जल, शक्कर या रोशनी को ज्यादा कम मात्रा में देने से कोई विशेष हानि लाभ नहीं है। साधारणतः बड़े आदमी के लिए ढाई तोले जल की मात्रा दिन में दो से तीन बार देनी चाहिए। एक वर्ष से कम उम्र के बच्चे को 3 माशे, एक वर्ष से पांच वर्ष तक के बच्चे को 6 माशे, पांच से बाहर वर्ष तक के बच्चे को एक तोला, बारह से सोलह वर्ष तक के दो तोले, उससे ऊपर उम्र वालों को ढाई तोले जल की मात्रा देनी चाहिए। रंगीन कांच द्वारा रोशनी देनी हो तो छोटे बच्चों को एक मिनट, बड़े बच्चों को दो मिनट और जवान आदमी को पांच मिनट, दोपहर से पूर्व की रंगीन धूप देनी चाहिए। जब शक्कर देनी हो तो उम्र के हिसाब से एक माशे से लेकर छह माशे तक देनी चाहिए। तेल और घी बाहरी अंगों में लगाने के काम आते हैं, इसलिए इनकी कोई मात्रा नियत नहीं है।
जहां जितना लगाने की जरूरत है वहां उतना काम में लेना चाहिए। दर्द को दूर करने और नसों को प्रभावित करने के लिए तेलों की मालिश की जाती है और घी मरहम की तरह काम में लाया जाता है। पथ्य की तरह रंगीन दूध का उपयोग होता है। दूध को सिर्फ एक घंटा प्रातःकाल की धूप देनी चाहिए। दोपहर बाद की धूप दूध के लिए अनुपयुक्त है। शुद्ध, स्वच्छ, धारोष्ण दूध को साफ बोतल में बंद करके पानी की तरह धूप में रखना चाहिए और एक घंटे बाद इसे प्रयोग करना चाहिए। यह दूध जवान आदमी को अधिक से अधिक 250 मि.ली. दिया जा सकता है।
कुछ औषधि चिकित्सक अपनी दवाओं को सूर्य शक्ति से भी संपन्न करना चाहते हैं जिससे वे अधिक गुणकारी हो जाएं। वे ऐसा कर सकते हैं, उन्हें क्वाथ कल्क 2 घंटे, अर्क अवलेह 6 घंटे, काष्ठादि चूर्ण, गोलियां, पाक, घृत 8 घंटे, तेल दो दिन और रसों को एक सप्ताह धूप देकर सूर्य शक्ति से संपन्न करना चाहिए। यह चिकित्सक को निर्णय करना चाहिए कि किस औषधि का क्या गुण है और उसके अनुसार किरणों का रंग देना चाहिए। इसके विपरीत गरम औषधि में नीला रंग मिश्रित किया जाए तो वह ठण्डे गरम का मिश्रण होने से गुणहीन हो जाएगी।
गरम औषधि को यदि अधिक शक्तिशाली बनाना है तो उसे लाल रंग ही देना चाहिए। औषधि का गुण और उनके अनुसार रंग चुनना यह वैद्य की बुद्धिमानी और ज्ञान के ऊपर निर्भर है। फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि जल, शक्कर, तेल और रोशनी ही विशुद्ध-सूर्य चिकित्सा है। इसमें औषधि आदि का समावेश नहीं है। अन्य दवाओं में रंगों का भी प्रयोग कर लेना, यह तो औषधि चिकित्सकों की अपनी मर्जी पर है।
सूर्य चिकित्सा ने उनके प्राण बचाए और नवीन जीवन प्रदान किया। जिन रोगों में सर्जरी की आवश्यकता है, उन्हें छोड़कर शेष रोग सूर्य चिकित्सा से अच्छे हो सकते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि यह चिकित्सा प्रणाली बिल्कुल निर्दोष है। अन्य चिकित्सक अन्य प्रकार की विषैली, अप्राकृतिक और तीक्ष्ण औषधियां देकर एक रोग को कुछ समय के लिए अच्छा कर देते हैं, पर वह औषधि ही फिर दूसरे रोग का कारण बन जाती है।
उदाहरण के लिए कुनैन से ज्वर चला जाता है, पर दाह, जलन, कानों में बहरापन, सिर भिन्नाते रहना, गर्मी का प्रकोप आदि दूसरे रोग आ घेरते हैं। ‘डस्प्रीन’ सिर दर्द को दूर कर देती है, पर बाद में दिल के ऊपर नया हमला होता है। सूर्य चिकित्सा इस प्रकार के रोगों से मुक्त है। वह गिरी हुई दीवार को ईंट-ईंट करके चिनती है और कुछ ही दिनों में मजबूत इमारत खड़ी कर देती हैं। अफीम पड़ी हुई बाजीकरण औषधियां खाकर जिन्होंने कुछ दिनों स्तंभन का सुख भोगा था, वे कुछ ही दिनों में शरीर की मूल शक्ति खो बैठे और पीछे सिर धुन-धुन कर पछताए। सूर्य चिकित्सा से बीमारी अच्छी होने में दूसरी औषधि के मुकाबले में कुछ क्षण अधिक लग सकते हैं, परंतु जो लाभ होगा वह स्थाई होगा।
सच बात तो यह है कि सूर्य चिकित्सा द्वारा ही सबसे जल्दी आराम होता है। एक रोग के, एक-सी स्थिति के, दो मरीजों को लिया जाए और एक का इलाज सूर्य चिकित्सा से और दूसरे का अन्य पद्धतियों से किया जाए और उसका अंतिम परिणाम देखा जाए तो पता चलेगा कि तीक्ष्ण एवं विषैली दवाओं से एक रोग दब गया, किंतु दूसरा उठ खड़ा हुआ, उसे ठीक करने पर फिर समय लगा। निश्चय ही उतने समय में सूर्य चिकित्सा द्वारा उपचारित दूसरा रोगी स्वस्थ हो गया। इस प्रकार यह आरोप ठीक नहीं कहा जा सकता है कि इस पद्धति से रोगी देर में अच्छे होते हैं। कुछ देरी होती भी है तो वह केवल पुराने रोगों में, जो रोग पुराने नहीं हैं, उनमें तो बहुत ही जल्दी लाभ होता है।
कई बार तो जादू की तरह बीमारियां अच्छी होती देखी जाती हैं। यह कहना ठीक नहीं, किरणों द्वारा तैयार पानी आदि में बहुत थोड़ी ही शक्ति हो सकती है, उसी भ्रम में यदि चिकित्सक भी रहा तो रोगी संकट में पड़ सकता है। लाल रंग का तैयार किया हुआ पानी यदि अधिक तादाद में पी लिया जाए तो दस्त लग जाएंगे और रोगी गर्मी के मारे बेचैन हो जाएगा। कभी-कभी तो मुंह या पेशाब के रास्ते खून तक जाने लगता है। नीला पानी अधिक पी जाने से जुकाम, सर्दी पसली में दर्द, खांसी, जोड़ों में दर्द आदि उपद्रव हो सकते हैं।
चिकित्सकों को सावधान किया जाता है कि वे इस भ्रम में न रहें कि इस जल, शक्कर या रोशनी को ज्यादा कम मात्रा में देने से कोई विशेष हानि लाभ नहीं है। साधारणतः बड़े आदमी के लिए ढाई तोले जल की मात्रा दिन में दो से तीन बार देनी चाहिए। एक वर्ष से कम उम्र के बच्चे को 3 माशे, एक वर्ष से पांच वर्ष तक के बच्चे को 6 माशे, पांच से बाहर वर्ष तक के बच्चे को एक तोला, बारह से सोलह वर्ष तक के दो तोले, उससे ऊपर उम्र वालों को ढाई तोले जल की मात्रा देनी चाहिए। रंगीन कांच द्वारा रोशनी देनी हो तो छोटे बच्चों को एक मिनट, बड़े बच्चों को दो मिनट और जवान आदमी को पांच मिनट, दोपहर से पूर्व की रंगीन धूप देनी चाहिए। जब शक्कर देनी हो तो उम्र के हिसाब से एक माशे से लेकर छह माशे तक देनी चाहिए। तेल और घी बाहरी अंगों में लगाने के काम आते हैं, इसलिए इनकी कोई मात्रा नियत नहीं है।
जहां जितना लगाने की जरूरत है वहां उतना काम में लेना चाहिए। दर्द को दूर करने और नसों को प्रभावित करने के लिए तेलों की मालिश की जाती है और घी मरहम की तरह काम में लाया जाता है। पथ्य की तरह रंगीन दूध का उपयोग होता है। दूध को सिर्फ एक घंटा प्रातःकाल की धूप देनी चाहिए। दोपहर बाद की धूप दूध के लिए अनुपयुक्त है। शुद्ध, स्वच्छ, धारोष्ण दूध को साफ बोतल में बंद करके पानी की तरह धूप में रखना चाहिए और एक घंटे बाद इसे प्रयोग करना चाहिए। यह दूध जवान आदमी को अधिक से अधिक 250 मि.ली. दिया जा सकता है।
कुछ औषधि चिकित्सक अपनी दवाओं को सूर्य शक्ति से भी संपन्न करना चाहते हैं जिससे वे अधिक गुणकारी हो जाएं। वे ऐसा कर सकते हैं, उन्हें क्वाथ कल्क 2 घंटे, अर्क अवलेह 6 घंटे, काष्ठादि चूर्ण, गोलियां, पाक, घृत 8 घंटे, तेल दो दिन और रसों को एक सप्ताह धूप देकर सूर्य शक्ति से संपन्न करना चाहिए। यह चिकित्सक को निर्णय करना चाहिए कि किस औषधि का क्या गुण है और उसके अनुसार किरणों का रंग देना चाहिए। इसके विपरीत गरम औषधि में नीला रंग मिश्रित किया जाए तो वह ठण्डे गरम का मिश्रण होने से गुणहीन हो जाएगी।
गरम औषधि को यदि अधिक शक्तिशाली बनाना है तो उसे लाल रंग ही देना चाहिए। औषधि का गुण और उनके अनुसार रंग चुनना यह वैद्य की बुद्धिमानी और ज्ञान के ऊपर निर्भर है। फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि जल, शक्कर, तेल और रोशनी ही विशुद्ध-सूर्य चिकित्सा है। इसमें औषधि आदि का समावेश नहीं है। अन्य दवाओं में रंगों का भी प्रयोग कर लेना, यह तो औषधि चिकित्सकों की अपनी मर्जी पर है।