• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • देह प्रकृति
    • अग्नि
    • साम-निराम
    • रस (षट्रस)
    • मल, स्वेद, मूत्र एवं पुरीष
    • आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र
    • आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु
    • आयुर्वेद का प्रयोजन
    • आयुर्वेद का इतिहास
    • सृष्टि का विकास क्रम
    • पंचमहाभूत
    • त्रिदोष
    • वात
    • पित्त
    • कफ
    • मानस दोष
    • सप्तधातु
    • धातु समवृद्धि के लक्षण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • देह प्रकृति
    • अग्नि
    • साम-निराम
    • रस (षट्रस)
    • मल, स्वेद, मूत्र एवं पुरीष
    • आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र
    • आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु
    • आयुर्वेद का प्रयोजन
    • आयुर्वेद का इतिहास
    • सृष्टि का विकास क्रम
    • पंचमहाभूत
    • त्रिदोष
    • वात
    • पित्त
    • कफ
    • मानस दोष
    • सप्तधातु
    • धातु समवृद्धि के लक्षण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


सृष्टि का विकास क्रम

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last

यह कार्य ईश्वर के कार्य करने की इच्छा से होता है । इसका प्रारंभिक क्रम यह है कि यह परमाणुओं में प्रारंभ होती है । परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है, इससे सूक्ष्म अवयव नहीं होते तथा परमाणु नित्य है-पृथ्वी, जल, तेज, वायु के परमाणु होते हैं । सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं । ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है ।
ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है । चरक के अनुसार-

ज्ञः साक्षीप्युच्यते नाज्ञः साक्षी ह्यात्मा यतः स्मृतः ।
                  सवेर्  भावा  हि  सवेर्षां  भूतानामात्मसाक्षिकाः॥   - (च०शा०१/८३)

इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, पुरुष का संयोग ही सृष्टि के उदय और संयोग निवृत्ति ही सृष्टि प्रलय का कारण है-

रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवात् ।
                          ताभ्यां  निराकृताभ्यां  तु  सत्ववृद्धया  निवतर्ते॥   -  (च०शा०१/३६)

रजोगुण और तमोगुण के योग से यह चतुर्विंशति राशि रूप संयोग अनन्त है, सत्वगुण की वृद्धि तथा रजोगुण और तमोगुण की निवृत्ति से पुरुष रूप यह संयोग निवतिर्त होकर मोक्ष हो जाता है ।

अर्थात् अव्यक्त से महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्रा से पंच महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ इस प्रकार सभी तत्वयुक्त सृष्टि के आदि में पुरुष उत्पन्न होता है । प्रलयकाल में अव्यक्त रूप प्रकृति में बुद्धयादि तत्व लय को प्राप्त हो जाते है ।

इस प्रकार अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का क्रम रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होकर पुनः-पुनः उदय प्रलय रूप में चक्र की भाँति घूमता रहता है । यही सृष्टि के विकास अर्थात् उदय महाप्रलय और मोक्ष का क्रम शास्त्र सम्मत है ।

चरक मतानुसार सर्ग क्रम

महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि के प्रारंभ में सवर्प्रथम 'अव्यक्त' तत्व पुनः उसे ''बुद्धि तत्व'' बुद्धि तत्व से ''अहंकार'' उत्पन्न होता है । इसी प्रकार अहंकार से जो त्रिविध होता है, पञ्चतन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वाङ्ग की उत्पत्ति आदि सृष्टि के आरंभ काल में अभ्युदित होती है । यथा-

   जायते बुद्धिरव्याक्ताद् बुद्धयाऽहमिति मन्यते ।
परं खादीन्यहङ्कारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम् ।
                          ततः सम्पूणर्सवार्ङ्गो जातोऽभ्यदित उच्यते॥  -  (च०शा०१/६६)
     अव्यक्त-(पुरुष संसृष्ट अव्यक्त नाम मूल प्रकृति)
     महान् व बुद्धितत्व
     अहंकार
     सूक्ष्म पञ्चमहाभूत (पञ्चतन्मात्राएँ)
     पञ्चमहाभूत
     एकादश इन्दि्रयाँ
     इन्द्रियाँ पञ्चमहाभूत से युक्त हैं, चरकानुसार पाञ्चभौतिक हैं ।

सुश्रुत एवं सांख्य सम्मत सृष्टि विकास क्रम
अव्यक्त नाम की प्रकृति है । मूल प्रकृति इसका अपर पर्याय है । सभी प्राणियों का कारण स्वयं अकारण (कारण रहित सत्व, रज, तम स्वरूप आठों रूपों वाला- अव्यक्त, महान्, अहंकार और पंचतन्मात्रारूप ) सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त नाम की प्रकृति है । यह अनेक क्षेत्रज्ञ कर्म पुरुष का अधिष्ठान उसी प्रकार है-जिस प्रकार एक समुद्र अनेक नदियों का स्थान है ।
उस अव्यक्त से उन्हीं लक्षणों वाला अर्थात् सत्व, रज, तम स्वरूप महान कार्य उत्पन्न होता है । उस महान अर्थात् महत् तत्व से सत्व, रज, तम लक्षणों वाला अहंकार उत्पन्न होता है ।

वह अंहकार तीन प्रकार का होता है- 

     १.   वैकारिक - (सात्विक),
     २.   तेजस - (राजस् ),
     ३.   भूतादि - (तामस् ) ।
इनमें वैचारिक अंहकार तथा तेजस अंहकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों वाली (सात्विक+राजस) एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । ये इन्द्रियाँ इस प्रकार हैं -१. श्रोत, २. त्वक्, ३. चक्षु, ४. रसन  एवं ५. घ्राण  ये पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ हैं । १. वाक् (वाणी), २. हस्त, ३. उपस्थ, ४. गुदा  एवं ५. पाद ( पैर ) ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा एक मन  जो ज्ञानेन्द्रि एवं कर्मेन्द्रि दोनों है, उत्पन्न होते हैं । मन हमारी ज्ञानेन्द्रियोँ-कर्मेन्द्रियोँ का आश्रय पाकर हमारे कार्य-कलापों को सम्पादन करता रहता है ।

इसी प्रकार तामस् और राजस् , अहंकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों से युक्त पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है- शब्द, स्पर्श, रूप, रस  एवं गंध  तन्मात्रा । इन तन्मात्राओं के क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी  ये पाँच महाभूत उत्पन्न हुए ।

इस प्रकार ये कुल मिलाकर चौबीस तत्व कहे गये हैं ।
अतः अव्यक्त, महान्, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ ये कुल आठ प्रकृति और शेष षोडश विकार कहे गये हैं ।

सुश्रुत एवं सांख्य सम्मत सृष्टि विकास क्रम-

     अव्यक्त-(मूल प्रकृति एक एवं त्रिगुणात्मक)     महान     अहंकार
     वैकारिक (सात्विक), तेजस (राजस् ), भूतादि (तामस् )

सहायता से
१ मन, ५ ज्ञानेन्दि्रयाँ, ५ कमेर्न्दि्रयाँ, पंच तन्मात्रा = एकादश इन्द्रियाँ-पंच महाभूत


प्रकृति एवं पुरुष
सतवरजस्तमस्यां साम्यावस्था प्रकृतिः । - (सा०द०१/६१)
सत्व, रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है । प्रकृति से ही महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्राएँ एवं दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ एवं मन तथा तन्मात्राओं से स्थूल महाभूत इस प्रकार ये २४ तत्व उत्पन्न होते हैं । पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है, जो प्रकृति का कारण है । जो प्रकृति के संयोग से ही बनता है ।

सृष्टि के विकास क्रम में प्रकृति एवं पुरूष का संयोग सवर्प्रथम सांख्य दशर्न में वणिर्त है । आयुर्वेद के विद्वानों ने इन दोनों तत्वों को अव्यक्त नाम से एक तत्व माना है । क्योंकि जो मूल प्रकृति होती है वह सदैव अव्यक्त रहती है और सभी का उत्पादक कारण इसलिए इसे अपरा प्रकृति भी कहा जाता है ।

प्रक्ररोरीति प्रकृतिः, -तत्वान्तरोपादानत्व प्रकृतित्वम्, -सत्व रजसतमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, -मूल प्रकृति विकृतिः॥
अथार्त् जो किसी वस्तु को उत्पन्न करने वाला हो परन्तु उसका कोई उत्पादक कारण न हो उसे प्रकृति कहते हैं या इसे मूल प्रकृति कहते हैं ।

जो अन्य तत्वों का उपादान कारण हो अर्थात् जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करता है उसे प्रकृति कहते हैं, जैसे मूल प्रकृति ।
जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करते हैं तथा स्वयं भी उत्पन्न होते हैं वही प्रकृति विकृति है ।

प्रकृति के प्रकार-
प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है-
     १. मूल प्रकृति,
     २. भूत प्रकृति ।
मूल प्रकृति को अव्यक्त माना जाता है । इसे ही सुश्रुत ने कहा है ।
सर्वभूतानां कारणं कारण सत्वरजस्तमो, लक्षणमष्टरूपस्य अखिलस्य जगतः, संभवहेतुरव्यक्तं नाम ।      -  (सु०)
इसमें मूल प्रकृति अव्यक्त ही रहती है तथा भूत प्रकृति स्थावर और जंगम भूत द्रव्यों को उत्पन्न करने वाली होती है ।

सांख्यदर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रकृति है । यथा-

मूल प्रकृतिविकृतिमर्हदाद्या प्रकृति विकृतयः सप्त ।
                      षोडकस्तु  विकारो   न   प्रकृतिनर्  विकृतिः   पुरुषः॥  - (सा०का०३)

ईश्वर कृष्ण ने प्रकृति, विकृति एवं पुरुष को चार भागों में विभक्त कर वणर्न किया है-
     १. प्रकृति,
     २. प्रकृति-विकृति,
     ३. केवल विकृति,
     ४. न प्रकृति न विकृति ।
यहाँ जो मूल प्रकृति है जिसे अपर माना जाता है और जो हमेशा अव्यक्त रूप में रहती है वही प्रधान प्रकृति कही जाती है । यह किसी से उत्पन्न न होने के कारण विकार रहित होती है, इसीलिए यह समस्त संसार का कारण है । इसी से महदादि तेइस तत्वों की उत्पत्ति होती है । महान् अहंकार तथा पंचतन्मात्राएँ ये सातों तत्व प्रकृति- विकृति उभय रूप हैं ।

कारण यह है कि महान् अव्यक्त से उत्पन्न होता है और अहंकार को उत्पन्न करता है, तथा तन्मात्राएँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं तथा महाभूतों को उत्पन्न करती हैं । मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ तथा पाँच महाभूत, ये सोलह विकार हैं- पच्चीसवां तत्व पुरुष है जो न प्रकृति है न विकृति है अर्थात् पुरुष न किसी को उत्पन्न करता है और न किसी से उत्पन्न ही होता है । यह कार्य कारण रहित है ।
सांख्य दशर्न सम्मत पञ्चविंशति तत्व-

१. अव्यक्त नाम मूल प्रकृति - केवल प्रकृति एक
२. महान् विकृति, प्रकृति अहंकार अभय रूप - सात पञ्चतन्मात्रा
३. पञ्च ज्ञानेन्दि्रय पञ्च कर्मेन्द्रियाँ उभयात्मकं मन केवल विकृति सोलह पञ्च महाभूत
४. पुरुष - प्रकृति- विकृति दोनों से भिन्न एक

समस्त अव्यक्त आदि एकत्व का जो वर्ग होता है वह अचेतन है । पुरुष पच्चीसवाँ तत्व है । वह पुरुष कार्यस्वरूप मूल प्रकृति से संयुक्त होकर अचेतन कर्म का चैतन्य कारक होता है । अचेतन होते हुए भी मूल प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष के मोक्ष के लिए होती है । क्योंकि चैतन्य युक्त पुरुष और प्रकृति के संयोग से उससे उत्पन्न हुए सभी तत्व चेतनायुक्त हो जाते हैं । जब तक प्रकृति पुरुष से अधिष्ठित नहीं होती तब तक उससे महदादि तत्व उत्पन्न नहीं होते । पुरुष सचेतन होते हुए भी निष्क्रय और प्रकृति क्रियावर्ती होते हुए भी अचेतन के कारण दोनों संयुक्त हुए बिना स्वतंत्र रूप से सर्गोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं ।

सृष्टि का कार्य सचेतन पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से ही प्रारंभ होता है ।

प्रकृति-पुरुष का साधर्म्य-वैधर्म्य
समान धर्म अर्थात् एक जैसे गुण एवं समानताएँ साधर्म्य कही जाती है तथा विपरीत एवं विभिन्न गुण असमान धर्म वैधर्म्य कहा जाता है । पुरुष और प्रकृति में कितनी समानता एवं असमानता है, महर्षि सुश्रुत के अनुसार इस प्रकार है-

साधर्म्यः-  प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि, अनन्त, निराकार, नित्य, अपर तथा सर्वगत एवं सर्वव्यापक है ।

''न विद्यते अपरो याभ्यां तौ अपरौ''
वैधर्म्यः-  प्रकृति एक अचेतन त्रिगुणात्मिका सत्वरजस्तमोरुप, बीजधर्मिणी, प्रसवधर्मिणी तथा अमध्यस्थधर्मिणी है ।

बीजधर्मिणी-  सभी महदादि विकारों के बीजभाव से अवस्थित अर्थात् ''बीजस्यधर्मो बीजधर्म सोऽस्या अस्तीति बीजधमिर्का ।'' बीज में जैसे वृक्षोस्पत्ति का धर्म होता है, ठीक उसी प्रकार सगोर्त्पत्ति का धर्म जिसमें हो वैसी प्रकृति है ।

प्रसवधर्मिणी-  महदादि तत्वों की समस्त चराचर सृष्टि को जन्म देने का धर्म जिसमें उपस्थित हो उसी तरह प्रकृति होती है ।

अमध्यस्थ धर्मिणी-  अर्थात् सत्व आदि गुणों की राशि सुखादि रूप से सुख की अभिलाषा करती हुई एवं दुःख से द्वेष करती हुई अमध्यस्थ होती है । प्रकृति सत्वादि रूप होने से मध्यस्थ नहीं है ।

पुरुषः- पुरुष शब्द से महदादि कृत सूक्ष्म लिङ्ग शरीर कहा जाता है, जो योगियों को ही दृश्य है, उस पुर अथार्त् शरीर में सोने से ही पुरुष कहा जाता है ।

पुरुष बहुत चेतनावान, अणुठा, अबीज, धर्मा, अप्रसवधर्मा तथा अमध्यस्थधर्मा और निविर्कार होता है । जिसे कि महर्षि चरक ने कहा है कि-

निविर्कारः परस्त्वात्मा सत्वभूत गुणेण्दि्रयैः ।
परन्तु महषिर् सुश्रुत ने इसे इस प्रकार माना है कि पुरुष अनुमान ग्राह्य है । वे परम सूक्ष्म चैतन्यस्वरूप तथा नित्य हैं । पञ्चभौतिक शुक्रशोणित संयोग में प्रकट होते हैं । इसी कारण सूक्ष्म पुरुष और पञ्च महाभूत का संयोग ''पञ्चमहाभूत शरीरिसमवाय पुरुष'' कहा गया है । परन्तु पुरुष की उत्पत्ति हुई किससे? इस सम्बन्ध में महर्षि चरक का कहना है कि ''अनादि परमात्मा का प्रभव (कारण) कोई नहीं है, अर्थात् जब उसका कारण हो जाएगा, तो उसे अनादि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके पहले कारण वतर्मान रहेगा ।'' अतः राशि पुरुष-मोह, इच्छा, द्वेष कर्म से उत्पन्न होता है ।

''पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छादुषकमर्जः'' - (च०शा०१/५३)

पुरूष के प्रकार- महर्षि चरक के अनुसार पुरुष तीन प्रकार का माना गया हैः-
     १-   चेतना धातुज
     २-   षड्धातुज
     ३-   चतुर्विंशति तत्त्वात्मक
इसमें षड्धातुज और चतुर्विंशति तत्त्वात्मक को एक ही माना जाता है, जिसे राशि पुरुष कहते हैं, सकारण होता है । परन्तु चेतना धातु पुरुष जिसे परमात्मा कहते हैं, वह नित्य अनादि होता है । और जो अनादि है, उसका कोई कारण नहीं होता ।

इसी प्रकार सुश्रुत शारीर स्थान में कहा गया है-

''सवर्भूतानां कारणमकारणं सत्वरजस्तमो लक्षणं ।''  - सु०शा०)
अथार्त- अव्यक्त को सबका कारण और उसका कोई कारण नहीं, ऐसा माना है । सुश्रुत ने अव्यक्त शब्द से प्रकृति और पुरुष दोनों का ग्रहण किया है ।

डल्हण के अनुसार- सूक्ष्म पुरुष और पञ्चमहाभूतों का संयोग ही आयुर्वेद में 'षड्धातुज' पुरुष कहा गया है । यही कर्म पुरुष है, जो कर्मफल भोगता है । यही चिकित्साधिकृत है, अर्थात् इसी की चिकित्सा होती है और यही चिकित्सित कर्मफल को प्राप्त करता है ।

''शरीरादिव्यतिरिक्तिः पुमान्'' - (सां०द० १/१३९)
शरीर, (मन) बुद्धि से पुरुष भिन्न है ।
'अधिष्ठानच्येति । ' - (सा.द. १-१४२)

पुरुष देहादि पर अधिष्ठाता है । अधिष्ठाता होने से भी वह देहादि से भिन्न है । इसीप्रकार आगे भी सांख्यदर्शनकार ने कहा है कि वह भोक्ता होने तथा देह छोड़कर मोह की इच्छा करने से देहादि पर अधिष्ठाता है, अतः वह स्वयं भिन्न है ।

''जन्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम्'' - (सा०द० १/१४९) ।
जन्मादि व्यवस्था- अर्थात् पुरुष के जन्म-मरण से एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जाने से यह सिद्ध होता है कि 'पुरुष' एक विभु सर्वव्यापक होता है, तो देह से निकलना, आना-जाना आदि व्यवस्था न होती । इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक है, एक नहीं ।

''पुरुष बहुत्वम् व्यवस्थातः'' - (सा०द०६/४५)
अतः व्यवस्था से पुरुष का बहुत होना सिद्ध है । यदि पुरुष एक होता तो जन्म-मरण व्यवस्था दृष्टिगोचर न होती । किन्तु व्यवस्था तो ऐसी है कि कोई जन्म लेता है, तो कोई मृत्यु को प्राप्त होता है । इससे पुरुष का बहुत होना पाया जाता है ।

इस प्रकार जितने भी पुरुष तथा उसकी सत्ता है, उन सभी में श्रेष्ठ या चिकित्साधिकृत पुरुष- राशि पुरुष ही है, जिसे आधार माना गया है तथा इसी २४ तत्त्वों के संयोग से जो पुरुष बनता है, उसे राशि पुरुष कहा गया है ।

राशि पुरुष के २४ तत्व- बुद्धि, इंद्रिय (अथार्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कमे) इनके योग (संयोग अर्थात मिलाप) को धारण करने वाले को 'पर' जानना चाहिए, इस चतुर्विंशति तत्त्व की राशि को पुरुष कहते हैं ।

बुद्धीन्दि्रयमनोऽथार्नां विद्याद्योगधरं परं ।
                         चतुर्विंशतिको   हेष   राशिः    पुरुषसंज्ञकः ॥  - (च०शा० १/३५)

इसमें पुरुष को २४ तत्वों की राशि बताई है, परन्तु मूल में २४ तत्व स्पष्ट नहीं है । यहाँ बुद्धि से तात्पर्य- महत् तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ ये- ७ लिए जाते हैं । इंद्रिय से ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय तथा १ मन । अर्थ से यहाँ विषय (शब्दादि) न लेकर ५ महाभूत लिए जाते हैं । 'पर' शब्द से अव्यक्त लिया गया है । इसप्रकार बुद्धि से ७+मन सहित इंद्रियाँ ११ ५ महाभूत १ अव्यक्त, ये सब मिलाकर २४ तत्व का यह राशि पुरुष माना जाता है ।

इस राशि पुरुष की परम्परा अनन्त है । रज एवं तम से संयुक्त पुरुष का यह बुद्धि, इंद्रिय, मन और अर्थ का संयोग अथवा २४ तत्वों का संयोग अनन्तवान् होता है । अर्थात् इस संयोग का कभी अंत नहीं होता । रज और तम हट जाने पर और सत्वगुण के बढ़ जाने से तो मोक्ष हो जाता है । सभी कर्मादि का आधार राशि पुरुष ही है । इसलिए-

          सत्वमात्मा     शरीरं    च    त्रयमेतत्त्रिण्डवत् ।
          लोकस्तिष्ठति संयोगात तत्र सर्व प्रतिष्ठितम्॥

पुरुष को प्रकृति का कारण माना जाता है । यदि कर्त्ता और ज्ञाता पुरुष न हो तो 'भा' (प्रतिभा), तम (मोह), सत्य-असत्य, वेद, शुभ- अशुभ कर्म नहीं होंगे । यदि पुरुष को न माना जायगा, तो न आश्रय (आत्मा का आश्रय शरीर), न सुख, न अर्ति (दुःख), न गति (स्वगर् या मोक्ष को प्राप्त करना), न आगति, न पुनर्जन्म, वाक् विज्ञान, जन्म- मृत्यु, बंधन, न ही मोक्ष होगा । इसलिए पुरुष को कारण बताया गया है ।
तीन प्रकार के पुरुषों में २४ तत्वात्मक पुरुष को ही कारण माना गया है, ऐसा गंगाधर का सिद्धान्त है ।
चक्रपाणि के अनुसार अव्यक्त आत्मा- अथार्त् चेतना धातु को कारण माना है, परन्तु केवल आत्मा किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि आत्मा को तब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक वह २४ तत्वों से संयोग नहीं करता है । यथाः-

 ''आत्मा ज्ञः करणैयोर्गाज्ज्ञ्नं त्वस्य प्रवतर्ते'' ।



First 4 6 Last


Other Version of this book



आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

ચિર યૌવનનું રહસ્યોદ્દઘાટન
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...

Real Joy of Entertainment -
Type: SCAN
Language: EN
...

Real Joy of Entertainment -
Type: SCAN
Language: EN
...

Real Joy of Entertainment -
Type: SCAN
Language: EN
...

Real Joy of Entertainment -
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • देह प्रकृति
  • अग्नि
  • साम-निराम
  • रस (षट्रस)
  • मल, स्वेद, मूत्र एवं पुरीष
  • आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र
  • आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु
  • आयुर्वेद का प्रयोजन
  • आयुर्वेद का इतिहास
  • सृष्टि का विकास क्रम
  • पंचमहाभूत
  • त्रिदोष
  • वात
  • पित्त
  • कफ
  • मानस दोष
  • सप्तधातु
  • धातु समवृद्धि के लक्षण
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj