
1—आद्यशक्ति गायत्री
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ब्रह्म एक है। उसकी इच्छा क्रीड़ा-कल्लोल की हुई। उसने एक से बहुत बनना चाहा, यह चाहना-इच्छा ही शक्ति बन गई। इच्छा शक्ति ही सर्वोपरि है। उसी की सामर्थ्य से यह समस्त संसार बन कर खड़ा हो गया है। जड़-चेतन दृष्टि के मूल में परब्रह्म की जिस आकांक्षा का उदय हुआ, उसे ब्राह्मी शक्ति कहा गया। यही गायत्री है। संकल्प से प्रयत्न, प्रयत्न से पदार्थ का क्रम सृष्टि के आदि से बना है और अनन्त काल से चला आया है। प्रत्यक्ष तो पदार्थ ही दीखता है। पदार्थों पर ही हम अनुभव और उपयोग करते हैं। यह स्थूल हुआ। सूक्ष्म दर्शी वैज्ञानिक जानते हैं कि पदार्थ की मूल सत्ता अणु संगठन पर आधारित है। यह अणु और कुछ नहीं, विद्युत तरंगों से बने हुए गुच्छक मात्र हैं। यह सूक्ष्म हुआ। उससे गहराई में उतरने वाले तत्वदर्शी-अध्यात्म वेत्ता जानते हैं कि विश्व व्यापी विद्युत तरंगें भी स्वतन्त्र नहीं हैं, वे ब्रह्म चेतना की प्रतिक्रिया भर हैं। जड़ जगत की पदार्थ सम्पदा में निरन्तर द्रुतगामी हलचलें होती हैं। इन हलचलों के पीछे उद्देश्य, संतुलन, विवेक, व्यवस्था का परिपूर्ण समन्वय है। ‘इकॉलाजी’ के ज्ञाता भली प्रकार जानते हैं कि सृष्टि के अन्तराल में कोई अत्यन्त दूरदर्शी, विवेकयुक्त सत्ता एवं सुव्यवस्था विद्यमान है। इसी सामर्थ्य की प्रेरणा से दृष्टि की समस्त हलचलें किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए गतिशील रहती हैं। यही सत्ता ‘आद्यशक्ति’ है—इसी को गायत्री कहा गया है। साक्षी, दृष्टा, निर्विकार, निर्विकल्प, अचिन्त्य, निराकार, व्यापक ब्रह्म की सृष्टि व्यवस्था जिस सामर्थ्य के सहारे चलती हैं, वही गायत्री है।
गायत्री त्रिपदा है। गंगा-यमुना सरस्वती के संगम को तीर्थ राज कहते हैं। गायत्री मन्त्रराज है। सत्-चित्-आनन्द—‘‘सत्यं-शिवं-सुन्दरम्’’, सत-रज-तम, ईश्वर-जीव-प्रकृति, भूलोक, भुवःलोक स्वःलोक का विस्तार त्रिपदा है। पदार्थों में ठोस, द्रव, वाष्प प्राणियों में जलचर, थलचर, नभचर—सृष्टिक्रम के उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन, गायत्री के ही तीन उपक्रम हैं। सर्दी, गर्मी, वर्षा की ऋतुएं, दिन-रात्रि-संध्या—तीन काल में महाकाल की हलचलें देखी जा सकती हैं। प्राणाग्नि-कालाग्नि, योगाग्नि के रूप में त्रिपदा की ऊर्जा व्याप्त है।
स्टष्टि के आदि में ब्रह्मा का प्रकटीकरण हुआ—यह ॐकार है। ॐकार के तीन भाग हैं—अ उ म्। उसके तीन विस्तार भूः-भुवः-स्वः हैं। उनके तीन चरण हैं। इस प्रकार शब्द ब्रह्म ही पल्लवित होकर गायत्री मन्त्र बना।
पौराणिक कथा के अनुसार सृष्टि के आदि में विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्हें आकाश वाणी द्वारा गायत्री मन्त्र मिला और उसकी उपासना करके सृजन की क्षमता प्राप्त करने का निर्देश हुआ। ब्रह्मा ने सौ वर्ष तक गायत्री का तप करके दृष्टि रचना की शक्ति एवं सामग्री प्राप्त की। यह कथा भी शब्द ब्रह्म की भांति गायत्री को ही आद्य शक्ति सिद्ध करती है। ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग के अन्तर्गत संसार की समस्त विचार सम्पदा और भाव विविधता त्रिपदा गायत्री की परिधि में ही सन्निहित है।
आद्य शक्ति के साथ सम्बन्ध मिलाकर साधक सृष्टि की समीपता तक जा पहुंचता है और उन विशेषताओं से सम्पन्न बनता है जो पर ब्रह्म में सन्निहित हैं। परब्रह्म का दर्शन एवं विलय ही जीवन लक्ष्य है। यह प्रयोजन आद्य शक्ति की सहायता से संभव होता है।
आद्यशक्ति का साधक पर अवतरण ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होता है और साधक ब्रह्मर्षि बन जाता है। नर पशुओं की प्रवृत्तियां, वासना, तृष्णा, अहंता के कुचक्र में परिभ्रमण करती रहती हैं। नर देवों की अन्तरात्मा में निष्ठा, प्रज्ञा एवं श्रद्धा की उच्च स्तरीय आस्थाएं प्रगाढ़ बनती हैं और परिपक्व होती चली जाती हैं। निष्ठा अर्थात् सत्कर्म, प्रज्ञा अर्थात् सद्ज्ञान। श्रद्धा-अर्थात् सद्भाव। इन्हीं की सुखद प्रतिक्रिया-तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में साधक के सामने आती है। तृप्ति अर्थात् संतोष, तुष्टि अर्थात् समाधान। शान्ति अर्थात् उल्लास उच्च स्तरीय भाव संवरण की उपलब्धि होने पर साधक सदा अपनी आस्थाओं का आनन्द लेते हुए रस विभोर हो जाता है। शोक-संताप से उसे आत्यन्तिक छुटकारा मिल जाता है। आद्यशक्ति की शरणागति के लिए बढ़ता हुआ हर कदम साधक को इन्हीं विभूतियों से लाभान्वित करता चलता है।