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Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

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प्रवेश से पहले जानें अथ का अर्थ

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समाधिपाद - १
प्रवेश से पहले जानें अथ का अर्थ

योग साधकों के लिए सबसे पहले साधना के प्रवेश द्वार की पहचान जरूरी है। क्योंकि यही वह महत्त्वपूर्ण स्थल है, जहाँ से योग साधना की अन्तर्यात्रा शुरू होती है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में इसी के बारे में गूढ़ संकेत दिए हैं। इस प्रथम सूत्र में उन्होंने योग साधना की पूर्व तैयारियों, साधना में प्रवेश के लिए आवश्यक आवश्यकताओं एवं अनिवार्यताओं का ब्योरा सूत्रबद्ध किया है। समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद तथा १९५ सूत्रों वाले योगदर्शन की आधारशिला यही पहला सूत्र है --

अथ योगानुशासनम्॥ १/१॥

यानि कि अब योग का अनुशासन।

योग सूत्रकार महर्षि के एक- एक शब्द को ठीक से समझना जरूरी है। क्योंकि महावैज्ञानिक पतंजलि एक भी शब्द का निरर्थक प्रयोग नहीं करते। इस सूत्र में पहला शब्द है- अथ। योग सूत्र की ही भाँति अथ शब्द ब्रह्मसूत्र में भी आया है। ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ यही पहला सूत्र है महर्षि  बादरायण व्यास का। इसमें से अथ शब्द की व्याख्या में आचार्य शंकर एवं आचार्य रामानुज ने सुदीर्घ व्याख्याएँ की हैं। अपनी भारी मतभिन्नता के बावजूद दोनों आचार्य अथ के महत्त्व के बारे में एकमत हैं। जिन्हें सचमुच ही साधना में प्रवेश करना है, उन्हें अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि अथ को समझकर साधक का जीवन अर्थवान बनता है। बिना अथ को समझे वह पूरी तरह से अर्थहीन रह जाता है।

‘अथ’- यानि कि ‘अब’। अब साधक के जीवन में वह पुण्य क्षण है, जब उसके हृदय में उठने वाली योग साधना के लिए सच्ची चाहत अपने चरम को छूने लगी। उसकी अभीप्सा की ज्वालाओं का तेज तीव्रतम हो गया। उसकी पात्रता की परिपक्वता हर कसौटी पर खरी साबित हो चुकी। उसका शिष्यत्व पूरी तरह से जाग उठा। उसकी पुकार में वह तीव्रता और त्वरा आ गयी कि सद्गुरु उससे मिलने के लिए विकल- बेचैन हो उठे।

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में ‘अथ’ का पुण्य क्षण १५ वर्ष की आयु में ही आ गया। वह पात्रता और पवित्रता की हर कसौटी पर पिछले जन्मों से ही खरे थे। श्री रामकृष्ण परमहंस, समर्थ स्वामी रामदास, संत कबीर के रूप में उन्होंने योग साधना के सत्य को पूरी तरह जिया था। अपने जीवन को इसकी अनुभूतियों के रस में डूबोया था। फिर भी उन्हें इस बार भी अपनी पात्रता को सिद्ध करना पड़ा, जो उन्हीं की भाषा में ‘पिसे को पीसा जाना था।’ उनकी जाग्रत् चेतना की पुकार इतनी तीव्र हो उठी कि उनके सद्गुरु हिमालय के गुह्यक्षेत्र से भागे चले आए।

उन्होंने इस सत्य को बताते हुए अपनी आत्मकथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में लिखा ‘हमें गुरु के लिए भाग दौड़ नहीं करनी पड़ी। हमारे गुरुदेव तो स्वयं ही हम तक दौड़े चले आए।’ यह है महॢष पतंजलि के योग सूत्र के प्रथम सूत्र के प्रथम शब्द को समझ लेने का चमत्कार। ‘अथ’ के रहस्य को जान लेने की अनुभूति। इसके प्रयोग को सिद्ध कर लेने का सच। गुरुदेव ने जगह- जगह पर अपने साहित्य में लिखा है, स्थान- स्थान पर अपने प्रवचनों में कहा है कि हमारी मंशा अपने गुरु की जेब काटने की नहीं थी। हम तो उन्हें अपना शिष्यत्व समर्पित करना चाहते थे। हमारे अन्दर तो एक ही ख्वाहिश, एक ही अरमान था, सच्चा शिष्य बनने का। बस, हम तो अपने गुरु के हो जाना चाहते थे। अपनी तो बस एक ही चाहत थी, बस एक ही नाता रहे, एक ही रिश्ता बचे—गुरु और शिष्य का।

जीवन यदि भ्रान्तियों से उबर सका, यदि साधक आशा रहित हो सका, यदि देह के स्थान पर आत्मा की प्यास जग सकी, यदि वह हो सका, जिसे पश्चिम के मेधा सम्पन्न दार्शनिक कीर्केगार्द ने तीव्र व्यथा कहा है। यदि सारे सपने विलीन हो चुके हैं, नींद भली प्रकार टूट चुकी है, और यदि ऐसा क्षण आ गया है, तो पतंजलि कहते हैं- अब योग का अनुशासन। केवल अब तुम योग के विज्ञान को, योग के अनुशासन को समझ सकते हो।

यदि ऐसा क्षण नहीं आया, तो किए चले जाओ योगशास्त्रों का अध्ययन, बन जाओ महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, लच्छेदार प्रवचन देकर उठाते रहो सुनने वालों की तालियों का आनन्द, लेकिन योगी नहीं बन सकते। योगशास्त्र पर पी- एच.डी. कर सकते हो, करा सकते हो, लेकिन कभी योगी न बनोगे। अथ का पुण्य क्षण अभी तुम्हारे लिए नहीं आया है। क्योंकि यह रुचि बौद्धिक है, साधक के प्राणों से पनपी अभीप्सा के उजाले से कोसों दूर। ध्यान रहे, योग कुछ नहीं है, अगर यह अनुशासन नहीं है। योग कोई शास्त्र नहीं है, योग अनुशासन है। यह कुछ ऐसा है, जिसे तुम्हें करना है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है, यह दार्शनिक चिन्तन भी नहीं है। यह इन सबसे कहीं गहरा है। यह तो सवाल है—जीवन और मरण का।

‘अथ’ का पुण्य क्षण उनके जीवन में भी नहीं आ सकता, जो योग को सत्य नहीं, सिद्धि समझते हैं। जो सोचते हैं कि लौकिक न पा सके, तो अलौकिक पा लो। या फिर लौकिक वैभव तो बटोरा ही, अब अलौकिक भी बटोर लो। ध्यान रहे चमत्कारों की चाहत रखने वाले, चमत्कारी बनने की महत्त्वाकांक्षाओं को सँजोने वाले बाजीगर तो बन सकते हैं, परन्तु अथ का पुण्य पल तो तभी आता है, जब यह अच्छी तरह से महसूस होने लगता है कि सारी दिशाएँ अस्त- व्यस्त हो गयी हैं, सारी राहें खो गयी हैं, भविष्य की कल्पनाएँ, जल्पनाएँ अब नहीं बचीं। इच्छाओं, आशाओं और सपनों की सारी गतियाँ समाप्त हो चुकी हैं- अब योग का अनुशासन। और यदि ‘अब’ नहीं आया, तो योग के कितने भी रहस्य लिखे जाएँ, लेकिन वे पढ़कर भी समझे न जा सकेंगे। ‘अथ’ का एक ही मतलब है- सच्चा शिष्यत्व, खरी पात्रता।

साधक के जीवन में यदि वह ‘अथ’ आ चुका है, तो उसे योग का अनुशासन बताने वाला सद्गुरु भी मिलेगा। अध्यात्म जगत् का यह वैज्ञानिक सत्य है, सौ फीसदी खरा और परखा हुआ सच है कि जिसमें शिष्यत्व ने जन्म ले लिया है, उसे सद् गुरु मिले बिना नहीं रहेंगे। और शिष्यत्व को अर्जित किए बिना यदि सद् गुरु मिल भी गए, तो भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। बंजर भूमि पर डाले गए बीज बेकार चले जाते हैं, कोई समझदार बीजों को बंजर भूमि पर डालता भी नहीं है। साधक की अन्तर्भूमि उर्वर है, अन्तर्चेतना ग्रहणशील एवं उपजाऊ बन चुकी है, तो उसमें योग के बीज बोने वाले सद्गुरु अपने आप ही आ जाते हैं। वह आते हैं, शिष्य को योग का अनुशासन देने के लिए।

अनुशासन का मतलब है, होने की क्षमता, जानने की क्षमता, सीखने की क्षमता। परम पूज्य गुरुदेव की इन तीनों क्षमताओं को परखकर ही उनके हिमालय वासी सद्गुरु ने उन्हें २४ लाख के २४ गायत्री महापुरश्चरणों में प्रवृत्त किया। गुरुदेव के जीवन का पहला सच समझने के लिए हमें इन तीनों क्षमताओं का रहस्य जानना होगा। पतंजलि कहते हैं, यदि तुम अपना शरीर हिलाए बिना मौन रहकर कुछ घण्टे बैठ सकते हो, तब तुम्हारे भीतर होने की क्षमता बढ़ जाती है। अभी तो स्थिति यह है कि एक घण्टे भी बिना हिले- डुले नहीं बैठा जा सकता। अभी तो समूचा अस्तित्त्व एक कंपित ज्वरग्रस्त हलचल भर है। होने का अर्थ है, कुछ किए बिना बस ठहर जाओ, बिना कुछ किए, बिना किसी गति के, बिना किसी हलचल के। यह होना ही जानने की क्षमता विकसित करता है।

पन्द्रह वर्ष की किशोर वय में प्रतिदिन छः घण्टे एक आसन पर बैठकर नियमित गायत्री जप गुरुदेव के इसी ‘होने’ की क्षमता का परिचायक था। जानने की क्षमता तब आती है, जब मन अगतिमान होता है। साधक जब केन्द्रस्थ होता है, तभी वह जान सकता है। अभी तो सामान्य मनोदशा एक भीड़ की है। और इसी कारण गुरजिएफ ने कहा कि सामान्य व्यक्ति वादा नहीं कर सकता, संकल्प नहीं कर सकता, क्योंकि यह सब तो साधकों के गुण हैं, शिष्यत्व के लक्षण हैं।

गुरजिएफ के पास लोग आते और कहते—अब मैं व्रत लूँगा। उसके शिष्य औस्पेन्सकी ने लिखा है कि वह जोर से हँसता और कहता ‘इससे पहले कि तुम कोई प्रतिज्ञा लो, दो बार फिर सोच लो। क्या तुम्हें पूरा आश्वासन है कि जिसने वादा किया है, वह अगले क्षण भी बना रहेगा?’ तुम कल से सुबह तीन बजे उठने का निर्णय कर लेते हो और तीन बजे तुम्हारे भीतर कोई कहता है, झंझट मत लो। बाहर इतनी सर्दी पड़ रही है। और ऐसी जल्दी भी क्या है? मैं यह कल भी कर सकता हूँ और तुम फिर सो जाते हो। दूसरे दिन सारे पछतावे के बावजूद यही स्थिति फिर से दुहराई जाती है। क्योंकि जिसने प्रतिज्ञा की, वह सुबह तीन बजे वहाँ होता ही नहीं, उसकी जगह कोई दूसरा ही आ बैठता है। अनुशासन का मतलब है, भीड़ की इस अराजक अव्यवस्था को समाप्त कर केन्द्रीयकरण की लयबद्धता उत्पन्न करना और तभी जानने की क्षमता आती है।

संकल्पवान ही आत्मतत्त्व को जान पाते हैं। गुरुदेव का समूचा जीवन इसी संकल्प का पर्याय था। उनके समूचे जीवन में, अन्तर्चेतना में अविराम लयबद्धता थी; तभी उनके गुरु ने उन्हें जो अनुशासन दिया, वह बड़ी प्रसन्नतापूर्वक पालन करते रहे। अनुशासन से मिलता- जुलता अंग्रेजी का शब्द है- डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बड़ा सुन्दर है। यह उसी जड़, उसी उद्गम से आया है, जहाँ से डिसाइपल शब्द आया है। इससे यही प्रकट होता है कि अनुशासन शिष्य का सहज धर्म है। केन्द्रस्थ, लयबद्ध, संकल्पवान व्यक्ति ही गुरु के दिए गए अनुशासन को स्वीकार, शिरोधार्य कर सकता है। ऐसे ही व्यक्ति के अन्दर विकसित होती है, जानने की क्षमता।

सत्य और तत्त्व से अनभिज्ञ लोग संकल्पवान होने का मतलब हठी होना समझ लेते हैं। पर नहीं, अंतस् में केन्द्रित होने के साथ आवश्यक है—विनम्रता, ग्रहणशीलता और सद्गुरु की चेतना की ओर खुला होना। जो तैयार है, सचेत है, प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है, उसी में सीखने की क्षमता आती है। यह सीखना गुरु के सान्निध्य में होता है। सद्गुरु के हृदय में जल रही सत्य की ज्योति के संस्पर्श से ही शिष्य के हृदय की ज्योति जलती है। यही है सत्संग का मतलब। वैसे तो सत्संग बहुप्रचलित शब्द है, लेकिन अर्थ कम लोगों को मालूम है। इस शब्द का प्रयोग प्रायः गलत ही किया जाता है।
सत्संग का मतलब है—सत्य का गहरा सान्निध्य। इसका अर्थ है, सत्य के पास होना, उन सद्गुरु के अनुशासन में रहना, जो सत्य से एकात्म है। बस सद्गुरु के निकट बने रहना, खुले हुए, ग्रहणशील और प्रतीक्षारत। यदि साधक की यह प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती है, तब एक गहन आत्ममिलन घटित होता है। इसके लिए जरूरी नहीं है कि सदा ही गुरु से शारीरिक निकटता हो। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में- उन्हें जीवन भर में सिर्फ तीन बार अपनी गुरुसत्ता से मिलने का सौभाग्य मिला; पर आत्म- मिलन अबाध, अविराम और सतत था। दरअसल गुरु के बताए गए अनुशासनों में उनकी चेतना तरंगित होती है। इन्हें स्वीकारने और अपनाने का अर्थ है- उनकी चेतना को स्वीकारना और अपनाना। ‘अथ’ के घटित होते ही, शिष्यत्व के प्रकट होते ही साधक को एक अलग ही भाषा समझ में आने लगती है। तब शारीरिक निकटता जरूरी नहीं है, क्योंकि नयी भाषा है ही गैर शारीरिक। तब दूरी से कोई फर्क नहीं पड़ता, शिष्य एवं गुरु का सम्पर्क बना रहता है। केवल स्थान की दूरी ही नहीं, समय से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। गुरु का शरीर न रहे, लेकिन शिष्य का सम्पर्क तब भी बना रहता है। भौतिक शरीर को त्यागने के बावजूद भी गुरु- शिष्य बड़े मजे से मिलते रहते हैं। बिना किसी बाधा या व्यवधान के उनमें भावों एवं विचारों का आदान- प्रदान चलता रहता है।

यह चमत्कार है—योग के अनुशासन का। गुरु द्वारा दिए गए व्रतबन्ध को श्रद्धापूर्वक स्वीकारने से शिष्य के जीवन में अनेकों चमत्कार घटते हैं। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन स्वयं ही इसका जीता- जागता प्रमाण रहा। कोई गुरु कभी भी अपने शिष्य से दूर नहीं होता। वह कभी मरता नहीं उनके लिए, जो श्रद्धा सहित उसके अनुशासन को स्वीकार कर सकते हैं। वह मदद करता रहता है। वह हमेशा यहाँ ही होता है—शिष्य के पास। उसका सच्चा वासस्थान तो अपने शिष्य का हृदय होता है। प्रेम, श्रद्धा एवं आस्था स्थान और समय दोनों को मिटा देती है। अनुशासन देने वाला गुरु और प्राणपण से गुरु के अनुशासन को मानने वाला शिष्य दोनों एकदम पास- पास होते हैं। उनमें सदा ही सत्संग चलता रहता है।

‘अथ योगानुशासनम्’ के सूत्र का सार यही है- शिष्यत्व का जन्म और सद्गुरु की प्राप्ति। शिष्यत्व और सद्गुरु जब मिलते हैं- तभी योग साधना का प्रारम्भ होता है। अन्तर्यात्रा का विज्ञान जन्म लेता है। अस्तित्व में अनूठे प्रयोग शुरू होते हैं। महर्षि पतंजलि के इस प्रथम सूत्र को जो नहीं समझ पाते, योग साधना का प्रवेश द्वार उनके लिए कभी भी नहीं खुलता। परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में भी यह द्वार इसी रीति से खुला था। ‘अथ’ शब्द की समझ ने, और योग अनुशासन की स्वीकार्यता ने ही उन्हें महायोगी बनाया। अपने सुदीर्घ साधनामय जीवन का निष्कर्ष बताते हुए उन्होंने लिखा- अध्यात्म एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। इसके प्रयोगों के लिए हमें एक सच्चे वैज्ञानिक की भाँति सत्यान्वेषी बनना होगा। अध्यात्म की भाषा में शिष्यत्व ही इसका पर्याय और कसौटी है।

इन पंक्तियों को पढ़कर अपनी योग साधना प्रारम्भ करने वाले साधकों के लिए इस सूत्र की साधना के व्यावहारिक बिन्दु निम्र है- १. इस समझ को आत्मसात करना ही योग सत्य की प्राप्ति है, सिद्धि की प्राप्ति नहीं। २. ‘अथ का पुण्य क्षण’ लाने के लिए गुरुदेव को पुकारना, उनकी कृपा का आह्वान करना। ३. योग के प्राथमिक अनुशासन के रूप में किसी सुखप्रद आसन (सुखासन, पद्मासन आदि) पर देर तक बैठकर गायत्री महामंत्र को जपने का अभ्यास, ४. इस विवेक पथ का अनुशीलन करके भी यदि अभी तक हमें योग की अनुभूति नहीं हो सकी है, तो इसका एक मात्र कारण यह है कि अपनी पात्रता अभी परिपक्व नहीं है, इसे परिपक्व करने के प्रयास में प्राणपण से जुटना।

इस सम्बन्ध में और अधिक व्यावहारिक ज्ञान पाने के लिए शान्तिकुञ्ज पत्र लिखकर परामर्श किया जा सकता है। अथवा फिर यहाँ नियमित रूप से संचालित होने वाले साधना सत्रों में भागीदारी करके अपनी जिज्ञासा का समाधान पाया जा सकता है। योग अपने आप में क्या है? इसे अच्छी तरह से जाने बिना इसकी सच्ची साधना असम्भव है। पर आत्मा में शिष्यत्व के जन्म के बिना यह जाना भी नहीं जा सकता।
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