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Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

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क्या होगा मंजिल पर?

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इस जिज्ञासा का अंकुरण सहज है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाले योगी की क्या भाव दशा होती है? इसका समाधान करते हुए महर्षि तीसरा सूत्र प्रकट करते हैं। यह तीसरा सूत्र है-

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥ १/३॥

इस सूत्र का शब्दार्थ कुछ यूँ होगा- तदा=तब (वृत्तियों का निरोध होने पर); द्रष्टुः= द्रष्टा की; स्वरूपे=स्वरूप में; अवस्थानम्=अवस्थिति (होती है)।
यह योगी की भावदशा है। चित्तवृत्ति निरोध की योग साधना का सुफल है। किसी भी योग साधक की साधना का लक्ष्य है। महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे व्यक्तित्व हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। उनको मनुष्य की कमियों, कमजोरियों, अच्छाइयों व विशेषताओं के बारे में भली प्रकार पता है। उन्हें मानव चेतना की सीमाएँ मालूम हैं, तो सम्भावनाएँ भी ज्ञात हैं। योग सूत्रकार महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। उसके मन में हर पल उत्साह उमगता रहता है। लक्ष्य का स्वरूप स्पष्ट होने से ही पथ अर्थवान् होता है, राहें गुणवान् बनती हैं। मंजिल का ही पता न हो, तो भला राही किधर जाएगा? उसके पाँवों की सारी मेहनत मंजिल के अभाव में भटकन की थकन बन कर रह जाएगी।

यही वजह है कि महर्षि योग साधक के सामने सबसे पहले उसका लक्ष्य स्पष्ट करते हैं। साधकों को बताते हैं कि तुम्हारा मकसद क्या है? तुम्हारी मंजिल कौन सी है? योग क्या है? और योगी कैसा होता है? यह लक्ष्य ही तो साधना की दिशा है। योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है। इसी कारण वह पहले समाधिपाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। अन्य दोनों पादों का क्रम इनके बाद आता है। समाधिपाद के इस तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं, चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है।

यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगियों का कैवल्य है। जीवन में समस्त प्रश्रों का समाधान करने वाली समाधि है। ज्ञानियों की चरम दशा है। विभिन्न साधनाओं के नाना पथ इसी एक लक्ष्य की ओर जाते हैं। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था-

सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं,
छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ,
अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है।
धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब,
धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है।
बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य,
‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है।

मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी में स्थित होकर साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है। कर्म और जीवन का, भाव और विचारों का, देह, प्राण, मन, सृष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का साक्षी बनता है।

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सूत्र का जागरण अपने सद्गुरु से प्रथम मिलन में ही हो गया। वह जन्मों- जन्मों की योग साधना से सिद्ध थे। महात्मा कबीर, समर्थ रामदास, श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में उन्होंने योग के सभी तत्त्वों का सम्यक् बोध प्राप्त किया था। इस बार तो उन्हीं की भाषा में- ‘सिर्फ पिसे को पीसना था, कुटे को कूटना था, बने को बनाना था। यानि कि किए हुए का पुनरावलोकन करना था। सद्गुरु की कृपा की किरण उतरी बस एक पल में हो गया।’ अपनी इस अनुभूति को गुरुदेव यदा- कदा हँसते हुए बता देते थे। वह कहते- ‘तुम लोग एक बार यदि बहुत अच्छी तरह से साइकिल चलाना सीख जाओ, तुम्हें खूब ढंग से साइकिल चलाना आ जाए। फिर तुम्हारी साइकिल यदि किसी तरह बदल जाय या बदल दी जाय, तो नई साइकिल में किसी तरह की कठिनाई नहीं आती है। बस थोड़ी देर बाद नयी साइकिल भी पुरानी वाली की तरह अच्छे से चलने लगती है।’

गुरुदेव बताते थे, बस कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। अपने स्वरूप में स्थिति तो सदा से थी। पिछले जन्मों से थी। इस नए शरीर में भी उसके लिए कोई खास कठिनाई नहीं हुई। लेकिन हम सब साधकगण इसे किस रीति से पाएँ? इसके जवाब में वह एक बात कहा करते थे- सारा परदा मन का है। मन के इस परदे को हटा दो, फिर सब कुछ साफ- साफ नजर आने लगता है। द्रष्टा भाव भी वही है, आत्मस्वरूप में स्थिति भी वही है। बस, मन की झिलमिल के कारण नजर नहीं आ पाती। बात पते की है। समझ में भी आती है। लेकिन यह हो कैसे? मन का परदा हटे, तो कैसे हटे। महर्षि पतंजलि भी यही कहते हैं कि चित्तवृत्तियों का निरोध हो, तो योग सध जाय। योग साधना का सुफल मिल जाय। अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाय। लेकिन सवाल है कि यह सब हो तो कैसे हो?

         इस कठिन सवाल का बड़ा आसान सा जवाब गुरुदेव देते थे। वह कहते मैंने अपने मन को अपने मार्गदर्शक का गुलाम बना दिया। तुम अपने मन को अपने सद्गुरु का गुलाम बना दो। उन्हें अर्पित और समर्पित कर दो। तुम ऐसा कर सके- इसकी एक ही कसौटी है कि अब तुम अपने लिए नहीं सोचोगे। न अतीत के लिए परेशान होगे, न वर्तमान के लिए विकल होगे और न ही भविष्य की चिन्ता करोगे। तुम्हारे लिए जो कुछ जरूरी होगा, वह सद्गुरु स्वयं करेंगे। तुम्हें तो बस अपने गुरु का यंत्र बनना है। इस संकल्प के कार्यरूप में परिणत होते ही महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का अर्थ प्रकट होने लगता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध होने, मन का परदा हटने व स्वरूप में अवस्थित होने का सत्य अपने आप ही उजागर हो जाता है।

इस सूत्र की साधना अन्तर्चेतना में कुछ इस तरह से स्वरित होती है-

महर्षि पतंजलि का सूत्र

बना अपने सद्गुरु का स्वर
इसका समग्र अर्थ
अन्तर्चेतना में तब होता भास्वर
जब हमारा मन
उसका हर स्पन्दन
करता गुरुदेव को समर्पण
न बचती कोई कल्पना
न कामना, न याचना
होती बस एक ही प्रार्थना
प्रभु, बनें हम आपके यंत्र
समर्पण की वर्णमाला
एकमात्र मंत्र
इसका सुफल
होता जीवन में अविकल
आत्मस्वरूप में अवस्थिति
तब बनती जीवन स्थिति!

समर्पण हुआ है, इसका मतलब यही है कि अब मन सद्गुरु के चिन्तन एवं उनके कार्यों में संलग्र हो गया। किसी भी तरह के स्वार्थ का मोह छूटा, अहंता के सारे बन्धन टूटे। ऐसे में आत्मस्वरूप में अवस्थिति सहज है। इस भाव दशा में मन रूपान्तरित हो जाता है। उसकी दृष्टि एवं दिशा बदल जाती है। समर्पण की इस साधना के द्वारा अपने स्वरूप को जा
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