
कल्पना में भी है अक्षय ऊर्जा का भंडार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन जागृति का संदेश देने के पश्चात् समाधिपाद के नवें सूत्र में योग सूत्रकार महर्षि तीसरी वृत्ति का खुलासा करते हुए कहते हैं-
शब्द ज्ञानानुयाती वस्तु शून्यो विकल्पः॥ १/९॥
अर्थात् शब्दों के जोड़ से हर एक का परिचय है। हम सभी अपने जीवन के क्षणों को कल्पनाओं से सँवारते रहते हैं। कई बार ये कल्पनाएँ हमारे अतीत से जुड़ी होती हैं और कई बार हम इन कल्पनाओं के धागों से अपने भविष्य का ताना- बाना बुनते हैं। हम में से बहुसंख्यक कल्पना करने के इतने आदी हो चुके हैं कि मन ठहरने का नाम ही नहीं लेता। किसी भी कार्य से उबरते ही कल्पनाओं के हिडोंले में झूलने लगता है। भाँति- भाँति की कल्पनाएँ, रंग- बिरंगी और बहुरंगी कल्पनाएँ, कभी- कभी तो विद्रूप और भयावह कल्पनाएँ चाहे- अनचाहे हमारे मन को घेरे रहती हैं। कभी हम इनकी सम्मोहकता में खो जाते हैं, तो कभी इनकी भयावहता के समक्ष हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्थिति यहाँ तक है कि कल्पना रस हमारा जीवन रस बन चुका है।
कल्पना रस में डूबे और विभोर रहने के बावजूद हमने इसे ठीक तरह से पहचाना नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहा करते थे- कल्पनाएँ सदा ही कोरी और खोखली नहीं होती, इन्हें ऊर्जा व शक्ति के स्रोत के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। जो योगी ऐसा कर पाते हैं, वे ही सही ढंग से मन की विकल्प वृत्ति का सदुपयोग करना जानते हैं। कैसे किया जाय यह सदुपयोग? इस प्रश्र का पहला बिन्दु है कि कल्पना में निहित शक्ति को उसकी सम्भावनाओं को पहचानिये। यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की कल्पना ही तो है, हम सब उसके सनातन अंश हैं। ऐसी स्थिति में हमारी कल्पनाओं में भी सम्भावनाओं के अनन्त बीज छुपे हैं।
कल्पना में समायी शक्ति की सम्भावनाओं पर विश्वास करने के बाद दूसरा बिन्दु है- कल्पनाओं की दिशा। गुरुदेव का कहना था हमें सदा ही विधेयात्मक कल्पनाएँ करनी चाहिए, क्योंकि निषेधात्मक कल्पनाएँ हमारी अन्तःऊर्जा को नष्ट करती हैं, जबकि विधेयात्मक कल्पनाएँ हमारे अन्तःकरण को विशद् ब्रह्माण्ड की ऊर्जा धाराओं से जोड़ती हैं। उसे ऊर्जावान् और शक्तिसम्पन्न बनाती है। इस तकनीक का तीसरा बिन्दु है - कल्पनाओं को अपनी अभिरुचि के अनुसार अन्तः भावनाओं अथवा विवेकपूर्ण विचार से जोड़ना। इस प्रक्रिया के परिणाम बड़े ही सुखद और आश्चर्यजनक होते हैं। अन्तः भावनाओं से संयुक्त होकर कल्पना कला को जन्म देती है, जबकि विवेकपूर्ण विचार से जुड़कर कल्पना शोध की सृष्टि करती है।
काव्य कला सहित विश्व- वसुधा की समस्त कलाएँ प्रायः इसी रीति से जन्मी, पनपी एवं विकसित हुई हैं। विश्व को चमत्कृत कर देने वाली शोध सृष्टि भी कल्पनाओं के तर्कपूर्ण विवेकयुक्त विचार से सम्बद्ध होने से हुई है। अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण विचार से कल्पना के जुड़ने से इन दोनों के अलावा एक अन्य सुखद परिणति भी होती है और वह परिणति है- जीवन जीने की कला का विकास। जीवन में एक अपूर्व कलात्मकता,लयबद्धता का सुखद् जन्म। इस सत्य से प्रायः बहुत कम लोग परिचित हो पाते हैं, लेकिन जो परिचित हो जाते हैं- उनका जीवन सुमधुर काव्य की भाँति सुरीला, संगीत की तरह लययुक्त एवं नवीन शोध की भाँति आश्चर्यजनक उपलब्धियों का भण्डार हो जाता है।
उचित कल्पना का संस्पर्श पाकर जीवन बड़े ही आश्चर्य रीति से बदल जाता है। यह बदलाव ऐसा होता है, जैसे कि पारस लोहे के काले- कलूटे टुकड़े का छूकर सुगन्धित स्वर्ण बना दिया हो। कहानी एमिली जेन की है, जो पहले अपने बचपन में कूड़ा- करकट बीनती थी और बाद में विश्व विख्यात अभिनेत्री बन गयी। उसकी जीवन कथा- ‘वन्डर ऑप वर्ड्स’ के लेखक जेम्स एलविन का कहना है कि एमिली जब छोटी थी एक दिन वह कूड़ा- करकट से कुछ बीन रही थी। बीनती- बीनती वह थक गयी। साथ कुछ लड़के- लड़कियाँ और भी थे। मनोरंजन के लिए सब मिलकर नाचने लगे। तभी वहाँ से अनविन रोजर्ट का गुजरना हुआ।
रोजर्ट ने बच्चों के बीच नृत्य करती हुई एमिली को देखा। उसे संकेत से पास बुलाया और धीरे से कहा—प्यारी बच्ची! तुम अद्वितीय हो, सौंदर्य और कला का अपूर्व मिश्रण तुममें है। तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकती? सचमुच ही मैं कुछ भी कर सकती हूँ? एमिली ने पूछा। हाँ, तुम कुछ भी कर सकती हो। इस एक कल्पना ने अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण, विवेक- युक्त विचारों से मिलकर एमिली को नया जन्म दिया, वह एमिली जो कला की देवी मानी जाने लगी। तभी तो परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- कल्पना को ख्याली पुलाव मत बनाओ। उसे अपनी शक्ति समझो। अपना ऊर्जा स्रोत बनाओ।
कल्पनाओं को यूँ भटकने देना, यूँ ही बहकने देना और उस बहाव में स्वयं भी भटकने व बहने लगना न केवल कल्पना शक्ति की बर्बादी है, बल्कि इससे जीवन भी बर्बाद होता है। ऐसे में विकल्प की यह वृत्ति क्लेश उत्पादक बन जाती है। लेकिन इसका सदुपयोग होने से यह क्लेश निवारक बन जाती है। बस, सब कुछ हम साधकों पर है कि उसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाते हैं या फिर उसे बाधक बने रहने देते हैं। हमारी योग साधना के खरे होने की कसौटी इसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाने में है। इस विकल्प वृत्ति की साधना यदि बहिर्मुखी हो तो हमें सांसारिक उपलब्धियों के वरदान देती है और यदि इसे अन्तर्मुखी करलें, कल्पना हमारी धारणा का स्वरूप ले ले, तो हमें यौगिक विभूतियों के वरदान देती है।
शब्द ज्ञानानुयाती वस्तु शून्यो विकल्पः॥ १/९॥
अर्थात् शब्दों के जोड़ से हर एक का परिचय है। हम सभी अपने जीवन के क्षणों को कल्पनाओं से सँवारते रहते हैं। कई बार ये कल्पनाएँ हमारे अतीत से जुड़ी होती हैं और कई बार हम इन कल्पनाओं के धागों से अपने भविष्य का ताना- बाना बुनते हैं। हम में से बहुसंख्यक कल्पना करने के इतने आदी हो चुके हैं कि मन ठहरने का नाम ही नहीं लेता। किसी भी कार्य से उबरते ही कल्पनाओं के हिडोंले में झूलने लगता है। भाँति- भाँति की कल्पनाएँ, रंग- बिरंगी और बहुरंगी कल्पनाएँ, कभी- कभी तो विद्रूप और भयावह कल्पनाएँ चाहे- अनचाहे हमारे मन को घेरे रहती हैं। कभी हम इनकी सम्मोहकता में खो जाते हैं, तो कभी इनकी भयावहता के समक्ष हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्थिति यहाँ तक है कि कल्पना रस हमारा जीवन रस बन चुका है।
कल्पना रस में डूबे और विभोर रहने के बावजूद हमने इसे ठीक तरह से पहचाना नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहा करते थे- कल्पनाएँ सदा ही कोरी और खोखली नहीं होती, इन्हें ऊर्जा व शक्ति के स्रोत के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। जो योगी ऐसा कर पाते हैं, वे ही सही ढंग से मन की विकल्प वृत्ति का सदुपयोग करना जानते हैं। कैसे किया जाय यह सदुपयोग? इस प्रश्र का पहला बिन्दु है कि कल्पना में निहित शक्ति को उसकी सम्भावनाओं को पहचानिये। यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की कल्पना ही तो है, हम सब उसके सनातन अंश हैं। ऐसी स्थिति में हमारी कल्पनाओं में भी सम्भावनाओं के अनन्त बीज छुपे हैं।
कल्पना में समायी शक्ति की सम्भावनाओं पर विश्वास करने के बाद दूसरा बिन्दु है- कल्पनाओं की दिशा। गुरुदेव का कहना था हमें सदा ही विधेयात्मक कल्पनाएँ करनी चाहिए, क्योंकि निषेधात्मक कल्पनाएँ हमारी अन्तःऊर्जा को नष्ट करती हैं, जबकि विधेयात्मक कल्पनाएँ हमारे अन्तःकरण को विशद् ब्रह्माण्ड की ऊर्जा धाराओं से जोड़ती हैं। उसे ऊर्जावान् और शक्तिसम्पन्न बनाती है। इस तकनीक का तीसरा बिन्दु है - कल्पनाओं को अपनी अभिरुचि के अनुसार अन्तः भावनाओं अथवा विवेकपूर्ण विचार से जोड़ना। इस प्रक्रिया के परिणाम बड़े ही सुखद और आश्चर्यजनक होते हैं। अन्तः भावनाओं से संयुक्त होकर कल्पना कला को जन्म देती है, जबकि विवेकपूर्ण विचार से जुड़कर कल्पना शोध की सृष्टि करती है।
काव्य कला सहित विश्व- वसुधा की समस्त कलाएँ प्रायः इसी रीति से जन्मी, पनपी एवं विकसित हुई हैं। विश्व को चमत्कृत कर देने वाली शोध सृष्टि भी कल्पनाओं के तर्कपूर्ण विवेकयुक्त विचार से सम्बद्ध होने से हुई है। अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण विचार से कल्पना के जुड़ने से इन दोनों के अलावा एक अन्य सुखद परिणति भी होती है और वह परिणति है- जीवन जीने की कला का विकास। जीवन में एक अपूर्व कलात्मकता,लयबद्धता का सुखद् जन्म। इस सत्य से प्रायः बहुत कम लोग परिचित हो पाते हैं, लेकिन जो परिचित हो जाते हैं- उनका जीवन सुमधुर काव्य की भाँति सुरीला, संगीत की तरह लययुक्त एवं नवीन शोध की भाँति आश्चर्यजनक उपलब्धियों का भण्डार हो जाता है।
उचित कल्पना का संस्पर्श पाकर जीवन बड़े ही आश्चर्य रीति से बदल जाता है। यह बदलाव ऐसा होता है, जैसे कि पारस लोहे के काले- कलूटे टुकड़े का छूकर सुगन्धित स्वर्ण बना दिया हो। कहानी एमिली जेन की है, जो पहले अपने बचपन में कूड़ा- करकट बीनती थी और बाद में विश्व विख्यात अभिनेत्री बन गयी। उसकी जीवन कथा- ‘वन्डर ऑप वर्ड्स’ के लेखक जेम्स एलविन का कहना है कि एमिली जब छोटी थी एक दिन वह कूड़ा- करकट से कुछ बीन रही थी। बीनती- बीनती वह थक गयी। साथ कुछ लड़के- लड़कियाँ और भी थे। मनोरंजन के लिए सब मिलकर नाचने लगे। तभी वहाँ से अनविन रोजर्ट का गुजरना हुआ।
रोजर्ट ने बच्चों के बीच नृत्य करती हुई एमिली को देखा। उसे संकेत से पास बुलाया और धीरे से कहा—प्यारी बच्ची! तुम अद्वितीय हो, सौंदर्य और कला का अपूर्व मिश्रण तुममें है। तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकती? सचमुच ही मैं कुछ भी कर सकती हूँ? एमिली ने पूछा। हाँ, तुम कुछ भी कर सकती हो। इस एक कल्पना ने अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण, विवेक- युक्त विचारों से मिलकर एमिली को नया जन्म दिया, वह एमिली जो कला की देवी मानी जाने लगी। तभी तो परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- कल्पना को ख्याली पुलाव मत बनाओ। उसे अपनी शक्ति समझो। अपना ऊर्जा स्रोत बनाओ।
कल्पनाओं को यूँ भटकने देना, यूँ ही बहकने देना और उस बहाव में स्वयं भी भटकने व बहने लगना न केवल कल्पना शक्ति की बर्बादी है, बल्कि इससे जीवन भी बर्बाद होता है। ऐसे में विकल्प की यह वृत्ति क्लेश उत्पादक बन जाती है। लेकिन इसका सदुपयोग होने से यह क्लेश निवारक बन जाती है। बस, सब कुछ हम साधकों पर है कि उसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाते हैं या फिर उसे बाधक बने रहने देते हैं। हमारी योग साधना के खरे होने की कसौटी इसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाने में है। इस विकल्प वृत्ति की साधना यदि बहिर्मुखी हो तो हमें सांसारिक उपलब्धियों के वरदान देती है और यदि इसे अन्तर्मुखी करलें, कल्पना हमारी धारणा का स्वरूप ले ले, तो हमें यौगिक विभूतियों के वरदान देती है।