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Books - बोया- काटा का अकाट्य सिद्धान्त

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बोया- काटा का अकाट्य सिद्धान्त

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बोया- काटा का अकाट्य सिद्धान्त

गायत्री मंत्र साथ- साथ बोलें-
ॐ भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

भाइयों, लगभग साठ वर्ष हो गए जब हमारे गुरुदेव घर पर आए थे और उन्होंने कई बातें बताई। शुरू में तो डर जैसा कुछ लगा, पर पीछे मालूम पड़ा कि वे पिछले तीन जनों से हमारे साथ रहे है, तब भय दूर हो गया और बातचीत शुरू हो गई। उन्होंने कहा, "अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए तुम्हें चौबीस लक्ष के २४ साल तक २४ पुरश्चरण करने चाहिए।" मैंने उनकी यह आज्ञा शिरोधार्य की और सब नियम, विधि वगैरह मालूम कर लिया कि किस प्रकार जौ की रोटी और छाछ पर रह करके २४ पुरश्चरण पूरे करने पड़ेंगे। यह पूरी जानकारी देने के बाद उन्होंने एक और बात कही जो बड़ी महत्त्वपूर्ण है। आज उसी के बारे में मैं आपको बताऊँगा।

उन्होंने कहा, "गायत्री मंत्र कइयों ने जपे हैं, कई लोग उपासना करते हैं, लेकिन ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ किसी के पास नहीं आती। जप कर लेते हैं और लोगों से बता देते हैं कि हमने गायत्री का जप कर लिया है, लेकिन न ऋद्धि न सिद्धि। हम तो तुम्हें इस तरह की गायत्री बताना चाहते है जिसमें ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ भी मिलें और इस जप से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने का लाभ भी मिले।" हमने कहा, "यह तो बड़े सौभाग्य की बात है। आप इतनी अच्छी बात बताएँगे, इससे अधिक अच्छा और सौभाग्य हमारे लिए क्या हो सकता है?" तब उन्होंने गायत्री के २४ पुरश्चरणों की विधि बताने के बाद में एक और नई बात बताई- "बोना और काटना।" उन्होंने कहा, ''तुम्हारे पास जो कुछ भी चीज है उसे भगवान के खेत में बोना शुरू करो, वह सौ गुना होकर फिर मिल जाएगा। ऋद्धि और सिद्धि का तरीका यही है, वे फोकट में कहीं नहीं मिलती। दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो ऋद्धियाँ- सिद्धियाँ बाँट रहा हो या कुछ कहीं से मिल रहा हो। इस तरह का कोई नियम नहीं है। बोने पर ही किसान काटता है। ठीक इसी तरीके से तुमको भी बोना और काटना पड़ेगा" कैसे? बताइए सब बातें। उन्होंने कहा, "देखो शरीर तुम्हारे पास है। शरीर माने श्रम और समय। इन्हें भगवान के खेत में बोओ।'' कौन सा भगवान? यह विराट भगवान जो चारों ओर समाज के रूप में विद्यमान है। इसके लिए तुम अपने श्रम, समय और शरीर को खरच कर डालो, वह सौ गुना होकर तुमको सब मिल जाएगा नंबर एक।

नंबर दो, बुद्धि तुम्हारे पास है। भगवान की दी हुई संपदाओं में अकल तुम्हारे पास है। इससे बजाय इस- उस बात का चिंतन करने, अहंकार का चिंतन करने, वासनाओं का चिंतन करने, बेकार की बातों का चिंतन करने की अपेक्षा, अपने चिंतन करने की जो सामर्थ्य है, उस सारी की सारी सामर्थ्य को भगवान के निमित्त लगा दो। उनकी खेती में बोओ, यह तुम्हारी बुद्धि सौ गुनी होकर तुमको मिल जाएगी।

तीसरी चीज है, भावनाएँ। मनुष्य के तीन शरीर हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इसमें से स्थूल शरीर से श्रम होता है, सूक्ष्म शरीर में बुद्धि होती है और कारण शरीर में भावनाएँ होती हैं। भावनाएँ भी तुम्हारे पास हैं, इन्हें अपने घरेलू आदमियों के साथ में खरच कर डालने की बजाय भगवान का जो सारा खेत है उद्यान है, उसमें बोओ और ये भावनाएँ तुम्हें सौ गुनी होकर के मिलेंगी। ये तीन चीजें- शरीर, बुद्धि और भावनाएँ भगवान ने दिए हैं किसी आदमी ने नहीं। एक और चीज है जो तुम्हारी कमाई हुई है, भले ही वह इस जन्म में कमाया हो या पिछले जन्म में। वह है 'धन।' धन भगवान किसी को नहीं देता। मनुष्य चाहे ईमानदारी से कमा ले या बेईमानी से कमा ले या मत कमाए, भगवान को इससे कोई लेना- देना नहीं है। धन जो तुम्हें मिला है शायद तुम्हारा कमाया हुआ नहीं है। मैंने कहा- मेरा कमाया हुआ कहाँ से हो सकता है? १४- १५ वर्ष का बच्चा कहाँ से धन कमाकर लाएगा। "अच्छा पिताजी का दिया हुआ धन है। इस सारे के सारे धन को भगवान के खेत में बो दो और यह सौ गुना होकर के मिल जाएगा।" बस मैंने गाँठ बाँध ली और ६० वर्ष से बँधी हुई वह गाँठ मेरे पास ज्यों की त्यों चली आ रही है। गायत्री उपासना के जब २४ साल से भी अधिक हो गए, उसके बाद भी बोने और काटने का यह सिलसिला बराबर चलता रहा। आप लोग भी अगर बोएँ तो आप भी सिद्धियों पाएँगे, ऋद्धियाँ पाएँगे जैसे कि मैंने पा लीं। भगवान के नियम सबके लिए समान हैं। सूरज के लिए सब आदमी एक समान हैं। जो नियम हमारे ऊपर लागू हुए हैं, वही आपके ऊपर भी लागू हो सकते हैं। आप भी ऋद्धि- सिद्धियों से सराबोर हो सकते हैं। यह चारों चीजें मेरे गुरु ने मुझे बताई थीं और मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ। इन चारों चीजों को अगर आप बोना शुरू करें तो वह सौ गुनी होकर के आपको मिलेंगी। मुझे तो मिल गया है और मैं अपनी गवाही देकर, साक्षी देकर आप में से हर एक आदमी को बताना चाहता हूँ कि जो बोएँगे वे काटेंगे और किसान के तरीके से फायदे में रहेंगे।

भगवान को आप क्या समझते हैं कि वे बाँटते फिरते हैं? बाँटते तो हैं, पर उससे पहले वे माँगते फिरते हैं। भगवान की इच्छा माँगने की है। भगवान शबरी के दरवाजे पर गए थे और उससे कहा था कि हम तो भूखे हैं कुछ हो तो खाने को ले आओ। शबरी के पास बेर थे भी उन्होंने ला करके दे दिए और कहा- हमारे पास यही हैं आप खा लीजिए। केवट के पास भगवान गए थे और कहा था- भाई साहब हमको तैरना नहीं आता, मेहरबानी करके हमको, लक्ष्मण और सीताजी को पार निकाल दीजिए। केवट ने निकाल दिया। भगवान माँगते फिरते हैं। वे सुग्रीव के पास भी गए थे और कहा था कि हमारी सीताजी को कोई चुरा ले गया है, उनका पता लगाने के लिए आप अपनी सेना हमको दे दें और ऐसा कुछ इंतजाम कर दे, जिससे हमारी धर्मपत्नी मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी। सुग्रीव ने वही किया, अपना सर्वस्व दे दिया उनको। हनुमान जी का भी यही हुआ। हनुमान जी से भी वे माँगते फिरे कि हमारा भाई बीमार हो गया है घायल हो गया है, उसके लिए आप दवा ले आइए। सीताजी को संदेश पहुँचा दीजिए, लंका से उनकी खबर ले आइए। राजा बलि की कहानी मालूम है आपको। वे बलि के पास गए थे और कहा था कि जो कुछ भी तुम्हारे पास है हमको दे दो। बलि ने कहा- क्या है हमारे पास? तब उन्होंने कहा था कि तुम्हारे पास जमीन है, उसमें से साढ़े तीन कदम हमको दे दो। नाप लिया भगवान ने और जो कुछ भी मालटाल था सारा छीन लिया।

गोपियों से बड़ी मोहब्बत थी उनकी। उनसे कहा- तुम्हारा दही और मक्खन कहाँ रखा है? गोपियाँ समझतीं थीं कि वे भगवान हैं तो सोने- चाँदी के जेवर लाएँ होंगे, कोई उपहार लाएँ होंगे, पर वे तो कुछ नहीं लाए। उलटे, उन्होंने जो कुछ भी मक्खन तथा दही जमा किया हुआ था, वह भी छीन लिया। कर्ण जब घायल पड़े हुए थे तब अर्जुन को लेकर भगवान उनके मैदान में जा पहुँचे और कहा- अरे कर्ण, हमने सुना था कि तुम्हारे दरवाजे पर से कोई आदमी खाली हाथ नहीं जाता। हम तो कुछ माँगने आए थे, पर तुम कुछ देने की हालत में मालूम नहीं पड़ते। कर्ण ने कहा- नहीं महाराज ! ऐसा मत कीजिए, खाली हाथ मत जाइए। मेरे दाँतों में सोना लगा हुआ है जिसे उखाड़कर मैं अभी देता हूँ आपको। उन्होंने एक पत्थर का टुकड़ा लिया और दोनों दाँत तोड़ करके एक अर्जुन के हाथ पर रखा और एक कृष्ण के। इसी तरह सुदामा जी की कहानी है। सुदामा जी को पत्नी ने उनको इसलिए भेजा था कि कृष्ण उनके मित्र हैं और वे उनसे कुछ माँगकर ले आएँ तो गुजारा चले। सुदामा जी गए तो इसी ख्याल से थे, लेकिन भगवान ने उनसे पूछा कि लाए हो या कुछ माँगने आए हो। हमारे दरवाजे पर माँगने वाले तो भिखारी आते हैं, पर तुम लाए क्या हो? पहले यह बताओ। देखा सुदामा जी के बगल में चावल की पोटली दबी थी। उस पोटली को भगवान ने उनसे माँग लिया और उस चावल को स्वयं खाया तथा अपने परिवार को खिलाया। जो कुछ भी सुदामा जी के पास था सब खाली कर दिया। बाद में उन्हें कुछ दिया होगा जरूर। गोपियों को भी दिया होगा, कर्ण को भी दिया होगा, बलि को भी दिया होगा। हनुमान, केवट, सुग्रीव सभी को दिया होगा, पर सबसे पहले उन्होंने लिया था।

भगवान जब कभी आते हैं, तब माँगते हुए आते हैं। भगवान के साक्षात्कार जब कभी आपको होंगे, तब यही मानकर चलना कि वह आपसे माँगते हुए आएँगे। संत नामदेव के पास भगवान कुत्ता का रूप बनाकर गए थे और सूखी रोटी लेकर के भागे थे, तब नामदेव ने कहा था- घी और लेते जाइए। देने के लिए उन्होंने अपना कलेजा चौड़ा किया। मेरे गुरु ने उसे यही कहा था। उसी वक्त से मैंने बात गिरह बाँध ली और लगातार जिन्दगी के इन ६० वर्षों में देता ही चला आया हूँ जो कुछ भी संभव हुआ है। देने में कोई नुकसान नहीं है। अगर अच्छी जगह बोया जाए तब लाभ ही लाभ है, लेकिन कहीं खराब जगह पर पत्थर पर बो दिया गया तब मुश्किल है। अच्छा खेत भगवान का खेत है, उसमें बोने से ज्यादा होकर मिलेगा। आपने देखा होगा कि बादल समुद्र से लेते हैं और वर्षा कर जाते हैं, पर क्या वे खाली रह जाते हैं? नहीं, समुद्र उन्हें दोबारा देता है। शरीर का चक्र भी इसी तरह का है। हाथ कमाता है और मुँह को दे देता है और मुँह पेट में पहुँचा देता है और वह खून बन जाता है। हाथ खाली रहा है क्या? नहीं हाथ के पास फिर दोबारा मांस के रूप में, रक्त के रूप में, हडिड्यों के रूप में, स्फूर्ति के रूप में वह ताकत आ जाती है जो उसने कमायी थी। दुनिया का ऐसा ही चक्र है। हम किसी को जो कुछ देते हैं, वह धूम- फिरकर हमारे पास फिर से आ जाता है। वृक्ष अपने फल, फूल, पत्ते सभी कुछ बाँटता रहता है और भगवान उसको दोबारा देते रहते हैं। भेड़ अपनी ऊन बाँटती रहती है। काटने के थोड़े दिन बाद ही शरीर पर ज्यों की त्यों दोबारा ऊन आ जाती है।

देना बहुत शानदार चीज है, हमारे गुरु ने यही बात सिखाई थी। तो आपको कुछ मिला क्या? यही तो मैं बताना चाहता हूँ कि मुझे मिला है और अगर आप हमारी बात पर विश्वास कर सकते हों तो अपने बारे में भी यह ख्याल कर सकते हैं कि आपको भी मिलेगा, आप भी खाली हाथ रहने वाले नहीं हैं। इस बात का हमने बराबर ध्यान दिया है। रात के वक्त भगवान का नाम लिया होगा और दिन के वक्त सूरज निकलने से लेकर के सूरज डूबने तक हमने सिर्फ भगवान की सेवाएँ की हैं। नाम जब कभी हमने लिया होगा, तब रात के वक्त लिया होगा और दिन समाज के रूप में फैले हुए भगवान के लिए खरच करते रहे। हमारी ७५ साल की उम्र होने को आई। इस उम्र में ढेरों के ढेरों आदमी मर जाते हैं और जो जिंदा भी रहते हैं वे किसी काम के नहीं रहते। ६० वर्ष के बाद प्रायः आदमी नकारा हो जाता है, पर हमारे काम करने की ताकत ज्यों की त्यों बनी हुई है। हमारा शरीर लोहे का है। लोहे का क्यों है? इसलिए है कि हमने अपने शरीर को भगवान के काम में लगा दिया है। हमारा शरीर बहुत ठीक है और अगर आप भी अपने शरीर को समाज के लिए खरच करना शुरू करें तो ठीक रहेंगे। गांधी, जवाहर, विनोबा तीनों ८० वर्ष के होकर मरे थे। यकीन रखिए अगर आप भी अपने शरीर को भगवान के खेत में बोना शुरू करें तो आपके लिए बहुत फायदेमन्द वाली बात होगी। यह शरीर की बात हुई।

नंबर दो- अपनी बुद्धि को हमने भगवान के खेत में बोया। बुद्धि हमारे दिमाग में रहती है। कहाँ तक पढ़े हैं आप? हमारे गाँव में प्राइमरी स्कूल है। उस जमाने में दर्जा चार तक प्राइमरी होते थे, अब तो पाँचवीं तक होते हैं। वहीं तक हम पढ़े इसके बाद फिर कभी मौका नहीं मिला। जेल में लोहे के तसले के ऊपर कंकड़ों से अँग्रेजी पढ़ना शुरू किया, संस्कृत पढ़ना शुरू किया, अमुक भाषा शुरू किया तमुक शुरू किया। हमारी बुद्धि बहुत पैनी है। आपने देखा नहीं, चारों वेदों के भाषा हमने किए। १८ पुराण, ६ दर्शन आदि सभी के भाष्य किए। व्यास जी ने एक महाभारत लिखा था और गणेश जी को मददगार बनाकर ले गए थे। हमारा तो कोई मददगार भी नहीं है। अकेले ये हमारे हाथ ही मददगार हैं। हमने इतना साहित्य लिखा है जो सामान्य नहीं असामान्य बात है। हम प्लानिंग करते हैं। कोई आदमी अपनी खेती का, घर का प्लानिंग करता है और हम सारी दुनिया को सारे विश्व को नए सिरे से बनाने की प्लानिंग करते हैं। भारत सरकार की पंचवर्षीय योजनाएँ बनती हैं जिसके लिए कितना बड़ा स्टाफ, कितने मिनिस्टर और कौन- कौन लोग काम करते हैं, लेकिन हम तो सारी दुनिया का नया नक्शा बनाने के लिए इसी अकल से काम कर लेते हैं। अपनी अकल की हम जितनी प्रशंसा करें उतनी ही कम है।

अक्ल के अलावा हमने अपनी भावनाओं को भी भगवान को दे दिया। जो भी कोई आदमी हमारे नजदीक आया होगा तो हमारे मन में उसके प्रति दो ही बातें रहीं हैं कि हम अपने सुख को बाँट दे और उसके दुखों को बँटा लें। यदि हम बँटा सकते होंगे तो हमने जी जान से कोशिश की है। अगर हमारे पास कोई सुख होगा, सामर्थ्य होगी तो हमने बाँटने के लिए बराबर कोशिश की है, क्योंकि हमारी भावनाएँ हमको मजबूर करती हैं। वे कहती हैं कि तुम्हारे पास है और जिनको जरूरत है उनको दोगे नहीं, तो हम कहते हैं कि जरूर देंगे। जो मुसीबत में हैं और कहते हैं कि हमारी मुसीबत में हिस्सा नहीं बटाएँगे क्या? तब हम कहते हैं कि आपकी मुसीबत में हम जरूर हिस्सा बँटाएँगे। हमारी भावनाएँ इसी तरह की हैं। भावनाएँ जिसे संवेदना कहते हैं, प्यार कहते हैं, हमने बोया है। फलतः सारी दुनिया हमको बेहद प्यार करती है। हमने प्यार दिया है, प्यार बोया है, इसलिए प्यार पाया है।

भगवान की चीजों को हमने अमानत के तरीके से रखा और उन्हीं के खेत में बोकर उनकी ही दुनिया के लिए खरच कर डाला। हमारे पास पिता जी का कमाया हुआ जो भी धन था हमने सब उसी के लिए खरच कर दिया। हमारे पास जो भी जमीन थी, जेवर थे, सब बेचकर के गायत्री तपोभूमि को बनाने में, भगवान का घर बनाने में खरच कर दिया। जो पैसा पिता जी ने छोड़ा हुआ था एक- एक पाई खरच कर डाला। हमने किसी का दिया हुआ धन खाया नहीं। तो आप नुकसान में रहे होंगे? आप नुकसान की बात करते हैं कभी आप हमारे गाँव जाइए, गायत्री तपोभूमि मथुरा, अखण्ड ज्योति कार्यालय देखिए। आप यहाँ आइए शांतिकुंज, गायत्री नगर देखिए- ब्रह्मवर्चस देखिए कितने शानदार हैं? २४०० गायत्री शक्ति पीठों को देखिए। इतनी तो बिल्डिंगें हैं और जो उनमें लोग रहते हैं, उन पर जो रुपया खरच होता है, वह कहाँ से आता है? जाने कहाँ से आ जाता है, कि धन हमारे लिए कम नहीं पड़ता। भगवान की तरफ हम इशारा कर देते हैं और वह हमारे लिए जिन भी वस्तुओं की आवश्यकता होती है, वह सब ज्यों की त्यों भेज देता है। यह क्या हो क्या? यह सिद्धियाँ हो गई। सिद्धियों में हम चार चीजें शुमार करते हैं- -- (१) धन, (२) लोगों का प्यार, (३) बुद्धि और (४) शारीरिक स्वास्थ्य हमारे पास सिद्धियाँ हैं। गायत्री का जप करने से किसी के पास सिद्धियाँ आईं हों या नहीं यह मालूम नहीं, लेकिन हमको जरूर मिली हैं। इन चारों चीजों की कोई भी परीक्षा ले सकता है।

एक और चीज है- ऋद्धि। ऋद्धियाँ वह होती हैं जो दिखाई नहीं पड़तीं। ऋद्धियाँ तीन हैं और सिद्धियाँ चार। पहली ऋद्धि है- आत्मसंतोष। हमारे भीतर इतना संतोष है जितना कि न किसी राजा को होगा, न बिड़ला जी को और न किसी मालदार को। उन्हें नींद नहीं आती है, पर हमको ऐसी नींद आती है कि ढोल बजते रहें, नगाड़े बजते रहें, और हम ऐसे सो जाते हैं बिलकुल निश्चिंत मानो दुनिया की कोई समस्या ही हमारे सामने नहीं है। आत्मसंतोष के अलावा दूसरी ऋद्धि है- लोक सम्मान और जनसहयोग। हमें लोगों का सम्मान ही नहीं उनका सहयोग भी मिला है। माला पहना देना ही सम्मान करना नहीं है, वरन जनता जिसका सहयोग कर रही हो तो मान लीजिए यह उस आदमी को सम्मान मिला है। माला तो खरीदी भी राजा सकती है, लेकिन सम्मान उसमें होता है जिसमें जनसहयोग मिलता है। गांधी जी का सहयोग किया था लोगों ने। विनोबा का सम्मान किया था तो सहयोग भी दिया था। ढेरों को ढेरों जमीनें उनको दान में दे दी थी। गांधी, जी के एक इशारे पर लोग जेल जाने के लिए और फाँसी के तखतों पर झूलने के लिए गोलियाँ खाने के लिए चले गए थे। यह उनका सम्मान था और सहयोग था। सम्मान कहते हैं सहयोग को। हमारा भगवान हमारे लिए बहुत सहयोग करता है। जनता हमको बहुत सहयोग करती है।

तीसरी ऋद्धि है- दैवी अनुग्रह किसे कहते हैं? आपने रामायण में कई प्रसंग पढ़े होंगे कि जब देवता प्रसन्न होते हैं, तब फूल बरसाते हैं और कुछ नहीं बरसाते। कई बार अमुक पर फूल बरसाए तमुक पर फूल बरसाए। यह क्या है? भगवान की बिना माँगे की सहायता है। बिना माँगे को अक्ल, बिना माँगे के इशारे, बिना माँगे का सहयोग फूलों के तरीके से बरसते रहे हैं हमारे ऊपर। अगर ऐसा न होता तो न जाने अब तक हमारा क्या हो गया होता? समय- समय पर जो रास्ते उसने बताए हैं, ऐसे शानदार रास्ते बताए हैं कि उन पर हम चलते गए और वह हमारे ऊपर फूल बरसाते रहे। हमको हमारे पिता की संपत्ति का अधिकार मिला है, कर्त्तव्य और अधिकार दोनों का जोड़ा मिला हुआ है। भगवान ने हमको अपना बच्चा माना है, बेटा माना है और अधिकार दिया है कि उसको नेक काम में खरच कर डालना। हमने उसे पिताजी के ही काम में सब खरच कर डाला अपने लिए कुछ नहीं रखा, इसलिए कि पिता जी का वंश, पिताजी का कुल कलंकित न होने पावे। पिताजी माने भगवान- परमेश्वर। परमेश्वर का भक्त कहलाने के कारण हमारे ऊपर कोई यह उँगली न उठाने पाए कि यह कैसा आदमी है? हमने उनके वंश को सुरक्षित रखा है।

भगवान ने हमको दिया तो है, पर हमने भी कुछ कुछ दिया है। पिता की मृत्यु हो जाती है और उनका कुटुंब रह जाता है। भाई- बहन, बच्चे- बच्ची, स्त्री सभी का पालन वह करता है जो परिवार में बड़ा होता है। अपने पिताजी के वरिष्ठ का ही नहीं, वरन उनका जो इतना बड़ा विराट कुटुंब फैला हुआ है इन सबका पालन करने में, उनकी निगरानी करने में, उनकी देख−भाल करने में जो कुछ भी हमारे लिए संभव हुआ, हमने ईमानदारी से किया है। हमने बराबर भगवान के कुटुंब का पालन किया है। अपना ही पेट नहीं, वरन भगवान के कुटुंब का भी पालन किया है। भगवान की दुकान, भगवान का व्यवसाय, उद्योग अच्छे तरीके से चलता रहे, कोई यह न कहने पावे कि बाप इनके लिए खेत छोड़कर मरा था, कारखाना- फैक्ट्री छोड़कर गया था और इन्होंने सब बिगाड़ डाला। व्यवसाय भगवान का- दुकान भगवान की आप तो समझते ही नहीं, यह सारा व्यवसाय तो उसी का है। दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है- सब उसी का उद्योग है। उसको ठीक तरह से- बढ़िया ढंग से चलाने में हमने ईमानदारी से पूरी−पूरी कोशिश की है। पिता की संपदा लेकर, उनका अधिकार लेकर के हम चुपचाप बैठ नहीं गए बल्कि अपने फर्ज और कर्तव्य का भी पालन किया है। पिता जी का व्यवसाय चलाने में, उनके परिवार का पालन करने में, उनके कुल और वंश की सुरक्षा रखने में हमने बराबर काम किया है। आप भी यह कीजिए और निहाल हो जाइए। रास्ता एक ही है। जो कानून हमारे ऊपर लागू होता है, वही कानून आपके ऊपर भी लागू होता है। सबके लिए एक कानून का कायदा है। भगवान न हमारे साथ रियायत करने वाले हैं और न आपके साथ में उनका कोई बैर- विरोध है। तरीके वही हैं जो हमारे जीवन में बताए गए। हमारे गुरु ने हमको तरीका बताया था और हमने स्वीकार कर लिया। हम अपने गुरु को बहुत- बहुत धन्यवाद देते हैं और आपको सिखाते- बताते- समझाते हैं कि आप भी उसी रास्ते पर चलिए जिस रास्ते पर हम चले हैं तो आप भी निहाल हो जाएँगे और धन्य हो जाएँगे और क्या कहें आपसे।

ॐ शांतिः:

हमने जीवन भर बोया एवं काटा

हिमालय यात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारंभिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितने ही साधनों, व्यक्तित्वों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करते थे- एक संघर्ष, दूसरा सृजन संघर्ष। उन अवांछनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी हैं। सृजन उसका जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख- शांति से भरा पूरा बना सके।

निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरंभ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया और न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहंता में से कोई भी भव बंधन बँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था, गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टाल- मटोल करने की न प्रवृत्ति थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना, सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मजात दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत बनी रही।

जिन साधनों की नवसृजन के लिए आवश्यकता थी, वे कहाँ से मिलें, कहाँ से आएँ? इस प्रश्न के उत्तर में मार्गदर्शक ने हमें हमेशा एक ही तरीका बताया था कि 'बोओ और काटो'। मक्का और बाजरा का एक बीज जब पौधा बनकर फलता है तो एक के बदले सौ नहीं वरन उससे भी अधिक मिलता है। द्रौपदी ने किसी संत को अपनी साड़ी फाड़कर दी थी, जिससे उन्होंने लंगोटी बनाकर अपना काम चलाया था। वही आड़े समय में इतनी लंबी बनी कि साड़ियों के गट्ठे को सिर पर रखकर भगवान को स्वयं भागकर आना पड़ा। "जो तुझे पाना है, उसे बोना आरंभ कर दे।" यही बीजमंत्र हमें बताया और अपनाया गया। प्रतिफल ठीक वैसा ही निकला जैसा कि संकेत किया गया।

शरीर, बुद्धि और भावनाएँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के साथ भगवान सबको देते हैं। धन स्व- उपार्जित होता है। कोई हाथों- हाथ कमाते हैं तो कोई पूर्व संचित संपदा को उत्तराधिकार में पाते हैं। हमने कमाया तो नहीं था, पर उत्तराधिकार में अवश्य समुचित मात्रा में पाया। इन सबको बो देने और समय पर काट लेने के लायक गुंजाइश थी, सो बिना समय गँवाए उस प्रयोजन में अपने को लगा दिया। रात में भगवान का भजन कर लेना और दिन भर विराट ब्रह्म के लिए, विश्वमानव के लिए समय और श्रम नियोजित रखना, यह शरीर साधना के रूप में निर्धारित किया गया। बुद्धि दिन भर जागने में ही नहीं, रात्रि के सपने में भी लोक मंगल की विधाएँ विनिर्मित करने में लगी रही। अपने निज के लिए सुविधा- संपदा कमाने का ताना- बाना बुनने की कभी इच्छा ही नहीं हुईं। अपनी भावनाएँ सदा विराट के लिए लगी रहीं। प्रेम, किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आदर्शों से किया। गिरों को उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने की ही भावनाएँ सतत उमड़ती रहीं।

इस विराट ब्रह्म को ही हमने अपना भगवान माना। अर्जुन के दिव्य चक्षु ने इसी विराट के दर्शन किए थे। यशोदा ने कृष्ण के मुँह में स्रष्टा का यही स्वरूप देखा था। राम ने पालने में पड़े- पड़े माता कौशल्या को अपना यही रूप दिखाया था और काकभुशुण्डि इसी स्वरूप की झाँकी करके धन्य हुए थे।

हमने भी अपने पास जो कुछ था, उसी विराट ब्रह्म को, विश्वमानव को सौंप दिया। बोने के लिए इससे उर्वर खेत दूसरा कोई हो नहीं सकता था। वह समयानुसार फला- फूला। हमारे कोठे भर दिए गए। सौंपे गए दो कामों के लिए जितने साधनों की जरूरत थी, वे सभी उसी में जुट गए।

शरीर जन्मजात दुर्बल था। शारीरिक बनावट की दृष्टि से उसे दुर्बल कह सकते हैं, जीवनीशक्ति तो प्रचंड थी ही। जवानी में बिना शाक, घी, दूध के २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ लेते रहने से वह और कृश हो गया था, पर जब बोने- काटने की विधा अपनाई तो पचहत्तर वर्ष की इस उम्र में वह इतना सुदृढ़ है कि कुछ ही दिन पूर्व उसने एक बिगड़ैल साँड़ को कंधे का सहारा देकर चित्त पटक दिया और उससे भागते ही बना।

सर्वविदित है ही कि अनीति एवं आतंक के पक्षधर एक किराये के हत्यारे ने एक वर्ष पूर्व पाँच बोर की रिवाल्वर से लगातार हम पर फायर किए और उसकी सभी गोलियाँ नलियों में उलझी रह गई। रिवाल्वर उससे भय के मारे वहीं गिर गई। अब की बार वह छुरेबाजी पर उतर आया। छुरे चलते भी। खून बहता रहा, पर भौंके गए सारे प्रहार शरीर में सीधे न घुसकर तिरछे फिसलकर निकल गए। डॉक्टरों ने जख्म सी दिए और कुछ ही सप्ताह में शरीर ज्यों का त्यों हो गया।

इसे परीक्षा का एक घटनाक्रम ही कहना चाहिए कि पाँच छोर का लोडेड रिवाल्वर शातिर हाथों से भी काम न कर सके। जानवर काटने के छुरे के बारह प्रहार मात्र प्रमाण के निशान छोड़कर अच्छे हो गए। आक्रमणकारी अपने बम से स्वयं घायल होकर जेल जा बैठा। जिसके आदेश से उसने यह किया था, उसे फाँसी की सजा घोषित हुई। असुरता के आक्रमण असफल हुए। एक उच्चस्तरीय दैवी प्रयास को निष्फल कर देना संभव न हो सका। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा सिद्ध हुआ।

इन दिनों एक से पाँच करने की सूक्ष्मीकरण विधा चल रही है। इसलिए क्षीणता तो आई है तो भी बाहर से काया ऐसी है, जिसे जितने दिन चाहें जीवित रखा जा सकें, पर हम जान- बूझकर इसे इस स्थिति में रखेंगे नहीं। कारण कि सूक्ष्म शरीर से अधिक काम लिया जा सकता है और स्थूल शरीर उसमें किसी कदर बाधा ही डालता है।

शरीर की जीवनीशक्ति असाधारण रही है। उसके द्वारा दस गुना काम लिया गया है। शंकराचार्य, विवेकानन्द थोड़े से जीवन में ३५० वर्ष के बराबर काम कर सके। हमने ७५ वर्षों में विभिन्न स्तर के इतने काम किए हैं कि उनका लेखा- जोखा लेने पर ये ७५० वर्ष से कम में होते संभव प्रतीत नहीं होते। यह सारा समय नवसृजन की एक से एक सफल भूमिका बनाने में लगा है। निष्क्रिय, निष्प्रयोजन कभी खाली नहीं रहा।

बुद्धि को भगवान के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्चकोटि का है। आर्ष ग्रंथों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है।

अध्यात्म को विज्ञान से मिलाने की योजना- कल्पना तो कइयों के मन में थी, पर उसे कोई कार्यान्वित न कर सका। इस असंभव को संभव होते देखना हो तो ब्रह्मवर्चस शोधसंस्थान में आकर अपनी आँखों से स्वयं देखना चाहिए। जो संभावनाएँ सामने हैं उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अगले दिनों अध्यात्म की रूपरेखा विशुद्ध विज्ञान परक बनकर रहेगी।

छोटे- छोटे देश अपनी पंचवर्षीय योजनाएँ बनाने के लिए आकाश- पाताल के कुलावे मिलाते हैं, पर समस्त विश्व की कायाकल्प योजना का चिंतन और क्रियान्वयन जिस प्रकार शांतिकुंज के तत्वावधान में चल रहा है, उसे एक शब्द में अद्भुत एवं अनुपम ही कहा जा सकता है।

भावनाएँ हमने पिछड़ों के लिए समर्पित की हैं। शिव ने भी यही किया था। उनके साथ चित्र- विचित्र समुदाय रहता था और सर्पों तक को वे गले लगाते थे। उसी राह पर हमें भी चलते रहना पड़ा है। हम पर छुरा रिवाल्वर चलाने वाले को पकड़ने वाले जब दौड़ रहे थे, पुलिस भी लगी हुई थी।

सभी को हमने वापस बुला लिया और घातक को जल्दी ही भाग जाने का अवसर दिया। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जब प्रतिपक्षी अपनी ओर से कुछ कमी न रहने देने पर भी मात्र हँसने और हँसाने के रूप में प्रतिदान पाते रहे हैं।

हमने जितना प्यार लोगों से किया है, उससे सौ गुनी संख्या और मात्रा में लोग हमारे ऊपर प्यार लुटाते रहे हैं। निर्देशों पर चलते रहे हैं और घाटा उठाने तथा कष्ट सहने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व प्रज्ञा संस्थान बनाने का स्वजनों को आदेश किया तो दो वर्ष के भीतर २४०० गायत्री शक्ति पीठों की भव्य इमारतें बनकर खड़ी हो गई और उसमें लाखों रुपयों की राशि रकम खप गई। बिना इमारत के १२ हजार प्रज्ञा संस्थान बने सो अलग। छुरा लगा तो सहानुभूति में इतनी बड़ी संख्या स्वजनों की उमड़ी, मानो मनुष्यों का आँधी- तूफान आया हो। इनमें से हर एक बदला लेने के लिए आतुरता व्यक्त कर रहा था। हमने (माताजी ने) सभी को दुलार कर दूसरी दिशा में मोड़ा। यह हमारे प्रति प्यार की, सघन आत्मीयता की ही अभिव्यक्ति तो है।

धन की हमें समय- समय पर भारी आवश्यकता पड़ती रही है। गायत्री तपोभूमि, शांतिकुंज और ब्रह्मवर्चस की इमारतें करोड़ों रुपये मूल्य की हैं। मनुष्य के आगे हाथ न पसारने का व्रत निभाते हुए अयाचक व्रत निभाते हुए ये सारी आवश्यकताएँ पूरी हुई हैं। पूरा समय काम करने वालों की संख्या एक हजार से ऊपर है। इनकी आजीविका की ब्राह्मणोचित व्यवस्था बराबर चलती रहती है। इनमें योग्यता की दृष्टि से इतने ऊँचे स्तर के लोग हैं कि अन्य किसी सामाजिक संस्था में कदाचित ही इस स्तर के और इतने लोग हों। इनमें अनेकों ऐसे हैं जो समाज की नहीं, अपनी ही जमा- पूँजी के ब्याज से अपना खरच चलाते व मिशन की सेवा करते हैं।

प्रेस, प्रकाशन, प्रचार में संलग्न गाड़ियाँ तथा अन्यान्य खरचे ऐसे हैं, जो समयानुसार बिना किसी कठिनाई के पूरे होते रहते हैं। यह वह फसल है जो अपने पास की एक एक पाई को भगवान के खेत में बो देने के उपरांत हमें मिली है। इस फसल पर हमें गर्व है। जमींदारी समाप्त होने पर जो धनराशि मिली, वह गायत्री तपोभूमि के निर्माण में दे दी। पूर्वजों की छोड़ी जमीन किसी कुटुंबी को न देकर जन्मभूमि में हाईस्कूल और अस्पताल बनाने में लगा दी। हम व्यक्तिगत रूप से खाली हाथ हैं, पर योजनाएँ ऐसी चलाते है जैसी लखपति करोड़पतियों के लिए भी संभव नहीं हैं। यह सब हमारे मार्गदर्शक के उस सूत्र के कारण संभव हो पाया है, जिसमें उन्होंने कहा था, "जमा मत करो, बिखेर दो। बोओ और काटो।" सत्प्रवृत्तियों का उद्यान जो प्रज्ञा परिवार के रूप में लहलहाता दृश्यमान होता है, उसकी पृष्ठभूमि, इसी सूत्र संकेत के आधार पर बनी है।
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