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Books - चेतना की प्रचण्ड क्षमता-एक दर्शन

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​​​गर्भस्थ शिशु का इच्छानुवर्ती निर्माण

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महाभारत में एक कथा आती है कि ‘‘एक बार कुपित होकर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु (परीक्षित) पर आग्नेयास्त्र प्रयोग किया। परीक्षित मां के उदर में ही असह्य पीड़ा से जलन लगने लगा। मां ने भी उसे जाना। उन्होंने सम्पूर्ण समर्पण भाव से परमात्मा का स्मरण किया तब उस बच्चे की रक्षा हो पाई।’’

गर्भस्थ शिशु को कोई अस्त्र अब तक नहीं छेद सकता जब तक मां का शरीर न छिदे। दरअसल आग्नेयास्त्र मन्त्र शक्ति थी, जो संकल्प-शक्ति के द्वारा चलाई गई थी। बाहरी व्यक्ति द्वारा दूर से संकल्प प्रहार से यदि गर्भस्थ बच्चा जल और मर सकता है, और फिर परमेश्वर के प्रति अटल विश्वास और रक्षा की भावना से उस बच्चे को बचाया जा सकता है तो उसके शरीर और मनोभूमि में भी इच्छानुवर्ती परिवर्तन लाया जा सकता है।

सती मदालसा के बारे में कहा जाता है कि ‘‘वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थीं फिर उसी प्रकार निरन्तर चिन्तन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन आहार-विहार और व्यवहार बर्ताव अपनाती थी। जिससे बच्चा उसी मनोभूमि में ढल जाता था, जिसमें वह चाहती थीं। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि उनके पहले सभी बच्चे ज्ञानी, सन्त और ब्रह्मनिष्ठ होते गये। पति की प्रार्थना पर उन्होंने अन्तिम गर्भस्थ बच्चे को राज नेता के अनुरूप ढाला। उसी ने पिता का राज्य-सिंहासन सम्भाला और कुशल राजनीतिज्ञ हुआ।

आयुर्वेद के विशेष ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में भी आया है—‘‘पूर्व पश्ये ऋतुस्नाना या दशं नर मंगला । तादृश्य जनयेत्पुत्र भर्त्तारं दर्शये तत ।’’ अर्थात्—ऋतु स्नान के पश्चात् स्त्री जिस प्रथम पुरुष को देखती है बच्चे का रूप-रंग और मुखाकृति उसी जैसी होती है, इसलिए वह सर्व-प्रथम अपने पति का दर्शन करे।

यह सभी तथ्य भावना विज्ञान से सम्बन्धित हैं इसलिये प्रत्यक्ष न दिखाई देने पर उनकी सत्यता में कोई सन्देह नहीं है। यह बात अब पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिक, डॉक्टर और दूसरे प्रबुद्ध व्यक्ति भी मानने लगे हैं। डा. फाउलर ने इस सम्बन्ध में काफी खोज की है, गर्भावस्था में भी गर्भिणी के हाव-भाव का बच्चे के शरीर और मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इस सम्बन्ध में उनके कई प्रमाण हैं। यह सभी तथ्य सुसंतति के निर्माण हेतु ध्यान में रखे जाना चाहिए। सुसन्तति के संबन्ध में सामान्यतया इतना ही समझा जाता है कि यदि माता-पिता स्वस्थ सुन्दर हों तो उनकी संतान वैसी ही उत्पन्न होगी। यदि खान-पान अच्छा मिले-सुविधा शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो तो बच्चे विकसित बनेंगे। यह तथ्य एक अंश तक ही सीमित है। वस्तुस्थिति कुछ और ही है।

रज वीर्य के बहुत ही छोटे—खुली आंखों से न दीख पड़ने जितने नन्हे कण अपने भीतर ऐसी रहस्यमय परम्परायें जोड़े रहते हैं जिनका सन्तान के शरीर और मन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। यह परम्परागत प्रभाव कितनी ही पीढ़ियों बाद भी उभर सकता है। माता की कितनी ही पीढ़ियों पहले की कोई शारीरिक एवं मानसिक स्थिति सन्तान में उभर सकती है उसी प्रकार पिता के पूर्वजों में रही कोई विशेषता भी सन्तान में प्रकट हो सकती हैं। यह ऐसी विलक्षण भी हो सकती हैं जिनका माता-पिता की तात्कालिक शारीरिक मानसिक स्थिति से कोई सीधा सम्बन्ध न हो।

माता-पिता की शारीरिक मानसिक स्थिति से भिन्न एवं विपरीत प्रकार के बादलों के जन्मने का कारण ढूंढ़ते हुए जीव विज्ञानी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि रज एवं शुक्र कीटों के भीतर रहने वाले जीवाणुओं की परंपरागत संचित सम्पदा अवसर पाकर फलित प्रकटित होती हैं और उसी से ऐसी विभिन्नतायें सामने आती रहती हैं। अतएव सन्तान को सुयोग्य सुविकसित देखना हो तो माता-पिता की शारीरिक मानसिक स्थिति को पर्याप्त न मानकर वंश परम्परा की विशेषता पर भी ध्यान देना होगा। शरीर के जिन विभिन्न उपभोगों द्वारा मनुष्य के विभिन्न अंग प्रत्यंग बनते हैं इस प्रक्रिया को अनुशासन में रखने के लिए शरीर में कुछ रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। जिन्हें ‘ऐंजाइम’ कहते हैं। इन ऐंजाइम में वे सम्भावनायें व्यक्त रहती हैं जिनके ऊपर शरीर और मन में समयानुसार अनेकों भली बुरी विशेषतायें उभरती रहती हैं। प्रजनन के लिए काम आने वाला कोष केन्द्र दो अर्ध घटकों में विभाजित होता है। नारी वर्ग के कोष ‘अण्ड’ और पुरुष वर्ग के कोष शुक्राणु कहलाते हैं। इन दोनों का मिलन ही मनुष्य के जीवन आरम्भ का श्रीगणेश है।

जीव कोष में 46 ‘क्रोमोसोम’ होते हैं। इन्हें तितर-बितर करके पृथक-पृथक पहचाना जा सकता है। इनमें 44 तो नर नारी में एक जैसे होते हैं इनका कार्य शरीर निर्माण भर होता है। शेष दो नर मादा अलग-अलग होते हैं इन्हें सैक्स क्रोमोसोम कहते हैं। इन्हें वैज्ञानिकों की भाषा में ‘एक्स’ और ‘वाई’ कहते हैं। नर में एक ‘एक्स’ और ‘वाई’ होती है पर मादा में दोनों ‘एक्स’ होते हैं। बालक बालिका का जन्म होना पूर्णतया नर की स्थिति पर निर्भर है। उसमें यदि ‘क्ष’ की प्रधानता होगी तो लड़की जन्मेगी। किन्तु यदि ‘य’ का अस्तित्व है तो लड़का उत्पन्न होगा। इसमें मादा का कोई हाथ नहीं, क्योंकि उसमें तो सदा ‘क्ष’ कोष ही रहता है। कन्याओं की अधिकता में आज जो नारी को दोष दिया जाता है वह सर्वथा गलत है। यह नर पक्ष ही है जिसमें यदि ‘क्ष’ कणों की प्रमुखता है तो कन्यायें ही कन्यायें होती रहेंगी। हां, माता-पिता में से किसी के अणु प्रबल होंगे तो आकृति-प्रकृति में उसकी प्रधानता लिए हुए बालक जन्मेगा।

वर्ण शंकर पद्धति को कुछ समय पूर्व अच्छा माना जाता था। भिन्न स्तर के रक्तों के सम्मिश्रण की वकालत इसलिए की जाती थी कि उसका दृश्य परिणाम अच्छा निकलता है। एक जाति का मिश्रण दूसरी से किया जाय तो शारीरिक परिणाम अच्छा निकलता है। घोड़ी और गधे के सम्मिश्रण से खच्चर उत्पन्न होता है वह घोड़े की तुलना में हलका भले ही पड़े पर गधे से तो निश्चित रूप से मजबूत होता है। इसके शंकरत्व से गधा वर्ग को लाभ मिलता है। उसकी उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। वृक्ष वनस्पतियों में भी यह प्रयोग किये गये हैं और फसलें उगाने में इसकी सफलता देखी गई है। इसलिए पिछले दिनों पूरे उत्साह के साथ वर्ण शंकर प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता रहा है।

सन् 1865 है आस्ट्रिया की एक वैज्ञानिक मंडली ने पादरी मेंडले के नेतृत्व में मटर की विभिन्न जातियों की वर्ण शंकर नसलें पैदा करके उनमें अनोखी विशेषतायें पैदा कीं। उन्होंने सिद्ध किया कि पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा में कुछ मूल तत्व सन्निहित रहते हैं और कारण वश उन्हीं के दबने उभरने से विविध विशेषता सम्पन्न नस्लें प्रकाश में आती हैं। गुण सूत्रों की ओर इस शोध में महत्वपूर्ण संकेत थे। इस शोध के अनुसार वे इतना अनुभव सम्पादन कर सके कि वे मिश्रित जाति के पौधों में बदले हुए रंग, आकार, प्रकार, स्वाद, फूल आदि में सम्भावित परिवर्तन की पूर्व घोषणा कर देता और वह अनुमान प्रायः सही ही निकलता। मेंडेल द्वारा स्थापित वे एक शताब्दी से भी अधिक पुराने सिद्धान्त अभी भी उस क्षेत्र में प्रामाणिक माने जाते हैं।

किन्तु यह उत्साह बहुत आगे तक न बढ़ सका। तात्कालिक थोड़ा दृश्यमान लाभ भर ही वर्ण शंकरत्व का होता है अन्ततः उसके दुष्परिणाम ही निकलते हैं। गधी और घोड़ी से उत्पन्न ‘खच्चर’ नपुंसक होते हैं, उनकी पीढ़ियां आगे नहीं चलतीं, गधी और घोड़े के संयोग से उत्पन्न बच्चे तो माता पिता दोनों की तुलना में गये गुजरे होते हैं। कलमी वृक्षों पर फल जल्दी, मीठे और बड़े तो जरूर आते हैं पर वे उतने गुणकारी नहीं होते। फिर उन वृक्षों का विकास एवं जीवन तो निश्चित रूप से अपेक्षाकृत स्वल्प होता है। इस प्रकार वह तात्कालिक लाभ अन्ततः घाटे का सौदा ही सिद्ध होता है। इस दृष्टि से जातिगत वर्ण शंकरत्व की महिमा जो पिछले दिनों बहुत गाई जाती थी, अब धूमिल पड़ गई है और जहां तक सुसन्तति का प्रश्न है पूर्वजों की वंश परम्परा को ध्यान में रखने पर बहुत जोर दिया जाने लगा है।

आनुवंशिकी अन्वेषण में शोध कार्य की शृंखला में एक के बाद एक उपयोगी कड़ी जुड़ती ही चली गई है। हालेण्ड के वैज्ञानिक ह्यूगोदक्री ने इस दिशा में बहुत कार्य किया। इस दिशा में मेडल फिशर हाल्डेन, राइट, सटन, मार्गन, हर्मन मूलर, फ्रेडरिक मीशर, लीनस पालिग, फ्रांसिस क्रिक, वाटसन क्रिक, मार्शल निरेन वर्ग, राबर्ट—हाले, प्रभृति वैज्ञानिकों ने विश्व के विभिन्न देशों में शोध संस्थानों के अन्तर्गत बहुत काम किया। अनेक विश्व विद्यालयों ने इस अन्वेषण को महत्व दिया, प्रयोगशालायें बनाईं तथा गुण सूत्रों के स्वरूपों को समझने तथा उनमें हेर-फेर करने की दिशा में आशाजनक प्रगति की। सुविकसित जातियां अपनी रक्त शुद्धि पर इसी दृष्टि से जोर देती रही हैं और उनमें अपने ही कुल वर्ग के अन्तर्गत विवाह करने पर जोर दिया जाता रहा है। मिश्र के शासक कभी इस सम्बन्ध में बहुत कठोर थे। योरोप के राज्य परिवारों में इस बात पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा है।

हीमोफीलिया, एल्केप्टी नूरिया, एल्केप्टोनमीह, सरीखे रोग अक्सर सगोत्र विवाहों के कारण होते हैं। जाति और उपजाति के कठोर बन्धनों में बंधी जातियां क्रमशः दुर्बल होती चली जाती हैं। ऐसी दशा में उभयपक्षीय संकट उत्पन्न होता है। न वर्ण शंकरत्व का समर्थन करते बनता है और न खण्डन। फिर सुसन्तति की समस्या पीढ़ियों का सुधार सम्वर्धन कैसे किया जाय?

इस सन्दर्भ में शोध निष्कर्ष यह निकले हैं कि रज वीर्य के सूक्ष्म तत्व—गुण सूत्रों का परिष्कृतीकरण किया जाय, उन्हें नये स्तर पर सुधारा संभाला जाय, उनमें समाविष्ट विकृतियों का नये आधार पर संशोधन किया जाय और इस परिशोधन के उपरान्त सुविकसित पीढ़ियां आरम्भ करने का श्रीगणेश किया जाय।

अस्तु यह मार्ग अधिक उपयुक्त है कि गुण सूत्रों को परिष्कृत करके सुसन्तति की प्रक्रिया आगे चलाई जाय। दशरथ जी को पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा सुसन्तति प्राप्त होने का उदाहरण इसी स्तर का है। भारत में उसके लिए पति-पत्नी के लिए तप साधना को आधार बताया जाता रहा है। कृष्ण और रुक्मिणी द्वारा बद्रीनाथ धाम में बारह वर्ष तक तप करने की तपश्चर्या इसी उद्देश्य से की गई थी और उन्हें मनोवांछित सन्तान प्रद्युम्न के रूप में प्राप्त हुई।

वंश परम्परा की महत्ता को अधिक प्रकाश में लाने वाले आनुवंशिकी विज्ञान के क्रमिक अन्वेषणों में एक के बाद एक रहस्य-उद्घाटन किये हैं। जिसके आधार पर यह सम्भावना स्पष्ट हो सकी है कि अभीष्ट विशेषताओं से सम्पन्न मनुष्य का निर्माण सम्भव है। पैतृक दोष प्रवाह को हटाया भी जा सकता है और ये नर-नारी युग्मों की केवल विशेषताओं में ही विकसित हो सकती है। और विकृतियां क्रमशः समाप्त की जा सकती हैं यह उपलब्धियां भावी मनुष्य विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। आशा की जानी चाहिए कि यदि यह प्रयास आगे बढ़ते रहे तो समुन्नत वर्ग का मनुष्य निर्माण कर सकना स्वप्न न रह कर एक तथ्य बन जायगा।

जेनेटिक्स (आनुवंशिकी) के विशेषज्ञ पियरेलुई और लैमार्क इस बात से सहमत हैं कि इस विज्ञान की सहायता से मानवी पीढ़ियां क्रमशः अधिक सुविकसित बनाई जा सकेंगी और वह दिन आयगा जब इस धरती पर ‘सुपरमैन’ (देव मानव) ही प्रधान रूप से पाये जायेंगे। पर दो नोबेल पुरस्कार विजेता जैक मोनो और प्रो. निकोलाय दुविनिन इस सम्बन्ध में बहुत संदिग्ध हैं। वे कहते हैं वंश परम्परागत अवरोध इतने अधिक और इतने जटिल हैं कि उन सबका सुधार परिष्कार कर सुपरमैन पीढ़ी का निर्माण तो अभी आकाश कुसुम ही कहा जा सकता है।

कृत्रिम जीन’ का निर्माण एक बड़ी दार्शनिक गुत्थी उत्पन्न करता है या सुलझाता है अब तक जड़ चेतन का भेद इस आधार पर किया जाता रहा है कि जड़ वे हैं जिनमें चेतना नहीं। अब हर जड़ को चेतन मानना पड़ेगा या हर चेतन को जड़। शरीर और आत्मा के सन्दर्भ में आत्मवादी दर्शन यह परिभाषा करता रहा है कि शरीर जड़ है और आत्मा चेतन, पर अब कृत्रिम जीन का निर्माण यह सिद्ध करता है कि जड़ को विकसित करके चेतन की स्थिति में पहुंचाया जा सकता है। मूलतः हर जड़ में चेतना विद्यमान है। इस प्रतिपादन से वेदान्त की अद्वैत मान्यता की पुष्टि भी होती है जिसके अनुसार इस जगत् को ब्रह्ममय बताया गया है और किसी जड़ के अस्तित्व से ही इनकार किया गया है।

अध्यात्म विद्या इस प्रकार के सफल निष्कर्ष बहुत पहले ही निकाल चुकी है कि तप साधना से पति-पत्नी के शरीरों में विद्यमान गुणसूत्र परिष्कृत किये जा सकते हैं। पीढ़ियों से चली आ रही विकृतियों का निराकरण किया जा सकता है और साधना पूंजी से सुसम्पन्न व्यक्ति यदि ब्रह्मचर्य पालन की तरह ही सुसंतति उत्पादन का प्रयोजन सामने रखे तो निस्सन्देह ऋषि परम्परा की पीढ़ियों का सृजन हो सकता है और आनुवांशिकी विज्ञान जिस महामानव के आदि पूर्वज को विनिर्मित करने में संलग्न है वह प्रयोजन पूरा किया जा सकता है।

भावनाओं का भावी सन्तति पर प्रभाव

अध्यात्म विद्या मूलतः भावनाओं के परिष्कार पूर्वक आत्मा को परमात्मा से, जीव को ब्रह्म से जोड़ने का कार्य करती है। भावनाओं का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर अनिवार्य रूप से पड़ता है, यह तो अब विज्ञान भी मानने लगा है। आरम्भ में जिन डा. फाउलर का उल्लेख किया गया है उन्होंने इस दिशा में काफी वैज्ञानिक अनुसंधान किया है। एक प्रत्यक्षदर्शी घटना का वर्णन करते हुए फाउलर लिखते हैं—‘‘एक स्त्री अपने बच्चे को नींद लाने वाली गोली देकर किसी आवश्यक कार्य से बाहर चली गई। लौटने पर वह बच्चा मरा पाया। स्त्री को इससे बहुत दुःख हुआ और वह शोक-मग्न रहने लगी। उसी अवस्था में उसने दूसरी बार गर्भ धारण किया। पहले बच्चे के प्रति उसका शोक ज्यों का त्यों बना रहा, इसलिये दूसरा लड़का रोगी हुआ। दूसरे वर्ष ही उसकी मस्तिष्क रोग से मृत्यु हो गई। अब वह और दुःखी रहने लगी। इस अवस्था में तीसरा पुत्र हुआ, वह हठी, सुस्त और कमजोर हुआ। दांत निकलते समय उसकी भी मृत्यु हो गई। चौथा पुत्र भी ऐसे ही गया। किन्तु पांचवीं बार उसकी परिस्थितियों में सुखद परिवर्तन आये, जिससे उस स्त्री की मानसिक प्रसन्नता बढ़ी। वह पहले की तरह हंसने-खेलने लगी। इस बार जो बच्चा हुआ वह पूर्ण स्वस्थ, निरोग और कुशाग्र बुद्धि का हुआ।’’ डा. फाउलर का मत है कि क्रोध, आश्चर्य, घृणा, अहंकार गम्भीरता आदि के अवसर पर माता की नासिका, मुख और आकृति में जैसे परिवर्तन उठाव, गिराव होते हैं, वैसे ही बच्चे की नाक, मुंह, माथे आदि अवयवों की शक्ल भी बनती है। गर्भाधान के बाद स्त्री प्रसन्न नहीं रहती शोक या चिन्ता-ग्रस्त रहती है, तो बालक के मस्तिष्क में पानी की मात्रा बढ़ जाती है। यदि 4 वर्ष के बच्चे के सिर का व्यास बीस इंच से अधिक हो तो मानना चाहिये कि वह जल-संचय का शिकार हुआ है, उसकी मां गर्भावस्था में दुःखी रही है।

भय, विक्षेप, अशुभ चिन्तन, उत्तेजना से जिस तरह अंगों में भद्दापन, बेडोल और खराब मुखाकृति बनती है, उसी तरह शुभ-संकल्प और प्रसन्नतापूर्ण विचारों से बच्चा स्वस्थ, सुन्दर और चरित्रवान् बनता है। इसीलिये कहा जाता है—‘‘गर्भावस्था में मां को सत्य भाषण, उत्साह, प्रेम, दया, सुशीलता, सौजन्यता, धर्माचरण और ईश-भक्ति का अनुगमन करना चाहिये। यह बच्चे होनहार और प्रतापी होते हैं, जबकि क्रोध ईर्ष्या, भय, उद्विग्नता आदि अधम वृत्तियों के बच्चे भी अधम, उत्पाती और स्वेच्छाचारी होते हैं। गलत खान-पान भी उसमें सम्मिलित है।

इसके अतिरिक्त जो महत्वपूर्ण बातें गर्भस्थ शिशु को प्रभावित करती हैं, उनमें से वातावरण मुख्य है। ध्रुव ऋषि-आश्रम में जन्मे थे। उनकी मां सुनीति बड़ी नेक स्वभाव और ईश्वर भक्त थीं। ध्रुव के महान् तेजस्वी होने में वातावरण भी मुख्य सहायक था, जबकि उत्तानपाद के दूसरे बेटे में वैसी तेजस्विता न उभर सकी।

एक पाश्चात्य डा. ने वातावरण के प्रभाव का अध्ययन इस प्रकार किया—‘‘एक बार एक कमरे का फर्श और दीवार सबको नील-पोत कर नीला कर दिया। उस कमरे में श्वेत रंग के खरगोश का एक जोड़ा रखा गया। कुछ समय बाद खरगोश के दो बच्चे हुए, दोनों के बालों में नीले रंग की झलक थी। इससे पता चलता है कि बच्चे के मस्तिष्क में ही नहीं, वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव स्थूल अंगों पर भी पड़ता है। गर्भवती का निवास ऐसे स्थान पर होना चाहिये, जहां चारुता हो, मोहकता और आकर्षण हो। हरे बगीचों, केले, फलों आदि से घिरे स्थान, देवस्थान और विशेष रूप से सजे-सजाये, साफ-सुथरा स्थान गर्भस्थ बच्चों पर सुन्दर प्रभाव डालते हैं।’’

स्पेन के किसी अंग्रेज परिवार में एक बार एक स्त्री गर्भवती हुई। गर्भवती जिस कमरे में रहती थी, उसमें अन्य चित्रों के साथ एक इथोपियन जाति के बहादुर का चित्र लगा हुआ था। वह चित्र उस स्त्री की अति प्रिय था। कमरे में वह उस चित्र को बहुत भावनापूर्वक देखा करती थी। दूसरे काम करते समय भी उसे उस चित्र का स्मरण बना रहता था। अन्त में जब उसे बालक जन्मा तो उसके माता-पिता अंग्रेज होते हुये भी लड़के की आकृति और वर्ण इथोपियनों जैसा ही था। उस चित्र की मुखाकृति से बिल्कुल मिलता-जुलता, उसी के अनुरूप था। घरों में भगवान् के, महापुरुषों के चित्र लगाये भी इसीलिये जाते हैं कि उनकी आकृतियों से निकलने वाले सूक्ष्म भावना-प्रवाह का लाभ मिलता रहे।

वातावरण के साथ-साथ गर्भिणी के साथ व्यवहार, बर्ताव और बातचीत भी बहुत सौम्य, शिष्ट और उदार होनी चाहिये। क्रोध, मारपीट, धमकाना, डांटना, दबाकर रखना आदि कुटिलताओं का बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार इस प्रकार के आचरण बहुत ही दुःखदायी और स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने समुद्री-यात्रा के दौरान किसी बात से अप्रसन्न होकर, अपनी गर्भवती पत्नी को जोर का धक्का मारा। गिरते-गिरते जहाज की जंजीर हाथ में पड़ गई। उससे वह गिरने से सम्भल गई किन्तु वह व्यक्ति बड़ा क्रूर निकला। उसने छुरे का वार किया, जिससे उस स्त्री की जंजीर पकड़े हुये हाथ की तीन उंगलियां कट गईं, वह स्त्री समुद्र में चली गई। जहाज के चले जाने पर कुछ मल्लाहों ने उसकी रक्षा की। बाद में उस स्त्री को जो सन्तान हुई यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये कि उसकी तीन उंगलियां ही नहीं थीं और वह बालक मानसिक दृष्टि से अपूर्ण, क्रोधी तथा शंकाशील स्वभाव का था।

धमाका पैदा करने वाला ऐसा कोई व्यवहार गर्भवती से नहीं करना चाहिये, जिससे मस्तिष्क में तीव्र आघात लगे। इससे बच्चे के शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। बच्चों के मानसिक निर्माण में माता-पिता की घनिष्ठता, प्रगाढ़ प्रेम, परस्पर विश्वास का सबसे सुन्दर प्रभाव पड़ता है। सच बात तो यह है कि माता-पिता का संकल्प बच्चे को उसी प्रकार पकाता है, जिस प्रकार मादा कछुआ पानी में रहकर रेत में रखे अपने अण्डों को पकाती है। दिव्य गुणों का बच्चे में आविर्भाव ही प्रेमपूर्ण भावनाओं से होता है, इसलिये गर्भावस्था में स्त्री-पुरुष को अधिकांश समय साथ-साथ बिताना चाहिये। पवित्र आचरण और प्रगाढ़ मैत्री रखनी चाहिये, ऐसे बच्चे शरीर से ही नहीं मिज़ाज से भी पूर्ण स्वस्थ होते हैं।

इस उदाहरण से यह बात और भी स्पष्ट होगी। एक अंग्रेज ने किसी ब्राजील की लड़की से विवाह किया। लड़की का रंग सांवला था, पर उसमें मोहकता अधिक थी। पति-पत्नी में घनिष्ठ प्रेम था। पर उन्हें कोई संतान नहीं हुई।

कुछ समय पश्चात् वह स्त्री मर गई। पति को बड़ा दुःख हुआ। कुछ दिन बाद उसने दूसरा विवाह अंग्रेज स्त्री से किया। वह गौरवर्ण की थी, पर इस अंग्रेज को अपनी पूर्व पत्नी की याद बनी रहती थी इसलिये वह अपनी नई पत्नी को भी इसी भाव से देखा करता था। इस स्त्री से एक कन्या उत्पन्न हुई, जो ब्राजीलियन लड़की की तरह सांवली ही नहीं मुखाकृति से भी मिलती-जुलती थी। यह गर्भावस्था में पिता के मस्तिष्क में जमा हुआ पत्नी-प्रेम का संस्कार ही था, जिसके कारण बालिका ने उसका रंग और आकार ग्रहण किया।

इन समस्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि गर्भस्थ शिशुओं का इच्छानुवर्ती निर्माण सम्भव है। अपने रहन-सहन, स्वभाव और संकल्पों को स्वस्थ और सुन्दर बनाकर भावी बच्चों में भी स्वास्थ्य सौन्दर्य सद्गुण, तेजस्विता और मनस्विता का विकास किया जा सकता है। यह बात माता-पिता दोनों को मालूम होनी चाहिये।

विज्ञान द्वारा इस तथ्य का पता तो लगा ही लिया गया है। कि शरीर अरबों कोषाणुओं से बना है, पर उसका आरम्भ एक कोष से होता है, इन टुकड़ों में एक माता का भाग होता है—एक पिता का। यह आरम्भिक जीवन कोष—जैव रसायनों का एक सम्मिश्रण मात्र है। इसके चारों ओर एक खोल चढ़ा रहता है इस खोल के भीतर जीव द्रव (प्रोटोप्लाज्म) के दो भाग हैं। बीच का गहरा भाग कोष केन्द्र (न्यूक्लियस) कहलाता है। उसके चारों ओर एक हल्का शुक्र कीटाणु (साइटोप्लाज्म) है।

गुण सूत्रों की विकृतियां और रुग्णताएं ही अक्सर कष्ट साध्य और असाध्य रोगों के रूप में उभरती हैं। मामूली बुखार खांसी आहार-बिहार की गड़बड़ी से हो सकते हैं और उन्हें मामूली दवा दारू से अच्छा किया जा सकता है। पर जब बीमारी गहराई में घुसी बैठी होती है—उसकी जड़ कोशिकाओं के अन्तरंग में प्रविष्ट हो जाती है तो साधारण रासायनिक पदार्थों की पहुंच वहां तक नहीं हो पाती और शुद्ध उत्पादन की तरह रुग्ण उत्पादन भी भीतर ही भीतर चलता रहता है। बहुत बार तो यह कोशिकागत गुण सूत्रों में बैठी हुई रुग्णता विकृत आकृति एवं प्रकृति बनाने लगती है।

स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर दीर्घ जीवन तक के सूत्र इन्हीं कोशिकाओं के उस कक्ष में भरे पड़े हैं जिन्हें ‘जीन’ कहते हैं। इनकी आश्चर्यजनक क्षमता का एक छोटा-सा प्रमाण तब प्रत्यक्ष देखा जाता है जब वे विकास का लक्ष्य सामने रखकर अपने विस्तार में प्रवृत्त होते हैं।

आश्चर्य तो देखिये भ्रूण कलल आरम्भ करते समय पहली युग्म कोशिका का भार एक ओंस के दस लाखवें भाग की बराबर होता है, पर 285 दिनों में वह भार लगभग सात पौंड हो जाता है। यों युवा शरीर में 70 खरब कोशिकाएं पाई जाती हैं नवजात शिशु में भी खरबों की संख्या क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी होती हैं। एक से अनेक और लघु से विराट् बनने का यह कैसा अद्भुत उपक्रम है।

कोशिकाओं के प्रमुख तीन भाग होते हैं (1) केन्द्रक (2) जीव—द्रव (3) कोशिका भित्ति। कोशिका के भीतर के पदार्थ का बाहर आना या बाहर वाले का भीतर जाना इस भित्ति में होकर ही होता है। यह भित्ति अनुपयुक्त पदार्थों को भीतर जाने में अवरोध का काम करती हैं। जीव द्रव जिसे वैज्ञानिकों की भाषा में साइटोप्लाज्म कहते हैं, कोशिका के बढ़ने, बेकार पदार्थ को बाहर निकालने एवं सांस लेने का काम करती है कोशिका द्रव के मध्य में एक घना, गाढ़ा पदार्थ होता है जिसे कोशिका नाभिक अथवा केन्द्रक कहते हैं। यह पूरी कोशिका का नियन्त्रण एवं निर्देशन भी करता है। जीवन के समस्त रहस्य इस नाभिक में ही छिपे हैं। इसी के निर्देश पर विभिन्न कोशिकाएं अपने-अपने अंगों के विभिन्न क्रिया कलापों में संलग्न रहती हैं। आमतौर से सभी जीवधारियों में यही क्रम चलता है। अमीबा और बैक्टीरिया जैसे निम्न श्रेणी के जीव ही इसके अपवाद हैं। उनमें विखण्डन से ही नये जीव का निर्माण आरम्भ हो जाता है। नाभिक के दो भाग हुए कि दो जीवों का अस्तित्व तैयार। उनका जन्म, जनन, परिवर्तन और मृत्यु का सिलसिला ऐसे ही चल पड़ता है। साधारणतया दो जनन कोशिकाओं का परस्पर मिलन भी किसी जीव जाति की पीढ़ियां बनाने और बढ़ाने का आधार रहता है। इन कोषों के—जीन्स को—विकसित एवं परिष्कृत किया जा सकता है। यह प्रयोजन मानव शारीरिक उधेड़ बुन से नहीं वरन् मानसिक ऊर्जा का सम्वेग तीव्र करने से सम्पन्न हो सकता है। पशुओं और पेड़-पौधों में इस स्तर की उलट पुलट भौतिक प्रयोगों से भी एक हद तक सम्भव हो गई है पर मनुष्य की कायिक स्थिति में भी हेर-फेर किया गया है पर प्रकृति की जिसमें स्वस्थता की मूलभूत क्षमता भी सम्मिलित है—प्रबल मनःशक्ति की ही अपेक्षा करती है। यदि मनोबल तीव्र हो तो संकल्प शक्ति एवं चित्त की एकाग्रता के आधार पर सम्पन्न किये जाने वाले ध्यानयोग जैसे उपायों से कोशिकाओं की अन्तरंग स्थिति में हेर-फेर किया जा सकता है।

एक औसत कोशिका का आकार व्यास एक सेन्टी मीटर का दो हजारवां भाग होता है। देखते-देखते इनमें से लाखों करोड़ों मरती और जन्मती रहती हैं। माता और पिता से सिर्फ दो नन्हीं कोशिकाएं सारे पैतृक गुणों का सार लेकर आपस में मिलती हैं और उसी मिलन के आधार पर एक नये प्राणी का सृजन होता है। ये दो उन्हीं कोशिकाएं जैव इंजीनियरिंग के सिद्धान्त पर एक शानदार शरीर बनाने में जुट जाती हैं और सफलता पूर्वक अपना कार्य भ्रूणावस्था में आरम्भ करके प्रजनन स्थिति आने तक बहुत कुछ पूरा कर लेती हैं।

सभी मनुष्यों और मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों में जीवन के उद्भव की यही पद्धति है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध प्रकृति शास्त्री चार्ल्स डार्विन ने प्राणियों और वनस्पतियों के मूल अस्तित्व के संबंध में विशेष अध्ययन कर 19 वीं शताब्दी के तृतीय और चतुर्थ दशक में यह निष्कर्ष निकाला कि विभिन्न जीवों की विभिन्न जातियों तथा उपजातियों में उद्भूत समानतायें हैं।

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध प्रकृति शास्त्री डार्विन ने प्राणियों और वनस्पतियों और वनस्पतियों के मूल अस्तित्व के सम्बन्ध में दो ग्रन्थों में यह प्रतिपादन किया कि—समस्त जीवधारी एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। परिस्थितियों का सामना करने के लिए जीवों ने अपने आप में आवश्यक परिवर्तन किये हैं। डार्विन का कथन यही है कि परिस्थितियों का दबाव और प्राणी की जीवित रहने की इच्छा इन दोनों तत्वों का समन्वय ही जीवों की अगणित आकृतियों प्रकृतियों के उद्भव का मूल कारण है। जब समस्त जीवधारी एक ही आत्म सत्ता की शाखा प्रशाखा हैं और उसके बीच एकता की सघन सम्भावनायें विद्यमान हैं तो फिर उनका पुनः विभाजन संयोजन करके क्यों नहीं एक ऐसी नई जाति का सृजन किया जा सकता है जो आज की परिस्थितियों के अनुकूल उपयुक्त हो। वैज्ञानिक इस सम्भावना को स्वीकार करते हैं और इसके अभिनव उत्पादन की सूत्र शृंखलायें ढूंढ़ने में तत्परता पूर्वक संलग्न हैं। उनके मत से भावी पीढ़ियां शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ऐसी उपयुक्तताओं से भरी पूरी बनाई जा सकेंगी जो संसार में शान्ति और प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकें।

इस दृष्टि से भी अध्यात्म विद्या के आधार पर सुविकसित नयी पीढ़ी के निर्माण की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
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